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गा० ६२] मूलपयडिअणुभागउदीरणाए अप्पाबहुअं पदणिक्खोवो च २७ भुज-अप्प० जह० एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अवठि० जह० एयस०, उक्क० असंखेजा लोगा । एवं जाव ।
५५. भावाणुगमेण सव्वत्थ ओदइओ भावो ।
५६. अप्पाबहुआणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वत्थोवा अवत्त० । अवढि० अणंतगुणा । अप्प० असंखे०गुणा । भुज० विसेसा० । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज्ज०-देवा भवणादि जाव अवराजिदा त्ति । णवरि अवत्त० पत्थि । मणुसेसु सव्वत्थोवा अवत्त० । अवढि० असंखेगुणा । अप्प० असंखे०गुणा । भुज० विसेसा । एवं मणुसपन्जा-मणुसिणी । णवरि संखेज्जगुणं कायव्वं । एवं सव्वढे । णवरि अवत्त० णत्थि । एवं जाव० ।
५७. पदणिक्खेवे त्ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि-समुक्त्तिणा सामित्तं अप्पाबहुए त्ति । समुक्कित्तणं दुविहं—जह० उक्क० । उक्स्से पयदं । दुविहो णि०--ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० अस्थि उक्क० वड्डी हाणी अवट्ठा० । एवं चदुगदीसु । एवं जहण्णयं पि णेदव्वं । एवं जाव ।
५८. सामित्ताणु० दुविहं-जह. उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०स्थित पदके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
६ ५५. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है।
५६. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे अवक्तव्य पदके उदोरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितपदके उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे अल्पतर पदके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारपदके उदीरक जीव विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। मनुष्योंमें सबसे स्तोक अवक्तव्य पदके उदीरक जीव हैं। उनसे अवस्थित पदके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरपदके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारपदके उदीरक जीव विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त
और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणेके स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिए। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
५७ पदनिक्षेपका प्रकरण है। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान अनुभागके उदीरक जीव हैं । इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार जघन्यको भी जान लेना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
६५८. स्वामित्वानुगम दो प्रकारका है जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है।