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________________ ३४६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगा ७ कारणेण सत्थाणमिच्छाइट्ठिस्स तप्पाओग्गुक्कस्सविसोहीए बद्धाणुभागं घेत्तूण जहण्णसामित्तमेत्थ जादं । एसो च देसघादिबिट्ठाणियसरूवो सुहुमेइंदियजहण्णाणुभागबंधादो अणंतगुणहीणो होदूण पुग्विल्लादो देसघादिएयट्ठाणियसरूवादो अणंतगुणो त्ति णत्थि संदेहो। ___ * जहण्णगो अणुभागसंकमो अणंतगुणो । $ ४४६. एत्थ कारणं वुच्चदे । तं जहा–सुहुमेइंदियजहण्णाणुभागसंतकम्मादो तस्सेव जहण्णाणुभागवंधो अणंतगुणहीणो होइ । एदम्हादो बादरेइंदियजहण्णाणुभागबंधो अणंतगुणहीणो। एवं बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय-असण्णिपंचिंदिया ति एदेसिं जहण्णबंधा जहाफममणंतगुणहीणा होति, तव्विसोहीणमणंतगुणाहियकमेण वड्डिदंसणादो । एवंविहमेदं पंचिंदियजहण्णबंधं घेत्तण पुबिल्लसामित्तं जादं । संपहि जहण्णसंकमो णाम अंतरकरणे कदे सुहुमेइंदियजहण्णाणुभागसंतकम्मादो हेट्टा अणंतगुणहीणो होदूण पुणो वि संखेजसहस्साणुभागखंडएसु धादिदेसु चरिमफालिसरूवेण जहण्णो जादो । एवंविधादं पत्तो वि चिराणसंतकम्मं होदूण पुन्बुत्तबंधादो संकमाणुभागो अणंतगुणो जादो। * पुरिसवेदस्स जहण्णगो अणुभागबंधो संकमो संतकम्मं च थोवाणि। ४४७. कुदो ? चरिमसमयसवेदजहण्णाणुभागबंधं देसघादिएयट्ठाणियसरूवं करता । इस कारण स्वस्थान मिथ्यादृष्टिके तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिको निमित्तकर बन्धको प्राप्त हुए अनुभागको ग्रहण कर जघन्य स्वामित्व यहाँ पर प्राप्त हुआ है। देशघाति द्विस्थानीयस्वरूप यह अनुभाग सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके जघन्य अनुभागबन्धसे अनन्तगुणाहीन है फिर भी देशघाति एकस्थानीयस्वरूप जघन्य अनुभागउदीरणासे अनन्तगुणा है इसमें सन्देह नहीं। * उससे जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है। $४४६. यहाँ पदकारणका कथनकरते हैं । यथा-सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके जघन्य अनुभागसत्कर्मसे उसीके जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा हीन होता है। उससे बादर एकेन्द्रिय जीवके जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणाहीन होता है। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय और संज्ञी पञ्चन्द्रिय इन जीवोंके जघन्य अनुभागबन्ध क्रमसे अनन्तगुणे हीन होते हैं, क्योंकि उनके विशुद्धियोंकी अनन्तगुण अधिकके क्रमसे वृद्धि देखी जाती है। इस प्रकार पश्चेन्द्रियके इस जघन्यबन्धको ग्रहण कर पूर्वोक्त स्वामित्व हुआ है। किन्तु यह जघन्य संक्रम अन्तरकरण करने पर सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके जघन्य अनुभाग सत्कमसे अनन्तगुणा हीन होकर फिर भी संख्यात हजार अनुभागकाण्डकोंके घातित होने पर अन्तिम फालिरूपसे जघन्य हुआ है। यद्यपि वह इस प्रकार घातको प्राप्त हुआ है फिर भी वह प्राचीन सत्कर्मरूप है, इसलिए पूर्वोक्त बन्धसे संक्रमानुभाग अनन्तगुणा होता है। . . * पुरुषवेदका जघन्य अनुभाग बन्ध, संकम और सत्कर्म स्तोक हैं। $ ४४७. क्योंकि सवेदभागके अन्तिम समयमें होनेवाले देशघाति और एक स्थानीय
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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