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________________ २३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं पुरिसवेद । णवरि उक्क. जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । एवं बारसक०-छण्णोक० । णवरि अणुक्क० जह• एयस०, उक्क० अंतोमु० । हस्स-रदि० अणुक्क० जह० एगसमओ, उक्क० छम्मासं । एवमिथिवेद० । णवरि अणुक्क० जह• एयस०, उक्क. पणवण्णं पलिदोवमं । एवं भवणादि जाव गवगेवजा त्ति । णवरि सगढिदी । हस्स-रदि० अरदि-सोगभंगो। सहस्सारे हस्स-रदि० देवोपं । भवण-वाणवें०-जोदिसि० सम्म० पुरिसवेदभंगो । इत्थिवेद० अणुक्क०जह० एयस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० पलिदो० सादिरेय० प० सा० । सोहम्मीसाण. इत्थिवेद० देवोघं । उवरि इत्थिवेदो णत्थि । अणुदिसादि सचट्ठा त्ति सम्म०-बारसक०-सत्तणोक० आणदभंगो । णवरि सगढिदी । एवं जाव० । उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है । इसी प्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार बारह कषाय और छह नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। हास्य और रतिके अनुत्कृष्ट प्रदेश-उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह महीना है। इसी प्रकार स्त्रीवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पचवन पल्योपम है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ अवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । इनमें हास्य और रतिका भंग अरति और शोकके समान है। तथा सहस्रार कल्पमें हास्य और रतिका भंग सामान्य देवोंके समान है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सम्यक्त्वका भंग पुरुषवेदके समान है। स्त्रीवेदके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे तीन पल्योपम, साधिक एक पल्योपम और साधिक एक पल्योपम है। सौधर्म और ऐशान कल्पमें स्त्रीवेदका भंग सामान्य देवोंके समान है । आगेके देवोंमें खीवेद नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग आनत कल्पके समान है। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-गति मार्गणाके अवान्तर भेदोंमें सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय दो प्रकारसे प्राप्त होता है। एक तो मनुष्य गतिको छोड़ कर गति मार्गणाके अन्य जिन अवान्तर भेदोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव मर कर उत्पन्न होता है उनमें सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय बन जाता है । यथासामान्य नारकी, प्रथम पृथिवीके नारकी, सामान्य तिर्यश्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्मादि कल्पके देव । दूसरे जिन मार्गणाओंमें सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका स्वामी बारह या आठ कषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके स्वामीके समान है उनमें जो जीब सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक होकर अगले समयमें एक समय तक अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक हो जाता है और उससे अगले समयमें परिणाम प्रत्ययवश पुनः उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक हो जाता
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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