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ആറുരയ്യയായ
"श्री स्याद्वाद वादिने विराय नमः" भेट. जैन प्राचीन पूर्वाचार्यों विरचित स्तवन संग्रह. भेट तपगच्छनापुज्यपाद् सद्गुणानुरागी शान्तमुद्रा श्री १०८ गुरुणीजी महाराज श्री विजय श्री जीना
शिष्या साध्वीजी श्री खान्तिश्रीजीना उपदेशथी छपावी प्रसिद्ध करनार. श्री मुंबाइ निवासी झवेरी मोतीचंद रुपचंदनी अर्ध आर्थिक सहाय अने अर्ध आर्थिक सहाय सुरतनिरी कीनारीवाला डायाभाइ कालीदास हस्तक-तरफथी बाबुभाइ अभेचंदना स्मरणाने भेटे।
प्रत-१००० आवृत्ति १ ली.
सर्व हक्क स्वाधीन छे. वीरसंवत् २४४५. विक्रम संवत् १९७६.
सन् १९. श्रीनिर्णयसागर प्रेस-मुंबाई. Serving Jinshasar
தலைலைலைலைலலைலகை
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Printed by Ramohandra Yesu Shedge, at the "Nirnaya-Sngar" Press, 23, Kolbbat Lane, Bombay.
Published by Shot. Motichand Rupehand Javeri, Javeri Bazar Kharaku, Bombay.
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॥ ॐ अर्हम् ॥ अवतरणिका ।
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आ पुस्तकमा प्राचीन आचार्यवरो विरचित स्तवनोनो संग्रह करवामां आव्यो छे. जे खास करीने पठनीय साथे उत्तम भाव सूचक तेमज चित्तो ह्रासता प्रगट थवामां साधनभूत होइ सर्व जैन धर्मानुरागी साधु-साध्वी - श्राद्धवरो तथा सुशीला श्राविकाओने कंठःस्थ करवा योग्य छे.
आधुनिक समयमां लगभग सर्वत्र नूतन पद्धतिथी रचायला स्तवनो देवालयोमां या धार्मिक अनुष्ठानोमां कहेवानो प्रचार विशेषतः थतो होय एम दृष्टि गोचर थाय छे परन्तु सांप्रत समयना नवीन स्टाइल ( Style) ना बनावेला स्तवनो कहेवाथी आपणा मनो मंदिरमां उक्त जेवो चित्तोल्लास प्रगटवो जोइए तेवा आन्तरीक उल्लासनी उत्तम भाव सूचक स्फुरणाओ उद्भवती नथी यातो उत्तम भाव पण दृश्य थतो नथी किन्तु केवल शुष्कवत् अने असंबद्ध भासे छे ज्यां सुधी जिन मंदिरमां के धार्मिक अनुष्ठानोमां स्तवनो गावाथी आन्तरीक उल्लासनी स्फुरणा न थाय तेमज तेथी | उद्भवतो उत्तम भाव पण न जणाय त्यां सुधी गमे तेटलो समय कंठ शुष्क करी करीने पण करेली क्रिया यथार्थ साफल्यकारक थती नथी ए वात प्रत्येकं सुज्ञ विद्वज्जनो सुरीतिए समजे छे.
अत एव आवा पूज्यपाद प्रवर जैन धर्म धुरंधर प्राचीन आचार्यवरोकृत स्तवनो कहेवानो प्रचार सर्वत्र थवानी खास
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अवतर
णिका.
शांतिना-४ आवश्यकता छे. आ स्तवनोमां लगभग बधां स्तवनो रसिक तेमज-मनोहर होवाथी भिन्न भिन्न राग युक्त गावाथी. थना.
चित्तमां परम आह्लाद उत्पन्न करे तेवा छे अने आपणा मनोमंदिरमा जिनेश्वर प्रति दृढ श्रद्धा उत्पन्न करावी इष्ट कार्य परम पदनी प्राप्ति करवामां साधन भूत छे माटे सर्वेने विज्ञप्ति करवामां आवे छे के आवा उत्तम आचार्यों कृत स्तवनो गावामां
सर्वे ए लक्ष्य राखतुं जोइए स्तवनो कंठःस्थ करी मात्र प्रभु आगलके प्रतिक्रमण क्रियामां बोली जवा मात्रथी उद्देश ॥ २ ॥
साफल्य कारक थतो नथी परन्तु साथे स्तवनोमां रहेल उत्तम भाव-स्वरुप समजी हृदयमा उतारवाथीज अभीप्सित सिद्धि | संपादन करी शकाय छे शास्त्रकारो ए कहुं छे के “यादृशी भावना यस्य, सिद्धिर्भवति तादृशी” (जेओना मनो| मंदिरमा जेवी जेवी भावनाओ प्रवर्ते छे तेवी तेवी काय सिद्धि थाय छे) आनी अंदर पूर्वाचार्योकृत (४६) स्तबनो तथा (१) श्रीमहावीर तप नमस्कारनो समावेश करवामां आव्यो छे. आ आ पुस्तक छपाववामां तपगच्छना पुज्यपाद १०८ श्री गुरुणीजीमहाराज श्रीविजयश्रीजीना शिष्या साध्वी जी श्रीखान्ति
श्रीजीना उपदेशथी मुंबई निवासी झवेरी मोतीचंद रुपचंद तरफथी अर्धे आर्थीक सहाय अने अर्धे आर्थीक सहाय सुरतX| निवासी कीनारीवाला डायाभाइ कालिदास अस्तक-तरफथी बाबुभाइ अभेचंदना स्मरणार्थ बन्ने श्रेष्ठि वरोए आर्थिक सहायता | अपीछे जेथी तेओनो उपकार मानवामां आवे छे मळी छे अने आप्रत सर्व साधु साध्वी अने ज्ञानभंडारने भेट आपवामां आवे छे. पुस्तक मळवा- ठेकाणुं झवेरी ) झवेरी ठाकोरभाइ मुलचंद मु. सुरत ठे० देशाइ पोळ. मोतीचंद रुपचंद मु० मुंबइ.
ली. श्री श्रमण संघोपासक. ठे० झवेरी बजार. ) पुरुषोत्तमदास जयमलदास महेता मुं० सुरत ठे० पंडोळनी पोळ.
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नंबर
स्तवननुं नाम
पत्र.
१
श्री शांतीनाथना पंच कल्याणकनुं स्तवन १-१४ २ श्री पंचकारण गर्भित श्री वीरजिन स्तवन १५-१८ ३ श्री गौतम स्वामी प्रश्नोत्तर रुप बार आरानुं
स्तवन...
४ श्री अक्षयनिधि तपनुं स्तवन ५ श्री शाश्वत् जीनवर स्तवन
६ श्रोनिगोद स्तवन.
१९-२३
२३-२७
२७-३२
३२-३४
३४-३८
७ श्री त्रिभुवन स्तवन ८ श्री महावीर स्वामीना पञ्चकल्याणकनुं स्तवन ३८-४१ ९ श्री चोवीस जिन कल्याणक स्तवन
४२-४५
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अनुक्रमणिका.
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नंबर
तपन नाम
१० श्री सम्यकत्व विचार गर्भित श्री महावीर जिन स्तवन
४५-५२
५७-६२ ६२-६५ ६५-६६
95
११ श्री महावीर स्वामीनां सत्तावीस भवनुं स्तवन ५२-५७ १२ श्री सौभाग्य पञ्चमी स्तवन १- पहेलुं १३ श्री ज्ञान पञ्चमी स्तवन २- वीजुं. १-त्री ४- पो. १६ अल्प बहुत्वविचार गर्भित श्रीमहावीर जिन स्तवन ६९-७१ १७ श्री आलोयणानुं स्तवन
१४
१५
'६७-६९
७१-७३
१८ श्री षट् पर्वी अधिकार गर्जित श्री विरजिन
स्तवन
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23
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पत्र.
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७४-७९
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शांतिना
थना.
॥३॥
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नंबर
स्तवननुं नाम
१९ श्री दशविध पच्चक्खाण स्तवन २० श्री उपधान विधिनुं स्तवन ......
....
....
८३-८६
२१ श्री समवसरणनुं स्तवन २२ श्री कल्याणकनुं स्तवन
....
८६-८९ ८९-९१
www.
२३ श्री संवत्सरी दाननुं स्तवन .... २४ श्री आदीश्वर भगवाननातेर भवनुं स्तवन २५ श्री गोडी पार्श्वनाथजीननुं स्तवन
९१-९४ ९५-१०३
२६ श्री सीमंधर स्वामी विनंति रूप स्तवन १लं १०३ - १०५ ..... १०५ - १०८ ....... १०८ - १११
| २७ श्री सिमन्धर स्वामीनुं स्तवन २ बीजुं २८ श्री सिमंधरजीन स्तवन ३ त्रीजुं २९ श्री अष्टमीनुं स्तवन ३० श्री समकित पच्चीशीनुं स्तवन ३१ श्री मौन एकादशीनुं स्तवन १ पहेलुं ३२ श्री रोहिणी तपनुं स्तवन .....
११२-११३ ११४-११८ ११९-१२२ ..... १२२-१२५
....
....
....
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....
पत्र.
७९-८१
८१-८३
नंबर
....
स्तवननुं नाम पत्र. ३३ श्री बीजनुं स्तवन १२६-१२७ ३४ श्री चोवीस जिनना-आंतरानुं स्तवन ..... १२७-१३० ३५ श्री शांतिनाथ स्तुति गर्भित चतुर्दश गुण
स्थानक स्तवन .....
....
१३० - १३७ ३६ श्रीदश मताधिकारे वर्धमान जिन स्तवन १३७ - १४२ ३७ श्री विजय धर्मसूरि सिस्य रत्नविजयकृत वर्द्धमान तपनुं स्तवन .... १४३ - १४५ ३८ श्री कांतिविज्यजी कृत श्रीसौभाग्य पंचमी ५ स्तवन
....
....
.... ५ पांचमुं १४५-१५३ ३९ श्री अर्बुदाचल उत्पत्ति चैत्यपरिपाटीनंं
0000
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स्तवन....
....
.....
१५३-१६० ४० श्री ज्ञान पंचमीनुं स्तवन ६-छटुं .... १६०-१६२ ४१ श्री पंडित उत्तमविजयजीकृत संयमश्रेणीनुं
स्तवन अर्थे सहित
.... १६३ - १८४
...
अनुक्रम. णिका
॥३॥
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स्व० बाबूलभाईनुं टुंक जीवन ।
आ व्यक्तिनो जन्म सुरतमां वीसाओसवाल ज्ञातिनां थयो हतो । मोटी उमरे पुत्र प्राप्तिनो योग मातापिताने स्वाभाविक आह्लाद जनक होय तेमन आ बालकनो जन्म तेना पिता अभयचन्दने पक्क उमरे आनन्ददायक थयो । मन्कुर अभयचंदनी आर्थिक स्थिति आ पुत्रा जन्म वखतथी सुघरवा लागी परंतु ते सद्भाग्यनो वैभव झाशीवार टक्यो नहीं। दश महिनानी लघु वयमां आ बालकने पितानो वियोग थयो, अने तेथी करीने तेने उछेरवानी तथा केळववानी फरज तेनी पंदर वर्षेनी विधवा माता तथा काका ऊपर आवी पडी । आ बालकमां तेना पिताश्रीनो नम्रता अने सुशीलतानो गुण मोटे अंशे उतरी आव्यो हतो ।
उत्तम जैन धर्मना संस्कारो नानपणथीज बालकोना कोमल हृदयपर सचोट जामे, अने हाल अपाती एकली इंग्लीश केळवणीथी केटलाक युवकोनां चित्त धर्मविमुख थई जाय छे ते न थाय एवा हेतुथी आ सुरत शहरमां बे धर्मानुरागी विद्वान गृहस्थोना स्तुत्य प्रयासथी पूज्य पं श्री सिद्धिविजयजी गणी (हाल सूरिपदालंकृत) नी पंन्यास पदवी प्रसंगे स्थापन थयेली श्रीरत्नसागर जी जैन विद्याशाला - धार्मिक तथा व्यावहारिक केळवणी मफत आपती प्रथम संस्था-मां आ बालकने अभ्यास माटे मुकवामां आव्यो । आ शालामां शरुआतथी अंग्रेजी त्रिजा धोरण सुधीनुं तथा धार्मिक पंच प्रतिक्रमण विगेरेनुं शिक्षण अपातुं हतुं ते पूर्ण करी सरकारी हाइस्कूलमां चोथा धोरणमां दाखल थया । तेमनो स्कूल अभ्यास प्रशंसा पात्र हतो परंतु टुंक आयुष्यने लीघे सं. १९६८ना आश्विन मासमां देहमुक्त थया तेथी कंइ विशेष करी शक्या नहीं । आ संसारमां टुंका आयुष्यवाळाओमां प्रायः चालाकी निपुणता विवेक आदि गुणो झलकी रहेला दीठामां आवे छे तेमज आ व्यक्ति अंगे बन्युं छे ।
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॥४
॥
GEORGES CLASSES
___ वावूलभाईना अकाल वर्गवासथी तेनी मातुश्रीने असह्य घा पड्यो आथी तेओर्नु चित्त संसारथी विरक्त थयु अने परि| णामें पोते अत्रेना गुरुणीजी श्रीमती क्षांतिश्रीजी के ओए पोते पण लघु वयमा आचार्य श्री विजयसिद्धिसूरीश्वरजीना उपदेशथी गुरुणीजी श्रीमती विजयश्रीजी पासे दीक्षा ग्रहण करी मनुष्यपणुं सार्थक कर्यु हतुं तेमनी पासे सं. १९७२ना वैशाख सुदी तेरसे दीक्षा ग्रहण करी पुत्र वियोगथी अन्य स्त्रियोनी माफक सदैव खेद करी आर्तध्यानमां काळ निर्गमी मोहनीय कर्मबंध न करतां | उत्तम धर्मर्नु अवलंबन करी, पुत्र अवसान बहुधा दुःखनो हेतु छतां तेने सुख साधन निमित्त बनाव्यु । वळी दीक्षा ग्रहण कयाँ अगाउ | आ पुत्र पाछल तेमणे तथा मरनारना काका ठाकोरभाइये एक अट्ठाइ महोत्सव तथा उद्यापन करी पोताना घरनी पासेना श्रीसुविधि| नाथजीना देरासरमा प्रतिमाजी पधराव्यां छे, मृत पाछल बीना नकामां खर्च न करतां धर्मकार्यमा उद्यत थq एज उचित छे।।
आ पुस्तक गुरुणीजी श्रीक्षांतिश्रीजीए अत्यंत श्रम उठावी तैयार कयु परन्तु टुंका वखतमां सिद्धक्षेत्रमा सं. १९७६ ना | ज्येष्ठ वदी ३ने रोज तेमनो स्वर्गवास थवाथी ए तेमनी यातीमां प्रगट थइ शक्युं नहीं ए सहज खेद जनक छ, तथापि तेमना
सुशिष्या साध्वीजी तार श्रीजी तथा (आ बाबूलभाइना संसारी माता खीमकोर ) जयन्तीश्रीजीए पोताना गुरुणीनी साहेबनी | पुस्तक प्रगटन इच्छा पार पाडी ए संतोषकारक छे.
उपरांत तेओए गुरुवर्य आचार्य श्री विजयसिद्धिमूरिजीनी आज्ञानुसार निर्मम वृत्तिथी गुरुभक्ति निमित्ते पोताना गुरुणीजीना नामथी सुरतना देशाइपोळना उपाश्रयमा एक लघु ज्ञानभंडार खोल्यो छे, जेमा स्व० शांतिश्रीजीए करेलो पुस्तकोनो संग्रह
अर्पण करवामां आव्यो छे अने ते चतुर्विध संघना उपयोग माटे खुल्लो छे. शा० डाह्याभाई कालीदास किनारीवाला। दाता. १०-५-१९२३
॥ दयागुणः सर्वगुणप्रधानम् ॥
॥
४
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शेट बाबुलभाई अभेचंद.
जन्म संवत् १९५१
ज्येष्ठ शुद्ध ६.
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मरण संवत् १९६८
आश्विन शुद्ध २ शनिवार.
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॥ ॐ नमः ॥
अथ श्री शांतिनाथनां पंच कल्याणकनुं स्तवन. "
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दुहा - हवे राणी अचिरा नित्य प्रतें, मज्जन करि जिनपूजा ॥ अप मंगलीक दूरें तजे, करम सबल मल धूज ॥ १ ॥ अति तीखुं कटुक मधु, कषाय अम्लक त्याग ॥ जेह जेहवि ऋतुओ होय; ते ह सेवे सराग ॥ २ ॥ जब मसवाडा नव हुआ, तेरस वदि जेठ मास ॥ शुभ लग्नें सुत जनमीयों, सयल भुवन सुख वास ॥ ३ ॥ ढाल ॥ राग काफी ॥ तप पदनें पूजीजे हो प्राणि ॥ तप ॥ ए देशी ॥ जिन वंदन कुं जइयें हो सहीयो जिन० । ए आकणि ॥ छ पन्न दिग् कुमरि सिंहासन, कुंजर कानसम डोलें ॥ अवधि नाण तव प्रयुंजी जाणी, हरखीत थइ एम बोले हो ॥ स० जि० ॥ २ ॥ भोगंकरा भोगवती सुभोगा, भोग मालिनि सुवच्छा ॥ वत्समित्रा पुप्फमाला नंदिता,
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शांतिन थना.
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प्रणमें ललि लली लच्छाहो स० जि० ॥३॥ सूतिकागृह तिन ईशान कुणे, प्रेरित पवन प्रचार ॥
र " पंच क. पूहवी शुद्ध जोयण एक कीधि, स्तवति जिन गुण सार हो स० जि०॥ ४॥ मेघंकरा मेघवती सु. न. मेघा, मेघमालिनी तोयधारा ॥ बलाहीक वारिषेण विचित्रा, दया गुणना भंडार हो स० जि०॥५॥ ऊर्ध्वलोकथी आठ ए देवी, वृष्टि करे आणंदा ॥ फुल मणी माणेक सोनैया, स्तवती उभी जिणंदा ४ हो स० जि० ॥६॥ नंदी उत्तरा नंदी आनंदी, नंदी वर्द्धनि विजैया ॥ विजयति जयंती अपरा देवि, जिन गुणमें भिजैया हो स० जि०॥७॥ __ रुचक परवतथी सवि आवी, दर्पण लेइ स्थीर रहीया ॥ जिन मुखजोति भव दुःख खोति, 16 खमन अति गह गहीयाहो सजि०॥८॥समाहारा सुप्रदत्ता ए देवी, सुप्रबद्धा यशोधरा ॥ लक्ष्मीवति वलि शेषवती जे, चित्रगुप्ता वसुंधरा हो स० जि०॥९॥ ते दक्षिण रुचक परवतथी, सान अर्थे नीर -
टा ॥१॥ लावें ॥ कलशधरी भरी मन संवरी, उभी जिन गुण गावे हो स० जि०॥१०॥ इलासुराने पृथ्वी देवि, पद्मावति एक नासा ॥ भद्राशीतावली नवमिका, तुज दीठे फलि आसा हो सजि०॥११॥पश्चिम
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RECOR
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रुचक परवतवासी, लेइ विजणासार॥सन्मुख विजणे विंजति वायु, करति नृत्य अपार हो साजि०॥१२॥ अलंबुसा नामें मीत केशी, पुंडरिका वली वारुणी ॥ सर्व प्रभा हासा कुमरी जे, श्री ही थुणे हेत आणी हो स० जि०॥ १३ ॥ परवत उत्तर रुचक थी आवि,प्रणमें जिनवर पाया ॥ चमर ढाले स्वपापमद गालें, टालें कर्म कषाया हो स० जि०॥ १४ ॥चित्रादेवि वली चित्र कनकनां, सौदामनी शतेरा; विदिशि रुचक हस्तमें दीवि, प्रणमें जीन शुभ लेरा हो स० जि०॥१५॥रुपशिका ने रुप सरुपा,
रुपकावती तस नाम; रुचक द्वीपथी नाल शांइंनो, आविवीदारे तामहो सजि०॥१६॥जन्म महोत्सव है मलि एणी परें कीधो, सिधो आतम काजो; स्नान वीलेपन चीर पहेरावें, भूषण अंगें वीराजे हो
स० जि०॥ १७ ॥ एह छपन्न दिग् कुमरि महोत्सव, करति जिनवर धाम; जोयण एक विमान शुभ विखी, पोहति निज निज ठाम होस० जि० ॥१८॥ इति श्री छप्पन्न दिग् कुमरी कामोत्सव समाप्तं ॥
दुहा ॥ चल्या सिंहासन इंद्रना, जाण्यो जन्म जिणंद; घंटा तव वजडावतो, मघवा मन आणंद ॥ १॥ हरिण गमेषी मन उलटें, मोटे शब्दपोकार; सुणी देव हरखित हुआ, करत सजाइ उदार
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शांतिना
थना.
॥२॥
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॥ २ ॥ लक्ष जोयण वीमान रची, पालक देवे रसाल; छाग सिंह वाहन ठवी आवे गजपुरपाल ॥ ३ ॥ ढाल ॥ राग पूर्वी ॥ सिद्ध चक्र पद वंदो हो भवियां एदेसी ॥ जन्म महोच्छव इम कीजें । भवो भवनां दुःख छीजे हो भवियां जन्म ० ॥ ० ॥ जिनधर आवि जिनजननीनें, तीन प्रदक्षिणा दीजें; वांदि कहे हे रतन कुक्षी, जगमें सवि सुख लीजें हो भ० जन्म० ॥ १ ॥ अवस्थापन निंद्रा तव दीधि, मुके प्रतिबिम्ब पास; अरिहा हरी बेकर मध्ये धरीनें, करि पंचरूप उल्लास हो भ० जन्म० ॥२॥ बहु यत्नें मघवा जिन ग्रहीनें, मेरु शिखर आवे रंगे; पांडुक कंबल शीलानि उपरें, श्री अरिहा लेइ अंके हो भ० जन्म० ॥ ३ ॥ दश वैमानीक वीस भवण वह, बत्रिस व्यंतर इंदा; एकसो बत्रीस मली रविचंदा, प्रणमें जिन अरविंदा हो भ० जन्म० ॥ ४ ॥ सोहम ईशाननी अग्र महिषियो, अड अड संख्या धारो; चमर बलेंद्रनि पण पण कहीयो, नव नीकायनी बारा | भ० जन्म० ॥ ५ ॥ व्यंतर ज्योतिषीनी इंद्राणि, अभिषेका च्यार च्यार; आतम तारण दुर्गति वारण, करें अभिषेक उदार हो भ० जन्म० ॥ ६ ॥ त्रायस्त्रिंशक सामानिक आनीक, एक एक तस विचार; अंगरक्षक परखदा पन्ना, लोकपालनां
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पंच क० स्तवन
॥ २ ॥
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च्यार हो भ० जन्म० ॥ ७ ॥ एकसो चोराणुं मलि इंहें कीधा, इंद्राणी छेंतालिस; त्रायस्त्रिंशक शादि दश सेवकनां, करें अभिषेक जगीस हो भ० जन्म० ॥८॥ मागध तीर्थ गंगानें पमुहा, पउम सरोवर पाणिः | मेलवी सरसव फुल औषधीयो, अभियोगीक देव आणी हो भ० जन्म० ॥ ९ ॥ एक कोडि साठ लाख प्रमाणो, आगम संख्या ए जाणो; पंडुर भृंगार शुचि नीर भरीया, सुरपति हीयडे धरीया हो भ० जन्म० | ॥ १० ॥ भवसायर निज तरवा काजें, हियडा आगल राखी; अथवा कर्ममल दुरें करवा, अनुभव | सुखडी चाखी हो भ० जन्म० ॥ ११ ॥ धूर अभिषेक अच्युत इंद्रनो, चरम करें शशिसूरो; इम अढी सें अभिषेक चित्त आणों, अडजाति पय पूरो हो भ० जन्म० ॥ १२ ॥ च्यार वृषभ सुंदर अड शृंगे, पयधारा | अभिषेका; अष्टमंगल चूरणादिक पूजा, उपगरणादि अनेकां हो भ० जन्म० ॥ १३ ॥ उतारि आरति मंगल दीवो, तुं प्रभु चिरण जीवो; इम कही माता पासें प्रभु मुके, सुर नंदीश्वर दीवो हो भ० जन्म० ॥ १४॥ दासी वधामणी दिई प्रभातें, प्रसव्यो पुत्र रतन्नो; वीण मुगटा भूषण रायें दीघां, दारिद्र दुर तस कीधां हो भ० ॥ १५ ॥ दंसुठण सुधीकुल रिति करतां, कुटुंब क्षत्रीय मलि जाति; गर्भ थकी शांत
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शांतिना-दिधी देशना, गुण हीत नाम तस शांति हो भ० जन्म॥ १६॥ “इति अढीसें अभिषेकमहोत्सव समाप्तम्” पंच क० थना. _दूहा-चंद वदन नीत उल्लसियो, दंत दाढिम समजाण; भुज भुंगल गजगति वली, श्वास | स्तवन.
कमल परिमाण ॥१॥आठ वरसनां जब हुआ, कुमरपणे भगवंत, शुभ लग्ने शुभ मुहर्त दिनें, पंडित घर ठवंत॥२॥अनध्ययनें ध्ययन सदा, नीर्द्रव्ये द्रव्य हुंत; अण भुषणे भुषण तदा, सो परमेश्वर संत॥३॥ ___ ढाल-विवाह लानी देशी-हवे प्रभु हस्ती उपर जब चढीयां, मेघाडंबर अंबरे अडीआं; शुभ
लग्न लेइ मायनें बा, गुण निधीनें नीसाले थापें ॥१॥ पंडीत वरदान देवा सारूं, विविध प्रकारना शलेइ दीदार; मणि माणीक भूषणादिक चीरा, सवि लीएं तस वडनर धीरा ॥ २ ॥ निशालिया अर्थे || सिंघोडां खजुर, चारोली द्राक्ष श्रीफल प्रचूर; धाणि चणा सोपारि सुखडीयां, पाटी लेखण बरतणां खडिया ॥३॥ अनेक लेइ उपगरण भलेरां, स्नान मजन करे प्रभु केरां; बावन्ना चंदन चर्चे सुहालां,
अलंकार पहेरावे सुकुमालां ॥ ४॥ सोवन विंटि कुंडल नवहारा, पंच वर्णनी माला सहकारा; आत४पत्र शीर सोहें चिहुं पासा, ढलकता चमर अमर उल्लासा ॥ ५॥ रमणीय अनेक वाजींत्र वाजते,
CASESA-K
॥३
॥
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पगपगें वरपात्र नाचते; इम माहा उंबरे प्रभुजी आव्या, सिंहासन पंडिते मंडाव्यां ॥६॥ पाठकनें आभुषण आपें, पंड्यानां दारिद्र दूरे का; निशिलीया कहे छटी अपावो, प्रभु तुमनें जय मंगल थावो ॥ ७॥ इंद्रासन इंद्रनो थरहर चलीयो, अवधि ज्ञानशुं हरिमन भलीयो; तोरण आंबे बांध्यु नवि छाजे, एतो अचरज वात हुइ आजे ॥८॥ एह चिंतविरूप करे विप्र, पंडित स्थानें प्रभुजीने खिप्र; पंडित मनहरि संदेह पूछे, टाल्यां संदेह सहुनां मन तुठे ॥ ९॥ हरी कहे सांभल विष सयाणी, बालक नहिं एछे शुद्ध नाणी; देवाधिदेवे उपदेश तस दी, जिनेंद्र व्याकरण प्रभुजी ए कीधुं ॥ १० ॥ प्रणिपत्य करी हरी ठामे पहोता, ॥ भगवंतपण परिवारे सोहंता; नितनीत नवनवी क्रिडा करंता, मात पिता देखी हरख धरंता ॥ ११॥ एणी पेरें निशालगरणुं करशे, आवतां दुष्ट करममल हलसें; मोह महा मद कुमति गलसे, सेवतां शिव सुख भवि मलशें ॥ १२ ॥
॥ इति श्री निशाल गरगुं संपूर्णम् ॥ दूहा बालपणुं प्रभु निर्गम्युं, वर्ष सहस्स पणवीस; भोग समरथ थयां जाणिनें, चिंतित माय |
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शांतिना थना.
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मनईश ॥१॥ मंडपरायें मंडावीयो, विचित्रित सोवन वान; चिहुं दिश तोरण बारणे, जडित रयण स
यणपंच क० मान ॥२॥ ढोल नगारां गडगडे, सरणाइ भुंगल सार; विवाह महोत्सव करे घj, हरख तणो नहिं पार ॥३॥
ढाल-राग धन्याश्री ॥ भरत नृप भाव स्युं ए ॥ ए देशी ॥ पणवीस सहस्स वरष वोल्या ए, कुमरपणे जगदीश; महोच्छव मंडावीयो ए। मातपिता देखी हरखियां ए, हरखे सुरनर इशा महोच्छव० ॥१॥ आंकणी ॥ हथिणा उर पुरमें हुआ ए, अचीरानंद मल्हार महो० जोवन वय विभु| पामीया ए, नीगम्यो बालाचार महो॥२॥ वात करे विवाह तणी ए, जुए राजकुमारी महो ए सरिखि कन्या जो मिले ए, तोहोए मन श्री कारी महो० ॥ ३॥ महा मोटे आडंबरें ए, राजा हर्ष अपार महो०; मंडप सखर रचावियाए, अधीक सोहे सफार महो० ॥ ४॥
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विविध वरणे चंद्रुआ किया ए, तोरण झाक झमाल महो० ॥ बालिभोलि सिणगार सजी ए, गावे गीत रसाल महो०॥ ८॥ स्नान मजन करावियां ए, भावतां कुंडल हार महो० ॥ वेढ विंटि बहेरखा ए, फुलमाला सहकार महो०॥९॥ मंगल तिलक मांडिकरे ए, आणि हरख अपार महो०॥ वरघोडे प्रभु संचरयां ए, वाजां वाजे मनोहार महो० ॥१०॥ राजकुमरि प्रभु परणीया ए, नामें यशोमती नार महो० ॥ ते साथे सुख अनुभवे ए, भोगवें भोग संसार महो० ॥११॥ चक्र स्वपन राणि ए दिदं ए, चक्रायुध लीए नाम महो०॥ देश विदेश सवि भरतनां ए, सांध्या षट् खंड खाम महो० ॥ १२ ॥ पून्य योगें सवि संपदा ए, ठामोठाम अनंत महो० ॥ विनयथी राज्य नीति पालतां ए, टालतां भव दुःख संत महो०॥ १३॥ जन्म कल्याणक सेवियें ए, लीजिएं सुख रसाल महो० प्रगटे क्षमा गुण ऋद्धि सिद्धी ए, तस घर मंगलमाल महो० ॥ १४ ॥ इति द्वितीयस्य जन्म कल्याणकयोः समाप्तम् ॥
दहा-पणविस सहस्स वरस भलां, पालतां राज्य उदार; संयम समय जणाववा, लोकांतिक
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शांतिनाथना.
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सुखसार ॥१॥ जयजय जगचिंतामणी, जयजय जगदाधार; प्रभु तीर्थ प्रगटावीएं, द्यो भवि सुख निरधार ॥२॥ करुणाकर काने सुणी, देव कहीजें वाण; वरसी दान दीए तदा, समय काल तस जाण॥३॥
ढाल-कोइ ल्यो पखत धूंधलोरे लोल ॥ ए दे शी ॥ वरसी दान दीए घणुं रे लाल, त्रण सय अठासी रसाल रे हुं वारिलाल ॥१॥ दान संवत्सरी दीजिये रे लाल ॥ आंकणी ॥ अन्न धन्न वस्त्र औषधी घणि रे लाल, मांगे ते आपे अपार रे हूं. वारिलाल ॥ राज्यथा निजनंदने रे लाल, संयम भावना धार रे ९० वारिलाल ॥ दान० ॥ २॥ संसारासार सारज नथी रे लाल, जन्म मरण| दुःख पेख रे हुं० वारिलाल ॥ मघवादिक सवि देवता रे लाल, अवधी ज्ञानें तस देख रे ९० वारिलाल ॥ दान०॥३॥ क्षीरसमुद्र पद्म द्रहना रे लाल, लावे भरी भरी नीर रे हुं० वारिलाल ॥ अंगे |चंदन विलेपतां रे लाल, पहेरतां प्रभु शुचि चीर रे हूं. वारिलाल ॥ दान० ॥ ४ ॥ भूषणें अंगअति दीपतां रे लाल, सुंदर सवि सिणगार रे १० वारिलाल ॥ सहस्स पुरुष वहे शीबिका रे लाल, चामर छत्र ध्वज सार रे हुं० वारिलाल ॥ दान०॥ ५॥ अष्ट मंगल आगल वहे रे लाल, झल्लरी
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मादल ताल रे हुं० वारिलाल ॥ वीणा वाजिंत्र बहु वाजते रे लाल, सिरी मंडल कंसाल रे ९० वारिलाल ॥ दान ॥ ६॥ सूर मानव विद्या धरु रे लाल, बोलतां जयजय कार रे हुं० वारिलाल॥ सहसा वनें प्रभु आवियां रे लाल, उतारयां अलंकार रे हुं० वारिलाल ॥ दान० ॥७॥ कृष्ण ज्येष्ठ चौदश दीने रे लाल, भरणी रिख शुभ वार रे हुं० वारिलाल ॥ पंचमुष्टी लोच द्रव्यथी रे लाल, भाव सामायक धार रे १० वारिलाल ॥ दान०॥८॥ स्वमुखें"नमो सिद्धाणं” जपे रे लाल, छठ तप करे चउवीहार रे १० वारिलाल ॥ देवें चिवर स्कंधे स्थापीया रे लाल, सहस स्युं संयम सार रे ह० वारिलाल ॥ दान०॥९॥ मनःपर्यव तव उपन्युं रे लाल, मति श्रुतअवधि श्रीकार रे ई० वारिलाल ॥ अप्रमादीपणे नित्य रहें रे लाल, जीव दया भंडाररे हुं० वारिलाल ॥ दान० ॥ १०॥ धन्य धन्य विश्वसेन रायने रे लाल, धन्य धन्य अचिरा मात रे हुं० वारिलाल ॥ धन्य धन्य जिन-2 चक्री पंचमो रे लाल, जायोजेणे शुभ जात रे ९० वारिलाल ॥ दान०॥ ११॥ इति श्री संवत्सरी दानदीक्षा वरघोडो महोत्सव संपूर्णम् ॥
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थनां.
