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________________ [6] विषय परिचय वेदक महाधिकारके मुख्य अनुयोग द्वार चार हैं- प्रकृतिउदीरणा, स्थितिउदीरणा, अनुभागउदीरणा और प्रदेशउदीरणा । इनमेंसे प्रकृति उदीरणा और स्थितिउदीरणाका स्पष्टीकरण पहले ( भागं १० में ) कर आये हैं। शेष दोका स्पष्टीकरण यहाँ अवसर प्राप्त है। उनमेंसे सर्वप्रथम अनुभागउदीरणाका स्पष्टीकरण करते हैं १. मोहनीय अनुभाग उदीरणा वेदक महाधिकारकी दूसरी गाथाका दूसरा पाद है— को व के य अणुभागे।' इसमें इतना ही कहा गया है कि 'कोन जीव किस अनुभागमें मिथ्यात्व आदि कमका प्रवेशक है'।' इसका विशेष व्याख्यान करते हुए आचार्य यतिवृषभने अपने चूर्णिसूत्रों में 'उदीरणा' की व्याख्या करते हुए बतलाया है कि 'जो अनुभाग प्रयोगसे अपकर्षितकर उदयमें दिया जाता है वह उदीरणा है । जो अनुभाग वर्तमानमें पक्व नहीं है, प्रयोग विशेषसे उसे पचाना उदीरणा है यह इसका तात्पर्य है । 'प्रयोग' का अर्थ प्रकृतमें परिणामविशेष है । जीवका जो परिणामविशेष प्रकृत उदीरणाका अविनाभावी होता है वह उस उदीरणाका बाह्य निमित्त कहलाता है । इस विषयको स्पष्टरूपसे समझनेके लिए जयघवला भाग १० पृ० १२३ - १२४ के इस वचन पर दृष्टिपात करना चाहिए कसायोवसामणादो परिवदिदो उवसंतदंसणमोहणीयो दंसणमोहउसंतद्धाए दुचरिमादिहेट्ठिमसमएसु जई आसाणं गच्छइ तदो तस्स सासणभावं पडिवण्णस्स पढमसमए अणंताणुबंधीणमण्णदरस्स पवेसेण बावीसपवेसट्ठाणं होइ । कुदो तत्थाणंताणुबंघीणमण्णदरपवेसणियमो ? ण, सासणगुणस्स तदुदयाविणाभावित्तादो । कथं पुव्वमसंतस्साणंताणुबंधिकसायस्स तत्थुदयसंभवो ? ण, परिणामपाहम्मेण सेसकसायदव्वस्स तक्कालमेव तदायारेण परिणमिय उदयदंसणादो । कषायोपशामनासे गिरता हुआ उपशान्त दर्शनमोहनीय जीव दर्शनमोहके उपशामनाके कालके अन्तर्गत द्विचरम आदि अधस्तन समयोंमें यदि सासादन गुणस्थानको प्राप्त होता है तो सासादनभावको प्राप्त होनेवाले उस जीवके प्रथम समयमें अनन्तानुबन्धियोंमेंसे किसी एक प्रकृतिका प्रवेश होनेसे बाईस प्रकृतिक प्रवेशस्थान होता है । शंका-वहाँ अनन्तानुबन्धियोंमेंसे किसी एक प्रकृतिके प्रवेशका नियम क्यों है ? समाधान- - नहीं, क्योंकि सासादन गुण उसके उदयका अविनाभावी है । शंका- पूर्व में ( उदय कालके पूर्व में ) सत्तासे रहित अनन्तानुबन्धी कषायका वहाँ पर उदय कैसे सम्भव है ? समाधान - नहीं, क्योंकि परिणामोंके माहात्म्यवश शेष कषायोंका द्रव्य उसी समय उस रूपसे परिणमकर उसका उदय देखा जाता है । इससे स्पष्ट है कि जीव शास्त्रमें जीवके जिस सासादन गुणका अनन्तानुबन्धी चतुष्कमेंसे अन्यतम कषायकी उदीरणा अविनाभाव सम्बन्धवश बाह्य निमित्त कही गई है । यहाँ कर्मशास्त्र में उसी कारणवश वही परिणामविशेष अनन्तानुबन्धीचतुष्कमेंसे अन्यतम कषायकी उदीरणाका बाह्य निमित्त कहा गया है । इसका नाम बाह्य-निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है, जिसका विवक्षाके अनुसार अदल-बदलकर कथन किया जाता है । जहाँ संयोगी जीव परिणामको कार्यरूपसे विवक्षा होती है वहाँ उसका अविनाभावी कर्मोदय
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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