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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ * इत्थि-णवु ंसयवेदाणं उक्कस्सिया' पदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा । $ २७०. कुदो ? असंखेजसमयपबद्धपमाणत्तादो । णेदमसिद्ध अणियट्टिअद्धाए संखेजे भागे गंतूण पुणो एगभागो अस्थि त्ति दोन्हं पि अष्पष्पणो उदएण चढिदस्स पढमदीए समयाहियावलियमेत्तसे साए समाणाणियट्टिकरणपरिणामेण सरिसदव्वमोकड्डियूण तत्थुदीरिजमाणासंखेजसमयपबद्धे घेत्तण सामित्तविहाणण्णहाणुववत्तीए सिद्धादो | २९२ * पुरिसवेदे उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा । $ २७१. किं कारणं ? इन्थि - णत्रु सयवेदाण मुक्कस्सपदे सुदीरणासामित्तविसयादो अंतोमुहुत्तमुवरिं गंत्तूण समयाहियावलियमेत पुरिस वेदपढमट्ठिदीए सेसाए तत्थुदीरिजमाणासंखेजसमयपबद्धाणमिह ग्गहणादो । * कोहसंजलणस्स उक्कस्सिया पदेस दीरणा असंखेज्जगुणा । $ २७२. किं कारणं १ पुरिसवेदसामित्सुद्दे सादो अंतो मुहुत्तमुवरि गंतूण कोहसंजलण पढी समय हियावलियमेत्तसेसाए पडिलद्धकस्सभावत्तादो । * माणसंजलणस्स उक्कस्सिया पदेस दीरणा असंखेज्जगुणा । $ २७३. सुगमं । * उससे स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है $ २७०. क्योंकि वह असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण है । यह असिद्ध नहीं है, क्योंकि अनिवृत्तिकरण के काल में संख्यात भाग जानेपर जब एक भाग शेष रहता है तब अपने-अपने उदयसे चढ़े हुए जीवके दोनोंकी भी प्रथम स्थिति में एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण काल शेष रहने पर अनिवृत्तिकरणके सदृश परिणाम द्वारा सदृश द्रव्यका अपकर्षण कर वहाँ उदीर्यमाण असंख्यात समयप्रबद्धोंको ग्रहण कर स्वामित्वका विधान अन्यथा बन नहीं सकनेसे वह सिद्ध है | * उससे पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है । $ २७१. क्योंकि स्त्रीवेद और नपुंसक वेदके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाविषयक स्वामित्व के विषयसे अन्तर्मुहूर्त ऊपर जा कर पुरुषवेदकी प्रथम स्थिति में एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण काल शेष रहने पर वहाँ उदीर्यमाण असंख्यात समयप्रबद्धों का यहाँ ग्रहण किया है । * उससे क्रोधसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है । $ २७२. क्योंकि पुरुषवेदके स्वामित्व विषयसे अन्तर्मुहूर्त ऊपर जाकर क्रोधसंज्वलनकी प्रथम स्थितिमें एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर उसका उत्कृष्टपना उपलब्ध है। * उससे मानसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है । $ २७३. यह सूत्र सुगम है । १. आ०प्रतौ वेदउक्कसिया इति पाठः ।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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