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________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए णाणाजीवेहिं भंगविचयो २५३ $ १७२. अणुदिसादि सव्वट्टा त्ति सम्म० - पुरिसवेद० जह० पदेसुदी० जह० एस०, उक्क० सगट्ठिदी देसूणा । अजह० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे ०भागो । एवं बारसक० - छण्णोक० । णवरि अजह० जह० एगस ०, उक्क० अंतोमु० । एवं जाव० । * णाणाजीवेहि भंगविचयो भागाभागो परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं च एदाणि भाणिदव्वाणि । $ १७३. एदाणि अणियोगद्दारणि णाणाजीवविसयाणि एगजीवविसयसामित्तकम इकतीस सागरोपम काल तक मध्यमें सम्यग्दृष्टि रख कर यह उत्कृष्ट अन्तरकाल ले आना चाहिए । जघन्य अन्तरकाल एक समय स्पष्ट ही है । शेष सब प्रकृतियोंके अजघन्य प्रदेश उदीरकके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालका समझकर स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। तथा इसी प्रकार भवनत्रिकसे लेकर नौवें ग्रैवेयक तकके देवों में पृथक-पृथक अपनी-अपनी विशेषताको समझ कर अन्तरकालका स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। विशेष वक्तव्य न होनेसे यहाँ खुलासा नहीं किया गया है। $ १७२. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व और पुरुषवेदके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनीअपनी स्थितिप्रमाण है। अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलि असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार बारह कषाय और छह नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । विशेषार्थ – अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेश उदीरणा एक समयके अन्तरसे हो यह भी सम्भव है और अपनी-अपनी भवस्थितिके आदिमें और अन्तमें यथास्थान हो यह भी सम्भव है । यही कारण है कि यहाँ सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण कहा है। इन सब प्रकृतियोंके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है यह स्पष्ट ही है । मात्र इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकके उत्कृष्ट अन्तरकालमें कुछ विशेषता है । बात यह है कि जो वेदक सम्यदृष्टि ( कृतकृत्यवेदक नहीं ) या द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि मर कर वहाँ उत्पन्न होते हैं उनके यथायोग्य जीवन भर सम्यक्त्व प्रकृतिकी उदीरणा होती रहती है तथा पुरुषवेदकी भी उनके निरन्तर उदीरणा होती रहती है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेश उदीरकका आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जो उत्कृष्ट काल है वही यहाँ इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा है। मात्र इन दो प्रकृतियोंके अतिरिक्त शेष प्रकृतियाँ परावर्तमान हैं, इसलिए उनके अजघन्य प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त बन जाने से वह तत्प्रमाण कहा है। * नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल और अन्तर इनका कथन कराना चाहिए । $ १७२. नाना जीव विषयक इन अनुयोगद्वारोंको एक जीवविषयक स्वामित्व, काल
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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