हवे उपसर्गादि अधिकार कहे छे ॥ दूहा ॥ सिंह समो दुर्द्धर थइ, करतां कर्म विदुर; मोह - पंच क० महामद दुर भयो, वहियो आणंदपूर ॥१॥ पंच संवर मनमें धरी, पंचाश्रव करें त्याग; परिसह । स्तवन वर्गनें थोभतो, धरतो धरम सराग ॥ २ ॥ ढाल ॥ राग काफी ॥ सामली सुरत पर मेरो मन अटक्यो । ए देशी ॥ सयण संबंधीने पूछी प्रभुजी, विचरे महीयलमांही जी; चक्रायुध नृप आंशु झरतां, नयणे निरखे त्यांहिं जी ॥१॥ पंचमो चक्री सोलमो साहेब, करमनो करे वीनाश जी॥ ॥ पं०॥ आंकणी॥ अण दीठे नृप पाछा वलीया, धरतां मन अति खेदें जी;बावन्ना चंदन चरचीत ए ! अंगे, षट् पद शरीरने वेदे जी ॥ पं० ॥ २॥ स्त्रीयो पण भोगी कुंअर जाणि करें, अनुलोमा उपसर्गे जी; तप मुद्गरे तस दुर विदारी, लेवा सुख अपवर्गे जी ॥ पं०॥३॥ पारणुं प्रथम करावे पयर्नु, मंदीरपुर जिनराय जी; सुमित्र रायें सुपात्रे दीधुं, पंच दिव्य प्रगट सोहाय जी ॥५०॥४॥ अनुकुल देव मनुष्यनो जाणो, वलि तिर्यंचनां कीधां जी; उपसर्गनां वर्गथी निकली, शांति स- ॥५ धारस पीधां जी ॥ पं०॥ ५॥ पण सुमति वली तीन गुप्ती जे, क्रोधमान माय त्यागी जी, अलोभी
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अद्वेषी अममत्व नि रागी, अभ्यंतर सोभागी जी ॥ पं०॥ ६॥ जयवंतो जीन शासन नायक, एणि परें संयमपाले जी; त्रीजु कल्याणक दीक्षा केरुं, प्रभु विनयें दुःख गाले जी ॥ क्षमा गुण भवि भाले| जी ॥५०॥७॥ इति श्री तृतीय कल्याणकं समाप्तम् ॥
॥अथ श्री चतुर्थ केवल ज्ञान कल्याणकम् ॥ | इम वीहरंता आवीया, गजपुर गुण गंभीर; पावन करतां भव्य नें, सहसा वन सुधीर ॥१॥ छद्मावस्था भोगवी, एक वरस भगवंत; अनुभव आतम गुण नीलो, शांतदया गुणवंत ॥ २॥ पोष शुद नवमी वासरे, तरू नंदीतले जाण; शुक्ल ध्यान मनध्यावतां, निरुपम केवल नांण ॥३॥ ढाल गुणी जन वंदो रे ॥ ए देशी ॥ वंश विभूषण साहेबा रे, केवल नाण उपाय रे; समवसरण संक्षेपथी रे, वर्णवियो गुरुराय भवियण वंदो रे वंदोवंदोरे अचीरानंद ॥ परिमाणंदो रे॥१॥आंकणी।। तीर्थंकरनाण उपजें रे, आवे इंद्र मनोभाव रे; निजनिज कर्मनें करवा थी रे, बहुमणी रयणने लाव भ०॥२॥ वायूकुमार धूर वायरो रे, जोयण भूमीका शुद्धरे; कलेवर जीवनां दुर करीने,
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आतम संवर लुद्ध ॥ भ० ॥३॥ मेह कुमार मनोहार थी रे, वृष्टी करे नीरधार रे; चंदन का
वासीयोते रे, रज समावे उदार भ०॥४॥ अग्नी कायनां देवता रे, उखेवे धूप रसाल रे; वाण व्यंतर ॥७॥दरचे पीठिका रे, मणी रयण वीशाल भ०॥५॥ पंच वरण पीठिका परें रे, भरतां जानु प्रमाण रे।
उद्वे बिट रचना रचे रे, वाण व्यंतर गुण खाण ॥ भ०॥ ६॥ आवि सुरवर वंदिया रे, भक्ति भाव उल्ल संत; समवसरण लव लेश ऋद्धि रे, पभणुं नीसुणो संत ॥ भ०॥ ७॥ जीनजी जब नाण पामीयां रे, आवे चोसठ इंद रे; समवसरण मलीने रचे रे, पामें अति आणंद ॥ भ० ॥८॥ भवणवइ हवे देवता रे, रजत तणो रचे सार रे; कोसीसा हेमना कह्यां रे, सोभ तुं वृत्ताकार ॥ भ० ॥ ९॥ रवि शशी ग्रह सूर जोशीया रे, गढ बीजुं रचे हेम रे; कोसीसा रयण ना कह्यां रे, आगम मांछे जेम ॥ भ०॥ १०॥ त्रीजुं गढ रयण नुं रचे रे, वैमानिक उत्तंग रे; मणी कोसीसा |विराज तां रे, लागत मनशुं चंग ॥ भ०॥ ११॥ उचि, गढनी भिंति सवे रे, धनुष्य पंच प्रमाण | रे विस्तार पण तेत्रीश धनुं रे, दुतीस अंगुल जाण भ०॥ १२ ॥ गढ गढ़े थी अंतर भुइं रे, ते
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। रसें धनु मोझार रे; पोहली कही पंचाश धनुं रे, सोपान मयी श्रीकार भ०॥१३॥ पावडियां दश सहस,
छेरे;धरीए जाणो विस्तार रेबिजें पंच सहस कां रे, इमछे त्रिजे विचार भ०॥१४॥ पावडियां कर भुंइंथी ४ारे, उत्तंग छे निरधार रे; पंचावन्न रयण तणा रे, झलके चिहुं दिस बार ॥भ०॥१५॥ वीस सहस शुं
हुआ रे, संख्या ए मनोहार रे; उत्तंग भुंइ थकी कह्यो रे, अढि गाउ पायार ॥भ०॥१६॥ त्रण त्रण तारेण चिहुं दिसें रे; नील रयण मय चंग रे; मणी मय थंभ शुभ पूतली रे, करति नाटारंभ भ०॥१७॥
दुहा-भुवन पति पमुहा वली, देवें दो देव राय; लोक अछेरा कारणे, उज्जो गयणे सोहाय॥१॥ जीवनां भव दुःख वारणे, रजत सुवन्न उदार; रयणादि गढ वीर चतां, कोसीस नाना प्रकार ॥ भ० M॥२॥त्रीजुं वैमानीक सूर रचे, पीठिका पोहलि सार; दुसय धनुं उंचि कही, शोभत वृत्ताकार ॥३॥
ढाल गुण रसीया ॥ ए देशी १ इशान कुणे देव छंदो कह्यो रे, छाजे तरुवर शोक रे; मन वसीया जीन तनु मान प्रमाण छे रे, सम्यग्-लहे सुरलोक रे म०॥ १ ॥ चिहुं दीशे छत्र त्रण शोभतां, ढलकतां चमर रशाल रे म०॥ कौतुकें भवि मोह पामतां रे, श्री जिन ऋद्धि निहाल रे म०॥२॥
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वण यरत्रण दीसें ठवे रे, पडि रुव जिन हरि पूज रे; म०॥ अगर उखेवे गुण स्तवे रे, पामे भविप्रति ब्रूझ रे म०॥३॥ पूरवाभि मुखे तिष्ठतां रे, करतां प्रभु वखाण रे; म०॥ देवनर तिरि भवी बुझतां रे, जिन वाणि हेत आण रे म०॥४॥ जोयण एक प्रमाण छे रे, प्रभु वाणि विस्तार रे; म०॥ गुहिरी गाजति भाजति रे, करति भव निस्तार रे म०॥ ५॥ मुनि पुंठे वैमान देवी रे, अग्नी कुण धूर जाण रे म०॥ व्यंतर भवण जोसी सुरी रे, नैरुत कुण सयाण रे म०॥ ६ ॥ वाण व्यंतर जोसी वली रे, जाणो भवना धीश रेम०॥ वायु कुणे एह देवता रे, सेवा श्री जगदीश रे| म० ॥ ७ ॥वैमानीक नर राजीया रे, आतुर थइ करे सेव रे म० ॥ इशान कुणे उभा रही रे, जोतां जिन मुख देव रे म०॥ ८॥ एणिपरें बारे परषदा रे, निसुणे श्री जिन धर्म रे म०॥
अबाधा वयर होयें नहिं रे, समजे धर्मनु मर्म रे म०॥९॥ अण हुंते वाजां वाजते रे, सुरनर | कोडि विचार रे म०॥ गगन मंडलमें गड गडे रे, फरकति ध्वजा च्यार रे म० ॥ १० ॥ सहस | | जोयण उत्तंग भली रे, जिन शिर परें वीराज रे म०॥ मणिमय गढ बाहेर रचे रे, देव छंदो तस|
॥८॥
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जाण रे म० ॥ ११ ॥ अनोपम सुर इशान कुर्णे रे, नित्य करतां गुण जाण रे म० ॥ चिहुं दीसे जीन चिहुं शोभतां रे, तेजें दीपति भाण रे म० ॥ १२ ॥ शांति सुधारस देशना रे, पिवे परषदा बार रे म० ॥ वयर भाव भय दुर टलें रे, सयल जंतु हीतकार रे म० ॥ १३ ॥ वाहन ठचे पहेले गढें रे, हरि करी महीषी छाग रे म० ॥ जलयरथलयशर पंखिया रे, गढ बीजे शिव मांग रे म० ॥ १४ ॥ देव मनुष्य त्रीजें गढें रे, सांभले जिनवर वाण रे म० ॥ आवि अद्धषीणमें सही रे, बार जोयण भवि नांण रे म० ॥ १५ ॥ चिहुं दीश वाव चिह्न निरभरी रे, चौ खुणें दो दो वाव रे म० ॥ पडि हार देव चउ तणां रे, जिन गुण नीत नीत गाय रे म० ॥ १६ ॥ विजया जीत अपरा जीया रे, तुंबरु कष हंग नाम रे म० ॥ हथीयार नीज करमें ग्रही रे, सेवा करे सारे काम रे म० ॥ १७ ॥ दुहा—- समवसरण शुमती करि, निरखे प्रभु मुख चंद; धन्य धन्य सुरनर नारीयो, नीत नीत नयना नंद ॥ १ ॥ उत्तम देश भरतनां, गाम नगर आगार; हथ्थीणा उर पूरें आवीया, नाठां दुरीत प्रचार ॥ २ ॥ ढाल || देश मनोहर मालवो ॥ ए देशी ॥ सोहं कर केवल पामियां, आवियां
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चोसठ इंद ललना ॥ समवसरणरचना रची, ललि ललि प्रणमें जिणंद ललना ॥ १ ॥ केवल महोत्सव सुर करें, कांइ आणी अधीक स्नेह ललना ॥ ए आंकणी ॥ आठप्राति हार्ये शोभतां, मुला तिशयें चार ललना, गुप्त आहार निहार सदा, रुधीर गोखीर समधार ललना ॥ के० ॥ २ ॥ श्वास कमल अंगे स्वेद नहिं, करम खपावी इग्यार ललना ॥ ए गुण वीस अमर कीया, चोत्रीश अतिशय धार ललना ॥ के० ॥ ३ ॥ समव सरणमें वीराजतां, शांती जीणंद दयाल ललना ॥ गुण अनंत गुण धारतां, वांछतां धर्म मयाल ललना ॥ के० ॥ ४ ॥ मेह मधुर गंभीर ध्वनी, पीवे चातुक भवि धार ललना | सोलमा स्वामी चक्री पांचमो, पून्य प्रकृति नो नहिं पार ललना ॥ के० ॥ ५ ॥ दुषण समवसरण दीसा, लागत नहींअलगार ललना ॥ नर तिरि निरिया मरावली, कोडा कोडि परिवार ल० ॥ के० ॥ ६ ॥ आत पत्र प्रभु शीर छाजे, भामंडल झलकंत ल० ॥ त्रण गढ नी रचना करी, च्यार स्वरूपें पेखंत ल० ॥ ७ ॥ लोका लोक प्रकाशंती, गाजतिं नीशुणंत ल० ॥ अन्नाण तिमिर अनादि नो, दुःख सयल हरंत ल० ॥ के० ॥ ८ ॥ वन पालक श्रवणें सुणी,
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दिए वधामणी नाथ ल०॥ हय गय रथ सिणगारीयां, लेइ अंते उर साथ ल०॥ के०॥९॥ राय समीपें आवियां, वंदीया हरख विशेष ल०॥उचीत स्थान के बेसतां, प्रभुशुं नय ये उपदेश ल०॥०॥१०॥
दुहा-संसार में भमतां थकां, दुःकृत नर भव लद्ध; ॥ निद्रा विकथा दुरत्यजि, आप सवारथ सिद्ध ॥१॥ जन्म मरण गर्भ वासनां, दुःख छे अनंत अपार; सघला दुःख थी छटिएं, सेवे प्रवा सार ॥२॥ संयम मारग आदरि, शुद्ध छे मुक्ति पंथ; समता शुद्ध छे आतमा, तप निरमल निग्रंथ ॥ ३ ॥ ढाल ॥ राग धन्या श्री ॥ तप गच्छनंदन सुर तरु प्रगव्या, हिर वीजय गुरु राया रे ॥
ए देशी ॥ नृप सुणी धर्मनें सज थया सर्वे, जाणी अथीर स्वरूप रे; राज ठवे राय नीज पुत्र में, भावता भावना भूपरें ॥१॥ अमने कुण करत उपगार, सौभागी हितकार रे ॥ अमने ॥ आं० पांत्रिसें नृप साथे पखरिया, दीक्षा दीएं जगदीश रे; त्रिपदिनी सुणी प्रभु मुख थकी, गण धरादिक छत्तीस रे अमने०॥२॥ बासठ सहस्स संयमि साधु भालो, साधवी संख्या धारो रे; हजार बासठ पर चउ शत सही, वंदी करम निवारों रे॥ अमने०॥३॥मनःपर्यव चउ सहस्स हुआ, केवली च्यार|
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हजारो रे त्रण सय संख्या पूर धारिए, अवधि तीन हजारो रे ॥ अम०॥ ४॥ वैक्रीय खट सहस साधुछे, अडसय पूरव धारो रे; दोय लक्ष नेउ सहस्स कह्यां, ए श्रावक विचारो रे ॥ अम०॥५॥ श्रावीका समताधर तीनलक्षो, उपर त्राणुं हजारो रे; श्रीजिन आगममांहें कहीयां, ए सघलो परिवारो रे ॥ अ०॥ ६ ॥ चोथु कल्याणक विनयथी पूजें, दुजें ज्ञान उदारो रे; खम विजयनां भव दुःख छीजे, लीजे शीव निरधारो रे ॥ अम०॥ सौभागी सीर दारो रे ॥ अम० ॥७॥ इति चतुर्थं केवल ज्ञान कल्याणकं समाप्तम्
॥अथ श्रीपंचमनिर्वाणकल्याणकः ॥ । दहा-हवे कल्याणक पांचमो, गावा हरख अपार; तनमन जिन गुण शृणतां, सफल होय अवतार ॥१॥ ढाल ॥ राग सोरठि ॥ ऋषभजीनेश्वर प्रीतम माहरो रे॥ ए देशी ॥ अनुक्रमें श्रीजीनवरजी आवीया रे, समेत शीखर गिरिराज ॥ पणवीस सहस संयंम पणें हुआ रे, साधे आतम काज ॥१॥ शांति जिनेश्वर जगमां सुयशथयो रे, ॥ आं०॥ संपूरण पालीसह आउखुं रे, लक्ष
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वरस परिमाण; आयुनाम गोत्रवेदनी क्षयी रे, पाम्यां पद निर्वाण ॥ शांतिः॥२॥ अजरामर पद ज्ञानविलासतां रे, अक्षय सुख अनंत; कर्ता अकर्त्ता तुंहीं प्रभु रे, निज गुणनें विलसंत॥शांतिः॥ ॥३॥ प्रगट्यो दरिशनज्ञान चरण घणुं रे, भांगे सादि अनंत; असंख्य प्रदेश आकाश एक देशमा रे, अनंत गुणो भगवंत ॥ ४॥ शां० ॥ निरमल सिद्ध शीलाने उपरें रे, जोयण एक लोगंत; सादि अनंतस्थिति जिहां छे जेहनी रे, ते सिद्ध प्रणमोसंत ॥५॥शां॥ रुपातीत स्वभावछे जेहनां रे, केवल दंसण नाण; आतमध्याने सिद्ध ध्याता थकां रे, पामे सिद्ध सयांण ॥ ६॥शां०॥ एह प्रभु ध्येय समाप्पति हुइरे, ध्याता ध्यान प्रमाण; केवल कमला विमला क्षेमथी रे, वरेसिद्ध गुण खाण॥शां०॥७॥3
दहा-कर्म सयल रेकरी, अक्षय सुख अनंत; अव्ययलील अनंतता, पाम्या श्री भगवंत ॥१॥ HI ढाल ॥ जिंडुआनी देशी ॥ श्रुतदेवी समरी सदा रे, शांतिजीणंद दयाल रेजी रे ॥ पद निर
वाण प्रभु पामियांजी रे, अव्यय लील निहालरेजी रे॥१॥पद०॥ जरा मरण दुःख छेदीयांजी रे, तोड्यांते कर्मनां बंधरेजी रे॥ हरी इंद्रासन हालीयाजी रे, जाणीया सयल संबंधरेजी रे ॥ पद०॥२॥
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शांतिना-अग्रमहीषीयो इंद्रनीजी रे, लोकपाला दिक साररेजी रे ॥ सपरिवारें शोभतारे जीरे, जिनगुण गीतपंचक. थना. संभाररजी रे, ॥ पद०॥३॥जिहां भगवंतनुं शरीरछेजी रे, तिहां आवे सुरजातरेजी रे ॥ प्रदक्षिणा स्तवन.
नमनादि केंजी रे, करतां आंशु पातरेजी रे ॥ पद०॥ ४॥ करजोडि करे सेवनाजी रे, सोहम जाणो ए धूररेजी रे ॥ इशान पण इणि परेंजी रे, ढलकतां आंशु पूररेजी रे॥ पद०॥५॥ मनमें दुःख मायेनहींजी रे, सोहम आज्ञा जेमरेजी रे ॥ तदनंतर भवण वइजी रे, व्यंतर जोसी तेमरेजी रे ॥पद॥६॥वैमानिक सहदेव ताजी रे, नंदनवन मन भावरेजी रे॥गोशीर्ष चंदनादि केजी रे, चयने कारणे लावरेजी रे॥ पद० ॥ ७॥ तिर्थंकर गणधर निजिरे, शेषकरे अणगार रेजी रे॥चयतेत्रण करतां थकां रेजी रे, आणि दुःख अपाररेजी रे ॥ पद० ॥ ८॥ आज्ञाकारि देवता कन्हेंजीरे॥ रषीरनुं नीर आणावरेजी रे ॥ सोहमनीर जिनजी तनुं रेजी रे, स्नान मजन करावरेजी रे॥पद०॥ ॥ ९॥ बावन्ना चंदन लेपतांजी रे, प्रभु भूषण पहेरावरेजी रे ॥ गणधरने अन्य देवताजी रे, मुनी ॥११॥ अलंकार धरावरेजी रे॥ पद०॥१०॥ चित्रामण त्रण शीबिका जीरे, चित्रीत छे अभिराम रेजी रे॥
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आंशुपात करतां थकां जीरे, जिन तनुठविया तामरेजीरे ॥ पद० ॥ ११ ॥ गणधरादि एणि परेंजीरे, वली मुनिनां शरीररेजीरे ॥ चयमें जीनतनु ठवतां जीरे, सोहम वडो सुधीररेजीरे ॥ पद० ॥ १२ ॥ | अग्नि कुमारे विकुरव्योजीरे, अग्नि उच्छाहर रहीतरेजीरे ॥ वायु कुमारे वायरोजीरे, इमकरे निजनिज जीतरेजीरे ॥ पद० ॥ १३ ॥ अन्य देवा धणुं उलटेजीरे, अगर चंदनलेइ साररेजीरे ॥ काष्टमांहे नांखे तदाजीरे, सिंचित घृत मधू धाररेजीरे ॥ प० ॥ १४ ॥ प्रभु शरीर ज्वलतां थकांजीरे, जोतां | हरी स सनेहरेजीरे ॥ तिम गणधरनें मुनिवराजीरे, निरजीत हुइ तस देहरेजीरे ॥ प० ॥ १५ ॥
दूहा — अच्युत देव आदेशथीरे, मेघमाली मनोहार ॥ नीर वरसावे यूक्तिथी, ओल्हवी चय तेणीवार ॥ १ ॥ चतुर सनेही मोहनां ॥ ए देशी ॥ तद नंतर सोहमपति, देव राया शिरदारोरे ॥ वाम पासानी दाढालीएं, उपरनी श्री कारोरे, मोक्ष कल्याणक भविसेवो, अनंत अनंत दुःख खेवोरे ॥ मो० ॥ ॥ आं० इशान इंद्र दाढालीएं, वाम पासानी उपरनीरे ॥ जमणी पासा चमरेंद्रे, दाढालीएं हेठ लनीरे ॥ मो० ॥ २ ॥ बलिंद्रलीएं वाम पासनी, अधो दाढा उल्लासरे ॥ अंगोपांग
सहु हरीलीयें,
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शांतिनाथनां.
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॥१२॥
टाले कर्मनां पासरे। मो०॥३ इंद्र रतनमय शुभकरे, तीर्थंकर गण धारारे॥ मुनितीन शूभ रची करी, नंदीश्वर जाए प्यारारे । मो०॥४॥ जंबु द्वीपथी आठमो, त्रीदश रमवानुं धामरे ॥ एकसो तेसठ कोडि चौरासी, लक्ष जोयण अभिरामरे ॥ मो०॥ ५॥ मान विखंभ वलयांकित, शाश्वतां चैत्य जुहारोरे ॥ आनंद मंदीर सुखकरूं, तसवंदीत पाप नीवारोरे ॥ मो० ॥६॥ चिहुं दिशि चिहुं अंजनगिरी, उंचा चोरासी हजारोरे ॥ लांबां वीस्तार दशसहस्स छे, सहसभुमी मांहे धारोरे ॥मो०॥ ॥७॥ नंदोत्तरा नंदा आनंदा, नंदी वर्द्धनी वाविनामरे ॥ दश जोयण उंडीकही, चउ वनछे अभिरामरे ॥ मो०॥ ८ ॥ थंभ तोरण धारादिकसवी, दधीमुख गीरी मांहेदीसेरे ॥ तेह उपरें जीन मंदीरां, शोभीत सुरनर दीसेरे ॥ मो०॥९॥ अंजन गिरी परिमाण छे, उंचा लांबा विस्तारोरे ॥ |जिन मंदीर आठ उपरें, झल्लरी काराधारोरे । मो०॥१०॥चौ बारा प्रासादछे, अंजन गिरि शिरजांणोरे ॥ तेरतेर प्रसाद चीहंदीसे, बावन्न जिन घरमांनीरे ॥ मो०॥ ११ ॥ ऋषभ चंद्रानन शाश्वतां, वारीषेण वर्द्धमानोरे ॥ एकसो चोविश पडिमावंदो, प्रभा रयण समानोरे ॥ मो०॥ १२॥
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॥१२॥ ॥१२
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पंच कल्याणक वासरे, महोत्सव करे सुरराजोरे ॥ समकीत गुनी जनवीकसें, करसें आतम काजोरे॥ ॥ मो० ॥ १३ ॥ जंघा चारण वीद्या धरु, नरवर सुरवर रमणारे ॥ विद्याचारण मुनिवर आवे, टाले, नमीभव गमणारे॥ मो० ॥ १४ ॥ केइ प्राणी समकित लहें, श्री जिन भक्तिनिशानीरे ॥ विदिशी
गीरीनां च्यार छे, सोल छे तस राजध्यानिरे ॥ मो० ॥ १५॥ सुंदर जीनवर धाम छे, सोहम इशा* ननी देवी रे ॥ अट्ठाइ महोत्सव तिहां करे, दशदिग्ग पालादि सेवी रे ॥ मो० ॥ १६॥ नंदीश्वर |3/
द्वीपनो बहु, विस्तार छे सयाणी रे ॥ जिवाभिगम ठाणांगमां, जोइकरो शुद्धनांणिरे ॥ मो० ॥१७॥ | दुहा-शांति जिनेश्वर गाइएं, ध्याइयें तत्त्वस्वरुप ॥ परमाणंद पद पाइये, अव्यय सुख अनुप ॥१॥ ॥ ढाल ॥४॥राय बोलावे राणिने हेत आणी रे ॥ ए देशी ॥ निज निज सूर सभाए गया, रूचीवंताजी ॥ डाबडा मांहें तस मूके बुद्धिवंताजी ॥ पूष्प चंदन दाढा पूजे, रू० ॥ अवसर हरी नवि चूके ॥ बू० ॥१॥ धूर सोहम देवलोय छे, रू०॥ बत्तीस लक्ष वीमांन बू०॥सत्तावन्न कोडी उपरे रू० सठलक्ष बिंब सुजाण ॥२॥ ईशान देवलोयें बीजे रू०॥ अडवीस लक्ष प्रासाद बु०॥ लक्ष
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शांतिनाथना.
॥ १३ ॥
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चालीश पचाशकोडि रू० ॥ नमोबिंब टाली प्रमाद बू० ॥ ३ ॥ सनत कुमार विमान शुची, रू० ॥ द्वादश लक्ष प्रमाण बू० ॥ सठलक्ष एकवीस कोडि, रू० जिन बिंब नमो सयाण बू० ॥ ४ ॥ चोथे | माहेंद्रे वीमान कह्यां रू० ॥ अडलक्ष छे विचार बू० ॥ चालीश लक्ष चउदें कोडि, रू० प्रणमो बिंब उदार बू० ॥ ५ ॥ चउलक्ष ब्रह्म पांचमें, रू० विमान सुंदर रसाल बू० ॥ सप्तकोडि लक्ष जीनवीश, रू० पूजे श्री बिंब विशाल बू० ॥ ६ ॥ पंचास सहस्र छठें कह्यां, रू० विमान लांतिक सूर बू० ॥ लक्षनेवुं बिंबरुअडां, रु० नमो आणंद भरपुर बू० ॥ ७ ॥ देवलोय शुक्र सातमें रू० ॥ सहस चालीस वीमान बू० ॥ जिनबिंब लक्ष बावत्तरी, रू० ॥ हरी पूजे गुणजाण बू० ॥ ८ ॥ सहसार देव आठमो भलो, रू० सहस छ विमान जोय बूं० ॥ दीगलक्ष एंसी सहसबिंब, रू० जिननमी दुर्मति खोय बू० ॥ ९ ॥ आनत प्राणत देवता, रू० दुगदुग सय प्रासाद बू० ॥ छत्तीस छत्तीस सहसछे, रू० टाली नमो उन्माद बू० ॥ १० ॥ एकादश द्वादश शुची, रू० आरण अच्यूत नाम बू० ॥ दुग दोढसो विमान भलां, रू० सहस सत्ताविस स्वाम बू० ॥ ११ ॥ बिजे एम परमांणछें, रू० श्रीजिनबिंब जुहार बू० ॥
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पहेले त्रिके ग्रैवेयकें भला, रू० विमान एकसो इग्यार बू० ॥ १२ ॥ तेर हजार वलीत्रणसें, रू० उपरें विसजिणंद बू० ॥ बीजे श्रीकें एकसोसात, रू० बीमान छे सुखकंद बू० ॥ १३ ॥ द्वादश सहस अडसय, रू० चालिस बिंब जुहार बू० ॥ एकसो वीमान त्रीजे त्रीकें, रू० जिनबिंब बारहजार बू० ॥ १४ ॥ विजयाय विजयंति जयंति, रू० अपराजीत चोथुं नाम बू० ॥ सरवारथ विमान पण, रू० प्रणमो छसय स्वाम बू० ॥ १५ ॥ एकसो कोडि बावन्न कोडि, रू० चोराणुं लक्ष हजार बू० ॥ चूंआलिश शत सयसठ, रू० उर्द्ध लोके बिंबधार बू० ॥ १६ ॥ जिनबिंब जिन दाढाहरी, रू० भावभावे मनोहार बू० ॥ अगर कपूर धूपउखेवे, रू० पूजे विविध प्रकार बू० ॥ १७ ॥ धनुष चालीसनी देहडी रू० कंचन वरणी काय बू० ॥ लंछन मृग जस छाजतो, रू० गाजतो आणंद पाय बू० ॥ १८ ॥ सेवतो यक्ष गरुड भलो, रू० नितनित संघ समुदाय बू० ॥ देवी निर्वाणी विघनवारे, रू० अहनीस जीनगुण गाय बू० ॥ १९ ॥ मोक्ष कल्याणक पांचमो, रू० ध्यावो शांति जिणंद बू० ॥ शुभलेश्या श्रीजिनथूणतां, कृ० पावो परमानंद बू० ॥ २० ॥ जे नर नारि एथुणसें, रू० पामसे मंगल माल बू०
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शांतिना
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शांति तुष्टि पुष्टिसदा, रू० तस घर लछी विशाल बू० ॥ २१ ॥ ढाल ॥ ५ ॥ राग धन्या श्री ॥ आज माहरे त्रिभुवन साहेब तुठो ॥ ए देशी ॥ पंच कल्याणक श्री शांतिनां, गुरु कृपायें गायारे ॥ एहकल्याणक त्रिविधें थूणतां, अनुभव रसमें पायारे ॥ १ ॥ त्रिभुवन नायक लायक तुठो, मोह माह| मल्ल रुठोरे ॥ त्रि० ॥ ए आंकणी ० ॥ दुरगतित्यागी पाप वीदारी, पावो शीव पटराणिरे || जीनगुण वाणि अमीय समाणि, लहीयां अनुभव नाणीरे त्रि० ॥ २ ॥ श्रीतीर्थपती भवियण नीत्यध्यावे, शांति जिणंदने गावोरे ॥ थाल भरिभरि शांतिविधावो, परममहोदय पावोरे त्रिभु० ॥ ३ ॥ आगम महोत्सव मांहेंरचना, स्तवना करी भलिभातेंरे; श्रावक श्राविका टोले मलीनें, निसुणे वाणि प्रभातेंरे त्रिभु० ॥४॥ संवतअढार छहोत्तेरा वरषै, चैत्रवदी रवि वारेंरे ॥ एकादशी दिवसें संधुणीयो, भवियण नें हीतकार रे त्रिभु० ॥ ५ ॥ तपगच्छ दीनकर तेजप्रतापी, सकल मुनि शिरताजेंरे || श्री विजय सुरेंद्रसूरी गुणगाजे, विजयानंद गच्छछाजेरे त्रिभु० ॥ ६ ॥ वीरपमुहा बिंब स्थापनाकीधी, अढी लाख उदाररे ॥ दानसूरीश्वर भविहीत करूं, तस परंपर साररे ॥ त्रिभु० ॥ ७ ॥ वेद वीचक्षण श्रुतधरवाणी, श्री जितविजय
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गुरुरायारे॥तसपदपकज श्री विनय विजयवर, खेमविजयपं गुण गायारे त्रिभु० मोहमाहा॥८॥कलशश्रीशांति जिनवर तेज दीनकर मोह विदारण भयहरं, सोलमा स्वामि मुक्ति गामि कल्याणक एह सुखकरूं। बहु भक्तियुक्तं एकचितें आराधो भवि सुंदरु, सदगुरु, संगें विनयरंगे खेमवीजय नीतजयकरुं ॥१॥ इतिश्री पंचमं निर्वाण कल्याणकं संपूर्णम् ॥
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“अथ श्री पंचकारण गर्भित श्री वीरजिन स्तवनम्" दहा-सिद्धारथ, सुत वंदीए, जगदीपक जिन राज; वस्तु तत्त्व सवि जाणिएं, जस आगम थी आज ॥१॥ स्याद्वाद थी संपजें, सकल वस्तु विख्यात; सप्तभंग रचना विना, बंधन में से बात P॥२॥ वाद वदे नय जूजूआ, आप आपणे ठाम, पूरण वस्तु विचारतां, कोइन आवे काम ॥३॥
अंध परुपें पह गज, ग्रहि अवयव एकेक; दृष्टि वंत लहें पूर्णगज, अवयव मिली अनेक ॥४॥संगति सकल नयें करी, जुगति जुग शुद्ध बोध; धन जिन शासन जग जयुं, जिहां नहीं किस्यों विरोध॥५॥
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शांतिना- ढाल-पहेली ॥धन धन्य संप्रति साचो राजा॥ ए देशी ॥ श्रीजिन, शासन जग जयकारी, पंचक०
थना. स्याद्वाद शुद्ध रूप रे; ॥ नय एकांत मिथ्यात्व निवारण, अकल अभंग अनूपरे ॥ श्री० ॥ स्तवन. ॥१५॥
॥१॥कोइ कहे एक काल तणे वशे, सकल जगति गति होयरे; काले उपजे कालेविणसें, अवर न कारण कोय रे श्री० ॥ २॥ काले गर्भ धरे जग वनिता, काले जन्मे पूत्र रे; काले बोले काले चालें, || कालेंझ, ले घर सूत्र रे श्री० ॥३॥ काले दूध थकी दहीं नीपजे, काले फल परि पाक रे, विविध पदारथ काले उपजे, अंते करें बे बाक रे ॥ श्री०॥ ४॥ जिन चोवीसी ए बार चक्कवइ, वासु देव 3/ बलदेव, रे, कालें केवली कोइ न दीसें, जस करतां सुर सेवरे ॥ श्री० ॥ ५॥ उत्सर्पिणी अवस
प्पिणी आरो, छे जू जुइ भांति रे; षड़ ऋतु काल विशेष विचारो, भिन्न भिन्न दिन राति रे॥श्री० KI॥६॥ काले बाल विलास मनोहर, जोवने, काला केस रे; घड पणे वली पली वपु, अति दुर्बल,
शक्ति नहीं लव लेश रे॥ श्री०॥७॥ ढाल-बीजी॥झांझरीया मुनीनी देशी॥तव स्वभाव वादी वर्दैजी, काल किस्युं करेरंक; वस्तु स्वभावें
॥१५॥
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निपजें जी, विणसे तिमज निःशंक ॥ १ ॥ सुविवेक विचारी जुओ जुओ वस्तु स्वभाव ॥ ए आंकणी ॥ छतें योग यौवन वती जी, वांझणी न जणें बाल मूंछ नहीं महिला मुखें जी, कर तलें उगे न वाल ॥ २ ॥ सु० ॥ विण स्वभाव नवि संपजें जी, किमहीं पदारथ कोय; अंब न लागे लींबडे जी, वास वसंतें जोय सु० ॥ ३ ॥ मोरपीछ, कुण चीतरें जी, कुण करे संध्या रंग; अंग विविध सविजीव नां जी, सुंदर नयन कुरंग ॥ ४ ॥ सु० कांटा बोर बब्बुलनां जी, कोण अणि आला कीध; रूप रंग गुण जूजूआजी, तरु फल फूल प्रसिद्ध ॥ सु० ॥ ५ ॥ विसहर मस्तक नित्य वसेंजी, मणी हरें विष तत्काल ॥ पर्वत स्थिर चल वायरो जी, ऊर्द्ध अग्निनी झाल ॥ सु० ॥ ६ ॥ मच्छ तुंब जलमां तरेंजी, बूर्डे काग पहाण ॥ पंखी जाति गयणें फिरेंजी, इंणि परे सहज विनाण सु० ॥ ७ ॥ वाय सुंठ घी उपसमें जी, हरडें करें विरेक; सीझे नहीं कण कांगडुं जी शक्ति स्वभाव अनेक सु० ॥ ८ ॥ देश विशेषे काष्ठनो जी, भोंयमां थाय पाषाण, शंख अस्थिनौ नीपजें जी, क्षेत्र स्वभाव प्रमाण
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शांतिना- थना.
पंच क.
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सु०॥९॥ रवि तातो शशी सीयलो जी, भव्यादिक बहु भाव; छे द्रव्य आप आपणा जी, न त्यजे कोइ स्वभाव सु०॥१०॥ | ढाल ॥त्रीजी॥प्रथम गोवाला तणे भवें जी ॥ ए देशी ॥काल किस्युं करे बापडोजी, वस्तु स्वभाव अकज्ज ॥ जो न होय भवितव्यताजी, तो किम सीझें काज रे, प्राणी म करो मन जंजाल॥१॥ भावि भाव निहाल रे, प्रा०॥ ए आंकणी ॥ जलधि तरें जंगल फिरें जी, कोडि यतन करे कोय॥ अण भावि होवें नहिं जी, भावि होय ते होय रे प्रा०॥२६॥ आंबे मोर वसंतमा जी, डालिं डालिं केइ लाख; केइ खरया केइ खाखटी जी, केइ आंबा केइ शाख रे प्रा०॥३॥ वाउल जिम भवि तव्यताजी, जिण जिण दिसें उजाय ॥ परवशे मन माणस तणांजी, तृण जिम पुठे धाय रे प्रा०॥४॥ नियत वसे विन चिंतव्यु जी, आवि मिलें तत्काल ॥ वरसांसोनुं चिंतव्युं जी,नियत करें विसराल रे प्रा०॥ ५॥ ब्रह्मदत्त चक्री तणां जी, नयण हणे गोवाल ॥दोय सहस जस देवता जी, देह तणां रख वाल रे, प्रा०॥६॥ कोकूओ कोयल भणे जी, किम राखीश रे प्राण ॥ आहेडी
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सरताकीओ जी, उपर भमें सिंचाण रे प्रा० ॥ ७ ॥ आहेडी नागें डंस्यो जी, बाण लग्यो सिंचाण ॥ कोकूहो उडी गयो जी, जूओ नियत प्रमाण रे प्रा० ॥ ८ ॥ शस्त्र हण्यां संग्राममां जी, राण पड्या जीवंत ॥ मंदिरमांथी मानवि जी, राव्याहीन रहंत रे, प्रा० ॥ ९॥
ढाल चोथी ॥ बेडलें भार घणो छे राज वातां केम करो छो । ए देशी ॥ काल स्वभाव नियत मति कुडी, कर्म करे ते थाय ॥ कर्मे नरय-तिरय नर सुर गति, जीव भवांतर जाय ॥ १ ॥ चेतन चेतीयें रे कर्म न छुटें कोय ॥ ए आंकणी ॥ कर्मे राम वस्या वन वासें, सीता पामी आल ॥ कमें लंकापति रावण नुं, राज्य थयुं विसराल चे० ॥ २ ॥ कर्मे कीडी कमें कुंजर, कर्मे नर गुणवंत ॥ कर्मे रोग सोग दुःख पीडित, जन्म जाए विलवंत ॥ ० ॥ ३ ॥ कर्मे वरस लगें रीसहेसर, उदक न पामे अन्न ॥ कर्मे जिनने जूओ गमारे, खीला रोप्यां कन्न चे० ॥ ४ ॥ कर्मे एक सुख बेसें, सेवक सेवें पाय ॥ एक हय गय रथ चढ्या चतुर नर, एक आगल उजाय ॥ चे० ॥ ५ ॥ उद्यम मांनी अंध तणी परें, जग हींडे हा हुतो ॥ कर्म बली ते लहें सकल फल, सुखभर सेजें सूतो
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शांतिनाथना.
