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________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण अंतरं २५१ १६९. पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज्ज० मिच्छ०-णस० जह० पदेसुदी० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । अजह• जह० एयस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो । सोलसक०-छण्णोक० जह० अजह० पदेसुदी० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०। १७०. मणुसतिये पंचिंदियतिरिक्खभंगो । पञ्चक्खाण०४ अजह० जह० एगस०, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । णवरि पज. इत्थिवेदो पत्थि । मणुसिणीसु पुरिस०णस० णत्थि । इत्थिवेद० अजह• जह• एयस०, उक्क० अंतोमु० । $ १७१. देवेसु मिच्छ०-अणंताणु०४ जह० पदेसुदी० जह० एयस०, उक० पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें तीन वेदोंका जघन्य प्रदेश स्वामित्व कर्मभूमिमें ही बनता है, दूसरे भोगभूमिमें नपुंसकवेद नहीं होता, इन दोनों तथ्योंको ध्यानमें रखकर यहाँ इनके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि योनिनी तिर्यश्चोंमें एकमात्र स्त्रीवेदकी ही उदीरणा होती है, इसलिए इनमें स्त्रीवेदके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण ही कहा है । शेष कथन सुगम है। 5 १६९. पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सोलह कषाय और छह नोकषायोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ—उक्त जीवोंमें मिथ्यात्व और नपुसकवेदका निरन्तर उदय है, शेष प्रकृतियाँ परावर्तमान हैं। इन तथ्योंको ध्यानमें रख कर इनमें उक्त अन्तरकालकी प्ररूपणा को है। वह विचार कर घटित कर लेनी चाहिए। ६९७०. मनुष्यत्रिकमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि प्रत्याख्यान कषायचतुष्कके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और ष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें खीवेद नहीं है तथा मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है। स्त्रीवेदके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-मनुष्यत्रिकमें संयमकी प्राप्ति सम्भव है, इसलिए इनमें प्रत्याख्यान कषायचतुष्कके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि बन जानेसे उक्त प्रमाण कहा है। तथा मनुष्यिनियोंमें उपशमश्रेणिमें स्त्रीवेदका अधिकसे अधिक अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होनेसे यहाँ इसके अजघन्य प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । जघन्य अन्तरकाल एक समय स्पष्ट ही है। $ १७१. देवोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागरोपम है।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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