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________________ गा०६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण कालो २३५ * जहण्णुक्कस्सेण एयसमयो। १४५. कुदो ? सम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठीणं मिच्छत्ताहिमुहाणं चरिमसमयसंकिलेसेण लद्धजहण्णभावत्तादो । * अजहण्णपदेसुदीरगो जहा पयडिउदीरणाभंगो। $ १४६. कुदो ? सम्मत्तस्स जह० अंतोमु०, उक्क० छावद्विसागरो० देसूणाणि । सम्मामि० जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तमिच्चेदेण भेदाभावादो। एवमोघेण सव्वेसिं कम्माणं जहण्णाजहण्णपदेसुदीरगकालणुगमो समत्तो । १४७. संपहि एत्थेव णिण्णयजणणट्ठमादेसपरूवणटुं च उच्चारणाणुगममेत्य कस्सामो तं जहा—जह० पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-णवंस. जह० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । अजह० जह. एयस०, उक्क० अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । एवं सोलसक०-भय-दुगुंछ । णवरि अजह० जह• एयस०, उक्क० अंतोमु० । एवमित्थिवेद-पुरिसवेद० । गवरि अजह० जह० एयस०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं सागरोवमसदपुधत्तं । एवं हस्स-रदिअरदि-सोगाणं । णवरि अजह० जह• एयस०, उक्क० छम्मासं तेत्तीसं सागरो० * जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। $ १४५. क्योंकि मिथ्यात्वके अभिमुख हुए सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समयमें संक्लेशवश उक्त कर्मोंकी जघन्य प्रदेश उदीरणा पाई जाती है। * अजघन्य प्रदेश उदीरकका भंग प्रकृति उदीरणाके समान है। $ १४६. क्योंकि सम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागरोपम है तथा सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है इससे विवक्षित कालमें कोई भेद नहीं है। इस प्रकार ओघसे सब कर्मोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकके कालका अनुगम समाप्त हुआ। १४७. अब यहीं पर निर्णय उत्पन्न करनेके लिए तथा आदेशका कथन करनेके लिए यहाँ उच्चारणाका अनुगम करेंगे। यथा-जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका हैओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है। इसी प्रकार सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार स्त्रीवेद और पुरुषवेदको अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे सौ पल्योपमपृथक्त्वप्रमाण और सौ सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण है। इसी प्रकार हास्य, रति, अरति और शोककी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अज
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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