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________________ १८८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ १९. तिरिक्खेसु मोह० उक्क० जह० एयस०, उक्क० उवड्डपोग्गलपरियढें । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क. आवलि० असंखे०भागो । पंचिंदियतिरिक्खतिये मोह. उक्क० पदे० जह० एगस०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । पंचितिरि०अपज्ज० मोह० उक्क० पदे० जह• एगस०, उक्क. अंतोमु० । अणुक० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । एवं मणुसअपज । २०. मणुसतिये मोह. उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० जहण्णुक्क० अंतोमु० । देवाणं णेरइयभंगो । एवं भवणादि जाव सव्वट्ठा त्ति । णवरि अप्पप्पणो सगहिदी जाणियव्वा । एवं जाव० । $ १९. तिर्थश्चोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेशउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ—सामान्य तिर्यश्चोंकी कायस्थिति अनन्त कालप्रमाण है। परन्तु इनमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा संयतासंयत तिर्यश्च ही करता है। यतः ऐसा जीव तिर्यञ्च पर्यायमें अधिकसे अधिक उपार्ध पुद्गल परिवर्तन काल तक ही रह सकता है। उसके बाद वह यथायोग्य मनुष्य पर्याय पाकर नियमसे मोक्षका अधिकारी होता है । इसलिए यहाँ मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है। पश्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिककी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है, इसलिए इनमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है। तथा तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। इसलिए इनमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूते कहा है। यहाँ सर्वत्र अपनी-अपनी उक्त स्थितिके प्रारम्भमें और अन्त में यथायोग्य मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करा कर यह अन्तरकाल ले आना चाहिए। शेष कथन सुगम है। २०. मनुष्यत्रिकमें मोहनीयकी. उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। देवोंमें नारकियोंके समान भंग है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति जाननी चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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