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________________ गा० ६२ ] मूलपयडिपदेसउदीरणाए सामित्तं १८३ जह० अजह० पद० किं सादि०४१ सादि - अद्भुवा । एवं चदुगदीसु । एवं जाव० । ६९. सामित्तं दुविहं - – जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसोओषेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० पदेसुदी० कस्स अण्णद० सुहुमसांपराइयखवगस्स समयाहिया व लिय चरिमसमय उदीरेमाणगस्स । एवं मणुसतिए । 2 १०. आदेसेण णेरइय० मोह ० उक्क० पदेसुदी० कस्स ? अण्णद० असंजदसम्माइट्ठिस्स सव्वविशुद्धस्स । एवं सव्वणेरइय० - सव्वदेवा ति । तिरिक्खेसु मोह० उक्क० पदे ० कस्स ? अण्णद० संजदासंजदस्स सव्वावसुद्धस्स । एवं पंचिदियतिरिक्ख और अध्रुव है । इसी प्रकार चारों गतियों में जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक कथन करना चाहिए । विशेषार्थ – मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके अपने काल में एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर होती है, इसलिए इसे सादि कहा है । तथा ऐसी उदीरणा भव्योंके ही होती है, इसलिए इस अपेक्षासे इसे अध्रुव कहा है। शेष दो भंग ( अनादि ध्रुव ) इसके सम्भव नहीं है । तथा जो भव्य जीव इसके पूर्व मोहनीयकी अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा निरन्तर करता आ रहा है उसकी अपेक्षा तो अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके अनादि और अध्रुव ये दो भंग बनते हैं और जो जीव उपशमश्रेणि पर आरोहण कर और इस प्रकार मोहनीय कर्मका अनुदीरक होकर पुनः उपशमश्रेणिसे उतरकर उसकी उदीरणा करने लगता है उसके इस अपेक्षासे मोहनीयकी अनुत्कृष्ट प्रदेश- उदीरणाका सादि भंग बन जाता है, इसलिए इसे सादि कहा है । तथा अभव्योंकी अपेक्षा इसे ध्रुव कहा है। इस प्रकार मोहनीकी अनुत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा चारों प्रकारकी बन जाती है। मोहनीयकी जघन्य प्रदेश - उदीरणा सर्व संक्लेश परिणामवाले या तत्प्रायोग्य संक्लेशपरिणामवाले अन्यतर मिथ्यादृष्टि के होती है । यतः यह कादाचित्क है, इसलिए मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरणा सादि और अध्रुव कही है, क्योंकि जब कि जघन्य प्रदेश उदीरणा कादाचित्क है तो अजघन्य प्रदेश उदीरण कादाचित्क होनेमें कोई बाधा नहीं आती । यह तो ओघ प्ररूपणाका तात्पर्य है । आदेशसे चारों गतियों में विचार करनेपर चारों ही गतियाँ कादाचित्क हैं, इसलिए इनमें उत्कृष्ट आदि चारों प्रकारकी प्रदेश उदीरणा स्वभावतः सादि और अध्रुव ही प्राप्त होती हैं । इसी प्रकार अन्य मार्गणाओं में भी विचार कर लेना चाहिए । $ ९. स्वामित्व दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा किसके होती है ? एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर अन्तिम समयकी उदीरणा करनेवाले सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके होती है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । $ १०. आदेश से नारकियों में मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा किसके होती है ? सर्व विशुद्ध अन्यतर असंयत सम्यग्दृष्टिके होती है । इसी प्रकार सब नारकी और सब देवोंमें जानना चाहिए । तिर्यञ्चों में मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा किसके होती है ? सर्वविशुद्ध अन्यतर संयतासंयतके होती है। इसी प्रकार पचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में जानना चाहिए । पचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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