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| चे० ॥ ६ ॥ उंदर एकें कीधो उद्यम, करंडिओ कर कोलें ॥ मांहें घणां दिवसनो भूख्यो, नाग रह्यो दुःखें डोलें चे० ॥ ७ ॥ विवर करी मुषक तस मुखमां, दीए आपणुं देह ॥ मार्ग लही वली नाग पधारथा, कर्म वली जूओ एह ॥ ० ॥ ८॥
ढाल ॥५ पांचमी ॥ राग जन्म जरा मरणे करीए, ए संसार असार तो ॥ हवें उद्यम वादी भए, ए च्यारे असम च्छतो ॥ सकल पदारथ साधवा ए, एक उद्यम समरच्छ तो ॥ १ ॥ उद्यम करतां मानवी ए, श्युं नवि सीझें काजतो ॥ रामे रयणा यर तरी ए, लीधुं लंका राजतो ॥ २ ॥ कर्म नियत ते अनुसरें ए, जेहमां शक्ति न होयतो ॥ देंउल वाघ मुख पंखीया ए, पिउ पेसंतां जोय तो ॥३॥.... | विण उद्यम किम निकलें ए, तिल मांहेंथी तेलतो ॥ उद्यमथी उंची चढेंए, जूओ एकेंद्री वेलतो | ॥ ४ ॥ उद्यम करतां एक समेए, जो नवि सीझें काजतो ॥ तोफिरि उद्यम थी हुएए, जोनवि आवें व्याजतो ॥ ५ ॥ उद्यम करी करयां विनाए, नवि रंधाए अन्नतो ॥ आवी न पडे कोलीओ ए, मुखमां पोषें न तन्नतो ॥ ६ ॥ कर्मे पूत उद्यम पीताए' उद्यम कीधां कर्म तो ॥ उद्यम थी दूरें टलें ए,
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जूओ कर्मनां मर्म तो ॥ ७ ॥ दृढ प्रहारी हत्या करीए, कीधां पाप अनंत तो ॥ उद्यमथी षटू मासमां ए, आप थयां अरहंततो ॥ ८ ॥ टीपें टीपें सर भरेए, कांकरे कांकरे पालतो ॥ गिरि जेहवां गढ नीपजें ए, उद्यम शक्ति निहाल तो ॥ ९ ॥ उद्यम थी जल बिंदुओ ए, करे पाहाणमां ठामतो ॥ उद्यमथी विद्या भणेंए, उद्यम जोडें, दामतो ॥१०॥ ढाल ॥ ६ छट्टी ॥ ए छिंडी किहां राखी | ॥ ए देशी ॥ ए पांचे नय वाद करंता, श्री जिन चरणे आवे ॥ अमीय सरस जिन वांणी सुणिने, आणंद अंग न मावेंरे प्राणी समकित मति मन आणो ॥ नय एकांत म ताणो रे प्रा० ॥ ते मिथ्या मति जाणोरे प्रा० ॥ ए आंकणी ॥१॥ ए पांचे समुदाय मिल्यां विण, कोइ काज नवि सीजे ॥ अंगुल योगें कर तणी परें, जेबूझें ते रीझेरे प्रा० ॥ २ ॥ आग्रह आणी कोइ एकनें, एहमां दीएं वडाइ ॥ पण सेना मली सकल रणांगण, जितें सुभट लडाइ रे प्रा० ॥ ३ ॥ तंतु स्वभावें पट उपजावे, | काल में रे, वणाय ॥ भवितव्यता होयतो नीपजे, नहीं तो विघन घणांय रे प्रा० ॥ ४ ॥ तंतु वाय उद्यम भोक्तादिक, भाग्य सकल सहकारी ॥ इमे पांचें मिलि सकल पदारथ, उत्पत्ति जूओ
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शांतिना- विचारी रे प्रा०॥५॥ नियत वसे हल करमो थइनें, निगोद थकी निकलीओ॥ पुण्ये मनुज
थना. भवादिक पांमी, सहगुरुने जइ मिलीओ रे प्रा०॥६॥ भव स्थिति नो परिपाक थयो जब, पंडित ॥१८॥
18 वीरज उल्लसीओ ॥ भव्य स्वभावें शिव गति गांमी, शिवपूर जइने वसिओ रे प्रा० ॥७॥ हवर्द्धमान जिन इंणी परें विनये, शासन नायक गायो; संघ सकल सुख होएं जेहथी, स्याद्वाद रस | पायोरे प्रा०॥८॥
कलश-इंम धर्मनायक सुमतिदायक वीर जिनवर संधुण्यो, सय संतर संवत वह्नि लोचन, वर्ष हर्ष धरी घणो ॥ श्रीविजय देव सूरींद पटधर श्री विजय प्रभ सूरिंद ए, श्री किर्तीविजय वाचक शीश इणी परें विणय लहे आणंद ए ॥९॥
“इति वीरजिन स्तवनम् पंचकारणगर्भितम् समाप्तम्" श्रीकिर्तीविजय उपाध्याय शिष्य श्रीविनयविजय उपाध्याय विरचित श्री
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॥१८॥
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___ अथ श्री गौतम स्वामि प्रश्नोत्तर रूप बार आरानुं स्तवन द्रहा-सरसति भगवति भारती,ब्रह्माणि करि सार; आरा बार तणो वली, कहि श्युं सोय विचार ॥१॥ वर्द्धमान जिनवर नमुं; जस अतिशय चोत्रीश; समवसरण बेठां प्रभु, वाणी गुण पांत्रीस ॥२॥ गौतम पूच्छे वीरने, पर उपगारा कांक्षि; अनेक बोल विवरी करी, भाखे त्रिभुवन स्वामि ॥३॥
ढाल ॥१॥ चोपाइ ॥ स्वामी वचन कही सुकुमाल, कहीएं अवसर्पिणी काल; दस कोडा कोडि सागर जोय, तिहां षटु आरा गौतम होय ॥ ४ ॥ सुसम सुसमा पहेल्लं सार, त्यारे युगल धरे अवतार; बीजो सुसम आरो कहुं, त्यारे युगल युगनी लहुं ॥ ५॥ सुसम दूसम त्रीजो वली, त्यारे युगल कहें केवली; अंति कुलगर हुआ सवि, नाभि हुआ आदिश्वर तात ॥ ६॥ दूहा-आदि । धर्म जिने स्थापी ओ; शिखव्यां पुरुष अत्यंत; तृतीय आरा मांहि वली, मुक्ति गया भगवंत ॥७॥ ढाल-॥२॥ मनोहर हीरजी रे ॥ ए देशी ॥ राग परजी ओ ॥ पछि वली गौतम चोथे आरे, हुआ वीस जिणंद; एकादश चक्रवर्ति तिहां होय, त्रीजें भरत नरिं दो ॥ ८॥ गौतम सांभलो रे |
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दिन दिन पडतो काल, क्रोध लोभ मद मत्सर वधशे, दे अणहुंता आल, गौतम सांभलो रे ॥ आंचली ॥९॥ चक्री आठ गयां नर मुक्ति, बे चक्री सुर मोटां; सुभुम राय ब्रह्म दत्त गया नरकें, | पुण्य काज हुआ खोटा ॥ १० ॥ गौतम सांभलो रे० ॥ वासुदेव नव निश्चयें होशे, नरकतणि लही वाटो; जे भुपति संग्राम करतां, त्रण सयां ने साठों ॥ गौतम० ॥ ११ ॥ रह्यां प्रति वासुदेव नव नीका, | नवि छंडे धन नारि; वासुदेव तणि करि मरंता, ते नरक तणां अधिकारी गौ० ॥ १२ ॥ नव बलदेव हुआ इणे आरे, नव नारद नर मोटा: छोटा गौ० ॥ १३ ॥ दुहा — गौतम अंतें हुं हुवो; तव काया कर सात; मुज शासन मां जेहवो, हसि ते भावात ॥ १४ ॥
ढाल ॥ २ ॥ सुर सुंदरी कहि शीर नामी ॥ ए देशी ॥ भाखें वीर जिणेसर त्यारे, में संयम लीधुं ज्यारे; वरस त्रण गयां त्यां निहालो, त्यारें कुशिष्य मल्यो रे गोशालो ॥ १५ ॥ तेजो लेश्या ते पण ग्रहतो दोय मुनिवर जिनने दहंतो; अंते पातिक तेह आलोइ, बारमे स्वर्गे सुरहोइ ॥ १६ ॥
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पंच क०
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दहा-वीर कहे केवल पछी, विचमा एतो काल; चउदे वर्षे अवतरयो, निन्हव सोय जमाल ॥१७॥ तिष्य गुप्ति बीजो सही, सोले वरसें जेह; अंते ते पाछो वलि, समकित पामे तेह ॥ १८॥
ढाल-॥३॥ भावि पटोधर वीरनो॥ ए देशी ॥ दूसम आरोरे आगलें, वीसां सो वरस आय; छेडे होशे वर्ष वीशर्नु, दोय हाथ नी काय ॥ १९ ॥ कहुं तुज गौतम गणधरूं ॥ ए आंकणी ॥वली ६
कहे वीर जिणेसरं, माहरो सुधा शीष्य रे; छेहडे होशे दुप्पसह मुनि, ते वलि चउहया विश| Plu २०॥ कहुं० ॥ युग प्रधान जिने कह्यां, जस एका अवतार; पांचमें आरे ते हशे, दोय सहस ने
च्यार कहुं०॥ २१ ॥ युग प्रधान सरीखा दुशे, मुनि लाख इग्यार; ते उपरि अंधिका कहुं, मुनिवर , सोल हजार ॥ क० ॥ २२ ॥ जैन भुपति जगमां हशें, करशें धर्म उदार; लाख इग्यार ने उपरी, संख्या सोल हजार क० ॥ २३ ॥ विरपछी गौतम जशे, बारे वरसे मोक्ष; वीशे सिद्धि गति सुधा , प्रणमें पातिक सोषि क०॥ २४ ॥
दहा-वीर थकि वर्ष चउसठि, मुक्ति जंबु स्वामी; जंबुजातां सही जशे, दश वाना तिणे ठामि ॥२५॥
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शांतिनाथना.
॥ २० ॥
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राग - आशाउरी ॥ ढाल ॥ ४ ॥ काहान बजावे वांसली ॥ ए देशी ॥ मनः पर्याप्ति आहारे नहीं, परम अवधि ज्ञान; पुलाक लब्धी आहारक तनु, क्षपक श्रेणि निधान ॥ २६ ॥ उपशम श्रेणि जिन कल्पश्युं, संयम त्रणे जाय; केवलज्ञान नमुं रहे, तब मोक्ष पलाय ॥ २७ ॥ वीर कहे वरस मुज पछी, बिचउं तरि थाय; प्रभव स्वामी त्रीजें पाटे, पर लोके जाय ॥ २८ ॥ शय्यंभव सूरि मुनिवरुं, जे चोथे पाटे; वीरथी वर्ष अट्टाणुंए, लहि शुभ गतिवाटि ॥ २९ ॥ वीरथी वर्ष गयां गणुं, एकसो अड ताल; यशोभद्र सुर लोकमां तव देतां फाल ॥ ३० ॥ छट्टि पाटें संभूति विजय, हुआ पंडित जाण; वीरथी एकसो सीत्तरे, वरसे निर्वाण ॥ ३१ ॥ दूहा - तव पूरव ओछां थशे, सुण गौतम कहे वीर; भद्रबाहू लगें तेह छे, जेहमां अर्थ गंभीर ॥ ३२ ॥
ढाल ॥ ५ ॥ सींह तणी परि एकलो ॥ ए देशी ॥ वरस बसें चउदे वली रे, निह्नव त्रीजो रे होय; आषाढा चार्य तणोरे, शिष्य कह्यो वली सोयरे, गौतम सांभलो ॥ ए आंकणी ॥ ३३ ॥ निह्नव सोय टले सही, पामे समकित सार; विसें पनर वरसें वली, स्थूलिभद्र सूरनो अवतारोरे, गौ० ॥ ३४ ॥
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पूर्व अनुयोग तिहां नहीं रे, सूक्षम महा प्रणिधान; पहिलं संघयण थाकीउं रे, वली पहिलं संस्था नो रे, गौतम सांभलो ॥३५॥ बसे विस वरस वली रे, निन्हव चोथो रे जेह; अश्वमित्रज नाम हश्यें रे, पाछो वलस्य नर तेहो रे गौ०॥ ३६॥ वीर पछी वरसज जश्ये रे, बिसें ने अठ्ठावीश;| तव निन्हव हशें पांचमो रे, धनगुप्तनो शीशो रे गौ०॥ ३७॥ ___ दूहा-गंगा चारज ने सही, ते तिम आणो ठाय; च्यार सयाने सित्य रे, विरथी विक्रम राय गौ० ॥ ३८॥ जे निज शक थापशे, पर दुःख भंजन हार; जैन शीरोमणि तेहछे, शूरवीर दातार ॥ ३९ ॥ पाट कुसुम जिन पूज परुपी ॥ ए देशी ॥ ढाल ॥ ६॥ वीर कहें वरस मुजथी जाशे, ॥४०॥ पंचसियां चिहुं आल; रोह गुप्त निन्हव होय छट्टे, भमश्ये ते बहु काल हो गौतम दिन दिन कुमति वधशे ॥ भुपति नहि कोय संयम धारी, दान पचारी देशे हो गौ०॥४१॥ ए आंकणी॥ पंचसया चउराशी वरसें, होशे गोष्टि माहिली; सप्तम निह्मव तेहनें कहिए, चाले भुंडी चाल हो गौ०॥४२॥ पंचसया चौराशी गौतम, वरस गयां तुं जोय; दशपूर्व थाकशे त्यारे, वयरस्वामि
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लगें होय हो गौ०॥ ४३ ॥ वीरथी वर्ष छसें नव जाते, ताम दिगम्बर थाय; सर्व विसंवादी ए थना.
निन्हव, आठमो ते कहेवाय हो गौ०॥४४॥ वरस छसें ने सोल जाअंतां, पूरव साडा नव छेदः ॥२१॥
दुर्बलिका पुत्रज लगी होवे, आगलि सोय निषेध हो गौ०॥४५॥
हा-नवसे त्राणुं वर्ष गए, पूस्तका रूढज होय; चोथे पजुसण आणस्य, कालिका चार्य सोय ॥ ४६॥ ___ ढाल ॥७॥ शालिभद्र मोह्योरे शिव रमणी रसेंरे ॥ ए देशी ॥ वीरथी वरस हजार गयां पछीरे, | मापूरव होय तव छेद; तेर सयां रे वरसे मत हशेरे, बोले नव नवा भेदो रे ॥४७॥ इंद्रभूति मोह्यो
रे वीर वचन रसेंरे, ए आंकणी ॥ दिन दिन काल पडतो सहीथशे रे, पुण्यवंता नर किहांडः नीचकुले नरपति बहु थशे रे, पाप तणा मति प्रांहि रे, इं०॥४८॥ वासव वैराग ने वन थोडां थशेरे, नहीं मले मन्त्रे मन्त्रो रे; सु पुरुष सत्य सह सगपण छांडश्य रे, वाहलं होश्य धन्नो रे इं०॥४९॥ कलीयुग मांहिं रे मुनी लोभी हशे, विरला कही व्यवहार; धर्म त्यजशें क्षत्री नर वली रे, ब्रह्म धरे हथीयारो रे, इं०॥५०॥
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दूहा — गौतम वीर पछी जशे वर्ष सयां ओगणीश; पंच मासने उपरी, भाख्यां बारज दीश ॥ ५१ ॥ ढाल — ॥ ८ ॥ रामभणे हरी उठीएं ए ॥ ए देशी ॥ ताम कलंकि रे उपजें, कुल चांडाल असार रे; मात यशोदा रे बांभणी, होशे तिहां अवतार रे, दुर्गति गामि रे तेसही ॥ ए आंकणी ॥ ५२ ॥ चैत्र शुदि रे आठमने दिनें, विष्टी जनम ते होइरे; देह वरण तस उजलो, पीलां लोचन दोय रे, दुर्ग० ॥ ५३ ॥ रुद्र कलंकी चतुर्मुखी, ए होशे त्रण नामरे; बासी वर्षनुं आउखु, पाटली पुर जस गाम रे दुर्ग० ॥ ५४ ॥ छट्टो भागज भीखनो, लेश्ये कलंकी राय रे; षट् दरिशन मानेनहीं, दंड कुदंड ते थाय रे दु० ॥ ५५ ॥ इहां पछी आवशे, धरशे विप्रनुं रुप रे; वेगें हणशे रे रायने, लेशे नरकनुं कूपरे दु० ॥ ५६ ॥
दूहा - तेहनो सुत सुंदर हशे, दत्त भूप अभिराम; शत्रुंजय उद्धार करावशे, राखशे जगमां नाम ॥५७॥
ढाल ॥ ९ ॥ प्रणमी तुम सीमधरुं जी ॥ ए देशी ॥ आगले आरे पांचमें जी; दुप्पसह मुनिवर होय; सुर गतिमांथी आवशे जी, आगल सुरपति सोय, सोभागी छहेलो मुनिवर एह, छेहलो
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संघ दुप्पसह तणो जी, आण न खंडे तेह, सोभागी छहे० ॥ ए आंकणी ॥ वीस वर्षनुं आउखुं जी, बार वरस घर सार; च्यार वरस मुनिवर पणुं जी, वरस च्यार गच्छ सार, सोभा० ॥ ५९ ॥ फलगु सिरि जस साधवी जी, नागिल श्रावक जोय; सत्यश्री नामे श्रावीका जी, संघ चतुर्विध होय, सोभा० ॥ ६० ॥ सुविहित संघ छहलो सही जी, अल्प आउखूंरे त्यांहि; संघ सूरि श्रुत केवली जी, जाए पोहरज मांहि, सोभा० ॥ ६१॥ विमल वाहन नरपति जी, सुधर्म मंत्रि रे जेह; न्याय निति अग्नि जश्ये जी; वलि मध्यानें तेह सोभा०॥६२॥
दूहा - जैन धर्म एता लगें, पछें नाहीं पुण्य दान; वाय मेघ भुंडा हश्यें, सुणि गौतम तस मान ॥ ६३ ॥ ढाल — ॥ १० ॥ मगध देशको राजा राजेसर ए देशी ॥ मान प्रकाशे मेघज केरो, पहेलो ते जलधार; बीजो अभि तणो तिहां होसें, त्रीजो ते विष धार हो गौतम सुण तुं मधुरी, वाणी ॥ ए आंकणी ॥ ६४ ॥ चोथो आंबिलनो घन वरसें, विजलिनो वरसाद ; एके को मेघज तिहां वरसें, वासर सातज सात हो गौ० ॥ ६५ ॥ बहोतेर बिल वैताढ्यज केरां, छे वली शाश्वत त्यांहीं; नर नारी पंखी हय वारण, ते रहशे तेमांहि हो, गौ० ॥ ६६ ॥ आगल छट्टो आरो होशे, दुःसम दुसमा नामें;
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एकवीस सहस वरसनो जाणो, नहिं नगरी नहिं गाम हो, गौ० ॥ ६७ ॥ गर्भ धरे षटू वरसनी नारी, बिलवासी मछ खाय; छेहेले कालेय एक हाथनी होशे, सोल वरसनुं आय हो, गौ० ॥ ६८ ॥ दुहा— आगल वली उत्सर्पिणि, तिहां षट् आरा जोय; पहिलो छट्टो सारिखो, दुसम दुसमा सोय ॥६९॥
ढाल – ॥ ११ ॥ चांद्रायण नी ॥ ए देशी ॥ आगल बीजो आरो सारो, त्यारें मेघ हशे वलि च्यारो; पुष्करावृत क्षीर अमृत अपाधारो, चोथो वरसें घृत नीरधारो ॥ ७० ॥ फलश्ये वन वसश्यें बहु गामो, आगलि सात कुलगर तामो; दुसम सुसम तृतीय अभिरामो, त्रेविश जिननो तिहां ठामो ॥ ७१ ॥ नव नारद चक्री इग्यारो, नव बलदेव हशें तिहां सारो; वासुदेव नव तेणीवारो, नव प्रति वासुदेवज अपारो ॥ ७२ ॥ सुसम दुसम चोथो मांहि, एक जिनवर एक चक्री त्यांहि; अंते युगल हशे बहु ज्यांहि, आउ पल्योपम भद्रक प्राहि ॥ ७३ ॥ आगल सुसम पंचमो आरो, युगल देह वे गाउ धारो; छठो सुसम सुसमा संभारु, युगल देह त्रण गाउ विचारुं ॥ ७४ ॥ पूछ्यां वचन कह्यां वली वीरे, चित्तमां धरीयां गौतम धीरे; भणतां सुणतां सुखह हशे, रिद्धी रमणी घर भरी विरे ॥७५॥
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कलश -- भले स्तवन कीधुं नाम दिधुं गौतम प्रश्नोत्तर सहि; संवत् सिद्धि मुनि अंग चंदे, | (१६७८) भांद्रवा शुदि द्वितीया तहीं ॥ ७६ ॥ तप गच्छ तिलक समान सोहें, श्री विजयानंद सूरी सरु, सागणनो सुत ऋषभ श्रावक कहें गच्छ मंगल करुं ॥ ७७ ॥ "इति श्री गौतम प्रश्नोत्तर रुप बार आरानुं स्तवन संपूर्णः”
" अथ श्री अक्षयनिधि तपनुं स्तवन'
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दुहा— श्री शंखेश्वर शिर नमी, कहुं तप फल सुविचार; अक्षयनिधि तप भाखीयो, प्रवचन सारोद्धार ॥ १ ॥ तप तपता अरिहा प्रभु, केवल नाणने हेत; नाण लही तप तनें भजि कियो, शिवरमणि संकेत ॥ २ ॥ तिम सुंदरी परें तपकरो, अक्षय निधि गुणवान; श्रुत केवलिंएं जे रच्यो, कल्पसूत्र बहु मान ॥ ३ ॥
ढाल — ॥ १ ॥ रुडीने रढियालीरे वहाला तारी वांसली रे, ॥ ए देशी ॥ जंबु भरतेरे नयरी राजगृही रे, संवरसेठ वसें एकसार; गुणवति नारीरे, कठण आजीविका रे, घर दालिद्र तणो
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भंडार ॥ सुंदर सेवोरे अक्षयनिधि तप भलो रे ॥१॥ ए आंकणी ॥ पुण्य संयोगरे प्रीया गरमें फली रे, तव तस वृत्तिचली घरबार; केइ व्यवहारी वणज करावतारे, वाध्यो शेठ तणो व्यवहार ॥ सुं०॥२॥ पुरण मासेंरे जन्मी कुमारिका रे, प्रगव्यो नाल निक्षेप निधान; लक्षणवंतीरे पुत्री प्रभावती रे राय सुणी करतो बहुमान ॥३॥ सुं०॥ पुत्रनीपरेंरे जन्मोत्सव कर्यो रे, सज्जन वर्ग नोतरीयां गेह; संवर सेठेरे थाप्युं सुंदरी रे, नाम महोत्सव करी धरीनेह सुं०॥४॥ बाल स्वभावेंरें रमती सुंदरी रे, जिहां जिहां भूमी खणंती रमाय; पूर्व पुण्येरे मणि माणेक भाँ रे, जिहां जिहां द्रव्यनिधि प्रगटाय सुं० ॥५॥ आणी आरे तातने सुंदरी रे, तिणें तेशेठ धनवंत; यौवन जागेंरे रंभा उर्वशिरे, देखी शेठ करे वरचिंत सुं० ॥६॥ शेठ समुद्र प्रि
धन गरमां रे. कमलसिरी नारी तस प्रत्त: श्रीदत्त नामेंरे रूपकला भयों रे, तस परणावी ते साधन जुत्त सुं०॥७॥ पुण्य पनोतीरे सासरे सुंदरी रे, आवी तत्क्षण निधि प्रगटाय; पग अंगुठेरे
कांकरो काढतां रे, पुरण कलश धन लेती जाय सुं०॥८॥ मुसाले भाणेजीरे तेड्यां भोजनें रे,
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शांतिना- तेहने घर पण लक्ष्मीन माय; इम जिहां बालारे सापगलां ठवेरे, निधि प्रगटें सहु सुखिया थाय पंचक० थना. सु०॥ ९॥ वहुने मानेरे ससरो भलीपरें रे, राजा पण चित्त विस्मय थाय; एकदिन आव्यां स्तवन.
धर्मघोष सुरीवरा रे, राजा प्रमुख ते वंदन जाय सुं० ॥ १० ॥ सुंदरि पूछे कहो कुण कारणे रे, पग , ॥२४॥
पग पामुं रुद्धि रसाल; सूरि कहें साचो पूर्वभवे तें कयों रे, अक्षयनिधि तप थइ उजमाल सुं०॥११॥ | ढाल-॥२॥ माता जशोदा तमारो कान, मही वेचंता मागे दान ॥ ए देशी ॥ अथवा चोपाइ हैनी देशी ॥ खेटक पुर संयम अभिधान, शेठ प्रिया ऋजुमति गुणवान; ऋजुमति तप राती रहें,
ज्ञान भक्ति सुख संपद लहें ॥ १॥ रयणावली कनकावली करें, एका वली विधिएं उच्चरे; पाडोशी वसुशेठे वरी, सोम सुंदरी बहू मत्सर भरी ॥२॥ पुण्यवती तप रती बहु, ऋजु मती प्रशंसे सहुः सोमसुंदरी सुणी निंदा करे, डाकणि परें छल जोति फरें ॥३॥ भुख्यो ब्रह्म बगाचल ढोर, ४ चांप्यो नाग नसंतो चोर; रांड भांडने मातो सांढ, ए सांतेथी उगारिए मांड ॥ ४॥ लाग्युं घर
| ॥२४॥ संयम तणुं, सोम सुंदर चित्त हरव्यु घj, नारी प्रभावें नबली एक छडी, वलि एकदिन घर
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धाडज पडी ॥५॥ पाडो शण मन चिंते इस्यु, पापी शेठनुं न गयुं किस्यु; देती श्रापने निर्धन थयां, ते दम्पति सुरलोकें गया ॥६॥ सोम सुंदरी गुणी मत्सर भरी, अशुभ कर्म उपार्जन करी; पामी मरण सा कोइक गुणी,श्रावक मुख नवकारज सुंणी॥७॥जित शत्रु मथुरांनो राय,चउ सुत उपर बेटी थाय; सर्व ऋद्धि नामज तस देइ, पंच धावशुं मोटी थइ ॥ ८॥ शत्रु सैन्य समुहें नड्यो, जित शत्रु रणयोगें पड्यो; लुट पडी जब राजद्वार, कुमरी पण नाठी तेणी वार ॥९॥ उजाति एक अटवी पडी, रवि उदयें मारग शिर चडी; वन फल वृत्तें वने चर थइ, यौवन वेला निष्फल गइ॥ १०॥ एक विद्याधर देखी करी, परणि सा निज मंदिर धरी; तिणि वेला घर लागी गयुं, सर्व ऋद्धि पगलें थी थयुं ॥ ११ ॥ विद्या धेरै फरि वनमां धरी, पल्लि पती एक भिल्लें हरी; त्रीजें दिन घर तेहy बल्युं, नारि निंदन सहु जन भल्युं ॥ १२ ॥ सार्थ वाह कर वेची तिणे, चाल्यो निज देशावर भणी; पंथ वचे लुटाणो एह, सर्व ऋद्धि नाठी लेइ देह ॥ १३ ॥ वनमां सरोवर तीरें
।, राजकुमारी करमें नडी; पुण्यें मुनि मलियां गुण गेह, मिठे वयणे बोलावी तेह ॥ १४॥
शां. ५
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शांतिना- ढाल-॥३॥ छोरी जाटडी नी॥ए देशी॥छोरीरे बेटी तुं तो रायनी,॥हे कांई उभी सरोवर पालरे,
पंच क० थना. श्युं दुख चिंतवे-सिरदार सहुनें सुख करें ॥ महाराज मुनि इम ज उच्चरे ॥ पूरव भव मच्छर करी,
स्तवन. हे कांइ फली तरु शाखा डाल रे-सोम सुंदरि भवें ॥ सि० म० ॥१॥ए आंकणी ॥ तात मरण पूर लुटी उंहे, काइ पडि तुं अटवी मोझार रे; दुःख पामी घणुं खेचर इयुं, इणें भवें लह्यो, हा०॥ सुख संभोग एक वार रे; वलि वनचर पणुं ॥ सि० ॥२॥ म०॥ ज्ञानी गुरु वयणां सुंणी हां०॥
राजकुमरि पुछाय रे ॥ गुरु चरणे नमी ॥ आ दुःखथी किम छुटिएं हे० ॥ कहिएं करि सुपसाय हैरे, दुःख वेला खमी ॥ सि० म०॥३॥ अक्षय निधि तप विधि करो, ॥ हे० ॥ ज्ञान भक्ति विस्तार
रे; शक्ति न गोपवी ॥ श्रावण वदी चोथे थकी, हे० ॥ संवत्सरी दिन सार रे; पूरण तप तपी, P॥ सी० म०॥ ४॥ चोथ भक्त एकासणे, हे० ॥ शक्ति तणे अनुसार रे; घट अक्षत भरो ॥ विधि
॥ २५॥ गुरु गमथी आचरो ॥ हां०॥ गुणगुं दोय हजार रे, पडिक्कमणां करो ॥ सि० म०॥५॥ एक वरस जघन्यथी ॥ हां०॥ तीन वरस उकिह रे; इणि विधि तप करो, शासन देवी कारणे ॥ हां०॥ चोथें
दव
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वरस विषेस रे, वलि ए आदरो॥ सि० म०॥६॥ तेह भव मन वांछीत फलें, हां०॥ परभव ऋद्धि न माय रे; हरि चकि परें ॥ इमनि सुंणी कुमरी तिहां ॥हा॥ वंदी गुरूनां पाय रे; गइ गामांत रे सि० म०॥७॥ पर घर करतां चाकरी, हां०॥ आजिविका निर्वाह रे ॥ सुख दुःखमां करे, अल्प विधिएं तप तिणे कर्यो ॥ हां०॥ प्रथम वरस फरी चाह रे, बीजें भली परें ॥ सि० म०॥८॥ चोथें वरस तप मांडतां॥हां कांइ कहं ए धनवंतरे, एक दिन आवियो, विद्याधर क्रीडा वश्य हांगा पूरव नेह उल संत रे, देखी निज प्रीया ॥ सि० म०॥९॥थापी लेइ अंते उरें, ॥हां०॥सा कहे शील व्रत मुजरे; इणि काया धरी ॥ शेष आयु अणसणे मरी॥हा॥ संवर पुत्री तुज रे, कहुं सुंण सुंदरि॥ सि० म०॥ १०॥ - ढाल-॥ ४॥ कोश्या वेश्या कहें रागी जी, मनोहर मन गमता ॥ ए देशी ॥ निज पूरव भव | सुंणी तेह जी, सुंदरी सुकुमाली ॥ जाति स्मरण वरें तेह जी ॥ सुं०॥ तप फलें लहो ऋद्धि रसाल जी ॥सुं०॥ कहें धर्म घोष अणगार जी ॥सुं०॥कहें सुंदरी सर्वेसाचुंजी।सुं०॥तुम ज्ञान मांहे नहि
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काचुं जी ॥ सुं० ॥ आवंती मांहें वखाण्यां जी ॥ सुं० ॥ तेहवामें तुमनें जांण्याजी ॥ सुं० ॥ २ ॥ सूरि वंदि निजघर आवें जी ॥ सुं० ॥ तप अक्षय निधि मंडावें जी ॥ सु० ॥ राजा रांणी तिणि वेला जी ॥ सुं० ॥ शेठ सामंत सर्वे भेलां जी ॥ सुं० ॥ ३ ॥ पग पग प्रगटें जे निधांन जी ॥ सुं० ॥ करे प्रभावना बहु मांनजी ॥ सुं० ॥ नाम सुंदरी ते विसरांणी जी ॥ सुं० ॥ तेतो अक्षयनिधि कहेवांणी जी ॥ सुं० ॥४॥ मन मोटें पूरण फल लीधुं जी ॥ सुं० ॥ पंचमीए पारणं कीधुं जी ॥ सुं० ॥ ज्ञान भक्ति महोत्सव देखी जी ॥ सुं० ॥ देवी देव हुआ अनि मेषी जी ॥ सुं० ॥ ५ ॥ सुख विलसंतां संसार जी ॥ सुं० ॥ हुआ सुत चउ पुत्री च्यार जी ॥ सुं० ॥ लियो एने संयम भार जी ॥ सुं० ॥ धन धाती खपाव्यां च्यार जी ॥ सुं० ॥६॥ लही केवल शीवपुर जावें जी ॥ सुं० ॥ गुण अगुरु लघु निपजावें जी ॥ सुं० ॥ अवगाहन लक्षण संता जी ॥ सुं०॥ तिहां बीजां सिद्ध अनंता जी ॥ सुं० ॥७॥ तस फरसित देश प्रदेसें जी ॥सुं० ॥ असंख्यगुणा सुविषेसे जी ॥ सुं०॥ जुओ प्रथम उपांग ठामजी ॥ सुं० ॥ शुभ वीर करे प्रणांम जी ॥ सुं० ॥८॥ ॥ ढाल – ॥५॥ कोइ ल्यो पर्वत धुंधलोरे लोल॥ ए देश ॥ वीर जिनेश्वर गुण नीलोरे लोल, ए भाख्यो
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अधिकार रे सुंगुण नर; वर्ते शासन जेहनुरे लोल, एकवीश वरस हजार रे;॥सुं० वी० ए आंकणी ॥१॥ जिहां सफल जिन गुंण धुंणी रेलोल०, दीहा सफल प्रभुध्यांन रे; ॥सु०॥जन्म सफल प्रभु दरिसणे रे लोल; वाणी ए सफला कांन रे; सु० वी० ॥२॥ तास परंपर पाटवी रे लोल; श्री विजयसिंह सूरीश रे; सु० सत्य विजय बुध तेहना रे लोल०, कपुर विजय कवि शीष्य रे सु० वी०॥३॥ खिमा विजय गुरु तेहनां रे लोल०,श्री जश विजय पन्यास रे सु०॥श्री शुभ वीजय सुगुरु नमीरे लोल०, ६ सुरत रहि चउ मास रे; सु० वी० ॥४॥ चंद्र मुनी वसु हिमं करूं रे लोल०, ( १८७१ ) वरसें ।
श्रावण मास रे; सु०॥ श्री शुभ वीरने शासने रे लोल०, होज्यो ज्ञान प्रकाश रे; सु० वी०॥५॥ कलश-ए पंच ढाल रसाल भक्तिं पंच ज्ञान आराधवा, काम प्रसाद किरिया पंच छंडी पंचमी गति साधवा; नभ कृष्ण पंचमी स्तवन रचियुं अक्षय निधि के कारणे, शुभ वीर ज्ञाने देव सुंदरि नाचवा घर बारणे ॥ ५१॥ इति अक्षय निधि तप स्तवनं संपूर्ण ॥
ॐॐॐनक
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थना.
