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________________ गा० ६२ ] उत्तरपय डिपदेस उदीरणाए एयजीवेण अंतरं २४९ $ १६७. आदेसेण णेरड्य० मिच्छ० - अनंताणु ०४ - हस्स रदि० जह० अजह ० जह० एयसे०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देखणाणि । एवं बारसक० - अरदि- सोगभय - दुगुंछा० । णवरि अजह० जह० एयस०, उक्क० अतोमु० । एवं णव स० । वरि अजह० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । सम्म० - सम्मामि० जह० अजह० पदेसुदी ० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देणाणि । एवं सत्तमाए । एवं पढमाए जाव छट्टि त्ति । णवरि सगहिदी देणा । इस्स -रदि० अरदि-सोग० भंगो । अन्तरसे होते हैं, इसलिए तो इन प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल कहा है । वह अनन्तकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। तथा मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम छयासठ सागरोपम है, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो छयासठ सागरोपमप्रमाण कहा है। इसी प्रकार अन्य प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको घटित कर लेना चाहिए । इसी न्याय से आगे कहे जानेवाले गतिमार्गणाके अवान्तर भेदोंमें अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए । $ १६७. आदेशसे नारकियों में मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क, हास्य और रतिके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । इसी प्रकार बारह कषाय, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार पहली पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। तथा इनमें हास्य और रतिका भंग अरति और शोकके समान है । विशेषार्थ- — एक तो सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी जघन्य प्रदेश उदीरणाका स्वामी तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला मिध्यात्वके अभिमुख हुआ क्रमसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीव है, दूसरे मिध्यात्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए तो इन दोनों प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा जो सातवें नरकका नारकी जीव भवके प्रारम्भमें और अन्तमें अपने योग्य कालमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरणा करता है, किन्तु मध्यके कालमें मिथ्यादृष्टि बना रहता है उसकी अपेक्षा यहाँ उक्त प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम कहा है। शेष कथन सुगम है । अपने-अपने स्वामित्व आदिको ध्यानमें लेकर उसे घटित कर लेना चाहिए । १. आ०प्रतौ अजह० एस० इति पाठः । ३२
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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