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________________ गा०६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए वड्डीए समुक्कित्तणा १६३ ६४४५. तिरिक्खेसु मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अट्ठक. ओघं । अट्ठक०णवणोक० तिण्णि वि पदाणि सरिसाणि । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिये । णवरि वेदा जाणिदव्वा । जोणिणीसु सम्म० तिण्णि वि सरिसाणि । पंचिंदियतिरि०अपज०-मणुसअपज० सव्वपय० जह० वड्डी हाणी अवट्ठा० तिण्णि वि सरिसाणि । ४४६. देवेसु मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०४ ओघ । बारसक०अढणोक० तिण्णि वि सरिसाणि । एवं भवणादि सोहम्मा ति । णवरि भवण०वाणवें०-जोदिसि० सम्म० तिण्णि वि सरिसाणि । सणक्कुमारादि णवगेवजा ति देवोघं । णवरि इत्थिवेदो णत्थि । अणुदिसादि सव्वट्ठा त्ति सम्म०-बारसक०-सत्तणोक० आणदभंगो । एवं जाव० । एवं पदणिक्खेवो समत्तो। ६४४७. वड्डि त्ति तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि-समुक्कित्तणा जाव अप्पाबहुगे त्ति । समुक्कित्तणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओषेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपय० अत्थि छवड्डि०-छहाणि-अवढि०-अवत्त० । आदेसेण रहय० मिच्छ०सोलसक०-सत्तणोक०-सम्म०-सम्मामि० ओघं । णवरि णवंस० अवत्त० णत्थि । एवं सव्वणिरय० । ६४४५. तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और आठ कषायोंका भंग ओघके समान है । आठ कषाय और नौ नोकषायोंके तीनों ही पद सदृश हैं। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना वेद जान लेना चाहिए। योनिनियोंमें सम्यक्त्वके तीनों ही पद सदृश हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य वद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान तीनों ही सदृश हैं। - ४४६. देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तनुबन्धीचतुष्कका भंग ओघके समान है। बारह कषाय और आठ नोकषायोंके तीनों ही पद सदृश हैं। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म-ऐशान कल्प तक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सम्यक्त्वके तीनों ही पद सदृश हैं। सनत्कुमारसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें सामान्य देवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग आनत कल्पके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्ग तक जानना चाहिए। ___इस प्रकार पदनिक्षेप समाप्त हुआ। $४४७. वृद्धिका प्रकरण है। उसमें ये तेरह अनुयोगद्वार है-समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक । समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंके छह वृद्धि, छह हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पद हैं । आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात-नोकषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदका अवक्तव्य पद नहीं है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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