॥२७॥
शांतिनाॐनमः सिद्धेभ्यः “अथ श्री शाश्वत जिनवर स्तवनम्"
पंचक०
स्तवन. ॥हा॥ वीर जिणेसर पाय नमी, प्रणमी शारद माय; तास तणे सुपसाउ ले, गाइजुश्री जिन राय |॥१॥अतीत अनागत वर्तमान, चोवीशी त्रिहं सार;बहुंत्तर तीर्थंकर नमुं, टाली पाप विकार ॥२॥ अतीत चोवीशी जे कही, पहेली जेह विशाल; सावधान थइ सांभलो, आणीभाव रसाल ॥३॥ ढाल १नमीय पाय जिन विरनां ए॥ ए देशी ॥ केवलज्ञानी पहिलो ए, निरवाणी जिन बीजो ए; त्रीजोए सागर जिनवर जाणीएं ए॥४॥ महाजश चोथो जिनवर, विमलनाथ जिन सुखकर; दुःखहर स-16 र्वानु,-भूति चित्त आणीए ए ॥५॥ श्रीधर दत्त दामोदर, सुतेज स्वामि जिनवर; मनोहर मुनिसुव्रत नित्य वंदीएं ए॥६॥ सुमति जिननें शिवगति, अस्ताघन मीसर जिनपति; शुभमति सोलसमो|
जिनवरगाइएं ए॥७॥ अनिल यशोधर देवए, कृतार्थनें नित मेवए; सेवोए विंशतिमो जिणेसरूं ए| An८॥ शुद्धमति ने शिवंकर, चंदन स्वामी जिनवर; शुभंकर चोविशे नित प्रणमीएंए ॥९॥
ढाल-॥२॥सिद्ध चक्र पद वंदो॥ ए देशी॥ पद्मनाभ सूरदेव सुपास, शय्यंप्रभ पूरे मन
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आश; सर्वानुभूति शिव वासरे, भविका वंदो जिन चोवीश ॥१०॥ए आंकणी देवश्रुत उदय पेढाल,पोटिल सत्कीर्ति सुविशाल; सुव्रत देव दयाल रे ॥भ०॥११॥ अमम निःकषाय जिणंद, जस दरिशण दीठे आणंद निप्पुलाक नित्य वंदो रे॥ भ० ॥ १२ ॥ निर्मम चित्रगुप्त समाधि, संवर यशोधर टाले व्याधिः विजय मल्लदेव शिव साधिरे ॥भ०॥ १३ ॥ अनंतवीर्य फल भद्रकृत्सु जिनेश, ए अनागत जिन |चोवीश; भविय नमो निशदीशरे ॥ भ० ॥ १४ ॥ ___ ढाल-॥३॥ इडर आंबा आंबली रे ॥ ए देशी॥ ऋषभ अजित संभव नमोजी, अभिनंदन जिनराय; सुमति अनें पद्मप्रभूजी,श्री सुपास वरदाय, भविकजन वंदो श्री जिनराय, जस नामें नव निधि थाय भ०॥१५॥ ए आंकणी ॥चंद्रप्रभ सुविधिविधेजी, शीतल अनें श्रेयांस; वासुपूज्य विमल नमोजी, अनंत धर्म शुभवंश ॥भ०॥ १६ ॥ शांति कुंथु अर संधुण्यो जी, मल्लि अने सुव्रत; नमी जिनवरनें नित्यनमोजी, नेमिनाथ संयुत ॥ भ०॥ १७॥ पार्श्वनाथ त्रेवीशमोजी, वर्द्धमान जिनचंदा जे जिननां गुण गावश्ये जी, तस घर नित्य आणंद ॥भ०॥ १८॥ वर्तमान जिन ए कह्यांजी, विहर
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शांतिना-मांन जिनवीश; सीमंधर स्वामी जयोजी, वंदो युगंधर इश ॥ भ० ॥ १९ ॥ बाहु सुबाहु जाणीएजी, थना.
सुजात शव्यंप्रभ नाम; ऋषभानन स्वामी नमोजी, अनंतवीर्य शुभ काम ॥भ०॥२०॥ सूरप्रभ ॥२८॥ सुरतरु समोजी, विशाल वज्रधर सेव; चंद्रतणी परि उजलोजी, श्रीचंद्रानन देव ॥ भ० ॥ २१॥
चंद्रबाहु भुजंग नमोजी, इश्वर नेमीप्रभ नामि; वीरसेन महाभद्र जयोजी, देवजस अनंतवीर्य स्वामि ॥भ० ॥ २२ ॥ विहरमांन जिन वंदतांजी, पातिक जाए सवि दूरे; मन मांनी वली संपदाजी, पामीजें भरपूर रे ॥ भ० ॥२३॥ पांच भरत पांच एरवतेंजी, महाविदेह विचार; उत्कृष्ट काले नमुंजी, सित्तरि सो जिनसार ॥ भ०॥ २४ ॥ | ढाल-॥४॥ ऋषभनो वंश रयणायलं॥ए देशी॥ऋषभसेन चंद्राननो, वारिषेण वर्द्धमानरे; ए चिहुंदानामे शाश्वता, भविअणधरोध्यांन रे॥२५॥शाश्वता जिनवर गाइयें,॥ए आंकणी॥गातां आनंद थायरे
नामे नवनिधि संपजे, दरिसण पाप पलायरे॥शा०॥२६॥ नंदीश्वर द्वीपादिकें, तिर्यगृलोक विशालरे;
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॥२८॥
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बावन चैत्ये बिंबछे, चोसठिसय अडयाल रे; ॥शा० ॥२७॥ मनोहर कुंडल द्वीपमा, प्रासाद च्यार निहालोरे; च्यारसे छन्नु बिंबनें, वंदु हुं नित्य भावें रे॥शा० ॥२८॥ रुचक द्वीप जाणिएं, प्रासाद च्यार उदार रे०, जिन पडिमा निज चित्तमां, च्यारसे छन्नु संभार रे;॥शा० ॥२९॥ राज्यधांनी विजयें वली, प्रासाद सोलते कहिएं रे; ओगणीस सय विस आगले, पूजीनें सुख लहीएं रे०, ॥शा०॥ ३०॥ मेंरुवनें अंसी देहरा, छन्नु सय बिंब वंदोरें; चूलिकाएं पंच जिन घरे, छसें विंब सुख कंदो रे; ॥शा०॥३१॥ गयदंते वीश देहरा, चोवीश सय जिनवंदो रे, दशचैत्य देव उत्तर कुरुएं, बारसे जिन चंदोरे;॥शा० In ३२॥ इषुकारें च्यार जिनघरे, प्रतिमा च्यारसे अॅसी रे; च्यार चैत्य मानुषोत्तरे, बिंब चारसे अॅसी रे;॥शा०॥ ३३ ॥ वक्षारा गिरिए जाणीएं, ॲसी जिन प्रासाद रे; छन्नु सय बिंब वंदीएं, समस्यां आपें सार रे०, ॥ शा० ॥ ३४ ॥ त्रीश प्रासाद कुलगिरिवरे, विंबछसय त्रिण सहस रे; प्रासाद चालीश दिग्गजे, बिंब आठसें चार सहस रे; ॥ शा०॥३५॥ दीर्घ वैताढ्ये देहरां, एकसो सित्तेर सांण रे; च्यारसे वीश सहस वली, वंदो भविअण जांण रे; शा०॥॥३६ ॥ जंबु वृक्ष प्रमुखें दशे,
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पंचक०
जोनिता थना.
स्तवन
॥२९॥
इग्यारसे सिंत्तरि जांण; रे; एक लाख चालीश सहस बिंब, च्यारसें इम मन आण रे॥शा० ॥३७॥ कांचनगिरि जिनवर कह्यां, सहस एक प्रासाद रे; एक लाख वीस सहस उपरें, वंदिलहें सुप्रसाद रे;॥शा०॥३८॥ सित्तरि देहरां महानदी, बिंब सय चोराशी रे; हृदे अॅसी छे देहरां, छन्नुसे बिंब राशी रे;॥ शा०॥ ३९ ॥ कुंडे त्रणसे एंसी वली, प्रासाद वीशाल रे; पणयाल सहस उपरिं, छसें बिंब विशाल रे०, ॥शा०॥४०॥ वृत्त वैताव्ये वीशछे, प्रासाद इयुं श्रृंग रेचोवीससें जिन वंदतां, लहीएं सुख संग रे;॥शा०॥४१॥ वीश प्रासाद यमक गिरि, चोवीससे जिन वंदो रे; ध्यान धरी मनमां सदा, भवभय दूरित निकंदो रे ॥शा० ॥ ४२ ॥बत्रीस सय उगुण सट्टीवली, प्रासाद तिर्यग् लोकेंरे; त्रण लाख सहस एकागुंअ, त्रणसय वीशछे थोके रें॥ शा०॥४३॥ | ढाल-॥५॥ भरत क्षेत्र मोझार रे ॥ ए देशी ॥ व्यंतर ज्योतिषी मांहि, असंख्यात जिनघर; जिनपडिमां तिम जाणीएं ए॥४४॥ हवें पातालह लोक, असुर कुमारमां; चोसठि लाख जिन देहरां ए॥४५॥ जिनवर एकसो कोडी, पन्नर कोडी उपरें; एकवीश लाख तिम वंदीएं ए॥४६॥
सरकार
॥२९॥
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नाग कुमारे जांण, लाख चोरासीअ०, देहरां अतिहिं दीपताएं;॥४७॥ प्रतिमा एकसो कोडी, तिमी एकावन्न; वीश लाख उपरि कहीएं ए॥४८॥ बहोत्तेर लाख प्रासाद, सुवर्ण कुमारमां; एकसो कोडि जिन वंदीएं ए॥ ४९ ॥ ओगणत्रीश वली कोडि, साठि लाख उपरें; भावधरी नित्य वंदीएं ए॥ ५० ॥ विद्युत अग्निकुमार, द्वीपकुमार तिम; उदधि कुमार वखाणीएं ए॥५१॥ दिगूकुमार वली सार, स्तनित कुमारमा; ए छ स्थानक जिन कहेंए ॥ ५२ ॥ बहोत्तेर बहोत्तेर लाख, एक एक स्थानकें; जिन देहरां नित्य वंदीएं ए॥ ५३॥ एकसो कोडि सार, छत्रीस कोडि उपरिं; एंसी लाख, जिन वंदीएं ए ॥ ५४॥ छन्@ लाख प्रासाद, वायु कुमारमा; एकसो कोडि वखाणिएं ए॥ ५५ ॥ उपरि बहोतेर कोडि, अॅसी लाख तिम; जिन पडिमा नित्य वंदीएं ए॥ ५६ ॥ सात कोडि बहोतेर 81 लाख, भुवनपतिमां; जिन देहरां जिनजीकह्यांए ॥५७॥ तेरसें नव्यासी कोडी, साठि लाख उपरि माणिक जिन नित्य वंदीएं ए॥ ५८॥ ढाल-॥ ६॥ देश मनोहर मालवो ॥ ए देशी ॥ उर्द्ध लोक सुधर्म सुंणो, देहरां बत्रीश लाख
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शांतिना- ललना; बिंब सत्तावन कोडीतीहां, साठि लाख उपरि भाख. ललनां ॥ ५९ ॥ उर्द्धलोकें जिनवर थना.
भण्यां ॥ ए आंकणी ॥ इशान देव लोके देहरां, अठावीश लाख विशाल-ललना पंचाश-लाख कोडि चालीश, जिन वंदुं नित्य भाल-ललना० उर्द्ध० ॥ ६० ॥ सनत्कुमार बार लाख कयां, देहरां अति । उत्तंग-ललना; एकवीश कोडि साठि लाखवली, बिंब नमुं मन रंग-ललना० उर्द्ध० ॥६१॥ चोथे आठ
लाख देहरां, प्रतिमा चउद कोडि जाण-ललना० लाख च्यालीशज उपरिं, वंदीजे सुविहाण-खलना० on उर्द्ध०॥६॥ ब्रह्मदेवलोक पांचमें, देहरांते चार लाख०-ललना; सात कोडि वीश लाख नमो, श्रीजिन
वरनी भाख ललना० उर्द्ध० ॥६३॥ छठे सुरलोके सुंणो, देहरां सहस पंचाश-ललना० ने लाख जिनवंदीएं, आंणिमन उल्लास-ललना० उर्द्ध०॥६॥शुक्र देवलोक सातमें, देहरां सहस चालीश-ललना० बहोतेर लाख बिंब तिहां कह्यां, वंदीजें निशदिश-ललना० उर्द्ध० ॥६५॥ सहस्त्रार आठमे सांभलो,
si॥३०॥ देहरां छ हजार-ललना; दश लाख अंसी सहसवली, वंदो भाव अपार-ललना०॥ उर्द्ध ॥६६॥नवमें दशमें देवलोकें, च्यारसें देहरां जाण-ललना; बहोत्तेर सहस प्रतिमा तिहां, प्रणमो नित्य सुविहाण
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ललना; उर्द्ध०॥६७॥ आरण अच्युत त्रणसें, देहरांश्री जिनराय-ललना० चोपन सहस जिनेसरूं, वंदे सुरपति राय-ललना० उर्द्ध०॥६॥ ग्रैवेयके पहिले त्रिके, देहरां एकसो इग्यार-ललना; तेर सहस त्रणसें वली,वीश अधिक जुहार-ललना उर्द्ध०॥६९॥ मध्यम ग्रैवेयकें त्रिकें,देहरां एकसो सात-ललना, बार सहस बिंब अडसय च्यालीश,वंदो जिन सुप्रभात-ललना० उर्द्ध० ॥७०॥ उपला ग्रैवेयकत्रिके, देहरांसो सुखकार-ललना० बार सहस बिंब तिहां कह्यां,दीठे शिवसुख सार-ललला उर्द्ध०॥७१॥पंच विमान अन्नुत्तरें,देहरां पंच प्रधान ललना०; छसें बिंब तिहां भलां,भविय धरो नित्य ध्यान-ललना० उर्द्ध० ॥७२॥ उर्द्ध लोक देवल सवे,लाख चौराशी वखांण-ललना; सहस सत्ताणुं उपरें,त्रेवीश अधिक वली जाणललना० उद्धृ०॥७३॥ एकसो कोंडी बावन्न कोडी, चोराणुं लाख सहस चुम्माल-ललना० सातसें साठि अधिक सही, भविय नमो नित्य भाल-ललना उर्द्ध०॥ ७४ ॥ इम त्रिभुवन मांहि सवे. आठकोडि सत्तावन्न लाख-ललना बसें अॅसी आगल्यां, देहरांश्री जिन साख-ललना उर्द्ध०॥७॥पनरसें कोडि
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स्तवन
॥३१॥
शांतिना-बिंब नमो, बेंतालीश कोडी वलि जाण-ललना; अट्ठावन्न लाख सहस छत्रीश, अॅसी अधिक जिनवाणिथना.
ललना० उर्द्ध० ॥ ७६ ॥
ढाल-॥७॥भरत नृप भावश्युं ए॥तथा आवो जमाइ प्राहुणा ।ए देशी।मनुष्य क्षेत्र जिन जाणिएं, मालंतडी, शत्रुजय गिरनार, सुण सुंदरी; सम्मेत शिखर अष्टापदें ए-मा०, अर्बुद देव जुहार-सुण सुंदरी॥७७॥श्रीशंखेश्वर पास जी ए-मा०, जीरावलो जगजांण-सु०; अंतरीक्ष अवनी तले ए-मा०, थंभण पास वखाण-सु०॥७८॥ कलिकुंड कूकडे सरेए-मा०,श्रीकर हाटक देव-सु, मक्षी मालव जाणीएए-मा० सुरनर सारे सेव-सु०॥७९॥राणकपुर रलिआमणो ए-मा०,जिहांछे धरण विहार-सु०; बंभणवाड प्रमुख भलाए-मा०, भविजननें हितकार-सु०॥ ८॥गोडी मंडण जागतोए-मा०, वंदो महरी पास-सुरु श्रीअजावरो अमीझरोए-मा०,चिंतामणि लिल विलास-सु०॥८॥इम त्रिभुवनमा तीरथ भलाए-मा०,असंख्यात अनंत-सुतिहां जिन पडिमा वंदीएं ए-मा०,जांणी लाभ अनंत-सु० ॥८॥ संवत सत्तर चउदोत्तरे-मा०, कार्तीक शुदि गुरुवार-सु० दशमी दिनमें गाइया ए-मा०, समीनयर
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| मोझार - सु० ॥ ८३ ॥ पढे गणेजे सांभले एमा०, तसघर नवनिधि थाय - सु०; ऋद्धि वृद्धि सुख संपदाए- मा०, पामे पुण्य पसाय सु० ॥ ८४ ॥ कलश - हम शासय जिनवर सयल सुखकर संधुण्यों त्रिभुवन धणि, भवमोह वारण सुखकारण वंछित पूरण सुरमणी; तपगच्छ नायक सुखदायक विजय प्रभ सूरि दिनमणी, कवि देव विमल विनय माणिक विमल सुख संपत् घणी ॥ ८५ ॥ ' इति श्रीशाश्वत जिनवर स्तवनं संपूर्णम्”
""
" अथ श्री निगोद स्तवनम् ”
ढाल - पहेली ॥ क्रीडा करी घेर आवीयो ॥ ए देशी ॥ वर्द्धमान जिन विनवुं, साहिब साहि स धीरो जी; तुम दर्शण विण हुं भन्यो, चिहुं गतिमां वड वीरो जी ॥ १ ॥ प्रभुं नरक तणां दुःख दोहिला ॥ ए आंकणी ॥ में सह्या काल अनंतो जी; शोर कियां नवि कोइ सुर्णे, एकविना भगवंतो जी - प्रभुं० ॥ २ ॥ पाप करीनें प्राणीओ, पोहत्यां नरक मोझारो जी; कठिन कुभाषा सांभली, नयनाश्रवण दुःखकारो जी - प्र० ॥ ३ ॥ शीतल योनीय उपजें, रहवें तपतें ठामो जी; जानुं
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शांतिना- प्रमाण रूधिरना, किच कह्यां बहु तामा जी-प्र०॥४॥ तव मन मांहें चिंतवें, जाइये किणहि दिशे पंच क. थना.
नासो जी; परवश पडियो प्राणियो, करतो कोडि विषासो जी-प्र०॥५॥ चंद्र न तिहां सूरिज नहीं, ॥३२॥
|घोर घंपट अंधारो जी, स्थानक अति असुहांमणां, फरस जिहां जिस्यो पूर धारो जी-प्र०॥ ६॥.... नवो नगरमां उपजें, जाणे असुर ते वारोजी; कोपकरी आवे तिहां, हाथ धरी हथिआरोजी ॥०॥७॥
करिय कतरनी देहनां, करतां खंडोखंड जी; रीव अतीव करे बहुं, पामें दुःख प्रचंडो जी-प्र०॥८॥ KI ढाल-बीजी-वैरागी थयो-ए देशी॥भांजे काया भांजतो रे,मारे फिचा माहि; उधे माथे अग्नीएं
दहेंए; उंचा बांधे पायो रे; जिनजी सांभलोजी, कडुआ कर्म विपाकोरे; जि ॥१॥ए आंकणी॥एवैतरणी| तटणी तणां, जलमें नांखे पास; करिये कुहाडे तरु पररें, छेदें अधिक उल्लासो रे; जि०॥२॥ उंचा जोयण पांचशे रें, उछाले आकाशे रे; श्वानरूप करडे तिहां रे, मृगजिम पाडें पास रे; जि०॥३॥ पन्नरे
॥३२॥ भेदे सुर मिली रे, करवत दीयेंरे कपाल रे; आरोपें शुली शरिरे, भांजें जिमतरु डालो रेजि०॥॥ बोलें ताता तेलमां, तिल करि काढ़ें ताम; वली भोंभरमां खेपवें रे, विरुआ तास विरामोरे; जि०
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॥ ५॥ छाल उतारे तेहनी रें, आमीष दिये आहार रे; बहु अरडाटां पाडतां रे, तन विच घाले. क्षारोरे; जि०॥६॥
ढाल-त्रीजी-राग मारु-मृत कारीज करी रायनारे ॥ ए देशी ॥ तापें करी ते भूमीकारे, वनसु सितल जांण; आवी बेशे तरूवर छोहिडेरें, पडतां भांजेप्राण ॥१॥ चतुर मत राच ज्योरे, ॥ए आंकणी॥ |विरुआ विषय विलास; सुख थोडां दुःख बहुला जेहथी रे, लहीएं नरक निवास-च०॥२॥ कुंभी मांहें पाक करें तस देहनो रे, तिल जिम घांणी मांहिं; पिली पिलीने रस काढ़ें तेहनां रे, महिर न आवें तास-च०॥३॥ नाठां जायें त्रीजी नर्कमां रे, मन धरतां भय भ्रांत; पछि परमांधामी सुर मिलें रे, जेहवां काल कृतांत-च० ॥ ४॥ दांतां विचे देह दश आंगुलांजी, फिरी फिरी लागें पाय; वेदना सहतां काल गयो घणोजी, हवें सही न जायजी-च०॥५॥ जिहां जायें तिहां उठे मारवा रे, कोइ न पूछे सार; दुःखभरि रोवें शोर करें घणो रे, निपट महा निरधार-च०॥६॥ ढाल चोथी-हारे जीव जीन धर्म किजीएं रे,॥ऐ देशी॥ एहने रे परमाधामी सुर कहें, सांभल तुंभाइ,IA
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पंच स्तवन.
शांतिना
थना. ॥ ३३ ॥
कह्यां दोष अमारडा, निज दोष कमाइ; पर०॥१॥ए आंकणी॥पाप कर्म कीधां घणां, बहु जिव विणास्यां; पिडा न जांणी परतणी, कुडां मुख भास्यां; पर०॥२॥ चोर्या में धन पारकां, सेवी परनारी; आरंभ काम किया घणां, परीग्रहनो नहीं पार; पर०॥३॥ निशि भोजन किधां घणां, बहुं जीव संहार; अभक्ष्य अथाणां आचर्या, पातिकनो नहीं पार; पर०॥४॥मात पिता गुरु ओलव्यां, कियां क्रोध अपार; मांन माया लोभ मन धाँ, मतीहिन गमार; पर०॥ ५॥ | ढाल-पांचमी-श्रावण शुद दिन पंचमीए ॥ ए देशी ॥ एम कही सरवे वेदनाए, वलीय उदीरें । तेहितो; शिला कंटाला वजतणांए, तिहां पछाडे साहितो॥१॥ तिवरसें तातो तरूए, मुखमांहे | मामें तामतो; अग्नी वर्णे करे पूतलीए, आलिंगन दे जांमतो ॥२॥ सयल वदन कीडा भरेए, जीभ करें संत खंडतो; ए फल मिशि भोजन तणांए, जाणे पाप अखंड तो ॥३॥ उनो अति आंकरोए, आणे ए तातो नीरतो; ते घाले तस आंखमाए, कानें भरें कथीरतो ॥ ४॥ काल अधीक बिहामणां ए, हूंडक जे संठाण तो; दिसे दिन दयामणाए, वली निरधारा प्राणतो ॥५॥
॥३३॥
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ढाल - छठ्ठी-सुणो प्राणीरे सामायक प्रतसार ॥ ए देशी ॥ इणिपरें बहु वेदन सही, चिंत चेत्तो रे, वसतां नरक मोझार - चि० ज्ञानीविन जांणे न कोइ चि०, कहेतां नावे पार - चि० ॥ १ ॥ दश दृष्टांते दोहिलो, चि०, लाभ्यो नरभव सार-चि०; पाम्यों एलें म हारिज्यो- चि०; करज्यों एह विचार - चि० ॥२॥ शुद्धो संयम आदरो - चि०, टालो विषय विकार - चि०; पांचे इंद्रीय वश करो - चि०, जिम होवें छुटक बार- चि० ॥३॥ निंद्रा विकथा परिहरो - चि०, आराधो श्री जिनधर्म - चि०; समकित रत्न हृदयें धरो - चि०, भांजो मिथ्या भ्रम - चि० ॥ ४ ॥ वीर जिणंद पसाउलें - चि०, अहिपुर नगर मोंझार - चि०; स्तवन रच्यो रलीयामणो - चि०, परम कृपाल उदार - चि० ॥ ५ ॥
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' इति श्रीनिगोद स्तवनं संपूर्णम् ”
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'अथ श्री त्रिभुवन स्तवनम् ”
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दुहा - परम पुरुष परमातमा, प्रणमुं पास जिणंद; केवल कमल्ला वल्लहो, चिदानंद सुखकंद ॥ १ ॥ ऋषभानन चंद्रानन, वारिषेण वर्द्धमांन; नाम च्यारें शाश्वतां जपतां वाचें वान ॥ २ ॥
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सर
शांतिनाथना.
पंच
स्तवन.
॥३४॥
स्वर्ग मर्त्य पातालमां, शाश्वत जिनवर गेह; शाश्वत जिन संख्या कहुं, सुंणजो ते धरीनेह ॥३॥ | ढाल-॥१॥ थारां मोहलां उपरि मेह झरुखें वीजली हो ॥ ए देशी ॥ आठमें द्वीप नंदीश्वर बावन देहरा होलालबावन देहरा होलाल,चोसठसें अडतालीस जिन बिंब सुखकर होलाल० जिनबिंब कुंडल द्वीपें च्यार प्रासाद मनोहरं होलाल. च्यार प्रासाद०, च्यारसे छन्नु बिंब जिननां सुखकरूं होलाल० जिनना०॥१॥रुचक द्वीपें च्यार जिनघर आखिएं होलाल जिनघर० च्यारसें छन्नु जिनवर मूरति भाखिएं| होलाल मूरति०॥राजधानीमा सोल जिणहर वंदिए होलाल,जिणहर०, ओगणीससे जिन बिंबधी पाप नीकंदिएं होलाल० पाप०॥२॥ मेंरुवनें अशीति प्रासाद जाणीएं होलाल, प्रासाद०, छन्नसें जिन बिंब किं दिलमांआणीएं होलालदिलमांचूलिका पांचप्रासाद किंजगजन मोहतांहोलाल जगजन०, श्रीजिनवरनां बिंब छसें तिहांसोहतां होलाल छसें॥३॥गजदंतें मंदिर वीश किं जिननां जय करुं होलालजि|ननां०, चोविससें जिन बिंब किंदरिशण दुःख हरु होलाल० दरिसण; देवकुरू उत्तर कुरूमां जिनहर दस सहि होलाल जिनहर०,जिन मूर्तिसें बार नमुंमन गहगही होलाल नमुखाइक्षुकारें च्यार प्रासाद अनो!
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मप सिरिंधरा होलाल० अनोपम० च्यारसें ऐसी जिन बिंबनमें तिहांसुरवरा होलाल० नमें;मानुषोत्तर पर्वत च्यार प्रासाद पडवडां होलाल. प्रासाद०, जिनवर बिंबसें च्यार ऐंसीति अतिवडां होलाल. ऐंसीति०॥५॥ वक्षारे एंसी प्रासाद छन्नुसें जिनपति होलाल० छन्नुसें, कुलगिरि त्रीश प्रासाद छत्रीशसे मूरति होलाल० छत्रीससे दिग्गजें दशप्रासाद अडतालीससे जिननां होलाल० अडतालीस० वृत्त वैताढ्ये विसघर चोवीससे जिनां होलाल. चोवीससें ॥६॥ दीर्घ वैताये जिनघर एकसो सित्तरी होलाल. एकसो०, नमुंबिंब वीश सहस च्यारसें दिल धरी होलाल० च्यारसें; जंबु प्रमुख दश वृक्ष उपरि जिनघरां होलाल. उपरिक, सहस एकशत एक सित्तरि सुखकरां होलाल सित्तरिक ॥७॥ तिहां एक लाख च्यालीश सहस च्यारसे होलाल० सहस०, थुणतां ते जिनराय किं चित्तडं : उल्लसें होलाल० चित्तढुं० ॥ सहस एक प्रासादकिं कांचनगिरिअ छ होलाल. कांचन०, इक लाख वीस सहस जिनथी दुःख गच्छे होलाल जिनथी०॥८॥ महानदी सित्तेर प्रासाद चोरासीसें जिनवरुं| होलाल० चोरासीसेंद्रहें प्रासाद असीति छन्नुसे तिर्थकरुं होलाल० छन्नुसेंत्रणसे एंसी प्रासादकें कुंडें छे
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शांतिना- थना.
पंचक० स्तवन,
॥३५॥
सदा होलाल० कुंडेंछे०, पिस्तालीश सहस छसें जिन संपदा हो० छसें०॥९॥यमक गिरिएं वीश प्रासाद , शाश्वता होलाल. प्रासाद०, चोवीसमें जिन बिंब अनोपम छाजतां होलाल० अनोपम०; इणिपरें सकल संख्याए तिर्यगू लोकमां होलाल० तिर्यग् छत्रीससे ओगणसठि प्रासाद अनुपमा होलाल. प्रासाद०॥१०॥ तिहां त्रिण लाख एकाणुं सहस त्रणसें होलाल. सहस० उपरि वीश जिनेश्वर बिंब ते दिल वसे होलाल. बिंब, तिमवली व्यंतर ज्योतिषी द्वीप समुद्रमा होलाल. द्वीप० असंख्यातां जिन बीबथी भवमा नवि भमें होलाल० भवमां ॥ ११ ॥ __ ढाल-॥२॥ इंडर आंबा आंबली रे॥ ए देशी॥ हवें पाताल लोकमां रे, असुर कुमार भवणिंद: तिहां प्रासाद , शाश्वतां रे; चोसठ लाख सुखकंद-चतुरनर वंदो ते जिनराय ॥१॥ए आंकणी॥ एकसो कोडि उपरें रे, पन्नर कोडि विश लाख; सासय जिण पडिमा भणी रे, आगमनी छे साखच०॥२॥ नाग कुमार निकायमा रे, जिन घर चोराशी लाख; एकसो कोडि एकावन्न रे, कोडी बिंब वीश लाख-च०॥३॥ सुवर्ण कुंमार मांहिं वलीरे, प्रासाद बहोतेर लाख; जिन बिंब कोडी
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॥३५॥
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एकसो रे, ओगण त्रीश साठ लाख-च० ॥४॥ विद्युत् कुमार माहि वली रे, अग्नी द्वीप कुमार; उदधि दिशि कुमारमा रे, स्तनित कुमार मोझार-च०॥ ५॥ प्रासाद एह छ मांहिछे रे, बहोंतेर बहोंतेर लाख; इहां एके स्थानकें रें, जिन बींबनी सुंणो भाख-च० ॥६॥ एकसो कोडि छत्रीश कोडी रे, एंसी लाख आह्वाद; ॥ वायु कुमार मांहि वलि रे, छन्नु लाख प्रासाद-च० ॥७॥ जिन बींबदू एकसो कोडि तिहां रे, बहोतेर कोड एंसी लाख; पाताल मांहि इणिं परें रे, सूत्र तणि ', साखिच०॥८॥ भवन पतिमां देहरां रे, बहोतेर लाख सात कोडि; जिन बिंब तेर कोडिसें रे, साठि लाख नव्यासी कोडि-च०॥९॥ ___ ढाल-॥३॥ निंदरडी वेरण हुइरही ॥ ए देशी ॥ प्रासाद उर्द्ध लोकमां, पहेलें स्वगें हो लाख बतीश कें;सत्तावन कोडि मूरति,साठ लाख हो कहें जगदीश-प्राणाशाए आंकणी-बीजें इशान देवलोकें,
अठावीश हो लाख प्रासादकें; पंचाश कोडी जिन मूरति, लाख च्यालीश हो सोहें घंटा नादकें-प्रा० P॥२॥ त्रीजें सनत् कुमारमां, सुप्रासाद हो तिहां लाख बारकें; साठि लाख इकवीश कोडी, जिन
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शांतिनाथना.
बिंब हो जपतां जयकारकें-प्रा०॥ ३॥ चोथें माहेंद्र देवलोकें, आठ लाख हो प्रासाद जगदीश लाख च्यालीश मूरती, कोडी चउद हो नमिए निशदिश-प्रा०॥४॥ पांचमें ब्रह्म देवलोकें, च्यार स्तवन, लाख हो प्रासाद में सारकें; तिहां सात कोडि सोहतां, वीश लाख हो जिन बिंब उदारकें-प्रा०॥५॥ सहस पंचाश प्रासाद छे, छठे स्वर्गे हो लांतक मोझारकें; तिहां ने, लाख निर्मलां, जिन बिंब हो आपें भव पारकें-प्रा०॥ ६॥ सातमें शुक्र देवलोकें, सहस च्यालीश हो प्रासाद विशालकें; बहोतेर लाख जिंन बिंब छ, पूजी प्रणमी हो थाय देव खुसालकें-प्रा०॥७॥ आठमें सहस्रार देवलोकें, जिन मंदिर हो छ सहस प्रमाणकें०, दश लाख ऐसी सहस, जिन मंदिर हो तिहां गुण खांणके-प्रा० ॥८॥ नवमें आनत देवलोकें, बसें देहरा हो बिंब छत्रीश हजार के दशमें प्राणत देवलोकें, एहज पाठ हो जाणो निरधारकें-प्रा०॥९॥ आरण इग्यारमें देवलोकें, अच्युत स्वर्गे हो जांणो अविशेषकें; दोढसो दोढसो प्रासाद, जिन बिंबहो सत्तावीश सहसकें-प्रा०॥ १०॥ हेठले त्रण ग्रैवेयकें,
४॥३६॥ शत एकहो प्रासाद इग्यार; तेर सहसनें त्रणसें, वीश बिंब हो जिननां मनोहारकें-प्रा०
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in ११॥ माहिले त्रण ग्रैवेयकें, शत एक हो सात जिननां गेहकें; बार सहसनें आठसें, जिन बिंब हो
च्यालीश अषेसकें-प्रा०॥ १२॥ उपलें त्रण ग्रैवेयकें, शत एक हो प्रासाद अछेह कें; बार सहस जिन विंबनां, पाय प्रणमुं हो मन आणि नेहकें-प्रा०॥ १३॥ पोढा पांच प्रासाद ,, पंचानुत्तर हो विमान मोझार के छसें जिन बिंब तिहां भलां, एह सर्व हो रयणामय सारकें-प्रा० ॥ १४ ॥ एवं उर्द्ध लोकमां, चउराशी हो लाख प्रासादकें; सत्ताणुं सहस त्रेवीश छ; अति उंचा हो मांडि गयणसुंवादकें-प्रा० ॥ १५॥ एकसो कोडी बावन्न कोडि, चोराणुं हो वलि लाख होय कें; सहस चुम्मालीश सातसें, जिन बिंब हो शाठि शाश्वतां जोयकें-प्रा० ॥१६॥ त्रिभुवनमा हवें सांभलो, आठ कोडि हो सत्तावन्न लाखकें; बसें चोराशी प्रासाद छे, तेह शाश्वता हो इम आगम भाखकें-प्रा० ॥ १७॥ जिन बिंब पन्नरसें कोडि, बेंतालीश हो कोडि मनोहारकें; अठ्ठावन्न लाख उपरि, छत्रीश हो सहस एंसी सारकें प्रा० ॥१८॥ चउ कुंडल चउ ऋचकमां, नंदिश्वरमां हो भुवन बावन्नकें; एसाठि भांख्यां चउ बारां, त्रण द्वारा हो सहस जिन भुवनकें-प्रा० ॥ १९॥ उत्से धांगुल मानथी, अधो उर्द्ध हो
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थना.
