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________________ २९० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ... * पञ्चक्खाणचउक्कस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा अण्णदरा तुल्ला असंखेजगुणा। $ २६५. किं कारणं ? असंजदसम्माइट्टिविसोहीदो अणंतगुणसंजमाहिमुहचरिमसमयसंजदासंजदुक्कम्सविसोहीए पञ्चक्खाणकसायाणमुक्कस्सपदेसुदीरणासामित्तपडिलंभादो। * सम्मत्तस्स उक्कस्सिया पदेसु दीरणा असंखेजगुणा । $ २६६. कुदो ? असंखेजसमयपबद्धपमाणत्तादो । * भय-दुगंछाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा तुल्ला अणंतगुणा । $ २६७. कुदो ? देसघादिपडिभागत्तादो । * हस्स-सोगाणमुक्कस्सिया पदेस दीरणा विसेसाहिया। । 5२६८. कुदो ? पयडिविसेसमस्सिऊण विसेसाहियत्तदंसणादो । तं जहा-भयस्स ताव उक्कस्सपदेसुदीरणाए इच्छिजमाणाए दुगुंछाए अवेदगो कायव्वो, दुगुंछाए वि उक्कस्सपदेसुदीरणाए कीरमाणाए भयस्स अणुदीरगो कायव्यो, दोण्हं पि दव्वमेग8 कादूण भयदुगुंछाणमुक्कस्सपदेसुदीरणागहणटुं । संपहि हस्स-रदीणमुक्कस्सपदेसुदीरणाए णिरुद्धाए भय-दुगुंछाणं दोण्हं पि अणुदयं कादूण गेण्हियव्वं । एवमरदि-सोगाणं पि उक्कस्समावे * उससे प्रत्याख्यानचतुष्कमेंसे अन्यतर प्रकृतिकी प्रकृष्ट प्रदेश उदीरणा परस्पर तुल्य होकर असंख्यातगुणी है। $ २६५. क्योंकि असंयतसम्यग्दृष्टिकी विशुद्धिसे संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती संयतासंयतकी अनन्तगुणी उत्कृष्ट विशुद्धिवश प्रत्याख्यान कषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका स्वामित्व पाया जाता है। * उससे सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है । $ २६६. क्योंकि वह असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण है । *उससे भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा परस्पर तुल्य होकर अनन्तगणी है। $ २६७. क्योंकि इसका कारण देशघातिप्रतिभागपना है। * उससे हास्य और शोककी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा विशेष अधिक है। $ २६८. क्योंकि प्रकृतिविशेषका आश्रय कर विशेषाधिकपना देखा जाता है। यथा-दोनोंके ही द्रव्यको एकत्रित कर भय और जुगुप्साके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके ग्रहण करनेके लिए सर्व प्रथम भयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा इच्छित होनेपर जुगुप्साका अवेदक करना चाहिए, जुगुप्साकी भी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करने पर भयका अनुदीरक करना चाहिए । अब हास्य और रतिकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके रहने पर भय और जुगुप्सा दोनोंका ही अनुदय करके ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार अरति और शोकके भी उत्कृष्ट करनेपर भय और जुगुप्साका अनुदय कहना चाहिए। और ऐसा होनेपर हास्य और रतिका उदय होनेपर
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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