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________________ गा०६२] बंधादिपंचपदप्पाबहुअं ३४१ ३४२७. सुगममेदं पयदसंभालणवकं । * मिच्छत्त-बारसकसायाणं जहण्णगो अणुभागबंधो थोवो । ४२८. कुदो ? मिच्छत्ताणताणुबंधीणं संजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठिणा सव्वुक्कस्सविसोहीए बद्धजहण्णाणुभागग्गहणादो । अपच्चक्खाण-पच्चक्खाणकसायाणं पि संजमाहिमुहचरिमसमयअसंजदसम्माइट्ठिसंजदासंजदाणमुक्कस्सविसोहिणिबंधणाणुभागबंधम्मि जहण्णसामित्तावलंबणादो। * जहण्णयो उदयोदीरणा च अणंतगुणाणि । ६४२९. किं कारणं ? संजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठिअसंजदसम्माइट्ठिसजदासंजदेसु जहण्णबंधेण समकालमेव पत्तजहण्णभावाणं पि उदयोदीरणाणं चिराणसंतसरूवेण तत्तो अणंतगुणत्तदंसणादो। * जहष्णगो अणुभागसंकमो संतकम्मं च अणंतगुणाणि । ६४३०. किं कारणं ? मिच्छत्त-अट्ठकसायाणं सुहुमेइंदियहदसमुप्पत्तियजहण्णाणुभागविसयत्तेण अणंताणुबंधीणं पि विसंजोयणापुव्यसंजोगपढमसमयजहण्णणवकबंधविसयत्तेण संकम-संतकम्माणं जहण्णसामित्तावलंबणादो । ण च एवं विहसामित्तावलंबणे पुम्विन्लादो एदस्साणंतगुणतं संदिद्धं, परिप्फुडमेव तहाभावोवलंभादो । तं जहा६४२७. प्रकृतकी सम्हाल करनेवाला यह वाक्य सुगम है। * मिथ्यात्व और बारह कषायोंका जघन्य अनुभागबन्ध स्तोक है । ६४२८. क्योंकि संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवती मिथ्यादृष्टिके द्वारा सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धियोंके बद्ध जघन्य अनुभागका यहाँ पर ग्रहण किया है । अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान कषायोंकी अपेक्षा भी संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंवतके उत्कृष्ट विशुद्धिनिमित्तक अनुभागबन्धमें जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन लिया है। * उनसे जघन्य अनुभाग उदय और उदीरणा अनन्तगुणी हैं। ६४२९. क्योंकि संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतोंके जघन्य बन्धके समकालमें ही जघन्यपनेको प्राप्त उदय और उदीरणाके पुराने सत्त्वमें स्थित अनुभागस्वरूप होनेसे तन्काल होनेवाले अनुभागबन्धकी अपेक्षा अनन्तगुणापना देखा जाता है। * उनसे जघन्य अनुभागसंक्रम और सत्कर्म अनन्तगणे हैं । $ ४३०. क्योंकि मिथ्यात्व और आठ कषायोंका जघन्य अनुभाग सूक्ष्म एकेन्द्रिय सम्बन्धी हतसमुत्पतिक जघन्य अनुभागको विषय करता है तथा अनन्तानुबन्धियोंका भी जघन्य अनुभाग विसंयोजनापूर्वक संयोगके प्रथम समयके नवकबन्धको विषय करता है, इसलिए यहाँ संक्र म और सत्कर्मके जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन लिया है। और इस
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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