शांतिना-सात हाथ मानकें; तिर्यगूमां नित्य बिंबनु, पांचशे ध[से हो परिमाण प्रधानकें-प्रा०॥ २०॥ पंच क० __ढाल-॥ ४॥ कुंमति कांप्रतिमा उत्थापी ॥ ए देशी ॥ अतित अनागत वर्तमान, चउविशी
. . . __
स्तवन. ॥३७ जिनजेह;विहरमान जिन वीश संप्रति, प्रय उठी प्रणमुंतेहरे-॥ प्राणी ते वंदो जिनराय,जिम सुख संपत्ति
थाय रे-प्रा० ॥१॥ ए आंकणी ॥सुर नर रचियां तीरथ बहुलां, शत्रुजय गिरनार; अष्टापद अर्बुद गिरि माहि, समेत शीखरे सार रे-प्रा० ॥२॥ नागद्रह जीराओलि पास, कर है. मांगरोल घृत कल्लोलें दीव घोघे, कलिकुंड पंचासरे ठोर रे-प्रा०॥३॥ संखेश्वरोने थंभण पास, सेंरीसो वरकांणो सेस! तीफल वृद्धि गोडी पास, पाल्हण विहार जाणो रे-प्रा० ॥ ४॥ अंतरीक अंजारो पास, लोढण कल्लारो दादो; विजय चिंतामणी सोम चिंतामणी, भजीएं तजी उन्माद रे-प्रा०॥५॥ उंबरवाडी सूरजमंडण, सहस फणो जिन पास; भिड भंजनने कायर हेडो, पूरे अमीझरो आश रे-प्रा०॥६॥ ॥३७॥ बंभणवाडी वीर साचो रे नंदी पुरने नाणे; जीवीत स्वामी जपीएं ए धामी, वसंत पूरे लोढाणे रेंप्रा०॥७॥राणकपूर नाडुलाइ माहें, उदयपूरें अधिकरां; तारंगे श्री अजित जिणेसर, टालें भवनां
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फेरा रे-प्रा०॥ ८॥ तीर्थ मालाए सुरत माहि, भाखी श्रुत आधार; सत्तरसें पंच्योत्तेर वरसें, दीवाली दीवसे सार रें-प्रा०॥९॥ तपागच्छ नायक वंछित दायक, श्री विजय ऋद्धि सूरी राजें, भाव धरीने भणिआं जिनवर, संघ सकल सुख काजें रें-प्रा०॥ १०॥ __ कलश-इय नमिय नरवर निखिल सुरवर किन्नर विजा हरा, मइ भत्ति जुत्ति ज हसतें थुण्यां। सासया जिणवरा; तप गच्छ भूषण विगत दूषण हंस विजय बुध सद्गुरु, शीश धीर विजयें सदा सुजयें भविअण पंकज दिनकरुं॥ ११॥
इति श्रीशाश्वत जिन तीर्थमाला संपूर्णः
“अथ श्री महावीर स्वामिनां पंच कल्याणकनुं स्तवनम्" दुहा-शासन नायक शिवकरण, वंदु वीर जिणंद; पंच कल्याणक जेहनां, गाशुंधरी आणंद ॥१॥ सुणतां थूणतां प्रभुतणां, गुण गिरुआ एकतार; ऋद्धि सिद्धी सुख संपजे, सफल हुए अवतार ॥२॥
ढाल-॥१॥ बापलीए जीभडली, तुंकां नविं बोले मीटुं॥ ए देशी ॥सांभलजो सस्नेही सयणां,
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शांतिना
थना.
॥ ३८ ॥
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प्रभुनुं चरीत्र उल्लासे; जे सांभलशे प्रभु गुण तेहनुं, समकीत निर्मल थाशे रे - सां० ॥३॥ ए आंकणी जंबूद्वीपे दक्षिण भरतें, माहण कुंड ग्रामें; ऋषभदत्त ब्राह्मण तस नारी, देवानंदा नाम रे - सां० ॥४॥ आशाढ शुदी छड़ें प्रभुजी, पुप्फोत्तरथी चवीयां; उत्तरा फाल्गुनी योगें आव्यो, तस कुखे अवतरीयारे - सां० ॥५॥ तेणी रयणी सादेवानंदा, सुपन गजादिक निरखें रे; प्रभातें सुंणी कंत ऋषभदत्त, हीयडा मांहें हरखे रे - सां० ॥ ६ ॥ भाखे भोग अर्थ सुख होशें, होश्ये पुत्र सुजांण; ते निसुंणी सा. देवानंदा, किधुं वचन प्रमांण रे - सां० ॥ ७ ॥ भोग भलां भोगवतां वीचरे, एहवे अचरीज होवें शतकृत जीव सुरेसर हरख्यों, अवधिएं प्रभुने जोवें रे - सां० ॥ ८ ॥ करी वंदनने इंदो सन्मुख, सात आठ पग आवें; शक्रस्तव विधि सहीत भणीनें, सींहासण सोहावेरे-सां० ॥ ९ ॥ संशय प डीयो एम विमासें, जिन चक्री हरी रांम; तुच्छ दलीद्र मांहण कुल नांवे, उग्र भोगवीण धांम रे सां० ॥ १० ॥ अंतीम जिन माहण कुल आव्यां, एह अछेरुं कहीएंः उत्सर्पिणी अवसर्पिणी अनंती, जातें एहवुं लहीये रे - सां० ॥ ११ ॥ इणी अवसर्पिणी दश अछेरां, थयां ते कहीए एह; गर्भ हरण
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पंच क० स्तवन.
॥ ३८ ॥
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गौशालो उपसर्ग, निष्फल देशनां जेहरे-सां० ॥ १२॥ मुल वीमाने रवी शशी आव्यां, चमरांनो उत्पात; ए श्रीवीर जिणेश्वर वारें, उपन्यां पांच वीख्यात रे-सां०॥१३॥ स्त्री तीरथ मल्ली जिन वारे, शीतलने हरी वंश; ऋषभ ने अठोत्तर सो सिद्धा, सुविधी असंजति सेसरें-सां०॥१४॥संख शब्दें मीलिया हरी हरिश्यु, नेमी सरने वारें; तिमप्रभु निच कुलें अवतरियां, सुरपति एम विचारें रे-सां०॥१५॥ __ ढाल-॥२॥ नदी यमुनाकें तीर उडे दोय पंखीयां ॥ ए देशी ॥ भव सत्तावीस थुल माहि त्रीजें भवें, मरीची कीयो कुल मद भरत यदा स्तवें; निच गोत्र कर्म बांधीउं तिहां तेवती, अवतरीया माहण कुल अंतिमां जिनपति॥१॥ अति अघटतुं एह थयुं थाशे नहीं, जे प्रसवे जिन चक्री | नीच कुले नहीं; एह अमारो आचार धरूं उत्तम कुले, हरिणगमेषी देव तेडाव्यों तत्क्षणें ॥२॥ | कहे माहणकुंड नयर जइ उचीत करों, देवानंदा नी कुखेंथी प्रभुने संहरो; नयरी क्षत्रीय कुंड राय | सिद्धार्थ गेहिनी, त्रीशला नामे धरो प्रभु कुंखे तेहनी ॥३॥ त्रीशला गर्भ लेइने धरो माहाणी उयरें, द ब्यासी रात व्यतीत कहे तेम सुर करें; माहणी देखें सुपन जाणुं त्रीशला हाँ, त्रीशलां सुपन लहे है
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थना. ॥ ३९ ॥
शांतिना- २ तिहां चउदे अलंकर्यां ॥ ४ ॥ हाथी वृषभ सीहँ लक्ष्मी मालां सुंदरु, शशी रँवि ध्वज कुंभं पद्मं | सरोवरं सागरुं; देववीमानें रयण पूज्य अग्नी विमले हवे, देखी त्रिशला मातके पीउनें विनवें ॥ ५ ॥ | हरखे राय सुपन पाठक तेडावीयां, राजभोग सुत फल सुंणीनें वधावीयां; त्रीशला राणी विधिश्युं गर्भ सुखें हें, मायतणे हीत हेतके प्रभु निश्चल रहे ॥ ६ ॥ मायधरे दुःख जोर वीलाप घणां करें, कहें में कीधां पाप अघोर भवांत रें; गर्भ हरयो मुज केणें हवें कीम पामिएं, दुःखनुं कारण जांणी वीचारयुं स्वामी एं ॥ ७ ॥ अहो अहो मोह वीटंबण जांणी जगतमां, अणदीठे दुःख एवडं उपन्युं पलकमें; ताम अभिग्रह धरयो प्रभुंजी ए ते कहुं, मातपीता जीवंतां संजम नवी ग्रहुं ॥ ८ ॥ करुणां आणी अंग हलाव्युं जीन पती, बोली त्रीशला मात हीए घणुं हरखंती; अहो मुज जाग्यां भाग्य गर्भ मुज सलसल्यों, सेव्यो श्रीजिन धर्मके सुर तरु जीम फल्यों ॥ ९ ॥ सखी कहे सीखांमण सामण सांभलो, हलुए हलुएं बोल हसी रंगे चल्यों; अॅम वीधीशुं विचरंता दोहलां पुरतां, नव महीनां ने साढा सात दीवस थतां ॥ १० ॥ चैत्र शुदी तेरस नक्षत्र उत्तरां, योगे जन्म्यां वीर के
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पंच क०
स्तवन.
॥ ३९ ॥
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सससससस
सहुविकसी धरां; त्रीभुवन थयो रे उद्योत के रंग वधामणां, सोनां रुपानी वृष्टी करे घर सुर घणां ॥ ११॥ आवी छप्पन कुमारीका ओच्छव प्रभु तणो, चल्युं रे सिंहासन इंद्रके घंटा रणझणे; मलि सुरनी कोडी के सुरवर आवीयां, पंचरूप करी प्रभुनें सुरगीरी लावीयां ॥ १२ ॥ एककोडि साठ लाख कलश जल शुंभाँ, किम सहशे लघु वीरके इंद्र संशय धयॊ; प्रभु अंगुठे मेरं चाप्यो अति धडधडे, गडगडे पृथ्वी लोक जगतना लडथले ॥ १३ ॥ अनंत बल प्रभु जांणी इंद्रे खमाबीयां, च्यार वृषभनां रूप करी जल नांमीयां०,पूजी अरची प्रभुने माय पासें धरे,धरयुं अंगुठे अमृत गयां नंदीश्वरें॥१४॥ ___ ढाल-॥३॥ हमचडी ॥ ए देशी ॥करी महोत्सव सिद्धारथ नृपें, नाम धर्यु वर्द्धमान; दिन दिन वाधे प्रभु सुरतरु जीम, रूपकला असमान रे हमचडी ॥१॥ एक दीन प्रभुजी रमवा कारण, पूर बाहीरज आवें; इंद्र मुखें प्रशंसा सुणीनें, मिथ्यात्वी सुर आवे रे हमचडी ॥ २॥ अहीरूप वीटाणो तरुशुं, प्रभुनांखे उछाली; सात ताडनुं रूप कर्यु जब, मुठे नांख्यो वाली रे हमचडी ॥ ३ ॥ पाए लागीने ते सुर खमा, नाम धर्यु महावीर; जेहवां इंद्रे वखाण्यां स्वामि, तेहवां साहस धीर रे
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शांतिना- हमचडी ॥ ४॥ मात पीता नीशाले मुकें, आठ वर्षणां जांणि; इंद्रतणां तिहां संशय टाल्यां, नवं पंच क० थना.
व्याकरण वखाणी रे हमचडी ॥ ५॥ अनुक्रमें यौवन पाम्यां प्रभुजी, वर्या जशोदा राणी; अठावीशे स्तवन
वरसें प्रभुनां, मातपीता निर्वाणी रे हमचडी॥ ६॥ दोय वरस भाइने आग्रहें, प्रभु घरवासें वसीयां; ॥४०॥
धर्म पंथ देखाडो इमकहे, लोकांतिक उल्लसीयां रे हमचडी ॥७॥ एक कोडी आठ लाख सोनैयां, दिनदिन प्रभुजी आपें; इम संवच्छरी दान देइनें, जगनां दालीद्र का रे हमचडी॥ ८॥ छंडयु राज अंतेउर प्रभुजी, भाइए अनुमती दीधी; मागशीर शुद दशमी उत्तराए, वीरे दीक्षा लीधी रे
हमचडी० ॥९॥ चउ नांणी तेणें दिनथी प्रभुजी, वरस दीवस झाझें रे; चीवर धरी ब्राह्मणनें दीg, है खंड खंड बे फेरी रे हमचडी ॥ १०॥ घोर परीसह साढेबारें, वरसें जे जे सहीयां; घोर अभीग्रह
जे जे धरीयां, ते नवीजायें कहीयांरे हमचडी ॥ ११ ॥ शुल पाणीने संगम देवा, चंडकोशी गोशालें; दीधां दुःखने पायसराध्यु, पग उपर गोवाले रे हमचडी ॥ १२ ॥ कानें गोपें खीलां मारयां, काढता पाडी चीस; जे सांभलतां त्रीभुवन कंप्यां, पर्वत शीला फाटि रे हमचडी ॥ १३॥ ते ते दुष्ट सह
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उद्धरीयां, प्रभुजी पर उपगारी; अडद तणां बाकुलां लेइने, चंदन बाला तारीरें हमचडी ॥ १४ ॥ दोय छ मासी नव चउमासी, अढीमासी त्रणमासी; दोढमासी वे वे कीधां, छ कीधां वे मासी रे हमचडी ॥ १५ ॥ बारमासीनें पख बहोतेंर, छठ बसें ओगणत्रीश वखाणुं; बार अठम भद्रादीक प्रतिमा, दीन दोय च्यार दश जांणु रे हमचडी ॥ १६ ॥ इमतप कीधां बारे वरसें, वीण पाणी उल्लासें; तेह मांहें पारणां प्रभुजीए कीधां, त्रणसें ओगण पंचाश रे हमचडी ॥ १७ ॥ कर्म खपावी वैशाख मासें, शुद्ध दशमी सुहजांण; उत्तरा जोगे शाल वृक्षतलें, पाम्यां केवल ज्ञान रे हमचडी ॥१८॥ इंद्रभूती आदें प्रति बोंध्यां, गणधर पदवी दीधी; साधु साध्वी श्रावक श्रावीका, संघ स्थापना कीधी रे हमचडी ॥ १९ ॥ चउद सहस अणगार साधवी, सहस छत्रीश कहीजे; एक लाखने सहस ओगण साठ, श्रावक शुद्ध लहीजें रे हमचडी ॥ २० ॥ त्रण लाखनें सहस अढार वली, श्रावीका संख्या जांण; त्रणसें चउदस पूरव धारी, तेरसें ओही नांणी रे हमचडी ॥ २१ ॥ सातसें तो केवल नांणी, लब्धी धारी पण तेता; वीपुलमती पांचशें कहीएं, च्यारसे वादी तेता रे हमचडी ॥ २२ ॥ सातसें
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शांतिनाथना.
॥ ४१ ॥
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अंतेवासी सीद्धां, साधवी चउदस्य सार; दीन दीन तेज सवायुं दीपें, ए प्रभुनो परीवार रे हम|चडी ॥ २३ ॥ त्रीश वरस ग्रहवासें वसीयां, बार वरस छद्मस्थ; त्रीश वरश केवल बेंतालीश, वरस तें खमणावंते रे हमचडी ॥ २४ ॥ वरस बहोतेंर केरुं आयुं, वीर जिणंदनुं जांणो; दिवाली दिन स्वाती नक्षत्रे, प्रभुजीनुं निर्वाण रे हमचडी ॥ २५ ॥ पांच कल्याणक इम वखाण्यां, प्रभुजीनां उलासे; संघतणां आग्रहे हरख भरि, सुरत रही चोमासुं रे हमचडी ॥ २६ ॥
कलश – इम चरम जीनवर सयल सुखकर थुण्यों अती उल्लट भरी, आषाढ उजल पंचमी दिन संवत सत्तर त्रिहोत्तरें; श्रीवीमल विजय उवझाय पंकज भमर सम सुभ शीशए, रांम वीजय जीन वरनें नामें लही अधीक जगीशए ॥ २७ ॥
" इति श्री महावीर स्वामि पञ्च कल्याणक स्तवनम्'
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|पंच क०
स्तवन.
॥ ४१ ॥
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" अथ श्री चोवीश जिन कल्याणक स्तवनम् ”
दुहा ॥ प्रणमी जिन चोवीशने, कहुं कल्यांणक तास; मास अमावास्यां तणी, रिति धरी सुवि लास ॥ १ ॥ जेहनां नाम स्मरण थकी, नारों भव भव पाप; तिणें कल्याणकनें दिनें, कीजें प्रभुनो जाप ॥ २ ॥ च्यवनें परमेष्ठी नमः, जन्मे अर्हते नमः ॥ नाथाय नमः दिक्षापदें, गुणीएं नीज गुंण | कांम ॥ ३॥ सर्वज्ञाय नमः केवले, मोक्षे पारंगताय; आंबील पौषधनें वली, एकासणें पण थाय ॥ ४ ॥
ढाल ॥ १ ॥ प्रभु चित्त धरीनें अवधारो मुज वात ॥ ए देशी ॥ आशो शुदि पूनिंम दिनें जी, चवीआ नमि जिनराय; वदि पांचम दिन केवली जी, संभव जीनवर थाय; भवी भाव धरीनें गावो | जिन कल्याण ॥१॥ ए आंकणी ॥ वे कल्याणक बारसें जी, नेमिजी च्यवन प्रमाण; पद्म प्रभुजि जनमीयां जी, | तेरसें दीक्षा मंडाण; ॥ ०भवीभा० ॥ २ ॥ वीर अमासें शीवगयां जी, हवे कार्त्तिक शुदि जांण; त्रीजें सुविधि केवली जी, बारसें अरजीन नांण; ०भविभा० ॥ ३ ॥ कार्तीक वदी पांचम दीनें जी, सुविधी जन्म इंम होय; छड़ें व्रत सुविधी लीएं जी, दशमें वीर व्रत जोय; ०भविभा० ॥ ४ ॥ अग्यारश दिन
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शांतिना
थना.
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| शिवलह्यां जी, जीन उत्तम महाराज; पद्म प्रभुनें प्रणमंतां जी, लहीएं अवीचल राज भवीभा ॥ ५ ॥ ढाल ॥ २ ॥ प्रथम गोवाला तणें भवेंजी ॥ ए देशी ॥ मागशीर शुदि दशमी दिनें जी, कल्याणक छेरें दोय; अरजिन जन्मनें शीवलह्यां जी, ते प्रणमो सहु कोयरे भवीका; प्रणमो श्रीजिनचंद ॥ जस प्रणमें वासव वृंद रे भवीका० ॥१॥ ए आंकणी ॥ अग्यारश दिन मोटीको जी, जे दीन पंच कल्यांण; मल्ली जन्म व्रत केवली जी, अरव्रत नमिजीन नांण रे; भवीका० ॥ २ ॥ जनम्यां संभव चौदरों जी, पुनमें वली व्रत लीध; वदि दशमीथी चौदश लगेंजी, लागट छें प्रसिद्ध; भवीका० ॥३॥ पास जन्म वलि व्रत लीएं जी, चंद्र जन्म व्रत सार; शीतल केवल पामीयां जी, हवें पोशशुदि अवधार रे; भविका० ॥ ४ ॥ विमल केवल छठि दिनें जी, नवमीए शांतीने नांण; अजीत नांण अगीयारसें जी, लोकालोक सुजांण रे; भवीका० ॥ ५ ॥ चौदशें केवल उपन्युं जी, अभिनंदन जिनभाण; धर्म केवलि पूनमें जी, हवें वदिनुं मंडाण रे; भवीका० ॥ ६ ॥ छठें पद्म चवन भलुं जी, बारसनें दिन दोय; शितल जन्म मूनि थयां जी, तेरसें ऋषभ शीव होय रे; भवीका० ॥ ७ ॥ अमावास्यां
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पंच क० स्तवन.
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लादीन पामीयाजी, श्रेयांस केवल नाण; जीन उत्तम पद पद्मनेजी, प्रणमो भवीक सुजाण रे भवीका० सुंदर ॥ ८॥
ढाल ॥३॥ होसुंदर ॥ ए देशी ॥ सुंदर माह शुदिमां हवे जाणिएं, बे कल्याणक बीज हो; सुंदर ॥ अभिनंदन प्रभु जन्मीयां, केवल वासु पूज्यहो; सुंदर ॥ कल्याणक दिन गाइयें ॥ ए आंकणी ॥१॥ सुंदर त्रिज दीने पण दोय कह्यां, जनम वीमलने धर्म हो; सुंदर० चोथे वीमल जिन व्रत लहीएं, आठमें अजीतनो जन्महो; सुंदर०क० ॥२॥ सुं० नोमे अजीत दीक्षा लीएं, बारसें व्रत अभीनंदनहो; सुं० तेरसें धर्म चारित्रीआ, वदिमां सुंणि सुख कंदहो; सुं०क०॥३॥ सुं० छठे सुपासजी केवली, सातमें दोय कल्याणहो; सुं०; शिव पोहतां सुपासजी, चंद्रप्रभु लहें नाणहो; मुं० ० ॥४॥ सुं० नोमदीने सुविधि चव्यां, एकादशी आदि नांणहो; सुं०; बारसे दोय श्रेयांस जण्या, मुनी सुव्रत नांण जाणीहो; सुं० क०॥५॥ सुं० तेरसें श्रेयांस व्रतलिये,जाया चौदशे वासुपूज्यहो; सुं० अमावास्या वासु पूज्य व्रती, फागुण शुदि हवें बीजहो; सुं० क०॥६॥ सुं० अरचव्या चोथे मल्ली
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शांतिनाथना.
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चव्यां, संभव आठमें च्यवनहो; सुं० ॥ बारसें दोय सुव्रत व्रती, महीमोक्ष करो नमनहो; सुं० क० ॥ ७ ॥ सुं० वदि चोर्थे दोय जाणीएं, पास च्यवननें नाणहो; सुं० पांचमें च्यवन चंद्रवली, आठमें दोय कल्याणहो; सुं० क० ॥ ८ ॥ सुं० ऋषभजी जन्मनें व्रतलीएं, च्यार मुष्टी करी लोचहो; सुं०; ॥ तसपद पद्म नम्यां थकी, नविआवें भव शोचहो; सुं० क० ॥ ९ ॥
ढाल - ॥ ४ ॥ माली केरा बागमां ॥ ए देशी ॥ चैत्रशुदी चीजें सुणो, कुंथुजिन नाणरे लोल० अहो कुंथु० ॥ त्रण पांचमे नंतअजीतजी, संभव नीवणरे लोल० अहो सं० ॥ १ ॥ नवमी सुमती जिन शीव वरयां, अग्यारशें लह्यां नाणरे लोल० अहो अ० ॥ तेरसें वीरजी जन्मीयां, राता पद्म विन्नाणरे लोल० अहोरा० ॥ २ ॥ वदी पडवे कुंथु शिव लह्यां, बीजें शीतल सीद्धांरे लोल० अहोबी०॥ कुंथं दीक्षा लेइ पांचमें, नीज कारज कीधांरे लोल० अहो नी० ॥ ३ ॥ चवीया शीतल छठ दीनें, नमी शिवपद दशमेंरे लोल० अहोन० ॥ अनंत जन्म वली तेरसें, त्रण छें चउ दशमें रे लोल० ॥ | अहो ० ॥ ४ ॥ दीक्षा केवल इंणे दीने, पाम्या श्री अनंतरे लोल० अहो पा० ॥ तीमकुंथुं जीन
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जनमीयां, प्रणमो भवी संतरे लोल. अहो प्र०॥५॥ वैशाख शुदी चोथनें दिनें, अभीनंदन चवीयारे लोल० अहो अ० चवीया धर्म ते सातमें, आठमें दोय चविआरे लोल० अहो आ०॥६॥ अभिनंदन शिव पामीयां, सुमती जीन जायारे लोल. अहो सु०॥ नवमि सुमति व्रत वीरजी, दशमें नाण पायारे लोल० अहो द०॥७॥ बारसें विमल च्यवन थयु, हवें तेरसें इठरे लोल अहो ह०॥ अजित चव्यां वदी सांभलो, चव्यां श्रेयांस छठेरे. लोल. अहो च०॥८॥आठमें सूव्रत, जन्मीआ, नवमी मोक्ष पधारे लोल० अहो न० ॥ तेरसें दो शांतीजन्मीआ, तिम सिद्धि सिधा-13 व्यारे लोल. अहो तिः॥९॥ शांति व्रत लेइं चौदशें, त्यजि सर्व उपाधिरे लोल. अहो त्य०॥ तस पद पद्मने प्रणमतां, लह्यो अव्या बाधरे लोल० अहो ल० ॥१०॥ ___ ढाल-॥५॥ वाडी फुली अति भली, मन भमरोरे ॥ ए देशी ॥ जेठ शुदि पांचमनें दिने, |जिन नमीएं रे, मोक्ष गयां धर्मनाथ भवीक जिन नमीएं रे; चविया, वासु पूज्य नवमीएं, जिनन, |जेतारे ग्रही हाथ; भविक० ॥ बारसें सुपासजी जण्या; जिन०, तेरसें लीधी दीक्षा; भवि० वदि चोथें
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शांतिना-चव्या ऋषभजी, जिन०, सातमें विमलने मोक्ष; भवी० ॥२॥ नमी जिन दिक्षा नवमिएं; जिन०पंच क० थना. आषाढ शुदि छठ दिन्न; भवि० ॥ वीर च्यवन ते आठमें, जीन०, मोक्ष अरिष्ट नेमी जिन; भवि० ॥४४॥
॥३॥ वासु पूज्य शीव चौदशें, जीन०, वदि त्रीजें हवें धार; भवि०॥ सिद्धी श्री श्रेयांसनें, जीन०, पाम्या भवोदधि पार; भवि०॥४॥ अनंतनाथ चव्यां सातमें, जिन आठमें नमि जिन जन्म भवि०॥ कुंथु चव्या नवमी तेहनां जीन० प्रणमो पाद पद्म भवि०॥५॥ ___ ढाल-॥६॥ सुण मेरी सजनी रजनी नजाएंरे ॥ ए देशी ॥ सुमति चव्यां श्रावण शुदि बीजेंरे, नेमि जन्म पांचिम दीन लीजेंरे; छठि दीन दीक्षा नेमजीए लीधीरें, पास आठिम दीन वरीआ , सिद्धीरे ॥१॥ पूनिमें मुनि सुव्रत प्रभु चवीआं रे, वदि सातम दो कल्याणक मवीआरे; शांति च्यवनने चंद्र नीर्वाणरे, आठमें चविआ सुपास जिन भाणरे ॥२॥ भाद्रवाशुदि नवमी सुवीधी है। नीर्वाणरे, वदि अमावास्या अरिष्ट नेमि नाणरे; इंणी परें श्री जिन उत्तम गायांरे, पद्मविजय कहें भव फल पायारे ॥३॥
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राग-धन्यां श्री-गिरुआरे गुण तुम तणां ॥ ए देशी ॥ कल्याणक दिन गाइएं, भविहर्ष धरी। बह मानोरे;॥ प्रभु गुण स्मरण नित्य करी, तप करीएं थइ सावधानोरे; कल्या०॥ए आंकणी ॥१॥ ॥१॥ तेह कल्याणकनुं गणो, वलि गणणुं दोय हजारोरे; वर्तमान चोवीशीएं, कल्याणक दिन अति सारोरे; क०॥२॥ इंम अनंत चोवीशी धारीएं, तो अनंत कल्याणक थायरे; उजमणुं पण कीजिएं, धरी भक्ति शक्ति निरमायरे; क०॥३॥ संवत अढारसें साडत्रिशनां, माहवदि बिजनें शनिवारेंरे; शोभन योगें शोभन थयुं, प्रभु गाया हरख अपारोरे; क० ॥ ४ ॥ पाटण चोमासुं रही, लही जिन उत्तम सुपसायारे, पद्मविजय पूण्यें करी, इम थूणी श्री जिनरायारे; क०॥५॥
“इति श्री चोवीश जिन कल्याणकस्तवनम् संपूर्णम्” ___“अथ श्री सम्यक्त्व विचार गर्भित श्री महावीर जिन स्तवनम्" ॥दोहाः-प्रणमी पद जिनवर तणां, जे जगनें अनुकुल; जास पसाये में लद्यु, समकित रयण अमूल ॥१॥ ते जीम वीरें उपदिश्यु, परखदा माहिं अनूप; तिमहं वर्णवीश हवे, समकित शुद्ध स्वरूप ॥२॥
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ढाल
१ ॥ ए छिंडी किहां राखी ॥ ए देशी ॥ इगविध दुविध त्रिविध चउविध वली, पणविव दशविध जाणो; ए समकित शिवतरुनुं बिजक, संप्रति परिं मन आणोरे; प्राणी समकित शुद्ध आराधो, जिम शिव मारग साधोरे; प्रा० ॥ सम० ॥ १ ॥ ए आंकणी ॥ इगविध तुज आणा रुचि | दुविहा, द्रव्य भावथी कहिये; निश्चयनें व्यवहारें अथवा, समकित दुविध सहहीये रे; प्रा० ॥ २ ॥ सद्दहणा सूधी तुज आगम, परमारथ नवि जाणे; समकित द्रव्य थकी तस कहीएं, भावथी तत्त्व वखार्णेरे; प्रा० ॥ ३ ॥ मिथ्या पुद्गल शुद्धनुं वेदन, समकित द्रव्य कहावे; भावथी तत्त्व रुचि पण तिमहीज, तत्त्व रुचि परि भावेंरे; प्रा० ॥ ४ ॥ पुद्गल रूपी अरुपी अपुद्गल, ए पण द्विविध तुं देखे; क्षयोपशमिक वेदक पुद्गल, शेष अपुद्गल लेखेरे; प्रा० ॥ ५ ॥ निश्चय समकित शुभ आतमनो, ज्ञानादिक परिणाम; अथवा आतम समकित कहीएं, गुण गुणी भेद न गमरे; प्रा० ॥ ६ ॥ मिथ्या दृष्टी तणी संस्तवना, त्यागादिक व्यवहार; वलीय निसर्गापर अधिगमथी, बिहुं भेदे निरधाररे; प्रा० ॥ ७ ॥ जिम कोई मारग भूलो पंथी, भमतो मारग आवे; कोईक उपदेशादिक योगें, कोईक थाग
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न पावेरे; प्रा० ॥ ८ ॥ ज्वर पण सहेजे औषध योगें, जाये एक न जाय; मारग ज्वर दृष्टांतें समकित, इणिपरें द्विविधें थाय रे; प्रा० ॥ ९ ॥ जाती स्मरण प्रमुख थकीजे, तास निसर्ग विचारो; गुरुउपदेशादिकथी आव्युं, ते अधिगम चित्त धारोरे; प्रा० ॥ १० ॥ कारक रोचक दीपक भेदें, त्रिविधे पण ए भाख्युं; अथवा उपशम क्षायोपशमिक, क्षायिक भेदे दाख्युं रे; प्रा० ॥ ११ ॥ तें जिम भाख्युं ते तिम कीधुं, ते कारक तस खास; तुज धर्मोपरि रुचिथी रोचक, नहीं किरिया अभ्यासरे; प्रा० ॥ १२ ॥ मिथ्या दृष्टी थको पण पोतें, धर्म कथादिक सारे; दीपक परे परने दीपावें, ते दीपक उपचारें रे; प्रा० ॥ १३ ॥ ते समकित जिम फरस्युं जीवे, तिम तुज आगल दाखुं; तुज आगम नय न्याय शुद्धो दधि, परमार्थ रस जिम चाखुरे; प्राणी समकित सुद्ध आराधो ॥ १४ ॥
ढाल ॥ २ ॥ देव तुज सिद्धांत मीठो ॥ ए देशी ॥ वीर जिणेसर साहिब सुणजो, निजसेवक अरदासरे; दीन दयाकर ठाकुर आपो, तुझ चरणे मुज वासोरे ॥ वी० ॥ १ ॥ ए आंकणी ॥ लोकाकाशि रह्यो अविनाशी, अनादि अनंतरे; ए भव चक्र तणां दुःख बहुलां
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पंच क० स्तवन.
शांतिना-भोगवियां भगवंत रे॥ वी० ॥ २॥ सुक्ष्म निगोद वस्यो छे हुँ स्वामी, अनादि वणस्सइ थना. नामरे; तिहांमें कीध अनंता पुद्गल, परावर्त्त विण स्वामिरे॥ वी० ॥ ३॥ अव्यवहार राशि ॥४६॥
इम वसिओ, काल अनंतो भोगेरे; कर्म परिणाम नृपति आदेशे, तादृश भव्यता योगेरे ॥वी॥४॥ |तिहां एकण सासो सासमें कीधां, भवसत्तरे झाझरारे; ए दुःख तुजविण कुण छोडावे, स्वामी मुज
भव फेरारे ॥ वी० ॥ ५॥ व्यवहार राशि लइ उत्कर्षे, काल अनंत अनंतोरे; स्थूल निगोदने पृथ्वी पाणी, तेज अनिल त्रस जंतोरे ॥वी०॥६॥ तिहांपण हुँ वसियो तुम पाखें, मिथ्या मतने जोरेरे; हरिहर देवकरी में मान्या, तुं न चढ्यो मन मोरेरे ॥वी०॥७॥ तिणे में छेदन भेदन ताडन, भुख तृषा गुरु भाररे; गर्भवासने जन्म जरा दुःख, भोगवीयां निरधाररे॥वी०॥ ८॥ इम चउ गइ भवनां दुःख फरसी, वार अनंती अनाणीरे; पाला दृष्टांते इक पुद्गल, परावर्त्त स्थिति आणीरे ॥वी०॥९॥ भव्य पणादिक ने परिपाके, गिरिसरि दुपल न्यायेंरे; अध्यवसाय विशेष करणजे, अनाभोगथी थायेरे॥ वी०॥१०॥ ते त्रिविधेभाख्यु तिहां पहेलं, यथा प्रवृत्त करण वली बीजुरे करण अपूर्व नामें
॥४६॥
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कहीएं, अनिवृत्त करण ते त्रीजुरे॥ वी०॥ ११॥ यथा प्रवृत्तकरणे आयुविण, सात कर्म करी खीणरेकोडा कोडि सायर इग पलयनो, असंख्य भाग तिणे हीणरें।वी०॥ १२॥ इहां कर्कश निविड गुपिः। लजिम ग्रंथी, भेदन दुक्कर कामरे; कर्मपरिणाम जनित घन जीवनो, राग द्वेष परिणामरे॥वी०॥१३॥ ते ग्रंथी नविभेदी जीवें, पहेलि इणे संसारेरे; वार अनंती अभव्य पण आवे, ग्रंथी लगि निरधाररे॥वी०॥ १४॥ भव्य अभव्य रहे तिहां ग्रंथि, संख्य असंख्यो कालरे; अरिहंता दिकनी ऋद्धि
देखी, संयमने उजमाल रे॥ वी०॥ १५॥ तिहां लहें श्रुत सामायिक द्रव्ये, शेष लाभ नहीं तासरे, * तिहाथी ग्रैवेयक पण जावे, पण नहिं शिवपूर वासरे ॥ वि० ॥ १६ ॥ कोइक भव्य महातम तेहमां,
जेहनें भवनो पाररे; निशित कुठार धारें जिम तत्क्षण, भेदे बल मनोहाररे ॥ वी० ॥ १७ ॥ करण अपूर्व परम विशुद्धे, तिम ते ग्रंथी आयरे; भेदीने अंतर मुहूर्त्तमां, अनिवृत्ति करणें जायरे ॥ वी० ॥१८॥ मिथ्या मोह तणी स्थिति तेहy, अंतरमुहर्त एकोरे; उदय क्षण उपरें ओलंघी, ते समरथ सुविवेकोरे ॥वी० ॥ १९ ॥ अनिवृत्ति करण विशेषे अंतर, मुहूर्त काल अनूपोरे; अंतर करण करे
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शांतिनाथना.
