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________________ गा०६२) उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण अंतरं २४५ पदेसुदी० जह० एयसमओ, उक्क० पुव्वकोडिपुध० । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क. सगद्विदी। १६२. पंचिंदियतिरिक्खअपञ्ज०-मणुसअपज० मिच्छ०-णवूस० उक्क० पदेसुदी० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो । सोलसक०-छण्णोक० उक्क० अणुक्क० पदेसुदी. जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०। १६३. मणुसतिये मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०४ पंचि०तिरिक्खमंगो । अट्ठक० उक्क० पदेसुदी० जह० अंतोमु०, उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । अणुक्क० जह• अंतोमु०, उक्क० पुवकोडी देसणा। चदुसंजलण-छण्णोक० उक० णत्थि आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अपनी स्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-यहाँ तिर्यश्च पर्याप्तकोंमें जो पुरुषवेद और नपुंसकवेदके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्वप्रमाण कहा है सो कर्मभूमिकी अपेक्षा अपनी स्थितिके प्रारम्भ और अन्त में पुरुषवेद या नपुंसकवेदके साथ रखकर मध्यमें तदितर वेदके साथ रखने पर उक्त अन्तर काल कुछ कम पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा है । तथा तिर्यश्च योनिनियोंमें सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होता, इसलिए उनमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल बन जानेसे उसका अलगसे उल्लेख किया है। शेष कथन सुगम है। ६ १६२. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सोलह कषाय और छह नोकषायोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। - विशेषार्थ-उक्त दोनों प्रकारके जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाकी स्वामित्वसम्बन्धी विशेषता न होने पर भी सोलह कषायों और छह नोकषायोंके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकके उत्कृष्ट कालको ध्यानमें रख कर यहाँ इनके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा ये परिवर्तमान प्रकृतियाँ है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त बन जानेसे उसे भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १६३. मनुष्यत्रिकमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। आठ कषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। चार संज्वलन और छह नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल नहीं
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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