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________________ २७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ 5२०७. तिरिक्खेसु मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक० उक्क० पदेसुदी० जह० एगस०, उक० असंखेन्जालोगा । अणुक्क० णत्थि अंतरं० । सम्मत्त-सम्मामि० णारयभंगो । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिये । णवरि वेदा जाणियव्वा । जोणिणीसु सम्म० बारसक०भंगो । पंचिं०तिरिक्खअपज्ज० सव्वपयडी० उक्क० पदेसुदी० जह० एगस०, उक्क० असंखेजा लोगा । अणुक्क० णथि अंतरं० । एवं मणुसअपज । णवरि अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असं०भागो। विशेषार्थ-नरकमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टियोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यानमें रखकर यहाँ सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा है। इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक वेदक सम्यग्दृष्टि जीव वहाँ निरन्तर पाये जाते हैं, इसलिए इनके अन्तरकालका निषेध किया है। सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है यह स्पष्ट ही है। नरकमें प्रथमोपशम सम्यक्त्वके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यानमें रखकर यहाँ मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात रात्रिदिन कहा है । इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाले अन्य मिथ्यादृष्टि जीव निरन्तर पाये जाते हैं, इसलिए इनके अन्तरकालका निषेध किया है। जिन परिणामोंसे नरकमें बारह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट उदीरणा होती है उनके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यानमें रख कर यहाँ उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समर. और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव यहाँ पर निरन्तर पाये जाते हैं, इसलिए उनके अन्तरकालका निषेध किया है। सातों नरकोंमें यह अन्तरकाल प्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उसे सामान्य नारकियोंके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र द्वितीयादि पृथिवियोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मनुष्य मरकर नहीं उत्पन्न होते, इसलिए द्वितीयादि छह पृथिवियोंमें सम्यक्त्वका भंग बारह कषायोंके समान बन जानेसे सम्यक्त्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंके अन्तरकालको बारह कषायोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंक अन्तरकालके समान जाननेकी सूचना की है। $२०७ तिर्यञ्चों मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व का भंग नारकियोंके समान है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वेद जान लेना चाहिए। योनिनियोंमें सम्यक्त्वका भंग बारह कषायोंके समान है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ—कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मनुष्य मर कर तिर्यश्च योनिनियों में उत्पन्न नहीं होते, इसलिए इनमें सम्यक्त्वका भंग बारह कषायोंके समान बन जानेसे उस प्रकार कडा
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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