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तिहां वेद्यजे, दलिक अभाव सरूपोरे ॥ वी० ॥ २० ॥ जिमवनदवदग्धे घन उखर, पामी ठाम, ओल्हायरे; तिम मिथ्या वेदन वनदव सम, अंतर करणे थायरे ॥ वी० ॥ २१ ॥ अंतरकरण करे मिथ्यात्वनी, स्थितियुग कहे जिन न्यानेरे; अंतरकरण थकी स्थिति हेठी, पहेली मुहूर्त मानेरे ॥ वी० ॥ २२ ॥ तेहथी उपली स्थिति बीजी, तिहां प्रथम स्थिति जाणोरे; मिथ्यादलिकनुं वेदन तेहथी | मिथ्यादृष्टी वखाणोरे ॥ वी० ॥ २३ ॥ अंतरमुहूर्त्त ते स्थिति नाशे, नही मिथ्यादल वेदोरे; अंतरकरण नो प्रथम समये तिहां, लहे उपशम निरवेदोरे ॥ वी० ॥ २४ ॥ परमानंद मगन होइ भट जिम, जीती कटक अशेषरे; न्यायवंत हरखे जिम गाढे, न्याय धनागम पेखरे; वीर जिणेसर साहिब सुणजो ॥२५॥
ढाल ॥ ३ ॥ सहीरे समाणी ॥ ए देशी ॥ इणीपरें तुजथी समकित फरस्युं, जेहथी भवजल तरस्युंरे; धन्य धन्य तुम सेवा; ॥ एहथी मन वंछित फल लेवां, तेकरवां मुजं हेवारे; ध० ॥ १ ॥ ए आंकणी ॥ तिहां कोइ देश विरति तस सरसी, सर्व विरति लहे हरिसीरे; ध० ॥ मिच्छा मयण कोद्रवा सरिखुं, उपशम औषध परखुरे; ध० ॥ २ ॥ जल वस्त्रादिकनें दृष्टांते, तुज आगम कहे
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खांतेरे; ध०॥ मिथ्या पुंज करे त्रणशोधी, उपशम करि शुभ बोधीरे; ध०॥३॥ शुद्धने अर्ध विशुद्धते बीजो, अविशुद्धे मत रीझोरे; ध० उपशमथी पडिओ मनवामे, क्षायोपशमिक पामरे;ध०॥४॥ मिश्र तथा मिथ्यात्वनें फरसे, कर्ममती इम हरषेरे; ध०॥ बीजुं क्षायोपशमिक कहीये, उपशम परेपण लहीयेंरे; ध०॥ ५॥ मिच्छा पुंज करी त्रण नीणे, कोई अपूर्व करणेरे; ध० शुद्ध पुंजतो तिहां वेदतो ज्ञानी, जिन वचनामृत पानीरे; ध०॥६॥ उपशम पाम्यांविण तुज नामे, क्षायोपशमिक पामेरे; ध०॥ यथा प्रवृत्ति करणत्रय क्रमथी, अंतरकरणे तुजथीरे; ध०॥७॥ जेलहें उपशम भवजल तरवा, तस त्रण पुंजन करवारे; ध०॥ आलंबन अलहंती ईयल, जिमसठाणं न मूकेरे; ध०॥८॥ मिश्र पुंज अणलाभी उपशमी, तिम मिथ्याने ढांकेरे; ध० ॥ उपशम समकीतथी तिणे पडिओ, जइ मिथ्या गुण अडिओरे; ध०॥९॥ इम सिद्धांती निज मत खोलें, कला भाष्यपण बोलेरे; ध०॥ ते त्रण पुंजनो संक्रम भाखं, जिनवयणे मन राखुंरे; ध०॥१०॥ मिथ्या दलिकथी पुद्गल खिंची, समकित दृष्टि विंचीरे; ध०॥ संक्रमावे समकित मीसें, शुभ परीणामें हीसेरे; ध०॥ ११ ॥ समकीत
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शांतिना-द दृष्टी मीस आकर्षी, समकित मांहि हर्षीरे; ध० संक्रमावे मिथ्यादृष्टी, मिथ्यामां गुण पुष्टीरे; ध०॥१२॥ पंच क. थना. समकित पुद्गल मिथ्यामांहें, पण मीश्रे नवि चाहेरे; ध० ॥ मिच्छाखीण नही छे जेहनें, ते त्रण स्तवन.
पुंजछे तेहनेरे; ध०॥ १३ ॥ मिच्छाखीण थये दोय पूंजी, मीस खये एक पुंजीरे; ध०॥क्षावकारी समकित पुद्गल नाशें, जिन आगम इम भाषेरे; ध०॥ १४ ॥ शोधित मयण कोद्रवा थाने, समकित पुद्गल मानेरें; ध० ॥ तेहनें विरुद्ध तैलादिक पाशे, शुद्धपणुं तस नाशेरे; ध० ॥ १५ ॥ तिमज कुशास्त्र कुतीर्थ कुसंगे, तस किरिया मन रंगेरै; ध०॥ मिथ्या मिश्रित समकीत जाये, तत्क्षण मिथ्या थायरे, ध०॥ १६ ॥ समकितथी पडिओं जो पाछं, वली समकित लहे आछरे; ध०॥ ते त्रण पुंज करे तिहां फेरी, मिच्छ अपूर्वे वेरीरे; ध० ॥ १७ ॥ अनिवृत्ति करण बलें ते रसीओ, समकित पुंजे,
वसीओरे; ध०॥ समकित परिजिहां विरतिने पावें, आद्य करण बे आवेरे; ध०॥ करण अपूर्व कालने द आगे, विरति लही तिहां जागेरे; ध०॥ १८॥ अंतर महतमां तस लाधे, निज परिणामे बांधेरेः
॥४८॥ ध०॥ उंचो नियम नहिं तिहां कोई, वृद्धि हाणी सम होयरे; ध० ॥ १९ ॥ अनाभोग परिणामनी
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दाहाणे, गइ विरति नवि जाणे रे; ध०॥अकृत करणथको ते प्राणी, फिरी लहे विरति सुहाणी रे; ध०॥२०॥ Fा आभोगे जे विरतिथी खसीया, तिमज मिथ्यागुणे वसियारे; ध०॥ अंतरमुहूर्त्तमां लहे आछी, जघन्यथकी फिरि पाछीरे; ध० ॥ २१ ॥ उत्कर्षे बहु कालें भाखी, आद्य करणछे साखी रे; ध० ॥ इणीपरे कर्मप्रकृति वृतिमाहिं, तिहां जोज्यो उच्छाहिरे; ध० ॥२२॥ कोइ विराधित समकित फेरी, ते लहेमिथ्या वेरीरे; ध०॥छट्टीनरक लगें ते जाए, समय मतें कहेवायरे; ध०॥ २३ ॥ आउ बंधविना उच्छाहि, फिरि समकित अवगाहेरे; ध०॥ वैमानिकविण आउ न बांधे, कर्म मती मत सांधे रे; ध०॥ २४॥ समकित पतित कहे मतबांधे, उत्कृष्टी स्थिति बांधे रे; ध०॥ भिन्नग्रंथीने आगम ज्ञानें, स्थिति उत्कर्ष न मानेरे; ध०॥ २५॥ इणी परें भेद मतांतर जाणे, पण संदेह न आणेरे; ध०॥ निःशंकित तुज वयण आराधे, न्यायें तस गुण वाधेरे; ध० ॥ २६ ॥
ढाल-॥४॥ विनयवहो सुखकार ॥ ए देशी ॥ दर्शन मोह विनाशथीजी, जे निर्मल गुणठाण: ते समकित ओघे कह्युजी, ते भवियण हित आणरे॥जिनजी तुज आणाश्युरे रंग, मुज नगमे
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मियां संगरे॥जिलाए आंकणी ॥ मिच्छा दरिशण मोहनीजी, उपशमि उपशमजाणोः धरग्रंथि भेदे कछुजी, उपशमणि प्रमाणरे ॥ जि०॥२॥ नाश उदीरण मिच्छनोजी, अनुदीरण समठाम; भयउपशमथी उपजेजी, क्षायोपशमिका नामरे॥जि०॥३॥ त्रिविधे मोह विनाशथीजी, त्रीजु क्षायिकनामः क्षपकश्रेणि चढतां हुएजी, जेहथी शिवपुर ठामरे ॥ जि०॥४॥ विपाकप्रदेशे वेदकुंजी, द्विविध उदय वीष्कंभ, उपशमतुं तेहने कहेंजी, आगममां स्थिर स्थंभरे ॥ जि०॥५॥ नाश विपाकोदय थकीजी, वेदन तेहरे नाम; उपशमि ते नवि संभवेंजी, क्षायोपशमिकठामरे॥जि०॥६॥ मिच्छा! पुद्गल वेदवाजी, शुद्ध अशुद्ध तिहां दोय; विपाक प्रदेशोदय थकीजी, अनुक्रमें समजी जोयरे॥जि० ॥७॥ अण चउ दुग मिच्छा तणांजी, पुंज खपावीरे होय; शुद्ध पुंज खपतां तिहांजी, अंतिम| पुद्गल होय रे॥जि०॥८॥ तस वेदन तेहने कझुंजी, वेदक चोथुरे नाम; उपशम वमतां पांचमुंजी, साखादन गुण धामरे॥जि०॥९॥ अंतर्मुहुर्त एकनीजी, उपशम स्थिति उवेख; उत्कर्षे षट् आवलीजी, जघन्य समय हुये शेषरे॥ जि०॥१०॥ अशुद्धपुंज जावा तणीजी, इच्छाए तिहां तास;
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अण कसाय उदय हुइजी, जेहथी उपशम नासरे॥जि०॥ ११॥ उपशमथी पडतां थकांजी, नगयो मिच्छारे जाव; तावत् सास्वादन कझुंजी, उपशम स्वाद सुहावरे। जि०॥ १२ ॥ अंतर्मुहर्त कालनीजी, उपशम स्थिति गुणखाण; सास्वादन षट्र आवलीजी, वेदक समय प्रमाणरें ॥ जि०॥ १३॥ स्थिति सागर तेत्रीशनीजी, साधिक क्षायिक जाणि; बमणी स्थिति एहथी कहीजी, क्षायोपशमि एक ठाणरे ॥जि०॥१४॥ उपशम साखादन कझुंजी, आभव वेलारे पांच; वेदक एक वेला हुएजी, तिमहिज क्षायक संचरे ॥ जि०॥ १५॥ वार असंख्य उत्कर्षथीजी, क्षायोपशमिक होय; हवे वे तस गुणठाणा कहंजी, सांभलजो सहु कोइरे॥जि०॥ १६ ॥ उपशम अडगुण ठाणमांजी, अविरत गुण पदरेख क्षायिक गुणठाणे सवेजी, आदिमत्रण विणशेषरे॥जि०॥ १७॥ अविरति गुणठाणा थकीजी, जावत सत्तम ठाण; एक वेदक बीजुं इहांजी, क्षायो पशमिक जाणरे ॥जि०॥१८॥ साखादन सास्वादनेजी, भाखे अंग उवंग; न्यायें शिव सुख ते लहेजी, जसतुजआण अभंगरे ॥ जि०॥ १९॥
ढाल-॥५॥ शांतिसुधारस कुंडमां, तुंरमे मुनिवर०॥ ए देशी ॥ धन्य धन्य शासन ताहरूं,
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शांतिनाथना. ॥ ५० ॥
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माहरु जिहांमन लीनरे; क्षण पण तसविण नविरहें, जिमजल भर विण मीनरे; धन्य धन्य शासन ताहरु० ॥ १ ॥ एआंकणी ॥ देशविरति दरिशणथकी, पलिय पुहुत्तमां जाणिरे; अनुक्रमें चरणश्रेणि बिहुँ, संख्यसायरे गुण खाणिरे; धन्यधन्य० ॥ २ ॥ तेहज भवेंहुए तेहनें, जेहनें सत्तग खीणरे; चउतिय भव उत्कर्षथी, पुवबद्धाउने पीणरे; धन्यधन्य० ॥ ३ ॥ बद्ध आउ सुर नरकनुं, तेहनेतिय भव तंतरे; आउ असंख्यनर तिरितणुं, तसपण चउभवें अंतरे; धन्यधन्य० ॥ ४ ॥ समकित स्थितिहोयें ओघथी, अंतरमुहूर्त्त एकरे; साहिय खओवसमासिरी, सायरछासठिछेकरे, धन्यधन्य ॥ ५ ॥ इग अथवा बहु आसरी ॥ दरसणनो उपयोगरे; जघन्य उत्कृष्ट थकी कह्यो, अंतरमुहूर्त्त भोग रे; धन्यधन्य० ॥ ६ ॥ दर्शनलब्धि शुभ सुरलता, क्षायोपशमादिकरूपरे; अंतरमुहूर्त्त माननी, जघन्यथी| कहे जिनभूपरे; धन्यधन्य०॥७॥छा सठिसायर सविमिली, नरभव हिय उत्कृष्टरे; तेहथी उर्द्ध जो न विदिये, समकित रयणने पुष्टिरे; धन्यधन्य ॥ ८ ॥ तो ते निश्चय शिवपदलहें, ए एकजीवनें योगरे, जीवनानाश्रित सर्वदा, दरसणनो उपयोगरे; धन्यधन्य० ॥ ९ ॥ अंतरमुहूर्त्त एकनुं, जघन्य अंतरमन आणरे;
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पंच क०
स्तवन.
॥ ५० ॥
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अर्द्ध पुद्गल परावर्तन, तस उत्कृष्ट परिमाणरे; धन्य धन्य शासन ताहरु०॥ १०॥ जीव नानाश्रीत नवि होयें, समकित अंतर लेशरे; तत्र आवश्यक वृत्तिमा, ए अधीकार विशेषरे ॥ धन्यधन्य० ॥११॥ दशविध सहेज उपदेशथी, उपशम प्रमुख जे पंच रे, अहव निसग्गरुइ भेदथी, दशविध तस परपंचरे; धन्यधन्य० ॥ १२ ॥ निसग्गु १ एस २ आणारुइ ३, सुत्त ४ बीयरुई ५ अभिरामरे; अभिगमा । ६ भोग ७ किरियारुई ८, संखेव ९ धम्म रुई नाम रे; धन्यधन्य० ॥ १३ ॥ गुरुउपदेशविण सहजेथी, जिनवयणे परतीतरे; जेहने तेहनें जाणज्यो, प्रथम निसर्ग रुचि रीतिरे; धन्यधन्य० ॥१४॥ तेसवि ६ गुरु उपदेशथी, सद्दहे जे जण आपरे; ते उपदेशरुचि नर कह्यो, इम तुज आगम थाप रे; धन्यधन्य०
॥ १५॥ कारण प्रमुख अजाणतो, मुज जिन आणजखेमरे; तइय आणारुचि तुं कहें, माष तुषादिक जेमरे; धन्यधन्य० ॥ १६ ॥ सूत्र भणतो समकित लहे, प्रसन्न प्रसन्न परिणामरे, गोविंद वाचकनीपेरें, सुत्तरुइ तसनामरे; धन्यधन्य० ॥ १७॥ देशरुइ खउवसमथी, सवरुइ विस्तारिरे; उदकमां तैल बिंदु परें, बीयरूइ भवतारिरे; धन्यधन्य० ॥ १८ ॥ अभिगमरूइ सुअनाणनें, अर्थथकी अवगा
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शांतिना
थना.
॥ ५१ ॥
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हिरे; अंगपयन्ना प्रमुखजे, शास्त्र सवेनिरखाहेरे; धन्यधन्य० ॥ १९ ॥ द्रव्यनां भाव जाण्याजिणे, सर्व प्रमाणे अशेषरे; सर्वनयेतिम तसकर्छु, विच्छार रुइ अकलेशरे; धन्यधन्य० ॥ २० ॥ दंसणनाण चारित वली, तिमतिन उत्तम कामरे; सुमति गुप्तिकिरियारुचें, तेकिरिया रुइनामरे; धन्यधन्य० ॥ २१ ॥ आगम कोविद नविहुएं, कुमय कुदिठी विजुत्तरे; संखेवरूइ तेहने कयुं, जिमचिलातीय पुत्तरे; धन्यधन्य० ॥ २२ ॥ धम्म अधम्म प्रमुख दक्ष, चरण सुय धम्मनां भेदरे; जेजिन भाषित सहहे, ||तेधम्मरुइ निरवेदरे; धन्यधन्य० ॥ २३ ॥ ए दशविध दरशणकयुं, उत्तराध्ययन मोझाररे; अध्ययनें ते अडवीसमें, न्यायसागर सुखकाररे; धन्यधन्य० ॥ २४ ॥
ढाल—॥ ६ ॥ माइ धन्नसुपनतुं ॥ ए देशी० ॥ जडजलपण पोर्ते, सिंच्युंकाठन बोलें, तससंगति लोहुं, तेहनेंपणतस तोलें; तिमहुं गुण हीणो, तोपण दास तुमारो, अवगुण उवेखी, प्रभुजी पारउतारो ॥ १ ॥ तुंगुणमणि दरिओ, उद्धरिओ जगजेणे; मुझने कांइ न तारयो, तुज संगतिनहीं तिणें; अलगो तहिं वलगो, तुंमुज दिलथी देव, अविचल पद आपो; ढीलतणी शीटेव ॥ २ ॥ नहिंतो मुझ
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स्तवन.
॥ ५९ ॥
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दावे, नहिंमकुं करुंशोर; झाली दिलभीतर, घाली करश्युं जोर; जाश्यो किम दीधा; विणशिवसुख XIजिनराज, सहेजे जो देशो, तो रहेशे तुमलाज ॥३॥ अविनयमुज खमज्यो, हं छं मूढअयाण;
करतानवि आवे, वीनंतडी जिनभाण; ॥ बालकजिम बोलें, कालो गहिलो बोल; ते मातपितामन, लागे अमृत तोलें ॥४॥ इणीपरेंप्रभु स्तवीओ, समकितलेश विचारे; आगम अनुसारें, मुजमतिने अनुहारे; संवतऋतु रसमुनिचंद्र ॥ १७६६ संवत्सर जाणि; भादरवे मासे, सित्तपंचमी गुणखाणि॥५॥ श्रीतपगच्छनायक, श्रीविजयरत्नसुरिंद, सुरगुरुजस आगले, करजोडिमति मंद; ॥ तसराजेपंडित, उत्तमसागर सीस०, कहे न्यायसागरप्रभुः पूरोसंघजगीश ॥६॥
" इति श्री सम्यक्त्व विचार गर्भित श्रीमहावीरजिन स्तवनम्"
___“अथ श्री महावीर स्वामिनां सत्तावीश भवनुं स्तवन" दुहा-विमल कमल दल लोयणां, दीसे वदन प्रसन्न; आद्रीयाणे श्री वीर जिन, वांदी करूं । स्तवन ॥१॥ श्रीगुरु तणां पसाउ लें, स्तवशुं वीर जिणंद; भव सत्तावीश वर्णवं, सुणजो स आणंद
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शांतिना- सांभलतां सुख उपजें, समकित निर्मल होय; करतां जिननी संकथा, सफल दहाडो होय ॥३॥पंच क. थना. __ढाल-॥१॥ उलालो॥ ए देशी ॥ महाविदेह पश्चिम जाणुं, नयसार नामें वखाणुं; गाम तणो ॥५२॥
ते छे राणो, अटवी गयो सपराणो॥४॥जिमवा वेला ए जाणी, भगती रसवती आणी; दाननी तिहां
वासना मन आवी, तपसी जोइ ते भावी ॥ ५॥ मारग भूला ए हेव, मुनि आव्यां ततखेव; आहार | दीदीए पाये लागी, ऋषिनी तृषा भुख भांगी ॥६॥ धर्म सुंणि तिहां मन रंगें, समकित पाम्युं ए
चंगें; ऋषिने चालतां जाणी, हैयडे उलट आंणी ॥७॥ मारग देखाड्यो वहेतो, पाछो वली ए इम कहेतो; पहेंलें भवें धर्म पावें, अंते देवगुरु ध्यावें ॥ ८॥ पंच परमेष्ठि नें ध्याने, जावें सौधर्मे विमानें; आउखुं एक पल्योपम, सुख भोगवें अनूप ॥ ९॥ भव बीजें त्रीजे आयो, भरत कुले सुत जायो; ओच्छव मंगलीक कीधो, नाम ते मरीचि दिधुं ॥ १०॥ वाधे ते सुरतरु सरिखो, आदिजिन देखी । ने हरख्यो; आदीश्वर देशना दीधी, भावें दीक्षाएणे लीधी ॥ ११ ॥ ज्ञान भणे सुविशेषे, विहार करे
॥ ५ ॥ देश विदेशे; दीक्षा लेड ए नजरें, अलगो वांमिथी वीचरें ॥ १२॥ महावत भार ए मोटो, पण
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पुण्यें ए छोटो; भगवुं कापड ते करवुं, माथे छत्रनें धरतुं ॥ १३ ॥ पाए पावडी धरश्युं, स्नान सर्वे जले करयुं; प्राणी स्थुल न मारुं, शिरमुंड चोटी ए धारुं ॥ १४ ॥ जनोइ सोवन केरी, शोभा चंदने प्रेरी, हाथें त्रिदंडीओ लेवु, मनमांहे चिंतवे एह ॥ १५ ॥ लिंग कुलिंगीनुं रचिउं, सुख कारणे एहनुं मचीउं; गुण साधुनां वखाणें दीक्षा योग्य जे जाणें ॥ १६ ॥ आणी मुनीनें आयें, | सिधो मारग स्थापें; समोसरण रचिउं जांणी, वदे भरत विनांणी ॥ १७ ॥ बारे परषदा राजें, पूछें भरत ए आजे; कोई छें तुम सारीखो, दाख्यो मरीचि नींको ॥ १८ ॥ पहिलो वासुदेव थाशें, चक्रवर्त्ति मूकाए वासे; चोत्रीशमो एह जिनवर, वर्द्धमान नमिए जयंकर ॥ १९ ॥ उलस्युं भरतनुं हैयुं, जइनें मरीचिनें कहीउं; तार्ते पदवी ए दाखी, हरिचक्री जिनपती भाषी ॥ २० ॥ त्रण प्रदक्षिणा देइ, वंदन विधिशुंकरेय; स्तवना करतो तेम, पुत्र त्रीदंडी नहीं जेम, वांदुलुं नहीं एह मर्म ॥ २१ ॥ थाशे जिनपति चरिम; इम कही पाछो ए वलीओ, गरवे मरीयचि गलीओ ॥ २२ ॥
ढाल—॥ २ ॥ पांडव पांच प्रगट हुआ | ए देशी ॥ इक्ष्वाक कुले हुं उपन्यो, माहरे चक्रवर्त्ति
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शांतिना- थना.
तात जी; अहो उत्तम कुल माहरु, हुंपण त्रिजग विख्यात जी, अहोउ०॥ एआंकणी ॥ २३ ॥ अहो : पंचक. उत्तम कुल माहरु, अहो मुज अव तारजी; नीच गोत्र तिहां बाधीउं, जुओ जुओ कर्म प्रचार जी, स्तवन. अहोउ० ॥ २४ ॥ आभरतें पोतनपुरी, त्रिपृष्ट हरि अवतार जी; महाविदेह क्षेत्र मुकापुरी, चक्री प्रियमित्र नाम जी ॥ २५ ॥ अहोउ० ॥ चरिम तीर्थंकर थायश्यु, होशें त्रिगढ ओसार जी; सुर| नर सेवा सारशे, धन्य धन्य मुज अवतार जी० अहोउ० ॥ २६ ॥ रे महिमा तुं एणीपरें, एक दिने रोग अतीव जी; मुनिजन सार को नवि करे, शिष्य वांछे निज जीव जी० अहोउ०॥ २७॥ कपिल नामें कोइ आवीओ, प्रतिबोधि निज वाणि जी; साधु समीपें दीक्षा धरूं, धर्म छे तेणे ठाणे जी; अहोउ०॥ २८॥ साधु समीपें मोकलें, नविजाएं तेह अयोगी जी; चिंतवे इम मरीचि निज मनें, दीसे छे मुज योग्य जी; अहोउ० ॥ २९ ॥ तवते वलतुं बोलीओ, तुम्ह वादेश्युं होय जी; भो भो धर्म ते इंहांअ छे, उत्सूत्र भाख्युं सोय जी; अहोउ० ॥ ३० ॥ तेणें संसार वधारीओ, सागर कोडा
॥५३॥ कोडि जी; लाख चोराशि पूरव तणुं, आयु त्रीजें भवें जोडि जी; अहोउ. ॥३१॥ चोथें भवे खर्ग
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पांचमें, सागरदश स्थिति जाणों जी; कौशिक द्विज पंचमें भवें, लाख एंसी पूरव मान जी; अहोउ० ॥३२ स्थूणां नयरीए द्विज थयो, पूरव लाख बहुत्तरि सार जी; हुओ त्रिदंडी छठे भवे, सातमे सोहम अवतार जी; अहोउ०॥ ३३ ॥ अग्नीद्योत आठमें भवे, चोसहि लाख पूर्व आयु जी; त्रिदंडी थइ विचरें वली, नवमें इशाने जाय जी; अहोउ०॥ ३४ ॥ अग्नीभूती दशमें भवे, मंदरपुरि द्विज होय जी; छप्पन्न लाख पूरव आउखु, त्रिदंडी थइ मरे सोय जी; अहोउ०॥३५॥ इग्यारमें भवें
ते थयो, सनत कुमार देवो जी, नयरी श्वेतांबी अवतरियो, बारमें भवे द्विज हेवो जी ॥ अहोउ०3 M॥३६ ॥ चुम्मालीश लाख पूरव आउ, भारद्वीज जसु नाम जी; त्रिदंडि थइ विचरें वली, माहेंद्र
तेरमें भवें ठामजी; अहोउ०॥ ३७ ॥राजगृह नयरि भव चउदमें, स्थावर बाह्मण दाखी जी; लाख चोत्रीश पूरव आउखुं, त्रिदंडी लिंग ते भाखें जी; अहोउ०॥३८॥ अमर थयो भव पन्नरमें, सनकुमार देवो जी; संसारभमि भव सोलमें, विश्वभूती क्षत्री होय जी, अहोउ० ॥ ३९ ॥ ढाल-॥३॥ सरसति अमृत वरसती ॥ ए देशी ॥ विशाखभूति धारणी नो बेटो, भुजबलि
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स्तवन,
शांतिना-कुठस मूल समेटिनु; संभूति गुरु तिणे भेट्यो ॥४०॥ सहस वरस तिहां चारित्र पाली, लेइ दीक्षा
थना. आतम अजुआली; तपकरी काया गाली ॥४१॥ एक दिन गाय धसी सीयाली, पडिओ भूमि ॥५४॥
सस भाइ भाली; तेहश्युं बल संभाली ॥ ४२ ॥ गारवेंरीस चढि वीकराली, सिंग धरी आकाशे
छाली; तसबल शंका टाली ॥ ४३ ॥ तिहां अणसणे निआणुं की , तप वेची बल मांगी लीधुं; उर्द्ध पीया' कीधुं ॥ ४४ ॥ सत्तरमें भवें शुक्रे सुरवर च्यवी, अवतरीओ तिहां पोतनपुर; प्रजापती, मृगावती कुयर ॥ ४५ ॥ चोराशी लाख वरषानुं आयु, सात सुपन सुचित जायो; त्रिपृष्ट वासुदेव गायो॥ ४६॥ ओगणीशमें भवे सातमी नरकें, तेत्रीश सागर आयु अभंगी, भोगवियुं तनु संगे
४७॥ विसमें भवे सिंह हिंसा करतो, एकवीसमें चोथी नरक फिरंतो; विचे भव घणां भमंतो ॥ ४८॥ बाविशमें भवि सरल स्वभावी, सुख भोगवतां यश गवरावी; पुण्ये शुभ मतिआवी ॥ ४९॥
वीशमें भवे मूकापुरीए, धनंजयधारणीनां कुखे; नर अवतरीओ सुखें ॥५०॥ तिहां चक्रवतिनी पदवी साधी, पोटिलाचार्यशुं शुभ मति वाधी; शुभ तप किरिया साधी ॥ ५१॥ कोड वरस |
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॥५४॥
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दिक्षानू मान, चोराशी लाख पूरव प्रमाण; आउखु पूलं जाणि ॥ ५२॥ चोविशमें भवें शुक्र सुरवर, सुख भोगवीयां सत्तर सागर; तिहांथी चवीओ अमर ॥ ५३॥ ___ ढाल-॥४॥ राग मल्हारा ॥ लालनी ॥ ए देशी ॥ आभरतें छत्रिका पुरी, जितशत्रु विजया नारि; मेरे लाल ॥ पचवीसमें भवे उपनो, नंदन नामें उदार; मेरे लाल ॥ ५४॥ तीर्थंकर पद बांधीउं, ॥ए आंकणी ॥ लेइ दीक्षा सुविचार, मेरे लाल; वीश स्थानक तप आदयों, इओ तिहां जयजय कार, मेरे लाल; तीर्थकर०॥ ५५॥ राज्य त्यजी दीक्षा लीएं, पोटिला चारज पास, मेरेलाल; मास खमण पारj करे, अभिग्रह वंत उल्लास, मेरेलाल; तीर्थंकर० ॥ ५६ ॥ लाख वरस इम तप कयों, आलस नहीं लगार, मेरे लाल ॥ परिघल धर्म पोते कों, निकाचित जिनपद सार, मेरे लाल०॥ ५७ ॥ तीर्थंकर०॥ मास खमण संख्या कहुं, लाख इग्यार एंसी सहस, मेरे लाल. छसें पीसतालीश उपरें, पंचदिवसें अधिक कहेत, मेरे लाल. तीर्थंकर०॥ ५८॥ पचवीश लाख पूर्व आउखु, मास संलेखना कीध, मेरे लाल०॥ खमी खमावीते चव्यां, दशमें स्वर्ग फल लीध,
शां.१०
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शांतिनाथना.
॥ ५५ ॥
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मेरे लाल० तीर्थंकर० ॥ ५९ ॥ पुफोत्तरा वतंस के विमाने सागर वीश, मेरे लाल० ॥ सुर चवीओ सुख भोगवी, हुआ ते भव छब्बीस, मेरे लाल० तीर्थंकर० ॥ ६० ॥
ढाल — ॥ ५ ॥ भमारुलीनी ॥ ए देशी ॥ सत्तावीशमो भव सांभलो तो, भ्रमरूली, रुअडुं माहणकुंड गामतो; ऋषभदत्त ब्राह्मण वसे तो, भमरूली, देवानंदा धारणी नाम तो ॥ ६१ ॥ कर्म रचुं लव लेश हजी तो, भ्रमरुली, मरीचिना भवनुं जेह तो; प्राणत कल्प थकी च्यवी तो, भमरुली, द्विजकुलें अवतरिया तेह तो ॥ ६२ ॥ चउद सुपन माता लहे तो, भमरुली, आणंद होय रे बहुत तो; इंद्रे अवधि ए जोइउं तो, भमरुली, एह अछेरा भूत तो ॥ ६३ ॥ व्यासी दिन तिहां कणे रह्यां तो, भमरुली, इंद्र आदेशी देवतो; सीद्धारथ त्रिशला कूखे तो, भमरुली, गर्भ पालट्यो ततखेव तो ॥ ६४ ॥ चउद सुपन त्रिशला लहे तो, भमरुली, शुभ दोहलें जप्यो जाम तो; जन्म महोच्छव तिहां करे तो, भमरुली, इंद्र इंद्राणी ताम तो ॥ ६५ ॥ वर्द्धमान तस नाम दीउं तो, भमरुली, देव दीयुं महावीरतो; हरखेश्यं परणावीयां तो, भ्रमरुली, सुख विलसें घरे वीर तो ॥ ६६ ॥ माय
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स्तवन.
॥ ५५ ॥
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बाप सुरलोकें गया तो, भमरुली, जिन साधे निज काम तो; लोकांतिक सुर तिहां कहे तो, भमरुली, लिओ दीक्षा महाराज तो ॥६७ ॥ वरसी दान देइ करी तो, भमरुली, लीधुं संयम भारी तो; एकाकी जिन विहार करतो, भमरुली, उपसर्ग नो नहीं पार तो ॥६८॥ तप चउविहार घणांकयां तो, भमरुली, एक छमासी विचारतो; बीजो छमासी कयों तो, भमरुली, पंचदिन उण उदार तो ॥ ६९ ॥ नव ते चउमासी कयौँ तो, भमरुली, बेत्रण मासी जांण तो; अढीमास बे वार कर्यां तो, भमरुली, बेमासी छ वार वखाणि तो ॥ ७० ॥ दोढमास बे वार कयां तो, भमरुली, मासखमण कीयां बार तो; बहोंतेर पास खमण कर्यां तो, भमरुली, छठ बसें ओगणत्रीश सार तो ॥७१॥ बारे वरसे पारणां तो भमरुली, त्रणसे ओगण पंचाशतो; निद्रा बे घडीनी करे तो, भमरुली, बेठा नहीं बारवरस तो ॥ ७२ ॥ कर्म खपावी केवल लडं तो, भमरुली, त्रिगडे परषदा बार तो, गणधर इग्यारे स्थापीया तो, भमरुली, जगे हुओ जय जय कार तो ॥ ७३ चउद सहस हुआ साधु भला तो, भमरुली, साधवी सहस छत्रीश तो.॥ सातसें वैक्रिय लब्धि धरा तो, भमरुली, च्यारसें
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स्तवन.
शांतिना- वादी इश तो॥७४॥ अवधिज्ञानी तेरसयां तो, भमरुली, सातसें केवली जोय तो; मणपज्जव धर| थना. पांचशे तो, भमरुली, चउद पूरवी त्रणसें होय तो ॥७५॥ दोढ लाख नव सहस वली तो, भम- ॥५६॥
|रुली, श्रावक समकित धारतो;त्रिण लाख अढार सहसवलीतो, भमरुली० श्राविका ए परिवार तो॥७६॥ ब्राह्मण मात पिता हुआ तो, भमरुली, मोकल्यां मुक्ति मोझार तो;॥सुपुत्र आवी इम करे तो, भमरुली, सेवकनी करो सार तो ॥ ७७ ॥ त्रीसला देवी सुरवर थयां तो, भमरुली; ॥ सिधारथ थया देव तो,
त्रीश वरस गृहवासें वस्या तो, भमरुली, बार वरस छद्मस्थ तो;॥ त्रीश वरस केवल धर्यु तो, भमपरुली, बहोतेर वरस समस्त तो ॥७८ ॥ इणि परें पाली आउखुं तो, भमरुली, दिन दीवाली जेह तो;
महानंद पद पामीयां तो, भमरुली, समरुं हुं नित्य तेह तो॥ ७९ ॥संवत् सोलसें बासठो तो, भमरुली, विजया दशमी उदार तो; लाल विजय भक्तं कहे तो, भमरुली, वीरजिन भव जल तारे तो ॥ ८॥ | ढाल-॥६॥ आदर जीवक्षमा गुण आदर॥ए देशी॥समवसरणें सुखसंपत्ति मिलें, फलें मनोरथ कोडि जी;॥ रोग वियोग सवि टलें, नहिं शरीरे खोडि जी॥ ८१॥ आद्रीयाणा पुर मंडणो,
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पए आंकणी, ॥ खंडाणा पापनां पूरो जी; जे भवियण सेवा करे, सुख पामें भर पूरोजी॥आदीयाणा,
८२॥ मूरति मोहन वेलडी, दीठे अति आणंदो जी; सिंहासण सोहे सदा, गगने जैसा रविचंदो जी ॥ आद्रीयाणा ॥ ८३॥ प्रतिमा दीठे सुख सदा, प्रणमुं जोडी हाथो जी; त्रण प्रदक्षिणा देइ करी, मारे मुक्तिनो साथो जी॥ आद्रीयाणा ॥ ८४ ॥ श्रावके अति उद्यम करी, कीधो जिन प्रासादो जी; काढीयो पाप ठेली करी, पुण्ये जगे जस वाधो जी॥ आद्रीयाणा, ॥ ८५॥ ___ कलश-श्रीवीर पाटे परंपरा गते, आणंद विमल सूरीसरो; श्री विजय दान सूरि तास पाटे,
हीर विजय सूरि गणधरो; श्रीविजयसेन सूरि तास पाटें, विजयदेव सूरि हित धरो; कल्याण विजय Fउवप्नाय पंडित, शुभ विजय शिष्य जय करो ॥ ८६ ॥
" इति श्री वर्द्धमान जिन सत्तावीश भव स्तवनम् सम्पूर्णम् ”
“अथ श्री सौभाग्य पञ्चमी स्तवन" ढाल-॥१॥ इडर आंबा आंबलीरे ॥ ए देशी ॥ श्री गुरु चरणे नमी करी रें, प्रणमि सर
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सति पाय; पञ्चमी तप विधिश्युं करो रे, निर्मल ज्ञान उपाय; भविक जन कीजें ए तप सार, जन्मपंच क. सफल निरधार, लहीएं सुख श्रीकार, भ०॥ ए आंकणी ॥१॥ समवसरण देवे रच्यु रे, बेठां नेम स्तवन. जिणंद; बारे परखदा अगले रे, भाखे श्री जिन चंद; भ० ॥२॥ ज्ञान वडो संसारमा रे, शिव पुरनो दातार; ज्ञान रुप दिवो कह्यो रे, प्रगव्यो तेज अपार, भ०॥३॥ ज्ञान लोचन जब निरखे रे, तव देखे लोक अलोक; पशुअ परें ते मानवी रे, ज्ञान वीना सवि फोक,० भ०॥ ४॥ ज्ञानी श्वासो | श्वासमा रे, कर्म करे जे नाश; नारकीनां ते जीवने रे, कोडि वरसविलास, भ०॥५॥ आराधक
अधिको कह्यो रे, भगवति सूत्र मोझार कीयावंत ते आगले रे, ज्ञानी सकल सिरदार, भ० ॥६॥ कष्ट क्रिया तो सह करें रे, तेहथी न कोइ सिध, ज्ञानक्रिया जब दो मिलें रे, तब पामे बहु ऋद्ध; भ०॥७॥ कोणे आराधी एह वीरे, कोने फली तत्काल; तेह उपर तुमें सांभलो रे, एहनी कथा है। रसाल, भ०॥८॥ जंबूद्वीप सोहामणो रे, भरत क्षेत्र अभीराम; ॥ पद्मपुर नगरें शोभतो रे अजीतसेन राय नाम, भ०॥९॥शील सौभाग्य आगली रे, यशोमती राणी नारी; ॥ वरदत्त
ककक
॥ ५७॥
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बेटो तेहनो रे, मूरखमां शिरदार० भ० ॥ १० ॥ मातपिता मन रंगश्युं रे, मुकें अध्यापक पास; ॥ पण तेहनें नवि आवडे रें, विद्या विनय विल्लास ० भ० ॥ ११ ॥ जिम जिम यौवन जागतो रे, तिम तिम तनु बहु रोग; ॥ कोढ थयो वलि तेहनें रे, विषमा कर्मनां भोग, ० भ० ॥ १२ ॥ आदरीएं आदर करी रें, सौभाग्य पंचमी सार; सुख सघलां सहेजे मिलें रे, पामे ज्ञान अपार, ० भ० ॥ १३ ॥
दुहा - तिलकपूरे शेठ वसे तिहां, सिंहदास गुणवंत; जैनधर्म करतो लहें, कंचन कोडि अनंत ॥ १४ ॥ कपूर तिलका सुंदरी, चाले कुल आचार; तेहनी कुर्खे अवतरी, गुणमंजरी वर नारि ॥१५॥ मूगी थइ ते बालिका, वचन वदे नहिं एक; जिम जिम अति औषध करें, तिम तिम तनुबहु रोग ॥ १६ ॥ सोल वरस तेहने थयां, परणे नहिं कुमारि; एहने कोइ वंछे नहीं, स्वजनादिक परिवार ॥ १७॥
ढाल - ॥२॥ बन्यो रे कुयर जिरो सेहरो ॥ ए देशी ॥ एहवे आवी समोसर्यां, श्रीवीजयसेन सूरींद रे; सुंदरि; ज्ञानी गुरुने वांदवा, पुत्र सहित भुप वृंद रे, सुंदरि ॥ १८ ॥ सहगुरु दीपदेशना रे, सांभलो चतुर सुजाण रे-सुंदरि; ज्ञान भणो भवि भावशुं, जिम लहो कोडि कल्याण रे - सुं०; सहगुरु ॥ ए आंकणी ॥
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शांतिना
थना.
