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________________ २३८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ १५२. देवेसु मिच्छ० जह० पदेसुदी० जह० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो० । अजह० जह० एयस०, उक्क० एक्कत्तीसं सागरोवमाणि । एवं पुरिस० । णवरि अजह० जह० एगस०, उक्क० तेत्तोसं सागरो० । एवं सम्म० । णवरि जह० जहण्णुक्क० एगस० । सम्मामि०-सोलसक०-छण्णोक० पढमाए भंगो। णवरि हस्स-रदि० अजह• जह० एगस०, उक्क० छम्मासं । इत्थिवेद० ओघं । णवरि अज. जह० एगस०, उक्क. पणवण्णं पलिदोवमाणि । एवं भवणादि जाव गवगेवजा त्ति । णवरि सगढिदी । हस्स-रदि० अरदिभंगो। सहस्सारे हस्स-रदि० देवोघं । भवणवाणवें०-जोदिसि० सम्म० अजह० जह० अंतोमु०, इत्थिवेद० अजह० जह० एयस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० पलिदो० सादिरेयं प० सा० सोहम्मीसाण० इत्थिवेद० देवोघं । प्रारम्भ मनुष्यगतिमें ही होता है। अब यदि कोई मनुष्य मनुष्यायुका बन्ध करनेके बाद जीवनके अन्तमें सम्यग्दृष्टि होकर अन्तमुहूर्तके भीतर क्षायिक सम्यक्त्वको उत्पन्न करता हुआ कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होकर और मर कर उत्तम भोगभूमिके मनुष्योंमें उत्पन्न होता है तो भी उसके सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है, इससे कम नहीं, इसलिए यहाँ सामान्य मनुष्योंमें सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । परन्तु कोई मनुष्यिनी ( भावसे स्त्रीवेदी और द्रव्यसे पुरुषवेदी मनुष्य ) कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वके कालमें एक समय शेष रहने पर मर कर उत्तम भोगभूमिके मनुष्य पर्याप्तकोंमें ( द्रव्य-भावसे पुरुषवेदी मनुष्योंमें ) जन्म लेता है तो मनुष्य पर्याप्तकोंमें सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय बन जाता है। यही कारण है कि यहाँ मनुष्य पर्याप्तकोंमें सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय विशेषरूपसे कहा है । शेष कथन सुगम है। १५२. देवोंमें मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल इकतीस सागरोपम है। इसी प्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है। इसी प्रकार सम्यक्त्वकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंका भंग प्रथम पृथिवीके समान है। इतनी विशेषता है कि हास्य और रतिके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह महीना है। स्त्रीवेदका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इसके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पचवन पल्योपम है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ |वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। तथा इनमें हास्य और रतिका भंग अरतिके समान है। मात्र सहस्रार कल्पमें हास्य और रतिका भंग सामान्य देवोंके समान है। तथा भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल अन्तमुहर्त है। स्त्रीवेदके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे तीन पल्योपम, साधिक एक पल्योपम और साधिक एक पल्योपम है। सौधर्म और ऐशान कल्पमें स्त्रीवेदका भंग सामान्य देवोंके समान है। आगेके देवोंमें स्त्रीवेद
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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