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________________ [ वेदगो ७ ३०० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे $ ३०१ एवं सव्वमग्गणासु णेदव्त्रं । णवरि अप्पप्पणो उदीरिजमाणपयडिविसेसो जाणिव्वो । अणुद्दिसादि सव्वट्ठा ति सव्वत्थोवा सम्मत्तस्स जहणिया पदेसुदीरणा । अपच्चक्खाणकसाय पदे सुदीरणा अण्णदरा तुल्ला संखेजगुणा । सेसं तं चैव । एवमप्पा बहुए समत्ते उत्तरपयडिपदेसुदीरणा समत्ता । चवीस मणियोगद्दाराणि समत्ताणि । * भुजगार-- उदीरणा उवरिमाए गाहाए परूविहिदि । पदणिक्खेवो वड्ढी वि तत्थेव । $ ३०२. एदस्स सुत्तस्सत्थो बुच्चदे - तं जहा । सव्वा परूवणा गाहासुत्त संबद्धा चैव कायन्त्रा, तदो पदेसुदीरणाविसय भुजगारादिपरूवणा वि गाहासुत्तणिबद्धा चेय विहासियव्वा । ण चे तप्पडिबद्धं गाहासुतं णत्थि त्ति आसंकणिज, 'बहुदरंगं बहुदरगं' इदीए उवरिमगाहाए परिष्फुडमेव तत्थ पडिबद्धत्तदंसणादो । तम्हा भुजगारउदीरणा उवरिमाए गाहाए परूविहिदि । पदणिक्खेवो वड्डी वि तत्थेव परूविहिदि त्ति एदमत्थपदमवहारिय तदवभबलेण एत्थ उद्देसे भुजगारादिपरूवणा सवित्थरमणुगंतव्वा । जहावसरमेव सव्वत्थ परूवणाए णाइयत्तादो ति एसो एदस्स गुत्तस्स भावत्थो । संपहि एदेण चुण्णिसुत्तावयवेण सूचिदभुजगाराणियोगद्दारस्स संगतोणिलीणपदणिक्खेव वढिपरूव $ ३०१. इसी प्रकार सब मार्गणाओंमें अल्पबहुत्व जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी उदीर्यमाण प्रकृति विशेष जाननी चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सम्यक्त्वकी जघन्य प्रदेश उदीरणा सबसे स्तोक है। उससे अप्रत्याख्यान कषायों में से अन्यतर प्रकृतिक जघन्य प्रदेश उदीरणा परस्पर तुल्य होकर संख्यातगुणी है । शेष अल्पबहुत्व वही है । इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होनेपर उत्तर प्रकृतिप्रदेश उदीरणा समाप्त हुई । चौबीस अनुयोगद्वार समाप्त हुए । * आगेकी गाथामें भुजगार प्रदेश उदीरणाका व्याख्यान करेंगे । पदनिक्षप और वृद्धिका भी वहीं पर व्याख्यान करेंगे । $ ३०२. इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । यथा – समस्त प्ररूपणा गाथा सूत्रसे सम्बद्ध ही करनी चाहिए । अतएव प्रदेश उदीरणा विषयक भुजगारादिप्ररूपणा भी गाथा सूत्रसे निबद्ध ही करनी चाहिए । यदि कहो कि भुजगारादिप्ररूपणासे सम्बन्ध रखनेवाला गाथासूत्र नहीं है सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'बहुगदरगं बहुगदरगं' इत्यादि उपरिम गाथा स्पष्टरूपसे ही भुजगारादि प्ररूपणा में प्रतिबद्ध देखी जाती है। इसलिए "भुजगार उदीरणाका उपरिम गाथामें व्याख्यान करेंगे । पदनिक्षेप और वृद्धिका भी वहीं पर व्याख्यान करेंगे।' इस प्रकार इस अर्थपदका अवधारण कर उसके उपरोधवश इस स्थलपर भुजगारादि प्ररूपणाको विस्तारके साथ जान लेना चाहिए, क्योंकि यथावसर ही सर्वत्र कथन करना न्याय्य है इस प्रकार यह इस सूत्रका भावार्थ है । अब इस चूर्णिसूत्र के अवयवद्वारा सूचित 1 १. आ० प्रतौ सा च ता०प्रतौ सा (ण) च इति पाठः ।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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