॥ ५८ ॥
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॥ १९ ॥ सिंहदास सुत आपणो रे, आविनम्यो कर जोडि रे; सुं० ॥ विधिश्युं वांदि देशनारे, सांभलवा कोडि रे; सुं० सहगुरु ॥ २० ॥ ज्ञान आशातन जे करे, ते लहे दुःख अनेक रे; सुं०; वाचा पण नवि उपजें, बाल परे विवेक रे; सुं० सहगुरु ॥ २१ ॥ इह भव पग पग दुःख लहें, दुष्ट कुष्टादिक रोग रे; सुं०; परभवे पुत्र न संपजे, कलत्रादिक वियोग रे; सुं० सहगुरु ॥२२॥ सिंहदास पुछे हवें, निज बेटीनी वात रे, सुं०; श्येकमें रोग उपन्यो, ते कहो सकल अवदात रे; सुं० सहगुरु ॥२३॥ गुरु कहे शेठजी सांभलो, पूर्व भव विरतं रे; सुं०; धातकीखंड मध्य भरतमां, खेटक नगर निरखत रे; सुं० सहगुरु ॥२४॥ जिनदेव वणिक वसे तिहां, सुंदरी नामें नार रे; सुं०; पांच बेटा गुण आगला, चार सुता मनो हार रे सुं० सहगुरु | ॥ २५ ॥ एक दिन भणवा मुकीयां, हुंस धरी मन मांहि रे सुं०; ॥ चपलाइ करे चउगुणी, नभणे हर्ष उच्छांहि रे; सुं० सहगुरु ॥ २६ ॥ शिखामण पंड्यो दीएं, आवी ऋए माता पास रे; सुं०; ॥ कोप करी वलतु कहें, बेठां रहो घर वास रे; सुं० सहगुरु ॥२७॥ चुला मांहि नांखीयां, पुस्तक पाटी सोय रे; सुं०; ॥ २ ॥ ५८ ॥ रीसें धम धमती कहें, आखर मरसें सहु कोय रे; सुं० ॥ २८ ॥ कंथ कहे नारि प्रत्ये, को न दीए
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पंच क०
स्तवन.
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कन्या दान रे; सुं० ॥ मूर्ख गुण ग्रहेनहीं, नलहे आदर मान रे; सुं० सहगुरु ॥२९॥ बिहुंजण मांहि बोलतां, कोधवशे वीकराल रे, सुं० ॥ जिनदेवें मायुं मुशलुं, मरण पामि तत्काल रे, सुं० सहगुरु ॥३०॥ तेह मरी गुणमंजरी, अवतरी ताहरे गेहरे; सुं० ॥ जातिस्मरण उपन्युं, प्रगटी पुन्यनी गेह रे; सुं० सहगुरु ॥३१॥ साचुं साधुं सहु कहें, ज्ञान भणो गुण खाण रे, सुं०॥ तपनो जो उद्यम करो, तो लहो केवल नाण रे; सुं० सहगुरु॥३२॥ दुहा— पांसठ महीना कीजीए, मासमास उपवास; पोथी स्थापो आगलें, स्वस्तिक पुरो खास ॥ ३३ ॥ पांच पांच फल मुकीएं, पांच जातीनां धान्य; पांच वाटी दिवो करो, पांच ढोको पक्वान्न ॥ ३४ ॥ कुसुम भलां आणी करी, धूप पूजा करी सार; नमो नाणस्स गुणणुं गणो, उत्तर दिशी | एक हजार ॥ ३५ ॥ भक्ती करे साहमी तणी, शक्ति तणे अनुसार; जिनवर जुगति पूजतां, पामे | मोक्ष द्वार ॥ ३६ ॥ बार उपवास न करी शकें, वरस मांहिं दिन एक; जाव जिव आराहिएं, आणि परम विवेक ॥ ३७ ॥
ढाल — ॥ ३ ॥ चुडले यौवन झल रह्यो । ए देशी ॥ राजन मुनीवर दीएं धर्म देशना, सुणीएं देइ कान
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थना.
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शांतिनाराआलस मुकी आदरों,अजुआलो निज ज्ञान॥रा० मुनीवर ॥ए आंकणी॥३८॥राय पुछे हरखे करी,पंचक
सांभलो गुरु गुणवंत॥रा०॥वरदत्ते कर्म किश्यां काँ,कोढे अंग गलंत ॥रामुनीवर ॥३९॥ भविक जिव हीत
कारणे, गुरु कहे मधुरी वाणी ॥रा०॥ पूर्व भवनी वारता,सांभलो चतुर सुजाण ॥रा० मुनीवर ॥४०॥ जंबुशाद्वीप भरत क्षेत्रमा, श्रीपुर नगर विशाल ॥रा०; ॥वसुशेठनां सुत बे भला, वसुसार वसुदेव निहाल ||2|
रा० मुनीवर ॥४१॥ वन रमतां गुरु वांदीयां,श्रीमुनि सुंदर सुर॥रा०॥सांभलतां संजम लीएं,तप करे आनंदपूर ॥रा० मुनीवर ॥४२॥सकल कला गुण आगलो,लघुभाइ अति सार ॥रा०॥वसुदेवने कीधो पाटवी, |पंचसयां सिरदार॥रा० मुनीवर ॥४३॥ पग पग पुछे तेहनें, सूत्र अर्थ निरधार ॥रा०; पलक एक उंघे नहीं, तव चिंते अणगार ॥रा० मुनीवर ॥४४॥ पाप लाग्युं मुज कीहां थकी,एवडोश्यो कंठ शोष ॥रा; मुंढ मुरख संसारमां, काया करे निज पोष॥रा० मुनीवर ॥४५॥ बारदिवस मौनि रह्यों, प्रगट थयो तव पाप राजेहवां कर्म जे को करे,ते लहे सघलां आप॥रा० मुनीवर॥४६॥ तुज कुलें आवि अवतयों,दीपाव्यो तुज वंश ॥रा०; वृद्धभाइमरी उपन्यो, मान सरोवर हंस॥रा० मुनीवर ॥४७॥ सयल कथा सुणतां लह्यो,
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जाती स्मरण बाल ॥रा धन्य धन्य गुरु ज्ञानि मिल्यां,रोग थयां आल माल॥रा० मुनीवर ॥४॥विधि साथे पंचमि करे, राजादिक परिवार ॥रा०;रोग गयां सवि तेहनां,जिम जाएं तडकें ठार ॥रा० मुनीवर ॥ ४९ ॥ स्वयंवर मंडप मांडीओ, परणी एक हजार ॥रा०॥ हरख्यो वरदत्त इम कहें, जैन धर्म जगसार ॥रा० मुनीवर ॥५०॥राज्य स्थापि निज पुत्रने, साधे शिवपुर साथ ॥रा०॥ अजितसेन चारित्र लीएं, साचां श्री गुरु हाथ ॥ रा०॥ ५१ ॥ सुख विलसें संसारना, वर्तावे निज आण ॥ रा; ॥ पुत्र ।
जन्म एहवें थयो, उग्यो अभिनव भाण ॥ रा० मुनीवर ॥ ५२ ॥ CI दुहा-गुणमंजरी सुंदर भएं, परणी सा जिनचंद; चारित्र साधी नीर्मलं, पामे वैजयंत सुरिंद M ५३ ॥ वरदत्त मनमां चीतवी, आपे सुतने राज; हवे हूं संजम आदरं, साधुं आतम काज॥५४॥
अशुभ ध्यान दूरे करी, धरतो जिनवर ध्यान; काल धर्म पामी उपन्यो, पुष्कलावती विजय प्रधान॥५५॥
ढाल-॥४॥ सहियां हे पिउ चालीओ ॥ ए देशी ॥ सौभाग्य पञ्चमी आदरो, जिमपामो हैं। सुख सघलां वडवीर तो; चोथी करी शुदी पंचमी, व्रतधरवू हे भुइं सुq धीरतो॥५६॥ सौ०॥
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शांतिना- थना.
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ए आंकणी ॥त्रण काल देव वांदीएं, कीजें दीजे हो गुरुने बहु मान तो; पडिक्कमणां दोय वारना, पंच क० जिम व्यापें हो उत्तम गुण ज्ञान तो; सौ०॥ ५७ ॥ नयरी पुंडरी गणी सोहती, विराजे हो अमर
स्तवन. सेन भूपाल तो; तस घरणी शीलें सती, गुणवती कुखे हो अवतरीओ बालतो; सौ० ॥ ५८ ॥ सजन । संतोषी सांमटा, नाम स्थापें हो सूरसेन अभिराम तो; चंदकला जिम वाधती, तीम साधे हो वाघे |निज नाम तो; सौ०॥ ५९ ॥ यौवन वय जाणी पीता, सो कन्या हे परणावी सार तो; राज देइ निज पुत्रनें, अमरसेन पोहतो हे परम लोक मोझारतो; सौ०॥६०॥ सीमंधर आव्यां सांभली, वांदवाने हे आवे तीहां भूपतो; ज्ञान आराधन देशना, देखाडे हे वरदत्त खरुप तो; सौ०॥ ६१॥lk|| सूरसेन हवे वीनवें, प्रभु प्रकाशो हे ते कुण वरदत्त तो; सकल वात मांडी कही, तप मांड्यो हे कीजें रंग रत्ततो; सौ०॥ ६२ ॥ जीनवर वांदी आवीओ, संवेगे हे मुके घर भारतो; सिंहतणी परें।
॥६ ॥ आदरी, जिणें लहीएं हे भवजल नो पारतो; सौ०॥ ६३ ॥ पंच महाव्रत आदरो, सहस वरस हैं पामे केवल ज्ञान तो;॥ अविचल सुख एणे लह्यां, निसुणि हे आराहो ज्ञान तो; सौ०॥१४॥
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जंबूद्वीप मांहि वली, वीजय रमणी हे नगरी चोंसाल तो; अमरसेन अमरावती, पुण्ये प्रगट्यो आव्यो ए बाल तो; सौ० ॥ ६५ ॥ गुणमंजरी जीव उपन्यो, राजानें हे हुओ ओच्छव रंगतो; राज करे नीज तातनुं, प्रेमे परणे हे कन्या सुख संग तो; सौ० ॥ ६६ ॥ एक दीन मनमां चिंतवे, हुं तो साधु हो निज आतम काज तो; प्यार सहस बेटा थयां, पाट आपे हो निज सुत शिरताज तो; सौ० ॥ ६७ ॥ सिंह तणी परे नीकलें, लाख पूरव हो संयम शिरताज तो; तप तपे अती आकरा, केवल पामी हो लहे शिवराज तो; सो० ॥ ६८ ॥
ढाल – ॥५॥ मी ॥ देशी बजानानी राग धन्या श्री ॥ तप उजमणुं इणीपरे सुणीए, वित सारुं धन खरचो जी; पंचमी दिन पामी कीजे, ज्ञानादिकनें आचरोजी; पांच प्रत सीद्धांतनी सारी, पाठां पांच ऋमाल जी; खडियो लेखण पाटी पोथी, ठवणी कवली द्यो लाल जी ॥ ६९ ॥ स्नात्र महोत्सव विधीशुं कीजे, राती जगे गीत गायो जी; चैत्या दिकनी पूजा करता, जीनवरनां गुण गाओजी; गुणमंजरी वरदत्त तणी परे, कीजे त्रिकरण शुद्ध जी; एवीध करतां थोडे काले, लहीए सघली सीद्ध जी ॥७०॥
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शांतिना-वासकुंपी वली आपो, झरमर पांच मंगावो जी; गुरु वांदी पुस्तकनें पूजी, सामी सामिणो नोतरावो पंच क० थना. जी; गुरुने तेडी बेकर जोडी, आदरशुं वहोरावो जी; पारणुं कीजे लाहो लीजे, पांचिम तप उजमावो स्तवन
जी ॥ ७१ ॥ नेमि जिणेश्चर अति अलवेशर, केशर वर सम कायाजी; ए उपदेश सुणीने समज्या, ॥६१॥
ज्ञान लोचन देखाया जी; वरदत्त गणधर आगे कहीओ, लहीओ भवीजन प्राणी जी; सौभाग्य पंचमी तप आराहो, निसुणी जिनवर वाणी जी ॥७२ ॥ देह निरोग सोभागी थाओ, पाओ रंग | रसाला जी; मूर्ख पणु दुरे छांडो, मांडो ज्ञान विशाला जी; सौभाग्य पंचमी जे नर करशे, ते वरस्य मंगल मालाजी; गजरथ घोडा सुंदिर मंदिर, मणिमय झाक झमाला जी ॥७३॥ संवत् सत्तर अठावन्ना मांहि, सिद्ध पुर रही चोमासु जी; कार्तिकशुदी पांचिम दीने गायो, सफल फली मुज आशजी; श्री जिनशासन मांहि राजे, श्री विजयप्रभ सुरिंदाजी, श्री विजयरत्न सूरीश्वर राजे, प्रणमें परमानंदाजी ॥ ७ ॥ । कलश-इम नेमि जिनवर सयल सुखकर उपदिशे भवि हितकरो, तप गच्छ नायक सुखदायक
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लायक मांहि पुरंदरो; श्रीलाल कुशल विबुध सुखकर वीर कुशल पंडित् वरो, सौभाग्य कुशल सुगुरु सेवक केशर कुशल जय करो ॥७५॥
" इति श्री सौभाग्य पञ्चमी स्तवनम् सम्पूर्णम्"
" अथ श्री ज्ञान पञ्चमी स्तवनम् " ढाल–पहेली ॥१॥ देशी रसियानी ॥ प्रणमी पास जिनेश्वर प्रेमश्यु, आणी आणंद अंग चतुर नर; पंचमी तप महिमा महील अति घणो, कहेशुं सुणज्योरे रंग ॥ चतुरनर; भाव भलें पंचमी तप कीजीए गए आंकणी॥१॥ इम उपदिशे होश्रीनेमिसरूं, पंचमी करज्यो रे तेम चतुरनर गुणमंजरी वरदत्त तेणी परे, आराधे फल जेम, चतु० भावभलें ॥२॥ जंबुद्वीपे रे भरत मनोहरु, नयर पद्मपुर खास चतु० राजा अजित सेनाभिध तिहां कणे,राणि यशोमति तास,चतु भावभलें ॥३॥वरदत्त नामे हो कुंअर तेहनो, कोढे व्यापी रे देह,चतु;॥ज्ञान विराधन कर्म जे बांधीउं,उदये आव्युरेतेह, चतु० भावभलें ॥४॥ तिण नयरे सिंहदास गृही वसे,कपूरतिलका तस नारि चतु०॥ तसबेटी गुणमंजरी रोगणी, वचनें मुंगी
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असार, चतु; भावभलें ॥ ५॥ चउनाणी विजयसेन सूरीसरु, आव्या तिण पुर जाम, चतु पंचक राजा शेठ प्रमुख वंदन गया, सांभली देशना ताम, चतु; भावभलें ॥६॥ पूछे तिहां सिंहदास स्तवन. गुरु प्रत्ये, उपन्यो पूत्रीने रोग; चतु;॥ थइ मुंगी वली परणे को नहिं, ए शाकर्मनां भोग, चतु भावभलें ॥७॥ गुरु कहे पूर्वभव तुमे सांभलो, खेटक नयर वसंत, चतु; ॥ साह जिन देव छ । व्यवहारिओ, सुंदरी घरणीनो कंत चतु० भावभलें॥८॥बेटा पांच थयां छे तेहनें, पूत्री अति भली 8 च्यार चतु; ॥ भणवा मुंक्यां पांचे पुत्रनें, पण ते चपल अपार चतु० भावभलें ॥९॥ | ढाल- बीजी ॥२सीरोहीनो सेलो हो के उपर योध पुरी ॥ ए देशी॥ ते सुत पांचे हो के पठन करे नहि, रामति करतां होके दिन जाये वही; शीखवे पंडित हो के छात्रने रीस करी, आवी | मातनें होके कहे सुत रुदन करी ॥ १०॥ माता अध्यारु हो के अमनें मारघणो, काम अमाकै हो के नहिं भणवा तणु; संखणी माता हो के सुतने शिख दीयें, भणवा मत जाओ हो के शुंकंठ सोसवे ॥ ११ ॥ तेडवा तुमनें हो के अध्यारु आवें, तो तस हणज्यो होके पुनरपि जिम नावे; शीख देइ
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इम हो के सुंदरीए तिहां, पाटी पोथी हो के अग्निमां नांखी दीयां ॥ १२ ॥ ते वात सुणीनें हो के जिनदेव इस्युं बोले, फिटरे सुंदरी हो के काम कर्यु किस्युं; मूर्ख राख्यां हो के ए सर्वे पुत्र तुमे, नारी बोली हो के नविजाणुं अमे ॥ १३ ॥ मूर्ख मोटा हो के पुत्र थयां ज्यारें, नदीए कन्या हो के कोइ तेहनें त्यांरे; कंत कहे सुणज्यो हो के ए करणी तुम तणी, वयण न मान्यां हो के ते पहेलां अमतणां ॥ १४ ॥ एम सूणीनें होके सुंदरी क्रोधे चढी, प्रीतम साथे हो के प्रेमदा अतिशें वढी; कंते मारी हो के तिहांथी काल करी, ए तुज बेटी होके थइ गुणमंजरी ॥ १५ ॥ पूर्वभव इणे होके ज्ञान विराधिउं, पुस्तक बाली हो के कर्म जे बांधियुं; उदयें आव्युं हो के देहे रोग थयो, वचने मुंगी हो के एफल तास लो ॥ १६ ॥
ढाल — ॥ त्रीजी ॥ ललनानी देशी ॥ नीज पूर्व भव सांभली, गुणमंजरी पण त्यांहि ललना; जाति समरण पामीउं, गुरुने कहे उत्छांह ललना; भविका ज्ञान अभ्यासियें ॥ ए आंकणी ॥ १७ ॥ ज्ञान भलुं गुरुजी तणुं, गुणमंजरी कहे एम ललना; ॥ शेठ पुछे गुरुने तिहां, रोग जाए कहो केम
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शांतिना- ललना; भविका; ॥ १८॥ गुरु कहे हवे विधि सांभलो, जे कह्यो शास्त्र मोझार ललना; कार्तिक पंच क. थना. शुदी पंचमी दिने, पुस्तक आगल सार ललना; भविका; ॥ १९ ॥ दीवो पंच दीवेट तणो, कीजिए
स्तवन खतिक पास ललना; नमो नाणस्स गणणु गणो, चउवीहार उपवास ललना; भविका; ॥२०॥ ॥ ३॥
पडिक्कमणां दोय किजिए, देव वंदन त्रण वार ललना; पंच वरस पंच मासनी, कीजीए पंचमी &सार ललना; भविका; ॥ २१ ॥ हवे उजमणा ने कारणे, सांभलो विधिनो प्रपंच ललना; पुस्तक आ-18 |गल मुकवां, सघलां वानां पंच ललना; भविका; ॥ २२ ॥ पुस्तक ठवणी पुंजणी, नवकार वाली प्रत ललना; लेखण खडीयां दाबडा, पाटी कवली संयुक्त ललना; भविका; ॥ २३॥ धान्य फलादिक ढोकिए, कीजीए ज्ञाननी भक्ति ललना; पूस्तकनी पूजा करो, भावश्यु जेहवी शक्ति ललना; | भविका; ॥ २४ ॥ गुरु वाणी इम सांभली, पंचमी कीधी तेह ललना; गुणमंजरी मुंगी टली, निरोगी थइ देह ललना; भविका; ॥२५॥
॥ ३॥ ढाल-॥चोथी॥ यादवराय जइ रह्यो गढगीरनार ॥ए देशी॥ राजा पुछे साधुनेंरे, वरदत्त कुमरने अंगा
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कोढ रोग ए, किम थयो रे, मुज भाखो भगवंत; सद् गुरुजी धन्य तुमारं ज्ञान ॥ ए आंकणी ॥ | ॥ २६ ॥ गुरु कहे जंबुद्वीपमां रे, भरते श्रीपुर गाम वसुनामें व्यवहारीओ रे, दोय पुत्र अभिराम; सद् गुरुजी; ॥ २७ ॥ वसुसारनें वसुदेवजी रे, दीक्षा लीए गुरु पास; लघु बंधव वसु देवनें रे, पदवी | दीए गुरु तास; सद्गुरुजी ॥ २८ ॥ दोय सहस अणगारनें रे, आचार्य वसुदेव; शास्त्र भणावे खांतरयुं रे, नहीं आलस नीत्य मेव सद्गुगुजी ॥ २९ ॥ एक दिन सूरी संथारिया रे, पूछे पद एक साध; अर्थ कहे गुरु तेहनें रे, वली आव्यो बीजो साथ; सद्गुरुजी; ॥ ३० ॥ इम बहु मुनी पढ़ पुछवा रे, एक आवे एक जाय; आचार्य ने उंघमां रे, थाए अति अंतराय सद्गुरुजी; ॥ ३१ ॥ सूरि तिहां इम चिंतवे रे, कीहां लाग्युं मुज पाप; जो में शास्त्र अभ्यासीयां रे, तो एटलो संताप; सद्| गुरुजी; ॥ ३२ ॥ पद न कहुं हवे केहनें रे, सघलुं मूकं विसार; ज्ञान उपर इम आणीओ रे, त्रिकरण क्रोध अपार; सद्गुरुजी; ॥ ३३ ॥ बार दिवस अण बोलीयां रे, अक्षर न कह्यो एक; अशुभ ध्यानें ते मरीरे, तुज सुत ए अविवेक; सद्गुरुजी; ॥ ३४ ॥
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ढाल - पांचमी ॥ तुमेपीतांबरपर्हेस्यांजी ॥ देश ॥ ते सुणी वरदत्ते गुरुवाणी जी, जाति स्मरण लधुं; पूर्व निज भव दिठो जी, जेम गुरु ए कयुं वरदत्त कहे तव गुरुनें जी, रोग ए किस जावे; सुंदर काया होवे जी, विद्या किम आवे ॥ ३५ ॥ भाखे गुरु भले भावे जी, पंचमी तप करो; ज्ञान आराधों रंगे जी, उजमणुं करो; वरदते ते विधि किधी जी, रोग दूरे गयो; भूक्त भोगी राज्य पाली जी, अंते साधु थयो ॥ ३६ ॥ गुणमंजरी परणावी जी, साह जिन चंद्रनें; सुख भोगवी पछी लीधुंजी, चारित्र शुभ मर्ने; गुणमंजरी वरदत्त जी, चारित्र पालीनें; विजय विमानें पहोता जी, पाप प्रणाली नें ॥३७॥ भोगवी सुर सुख तिहांजी, चवीया दोय सूरा; पाम्या जंबु विदेहेजी, मानव अवतारा; भोगवी राज्य उदाराजी, चारीत्र ल्यें सारा; हुआ केवल ज्ञानीजी, पाम्या भव पारा ॥ ३८ ॥
ढाल ॥ ६ ॥ छठी ॥ गिरथी नदीयां उत्तरीरेलो ॥ देश ॥ जगदीश्वर नेमीश्वरे रे लोल, ए भाख्यो संबंध रे सोभागीलाल; बारे पर्षदा आगलें रे लोल०, एसघलो प्रबंध रे सोभागीलाल; नेमीश्वर जिन जयकरूं रे लोल ॥ ए आंकणी ॥ ३९ ॥ पंचमी तप करवां भणी रे लोल, उत्सुक थयां बहु लोक
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पंच क० स्तवन.
॥ ६४ ॥
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रे सोभागीलाल; ॥ महा पुरुषनी देशना रे लोल, ते नवि होवे फोक रे सोभागीलाल; नेमीश्वरः ॥४०॥ कार्त्तिक शुदि जे पंचमी रे लोल०, सौभाग्य पंचमी नाम रे सोभागीलाल; ॥ सौभाग्य लहीए एहथी रे | लोल०, सघले बहु सुख धाम रे सोभागीलाल; नेमीश्वरः ॥४१॥ समुद्रविजय कुल सेहरो रे लोल०, ब्रह्मचारी शिरदार रे सोभागोलाल; ॥ मोहनगारी मानिनी रे लोल०, रुडीराजुल नारीरे सोभागीलाल; नेमीश्वरः ॥ ४२ ॥ ते नवि परणी सुंदरी रे लोल, पण राख्यो जेणे रंगरे सोभागीलाल; मुक्ति मोहोलमां बेहु मिल्या रे लोल, अविचल जोडी अभंग रे सोभागीलाल; नेमीश्वरः ॥ ४३ ॥ तेणे ए माहात्म्य भाखी उंरे लोल०, पंचमीनुं परगट रे सोभागीलाल; ॥ जे सांभलतां भावशुं रे लोल०, श्रीसंघने गह गहरे सोभागीलाल, नेमीश्वरः ॥ ४४ ॥ कलश – इम प्रणत सुरनर सयल दुःखहर गाइयो नेमीश्वरूं, तपगच्छ राजा वड दिवाजा विजयाणंद सूरीश्वरुं; तस चरण पद्म राग मधुकर गोविंद कुमर विजय तणो, तस शिष्य पंचमी स्तवन भणतां गुणविजय रंगे थुण्यो ॥ १ ॥
॥ " इति श्री ज्ञान पञ्चमि स्तवनम् संपूर्णम्” ॥
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॥ " अथ श्री ज्ञान पञ्चमि स्तवनम् ॥
ढाल — ॥ १ ॥ ली ॥ फागनी ॥ प्रणमी श्रीगुरु पदकज, ज्ञाननी प्राप्ति उपाय: पंचमी तप महिम कहुं, सुणजो भवि समुदाय ॥ त्रिगडे बेठा मीठा, गिरुआ वीर जिणंद; दिए उपदेश अनेकधा, निसुणे सुरनर वृंद ॥ १ ॥ ज्ञान लोचन सुविलासे, लोकालोक प्रकाशे; भत्ति मुक्ति दातार छे, ज्ञान परम सुख वास; ज्ञान विना पशु कहीए, लहीए कांइ न भेद; ज्ञान दीपक सम ज्ञांनी, सर्वा राधक | भेद ॥ २ ॥ देश आराधक क्रिया, ज्ञान विनाते अंध; ज्ञान सहित जे क्रिया, ते सोनुंने सुगंध; दक्षिणा वर्त्तक संखह, दुधे भरीओ तेह; ज्ञानी श्वासो श्वासमां, कठिन कर्म करे छेह ॥ ३ ॥ ज्ञान सहित कृत क्रिया, ते तरिया भव सिंधु महा निशिथमां अक्षर, पंचमी ज्ञान प्रबंध; भगवती प्रमुख आगम मांहिं, ज्ञान तणां बहुमान; पहेलुं ज्ञानजो अनुभवे, क्रिया तास प्रधान ॥ ४ ॥
ढाल ॥ २ ॥ जी ॥ साहेलडीनी ॥ देश ॥ पंचमी तप विधि सांभळो साहेलडी रे, जिम पांमो भवपार | तो; जिन गणधर मुनि उपदिशे साहेलडीरे०, भवियण ने हित कार तो ॥५॥ मृगशीर्ष माहा फागुण भला
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पंच क० स्तवन.
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साहेलडीरे०,जेठ आषाढ वैशाख तो षट्कार्तिक वली लीजीए साहेलडीरे०,शुभ दिन सहगुरु साख तो॥६॥ देहरेदेव जुहारीए साहेलडीरे०, गीतारथ गुरु वंदन तो; पोथी शक्ति पूजीए साहेलडीरे०, प्रभावना मांडी* नांद तो ॥७॥ उभय टंक आवश्यक साहेलडीरे०,देव वंदन त्रण्य वार तो ब्रह्मचर्यने पालीए साहेलडीरे.. आरंभ सचित्त परिहार तोटापंचमी स्तवनस्तुति कहे साहेलडीरे०, पच्चरखे चोथ उपवास तो; त्रिविध चउविध गुरुने मुखें साहेलडीरे०,अथवा पौषध खासतो॥९॥ गीतारथ पासे पछी साहेलडीरे०,मन धरे तास उपगार तो; जावजीव उत्कृष्ट पदे साहेलडीरे०, पांच वरस पंचमास तो ॥१०॥जघन्य पदे एजाणीए साहेलडीरे०, अथवा वली एक वर्ष तो; उजमणे आराधीए साहेलडीरे०, जिम पोहचें मन हरषतो॥१॥3
ढाल-॥३॥ जी ॥ सारद बुध दाइनी ॥ निज शक्तिने सारं-उजमणुं करो वारु, वित्त खरचो| KIमोटे मने-प्रतिमा भरावो चारु; ज्ञान दर्शन चारित्र त्रीकाल-त्रण्ये ज्ञान पूजे, स्थापन पूजीने-गुरु कापुर काउस्सग कीजे ॥ १२ ॥ त्रूटक-पांच एकावन लोगस्स केरो पंच पंच वस्तु धोवे, पाठा प्रत
रुमाल लेखण वासकुंपीने जोवे; पाटी पोथी ठवणी कवली पूंजणी नोकरवाली, दोरा चाबखि स्थापना
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चारिज तिम मुहपत्ती सुहाली ॥ १३ ॥ ढाल पूर्वनी-कागलने काठा खडीया वरतणां कांबी, झरमर पंचकर चंदुआ वालाकुंची लांबी; आरती धूप धाणा-मंगल दीपतें गार, प्रासादने प्रतिमा-तेहनां वलि स्तवन. शिणगार ॥ १४॥Jटक-सार सार जे वस्तु जगतमा ज्ञान दर्शन उपगरणां, केसर सुकड अगर कपूरह वाती ध्वज अंग लूहणां; पंच अथवा सगति पंच वीसह पंच वाटीनो दीवो, फल पकवान धान्य बहु मेवा कुसुम प्रमुख बहु लेवा ॥१५॥ ढाल पूर्वनी-पूर्व अघ उत्तर-दिशि विदिशि इशान-नमो नाणस्स पदने-ध्याओ थइ शावधान; साह्मी वत्सल कीजे-गीतगानें जागीजे, ए करणी करतां-ज्ञानने आराधीजे ॥१६॥ त्रूटक-साधीजे इम शिवपद साचुं, जिम गुणमंजरी वरदत्त; लहे सौभाग्य वली ज्ञान आराध्युं करी निज निर्मल चित्त; ते संबंध कथाथी कह्यो लह्यो वंछित काज, ज्ञान विमल गुरु आण पसाये अधिक उदय होय आज ॥ १७॥
॥६६॥ ॥ "इति श्री ज्ञान पञ्चमी स्तवनम् सम्पूर्णम्” ॥
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በ अथ श्री ज्ञान पञ्चमी स्तवनम् ॥
दुहा— सारद मात पसाउले, निज गुरु चरण नमिय; पंचमि तप विधिशुं भणुं, हयडे हरख धरेवि ॥ १ ॥ राजुल वर श्री नेमजी, करुणा रस भंडार; आणंद भविअण आपता, महिअल करे विहार ॥ २ ॥ द्वारावती नगरी भली, जिहां केशव नरदेव; अनुक्रमे तिहां जिन आवीयां, सुरनर करतां सेव ॥ ३ ॥ वासुदेव वसुधा पति, वंदन आवे ताम; बारह पर्षदा सांभले, देशना अति अभिराम ॥ ४ ॥ वरदत्त गणधर हरखश्युं, पूछे तव कर जोडि; पंचमि तप महिमा घणो, कहो प्रभु मुजछे कोड ॥ ५ ॥
ढाल - ॥ १ ॥ रांग वेलीनो ॥ कहो प्रभु मुजछे कोड बहु तेरो, ए पंचमी तप नाण करवानी; विधि सघली कुणी परे, कहो जिन तिहुअण भाण ॥ ६ ॥ वाणी अमिअ समाणी जिनकी, नीकीपरे एजाणी; बारह पर्षदा सदु सांभलतां, पंचमि नेमी वखाणी ॥ ७ ॥ अजुआली पंचमि तप मांडो, छंडो दुरित मिथ्यात्व; चोथ छडे एकासणुं कीजे, लीजे प्रासुक भात ॥ ८ ॥ ए तपनुं कीजे मास
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उपोषण, पोषण पुण्यनुं जेह; शील घरीजे भोई सूइजे, नीकी ऋण दिन एह ॥ ९ ॥ फूल चंगेरी भावे भलेरी, पूजु जिनवर देव; सावद्य आरंभ सहु परिहरनुं, की जे साधुनी सेव ॥ १० ॥ भनुं भणावुं ए पंचमी दिन गुणे आवतुं ज्ञान; जिन गुण गाओ तप आराहो, कीजे उत्तम ध्यान ॥ ११ ॥ पंच परमिठ गुणणुं कीजे, दीजे भावे दान; साहमी साहमिणि घणुं संतोषो, पडिकमणुं शुभ ध्यांन ॥ १२॥ वार त्रण विधिशुं देव वंदन, तप करो पड़सठि मास; पोंसह पण कीजे अहोरत्तो, यथाशक्ति उल्लास ॥ १३ ॥ क्रोध मान माया लोभ छांडो, माडो धर्मनी वात; ए तप मनशुद्धे आराधे, ते हुए जग विख्यात ॥ १४ ॥ विकथा च्यार ते परिहरवी, धरवी जिननी आण; ए तप ज्ञान तणुं आराधन, समजी लेजो जाण ॥ १५ ॥ ढाल - ॥ २ ॥ जिम सहकारे कोयल टहुके ॥ ए देशी ॥ निसुणो हवे जग गुरुनी वाणी, सौभाग्य पंचमी जेम वखांणी; आनंद आणी अतिघणोए; वरदत्त गुणमंजरी चरित, सुणतां होवे जन्म पवित्र; आ भवे तप जेहनें फल्युं ए ॥ १६ ॥ पद्मपुरी जितसेन नरिंद, यशोमती शुं करे आणंद; सुत वरदत्त तस मूरखो ए; मुखें अक्षर एक न चडे तास, कोढे करी विणतुं वपु जास; ज्ञान विराधना इम
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करे ए ॥ १७ ॥ तिणे पुरे सिंहदास व्यवहारी, कपूरतिलका तस धर नारि; मूंगी गुणमंजरी सुताएं; कर्मवशे सा रोगेपूरी, तेणे वंद्या श्री विजयसेन सूरि; राजा वली व्यवहारिए ए॥१८॥ निज 51 निज पुत्रपुत्री दुःख कारण, कहो गुणवंत गुरु छो चित्तठारण; प्राप किस्युं एणे आचरियुए; गुरु Pकहे ज्ञान आशातना पाप, आशातना ना ए संताप; मकरो ज्ञान आशातनाए ॥ १९ ॥ वरदत्त हुतोद
गच्छाधीश, पूर्व भव वसुदेव सुरीश; ज्ञान आशातना तिहां करी ए; तेहज कर्म तणां ए भोग, मूर्खपणुं अने कुष्ट रोग; हवेसुणो गुणमंजरी कथा ए ॥ २० ॥ पूर्व भव जिनदेव घरणी, सुंदरिनामें करे । शुभ करणी; पुत्र तस पंच पंडवाडाए; भणतां तस कीधो अंतराय, पुस्तक बाल्युं वसुदेव माय; कहेमूखे मूर्ख पणुं भलुएं ॥ २१ ॥ गुणमंजरि ए इम दुःख पामी, हवेछटे किम दुःख सामि; तिहागुरु पंचमी उपदेशे ए; मासें जो उपवास नथाय, करे कार्तिकशुद पंचमी भाय; नमो नाणस्स सहस बे गुणे ए ॥ २२ ॥ ए उपवास करे चउविहार, पूर्व विधि पंचमि तपसार; इम करतां सही सुख मिलेए; गुरु मुख तेणे पंचमि व्रतलीधुं,ज्ञान आराधन श्युपरे कीg; सिधुं वंछित बेतणुंए ॥२३॥ विधिशुं
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शांतिना- जे पंचमी आराहे, एहनी परे ते सुखिआ थाय; छेवटे सिद्धिवधु वरेए; वरदत्त गुणमंजरि गया रोग, पंच क. 13 पुण्य पसाये पूरा भोग; पाम्युं ज्ञान तेणे परगडु ए ॥ २४॥ ढाल-॥३॥ कनक कमल पगलां ठवे स्तवन
ए॥ ए देशी ॥ पंचमि तप जगमा वडु ए, जाणी करो भविलोक; होये सुख संपदाए; मेंरु महीधर जग वडु ए, तिम ए तप जग माहि; उच्छाहे आदरोए ॥ २५ ॥ रिद्धि वृद्धि बहु संपदा ए, आपदा दूरे जाय; थाय शिवपुर धणी ए; मनमान्या भोग ते लहे ए, न दीसे इक दीन कलेस; को सहु नमे तेहनें | |ए ॥२६॥ बुद्धि हुए तेहनी दीपती ए, जीपती सुरगुरु तेजके; हेज सहू धरे ए; ज्ञान हुवे तेहनें परगडुए, 21 अतिवडो ते संसार के मारे न परभवे ए;॥२७॥एतप महिमा अति घणो ए; नेमि जिन कहियुं आय; सुणी सहु हरखे आवेए; उजमणा विधीअती घणी ए, कीजे बहु विध प्रमाणके; गुरुने पूछी करी ए॥२८॥ ___ कलश-उच्छांह आणी लाभ जाणी सुगुरु वाणी मन धरो, ए ज्ञान पंचमी ज्ञाननी विधि ज्ञान दूषण परिहरो; ए तप करता सुख लह्यां बहु करशे ते लहशे वली, आगम वांणी ए मन जाणी करुं प्राणी मनरुली ॥ २९ ॥ ए तपह कीजे लाभ लीजे वंदिजे तप गच्छ धणी, प्रत्यक्ष गौतम
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ॐARSAGAR
॥६८॥
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स्वामि सरिखां करिति हीरसूरी तणी; तस गच्छ पंडित ज्ञान मंडित पाप छंडित तुंजयो, बुध कल्याण कुशल गुरु सेव करतां दयाकुशल आणंद थयो ॥३०॥
"इतिश्री ज्ञान पञ्चमि स्तवनम् सम्पूर्णम्" "अथ श्री अल्प बहत्व विचार गर्षित श्री महावीर जिन स्तवनम्" ॥ ढाल ॥१॥सूरती महिनानी देशी ॥ शासन नायक लायक शिववधु कंत मुनीश, क्षायिक भावें भोगवें ऋद्धि अनंत जगीश; सिद्ध बुद्ध अविनाशी अनोपम अव्याबाध, अशरीरी अणाहारी वीरनमुं निरुपाधि ॥ १॥ भीम भवोदधि भमिओ काल अनंत, जिनवर आणा वर्जित पाम्यो दुःख अत्यंत; सर्व जंतुनो भाख्यो सूत्रे अल्प बहुत्व, अठाणुं भेदें करी ते विनवू सुपवित्त ॥ २॥ थोवा गाय मणुआ १ संखगुणी तसनारि, २ बायरपज्ज अनल ३ अनुत्तर दो असंख गुणधारि ४; संख गुणा सत्त उवरिम ५ मझिम ६ हेटिम ७ जोय, अच्युत ८ आरण ९ पाणय १० आणय ११ पर्यंत होय ॥३॥ चउद असंखगुणा हवे माघवती १२ मन आणि, मघा १३ सहस्सार १४ महाशुक्र १५ ने रिष्टानरक
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॥ ६९ ॥
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१६ वखाणि; लांतक १७ अंजण १८ बंभने १९ वालुक २० माहिंद २१ जाणि, २२ सनत्कुमारसक्कर पह २३ समुच्छिमनर २४ दुखखाणं ॥ ४ ॥ इशान देवलगें २५ हवे संख गुणा त्रणबोल, इशान देवी | २६ सोहमदेव २७ देवी २८ रंगरोल; असंख भवणवइ २९ संखगुणी तसदेवी माण ३०, असंखगुणा रयणप्पह ३१ तिम खग पुरिस प्रमाण ३२ ॥ ५ ॥ संखगुणी खयरी ३३ थल ३४ थलयरी ३५ जलचर ३६ इमजलयरी, ३७ व्यंतर ३८ व्यंतरी ३९ जोइस देवता ४० तेम ज्योतिषी देवी; ४१ नपुंनभ ४२ थल ४३ जलचरना जीव ४४, पज्ज चउरिंदी ४५ संखगुणा ए तेर सदैव ॥ ६ ॥ पज्ज पंणिंदी ४६ बीअ ४७ तिअइंदी जीव ४८, अधिक असंख अपज्ज पणिदि ४९ चउ ५० तिअ ५१ बिअ ५२ समधिक त्रसलगें सवि बावनं भेदमांहिं एभमंत, निजखरूपथी खसीओ वसीओ उत्तम चित्त ॥७॥
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पंच क० स्तवन.
ढाल ॥ २ ॥ वारी जाउं हुं अरहंतनी ॥ ए देशी ॥ स्थावर भेदने वर्ण, वीरनमि एक चितोरे; बार असंख गुणा हवे, वायर पज्ज परित्तोरे; ५३ बलिहारी जिन वचननी ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ ६ ॥ ६९ ॥ | साहारण तनु ५४ पुढवी ५५ जल ५६, बायर वायु पज्जत्तोरे ५७; तेउ ५८ परित ५९ निगोद ६०
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मही ६९ अप्प ६२ मरुत ६३, सुहु मम्मी अपजत्तो रे ॥ ६४ बलि० ॥ २ ॥ सुहुम अपज्ज पुढवी ६५ आउ ६६ वाउ विशेषाधिकरे ६७, सुहुम पज्जत अग्निकाया ६८, संखगुणा ते अधीको रे ७९ ॥ बलि० ॥ ३ ॥ ६९ जल ७० अनिल पज्जाहिय ७१, सुहुमनिगोद अपजत्ता रे; असंखगुणा ७२ तह संखगुणा, सुहुमनिगोद पज्जत्तारे ७३ ॥ बलि० ॥ ४ ॥ वलि अभव्य ७४ पडिवडिइआ, ७५ सिद्धा ७६ बायर पज्जवण कायारे; अनंतगुण पर्याप्ता, ७७ बायर अधिक ७८ सोहायारे ॥ बलि० ॥ ५ ॥ बायरवण अपर्याप्ता, असंखगुणा ७९ आगममां रें; बायरअपज ८० बायरहिया ८९, असंख अपज्जवण सुहुमा |रे ८२ ॥ बलि० ॥ ६ ॥ अधिका सुहुमा अपजत्ता ८३, संख सुहुम वण पज्जा रे ८४; हवे अधिका एकेकथी, चौद कहुं सुणो सज्ज रे ॥ बलि० ॥ ७ ॥ पजसुहुम ८५ सुहुमा ८६ भवि ८७, निगोदजीव ८८ वणकाया रे ८९; एगिंदि ९० तिरिय ९१ मिच्छा ९२, अविरइया ९३ सकसाया रे ९४ ॥ बलि० ॥ ८ छद्म ९५ सजोगी ९६ संसारीया ९७, सर्वजीव ९८ लगें अप्प बहुत्तरे; श्री जिनराज कृपाकरी, भाख्यो उत्तम हितहेतो रे ॥ बलि० ॥ ९ ॥
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॥ ७०॥
शांतिना-15 ढाल-॥३॥ करकंडुने करुं वंदणा हुं वारीलाल ॥ ए देशी ॥वस्यो अनादि निगोदमा हुं वारि-पंच क० थना. लाल, पुद्गल पर अनंत रे हुँ; तुज आणाविण दुःख सह्यां हुं०,सवि जाणो भगवंत रे हुं० श्रीवीरने जाउं स्तवन
भामणे ९०, ॥ए आंकणी॥१॥ त्रिशलादेवी मात रे हुं०, सिद्धारथनृप तातजी हुँ०, उत्तम कुल वंश, जात रे हुं० ॥श्री॥२॥श्रीनयसार भवें मिथ्यात्वथी हुं०, नीसरीआ मुनि साह्यरे हुँ; अनुक्रमे त्रिभुवन धणी हुं०, हुआ चरम जिन राजरे हुं०॥ श्री॥३॥ मोह निकंदन मूलथी हुं०, कीधो धरी शुक्ल ध्यानरे हुं०; वीतराग पद अनुभवी हुँ०, पाम्या पंचम ज्ञानरे हुं० ॥ श्री॥ ४॥ त्रिगडे बेठा देशना ९०,8 देताभवि उपगार रे हुं० द्वादश अंग रचना करे हं०, त्रिपदी लही गणधाररे हुं० ॥श्री ॥५॥
श्यामाचार्य गुणनिधि हुँ०; त्रेवीशमा पट धाररे ९०; पन्नवणा जिणे उद्धरी हुं०; श्रुत समुद्रथी साररे दाहुं०॥ श्री॥६॥ ते पन्नवणा सिद्धांतमा १०; छत्रीश पद अद्भूतरे हुँ; पन्नवणा प्रथम तिहां हुँ, बीजं ठाण अप्प बहुत्तरे हु० ॥श्री ॥७॥ चोथु स्थिति पद पांचमुं हुं०, विशेष व्युतक्रांत साररे हुं उसास पद कझुं सातमुं हुं०, आठमें संज्ञा च्याररे हुं०॥ श्री ॥८॥ ज्ञानी पद नवमुं कयुं हुं०, चरम
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भाषा पद नामरे हुं०; शरीर पद तिहां बारमुं हुं०, तेरसुं पद परिमाणरे हुं०, ॥ श्री ॥ ९॥ चौदमु । चार ककषायनुं हुं०, इंद्री पन्नरमुं होयरे हुं०; उपयोग पदवली सोलमुं हुं०, लेश्या सत्तरमुं जोयरे । हु० ॥श्री ॥ १० ॥ कायस्थिति अढारमुं हुं०, समकित एगुण वीशरे ९०; अंतक्रिया पद वीशमुं हुं०,
अवगाहना एकवीशरे हुं०॥ श्री०॥ ११॥क्रिया पद बावीशमुं हुं०, त्रेवीशमुं लहो कमरे ९०; कर्महै धक चोवीशमुं हुं०, सुणतां दिए शिव शर्मरे हुं० ॥ श्री० ॥१२॥ कर्मवेदक पचवीशमुं हुं०, वेद ब
धक वली खासरे ९०; वेदवेदक सत्तावीशमु हुँ०, आहार पद सुविलासरे हुं० ॥ श्री० ॥१३॥ उपयोग
पासणया भलुं हुं०, संज्ञी संजम साररे हुं०; अवधि पद तेत्रीशमुं हुं०, प्रविचारणा मन धाररे हुँ। An श्री० ॥१४॥ वेदना पद पांत्रीशमुं हुं०, समुद्घात पद जाणिरे हुं०; अनुक्रमें छत्रीश पद भला हुँ,
सुणिए थिर मन आणिरे हुं०॥ श्री० ॥१५॥ एहमां त्रीजुं पद भलं हुं०, अल्प बहुत्व जस नामरे हुं०; तेहमांहि थकी उद्धर्यो हुं०, ए संबंध अभिरामरे १०॥ श्री०॥ १६॥ चरम जिनेश्वर गावतां हुं० संपूर्ण हुए होशरे हुं०; कीधो ए उद्यम रही ९०, राधनपूर चोमासरे हुं० ॥ श्री० ॥१७॥ अढार शत
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शांतिना- नव संवते हु०, आशो शुदि दिन बीजरे हुं०; ए सद्दहतां परिणमें हुं०, धर्मरंग अठमीजरे हुं॥ श्री थना..॥ १८ ॥ सत्यवचन भाषक सदा हुं०, कपूरसमी जश कीर्तिरे हुं०; क्षमा गुणे को जय जेणे ९०,
क्रोध सुभट सुविदित्तरे हुं०॥श्री० ॥ १९ ॥ श्री पद्मविजय गणि कहेणथी हुं०, कीधो ए अभ्यासरे हुं०; श्रीजिनराज पसायथी हुँ०, उत्तम लहे शिव वासरे ९० ॥श्री० ॥ २०॥ "इति श्री अल्प बहुत्व विचार गर्णित श्री महावीर जिन स्तवनम् सम्पूर्णम्"
“अथ श्री आलोयणानुं स्तवन" ढाल-॥१॥ पास संखेश्वरा सारकर सेवका ॥ ए देशी ॥ एधन्य शासन वीर जिनवर तणो, जास परसाद उपगार थाये घणो; सूत्र सिद्धांत गुरुमुख थकी सांभली, लहीय समकित अनें निरति लहीए वली ॥१॥ धर्मनो ध्यान धर तप जप खप करे, जिणथी जीव संसार सागर तरे; दोषलागें गुरु मुखे आलोइये, जीव निर्मल हुवे वस्त्र जिम धोइये ॥२॥ दोष लागे तिके चार प्रकारनां, धुरथकी नामने अर्थ ते धारणा; किणही कारण वशे पापजे कीजीये, प्रथम.ते नाम संकल्प कहीजीये ॥३॥
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कीजीये जेह कंदर्प प्रमुखे करी,दोष ते बीय परमाद संज्ञा धरी; कूदतां गरबनां होय हिंसा जिहां, दर्पइण नाम करि दोष तीजो तिहां ॥४॥ विणसता जीवने गिनर नकरे निको, चोथो आकुटिया दोष उपजें जिको; अनुक्रमे च्यारए अधिक एक एकथी, दोष धर प्रायचित्त लहे विवेकथी ॥५॥
. ढाल-॥२॥ अन्य दिवस कोइ मागध आयो ॥ ए देशी ॥ पाटी पोथी कवली नवकारवाली जोय, ज्ञाननां उपगरण तणी आशातन कीधी होय; जघन्यथी पुरिमढ एकासगुं-आंबिल उपवास, अनुक्रमे एह आलोयण सुगुरु बतावे तास ॥६॥एं जो खंडित थाये अथवा किहांइ गमाए, तोवलि | नवा कराया दोष सह मिट जाए; स्थापना अणपडि लेह्या पुरिमट्ठनो तप धार, पडता एकासण ते गमतां चोथ विचार ॥ ७॥ दर्शननां अतिचार तिहां पुरिमढ्ढ जघन्य, एकासण आंबिल अट्ठम चिहुँ भेदे मन्न; आशातन गुरु देवनी साहमीशुं अप्रीति, जघन्य एकासणथी आलोयण चढती रीति ॥८॥ अनंतकाय आरंभ विनाश्यां चोथ प्रसिद्ध, बि ति चउरिंद्री वसायां एकासणाथी वृद्ध; बहु बि चरिंद्रिय हण्यां बि ति चउ उपवास, संकल्पादि चिहुं विधि दुगुणा दुगुण प्रकाश. ॥ ९ ॥ उद्देही
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शांतिना नथा.
॥७२॥
कुलियावडा कीडी नगरा भंग, बहु तेजलोय मूक्यां दश उपवास प्रसंग; वमन विरेच उत्कृम पातन पंच क. आंबिल एक एक, जीवाणी दोलतां दोय उपवास विवेक ॥ १०॥ संकल्पादिक एक पंचेंद्री उपद्रव होय, होय त्रण आठ दशे उपवासे आलोअण जोय; बहु पंचेंद्री उपद्रव पट अठने दश वीश, चिहुं प्रकारे । चढती आलोयण सुण सीस ॥ ११ ॥ पंचेंद्री ते लकडी प्रमुख कीधप्रहार, एकासण आंबिल उपवासनें छह विचार; साधु समक्ष लोक समक्ष राज समक्ष, कूडा आल दीयां हुए चौषट्र चोथ प्रत्यक्ष ॥१२॥ उपवासदश दंडायां तेम मरायां वीस, एक लख एंसी सहस नवकार गुणो तजि रीस; पखी चौमास वरसलगे एक त्रिणं दश उपवास, अधिको क्रोध करे तो आलोयण नहिं तास ॥१३॥सूआवडनां दोष-| कीया वली थापणमोस, बोल्यावलि उत्सूत्र कीयां गुरु उपर रोष; करीय दुवालस बार हजार गुणो नवकार, मिच्छामि दुक्कडं देइआलोवो वारोवार ॥ १४ ॥ ढाल-॥३॥ करजोडी ताम ॥ ए देशी ॥ विण कीधांपच्चरक्खाण, विण दीधां वांदणा; पडि
॥७२॥ कमणां विध पांतरे ए; अणोज्ञाने असताय, तिहां अवधिए भण्यां; एक आंबिल आचरे ए ॥१५॥
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श. १३
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गंठसीने एकत्र; नीवी आंबिल; भांगे आलोयण इमे ए; एक पांच षट् आठ, नवकार वालीय; गुणे नवकार अनुक्रमे ए ॥ १६ ॥ उपवास भंग उपवास, आंबिल उपरांत; अधिको दंडवखाणिये ए; पांचम आठम आदि, भंग कीया वली; फिर ग्रहि पातक हणीये ए ॥१७॥ उषलि मूसली आग, चूलो घरंटी ए; दीधे अट्टम तप करे ए; मांगी सूइ दीघ, कातरणी छुरी; आंबिल चढतां आदरे ए ॥ १८ ॥ रात्री भोजन किधरे, तिम आरंभीया; जल तरणो खेलण जूओ ए; पाप तणो उपदेश, परद्रोह चींतव्या; उपवास एक एक जूजूओ ए ॥ १९ ॥ पन्नर कर्मादान, नीयम करी भंग; मद मांस मांखण भक्ष्या ए आलोयण उपवास, संकप्पादिक; चिहुं भेदे चढता सिख्याए ॥ २० ॥ बोल्या मृषावाद, अदत्ता | दानश्युं; जघन्य एकासण जाणीये ए; अति उत्कृष्टी एण, जाणि आलोयण; उपवास दश आणीये ए ॥२१॥
ढाल ॥ ४ ॥ गुण सनेहि मेरेलाल ॥ ए देशी ॥ चोथेनत भागे अतीचार, जघन्य छह आ. लोयण धार; मध्ये दश उपवास विचार, उत्कृष्टा गुण लख नवकार ॥ २२ ॥ परिग्रह विरमण दोष प्रसंग, तीन गुणत्रत मांहे भंग; च्यार शिक्षा व्रतने अत्तीचारे, आंबिल त्रण प्रत्येके धारे ॥ २३ ॥ शील
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पंच क. स्तवन,
शांतिना- तणी नववाडी कहाय, तिहांजे लागो दोष जणाय; त्रयने फरस हुआ अविवेके, एक आंबिल कीजे
थना. प्रत्येके ॥ २४ ॥ साधु अने श्रावक प्रसीध, एकेंद्री संघट्टे कीध; वीसरभोले सचित्त जल पीध. दंड | ॥७३ एकासण आंबिल दीध ॥ २५॥ विण धोया विणलुह्या पात्र, एकासण तिम पुरिमढ्ढ मात्र; गड महपत्ती Kआंबिल सार, तिमओघे अट्टम अवधारो ॥ २६ ॥ च्यार आगार छ छीडी राखे, व्रत पञ्चक्खाण करे।
षटसाखे, दोष, मिच्छादुक्कडं दाखे, आलोयण तेहने अभिलाषे ॥ २७॥ आलोयणानां अति विस्तार पूराकहेता नावे पारः तोपण संक्षेपे तस सार, निरमल मने करतां निस्तार ॥ २८ ॥ धन्य श्रीवीर जिणेसर खामि, जस आगम वचने विधी पामी; जीतकल्प ठाणांग आदि,वली परंपर गुरु सुप्रसाद ॥२९॥ | कलश-इम जेहधर्मी चित्त विरमी पाप सर्व आलोइनें, एकंत पूछे गुरु बतावे शक्ति वय तसजोपाइनें; विधि एह करशे तेह तरशे धर्मवंत तणे धुरं, ए स्तवन श्रीधर्मसीह कीधो चौपर्ने फलवृद्धि पुरे॥३०॥
"इति श्री आलोयण स्तवनम् सम्पूर्णम्”
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“अथ श्री षट पर्वी अधिकार गर्जित श्री वीरजिन स्तवनम्" दाला पुण्य प्रशंसीये॥ए देशी ॥श्रीगुरु पद पंकज नमी रे, भाखं पर्व विचार: आगम चरित्रने प्रकरणे रे, भाख्यो जेम प्रकारो रे भवियण सांभलो॥१॥ निद्रा विकथा टालिरे, मकी आमलो॥ ए आंकणी ॥ चरम जिणंद चोवीशमो रे, राजग्रही उद्यान; गौतम उद्देशी कहे रे, जिनपति श्री वर्द्धमान रे भवि०॥२॥ पखमां षट्र तिथी पालिये रे, आरंभादिक त्याग; मासमा षट। पर्वि तिथि रे, पोसह केरो लाग रे; भवि०॥३॥ दुविध धर्म आराधवा रे, बीज ते अति मनोहार पंचमी नाण आराधवां रे, अष्टमि कर्म क्षय कार रे; भवि०॥४॥ अग्यारस चौदशे तिथी रे, अंग पूर्वने रे काज; आराधी शुभ धर्माने रे, पाम्यो अविचल राज्य रे; भवि० ॥५॥ धनेश्वर प्रमुख यथा रे, पर्व आराध्यां रे एहा पाम्या अव्याबाध ने रे, निज गुण ऋद्धि वरेह रे; भवि०॥६॥ गौतम पूछे वीरने रे, कहो तेहनो अधिकार; सांभली पर्व आराधवा रे, आदर होय अपार रे; भवि०॥७॥
ढाल-बीजी ॥ एक वीसानी देशीमां ॥ धन्यपुरमा रे, शेठ धनेश्वर शुभमति, शुद्ध श्रावक रे,
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शांतिना
थना.
॥ ७४ ॥
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| पर्व तिथे पोसहस्रती; धनश्री तसरे, पत्नी नाम सोहामणो, धनसार सुत रे, तेहनो जन्म नकामणो ॥ १ ॥ त्रूटक — कामणो निज हित करण माटे, शेठजी आठिम दिने; लेइ पोसह शुन्य घरमां, रह्यां काउस्सग्ग स्थिर मनें; इणे अवसर सोहम इंदो, बेठो निज सुर पर्षदा; करे प्रशंसा शेठनी इम, सांभले सहु सुर तदा ॥ २ ॥ ढाल—जो चालवे रे, सुरपति जइने आपही, पण शेठजी रे पोसह मांहि चले नही; इम निसुणी रे, मिथ्यात्वी एक चिंतवे, हुं चला रे, जइने हरकोइ कौतके ॥ ३ ॥ टक–शेठना मित्रनुं रूप करीने कोटी सुवर्णनो ढग करी, कहे ल्यो ए शेठ तोपण, नवि चल्या जिम सुरगिरि; पछी पत्नीनुं रूप करीने, आलिंगादिक बहु करे; अनुकूल उपसर्गे तोहि शेठजी, ध्यान अधिकेरुं धरे ॥ ४ ॥ ढाल — करे बिहाणुं रे, ताप प्रमुख देखावतो, नारिने सुत रे, आवी इणीपरें भाषतो; पारो पोसह रे, अवसर तुमचो बहु थयो, तव शेठजी रे, चिंतवे काल केतो थयो ॥ ५॥ त्रूटक सनायनां अनुसार करीने, जाण्युं छे हजी रात ए, पोसह हमणां पारिए किम, नवि थयो प्रभात ए; तव पिशाचनुं रूप करीने, चामडी उताडतो; घात उच्छालन शिला स्फालन, सायर मांहि ना
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पंच क०
स्तवन.
॥ ७४ ॥
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खतो ॥ ६ ॥ ढाल ॥ इम प्रतिकूल रे, उपसर्गे पण नवि चल्या, प्राणांते रे, अष्टमी व्रतथी नवि चल्या; तव ते सूर रे, माग माग मुखे इम कहे, पण ध्यानमां रे, तेह वात पण नवि लहे ॥ ७ ॥
टक—तव तिणे रत्न अनेक कोटी, दृष्टि कीधी जाणिए, बहु जणा पर्व आराधवाने, सादरा गुण खाणीए; राजा पण ते देखी महिमा, शेठने माने घणुं; कहे धन्य धन्य शेठजी तुम, सफल जीवित हुं गणुं ॥ ८ ॥
ढाल - त्रीजी ॥ साहेलडीनी देशी ॥ तेह नगर मांहि वसे ॥ साहेलडी रे ॥ त्रण पुरुष गुणवंत तो; घांची हाली एक धोबी, साहे०, षट् पर्वी पालंत तो, ॥ १ ॥ साधर्मिक जाणी करी, सा०, शेठ करे बहु मानतो; पारणे असन वसन तथा सा०, द्रव्य तणुं बहु दान तो ॥ २ ॥ साधर्मिक सगपण वडु, सा०, ए सम अवर न कोय तो; शेठ संगे ते त्रण जणा; सा०, समकित दृष्टि होय तो ॥ ३ ॥ एक दिन चौदशनें दिनें, सा०, राये धोबीनें गेह तो; चीवर राय राणी तणा, सा०, मोकलीयां वर नेह तो ॥ ४ ॥ आजज़ धोइ आपज्यो, सा०, महोच्छव कौमुदी काल तो; रजक कहे सुणो माहरे
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शांतिना- सा०, कुटुंब सहित व्रत भालतो ॥ ५॥ धोवू नही चौदश दिने, सा०, तव नृप बोले जाणतोः पच क०
स्तवन. थना- नृप आणाए नियम श्यो, सा०, जेहथी जाये प्राण तो॥६॥ सजन शेठ पण इम कहे, सा०, एहमा हठ ॥ ७५॥ नवि ताण तो; राज कोप अप भ्राजना, सा०, धर्मतणी पण हाण तो ॥७॥ वली रायाभिओगेणं.
सा०, छे आगार पञ्चरकाण तो; तव धोबी चित्त चिंतवे, सा०, दृढता विणुं धर्म हाणि तो ॥८॥ धोवं नहि माम्यु तिणे, सा०, राये सुणी तेह वात तो; कुटुंब सहित निग्रह करूं, सा०, कालेजो हुं नृप साच तो ॥९॥ दैव जोगे ते रातमां, सा०, शूल व्यथा नृप थाय तो; हा हा कार नगर थयु, सार, इम दिन त्रण वही जाय तो ॥ १०॥ पडवे दिन धोइ करी, सा०, आप्यां वस्त्र ते राय तो; व्रत निर्वाह सुखे थयो, सा०, धर्म तणे सुपसाय तो ॥ ११ ॥ | ढाल-चोथी॥ भरत नृप भावश्यु ए॥एदेशी॥ नरपति चौदशने दिने ष, पाणी वाहन आदेशः
जादः ॥ ७५॥ करे तेली प्रत्येए, रजक परे ते अशेष; व्रत नियम पालिए एएआंकणी॥१॥भूपति कोपे कल कल्यो हए, इण अक्सर परचक्र; आव्युं देश भांजवाए, महा-दुर दांत ते वक्र ०॥२॥ नृप षण सन्मुख
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नीकल्यो ए, युद्ध करणनें काज विकल चित्तथी थयो ए, इम रही तेलीनी लाज; ० ॥ ३ ॥ हालीने आठिम दिने ए, दीधुं मुहूर्त्त तत्काल; तिणे पण इम कयुं ए, खेडीश हल हुं कालः ॥४॥ कोप भराणो भूपती ए; इणे अवसर तिहां देव; वरसण लाग्यो घणुं ए, खेडि न थाये हेव; ० ॥५॥ त्रणे अखंड व्रत पालता ए, पुण्य अतुलथी तेह; मरीने खर्गे गया ए, छट्टे देवलोके जेह; ० ॥ ६ ॥ चौद सागरने आउखे ए, उपन्या ते तत्खेव; हवे शेठ उपन्या ए, बारमें देवलोके देव; त्र० ॥ ७ ॥ मैत्री थइ ते च्यारने ए, श्रेष्टि सुरने ताम; कहे त्रण देवता ए, प्रतिबोघजो अम्हखामि न० ॥ ८ ॥ ते पण अंगी करे तदा ए, अनुक्रमे चविआ तेह; उपन्या भिन्न देशमां ए, नरपति कुलमां तेह; त्र० ॥ ९ ॥ धीर वीर हीर नामथी ए, देशधणी वडराय; थया व्रत दृढथकी ए, बहु नृप प्रणमे पायः व्र० ॥१०॥ ढाल — पांचमी ॥ देशी ॥ सूरति महीनानी ॥ धीरपुरें एक शेठने, पर्व दिने व्यवहार; करतां लाभ होये घणो, शेठने अचरिज कार; अन्य दिने हाणी पण, होये पुन्य प्रमाण, एक दिन पूछे ज्ञानिने, पूर्व भव मंडाण ॥ १ ॥ ज्ञानी कहे सुण परभव, निर्धन पण व्रत राग; आराधीने पर्व तिथी,
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शांतिना- आरंभनो त्याग; अन्य दिने तुमे कीधो, सहेजे पण व्रत भंग; तिणे ए कर्म बंधाणुं, सांभल तुं ए-पंच का
थना. |कंत ॥ २ ॥ सांभली ते सह कुटुंब स्यु, पाले बत निरमाय; बीज प्रमुख आराधे, सविशेषे सुखदायः स्तवन॥ ७६॥
|ग्राहक पण बहुआवे अर्थे, थावे लाभ अपार; विश्वासी बहु लोकथी, थयो कोटि शिरदार ॥ ३ ॥ निज कुल शोषक वाणिओ, जाणि आजगत प्रसिद्ध; तिणे जइ रायने वाणिये, इणी परे चुगली कीध; इणे कोटि निधि लाधो, ते स्वामिनो होय; नरपति पूछे शेठने, वात कहो सहु कोय ॥४॥ शेठ कहे सुणो नरपति, माहरे छे पच्चक्खाण; स्थूल मृषावाद ने वली, स्थूल अदत्ता दान; गुरु पासे व्रत आदर्यु, ते पालुं निरमाय; पिशुन वणिक कहे स्वामि ए, धर्म धूतारो थाय ॥ ५॥ तस वचने करी तेहना, द्रव्य तणो अप्पहार; करीने भूपति राखे, पुत्र सहित निज द्वार ॥राजद्वारे रह्यो चिंतवे, आजमें लयं कष्ट; पण आज पंचमी तिथी तिणे, लाभ होय कोइ लष्ट॥ ६॥ प्रातः समे नृपति देखे, खाली है| निज भंडार; शेठघरे मणी रत्न सुवर्ण, भाँ श्री श्रीकार; आवी वधामणी रायने ते, ते बेडंनी सम-IM॥ ७६ ॥
काल; शेठ तेडी कहे नरपति, वात सुणो इण ताल ॥७॥
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ढाल-छठी ॥ हरणी जव चरे ललना ॥ ए देशी ॥ भूपति चमक्यो चित्तमां ललना, ललहो देखी ए अवदात;॥ व्रत इम पालीए ललना; ॥ ए आंकणी॥ खेद लही खामे घणुं ललना०, ललहो । प्रश्न पूछे सुख शात; व्रत०॥१॥ कहो शेठ ए किम नीपन्यु ललना०, ललहो तुज घर धन किमा जायः व्रत शेठ कहे जाणुं नही ललना०, ललहो किणीपरे ए मुज थाय; व्रतः॥२॥ पण मुज पर्वने दहाडले ललना०, ललहो० लाभ अचिंत्यो थाय; व्रत पर्वदिने व्रत पालीओ ललना०, ललहो; ते पुण्यनो महिमाय; व्रत० ॥३॥ पर्व महिमा इम सांभली ललना०, ललहो; भूपतिने तत्काल; व्रत जातिस्मरण उपन्यु ललना; ललहो निज भव दीठो रसाल; व्रत०॥४॥धोबीनो भव सांभों ललना०, ललहो. पाल्यु जे व्रतसार; व्रत०; जावजीव नृप आदरे ललना०; ललहो० षट्पर्वी व्रतधार; बत० ॥ ५॥ आवी वधामणी तिणे समे ललना०, ललहो० स्वामी भराणा भंडार;व्रत विस्मित राय थयो तदा ललना०, ललहो. हियडे हर्ष अपार; व्रत०॥६॥
ढाल-सातमी ॥ साहेबजी श्री विमलाचल भेटीये हो; ॥ ए देशी ॥ साहेबजी शेठ अमर
ॐ4545ॐॐॐॐॐॐ
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शांतिनाथना.
॥ ७७ ॥
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प्रगट थयो हो लाल, भाखे रायने इम; साहे; तुं नवि मुजने ओलखें हो लाल, हुं आव्यो तुज प्रेम; | साहे०; ॥ पर्व तिथी इम पालिये हो लाल ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ श्रेष्ठि सुर हुं जाणज्ये हो लाल, तुज प्रतिबोधन आज; साहे०; शेठ सान्निध्य करवा बली हो लाल०, कीधुं में सवि काज; साहे० ॥ पर्व ॥२॥ धर्म उद्यम करजे सदा हो लाल०, जाउंछु सुण वात; साहे०; तैलिक हालीक रायने हो लाल, प्रति| बोधन अवदात; साहे० ॥ पर्व ॥३॥ तिहां जइ पूर्व भवतणां हो लाल, रुप देखावे तास; साहे०; देखीने ते पामीआ हो लाल० जातिस्मरण खास; साहे० || पर्व ||४|| तेह बिहुं श्रावक थयां हो लाल, पाले नित्य षटू पर्व साहे०; त्रणे ते नर रायने लाल०, साह्य करे ते सुपर्व; साहे० ॥ पर्व ॥५॥ निज निज | देशेनि वारता हो लाल०, मारि व्यसन सवि जेह; साहे०; चैत्य करावे तेहवां हो लाल०, प्रतिमा भरावे तेह; साहे० ॥ पर्व ॥६॥ संघ चलावे सामटा हो लाल०, साहमीवच्छल भलि भात; साहे०; पर्व दिने नित्य नयरमां हो लाल०, पडह अमारि विख्यात; साहे० ॥ पर्व ॥ ७॥ पर्व तिथि सहु पालता होलाल०, राजा प्रजा बहु धर्म; साहे०; इति उपद्रव सहु टले होलाल०, नही निज परचक्र भर्म; साहे० ॥ पर्व ॥८॥
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पंच क०
स्तवन.
॥ ७७ ॥
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धर्मथी सुर सान्निध्य करे होलाल०, धर्म पाली राज्य; साहे०; कोई सद्गुरु संजोगथी हो लाल, थयां त्रणे ऋषिराज; साहे० ॥ पर्व ॥९॥ ___ ढाल-आठमी ॥ टुंक अने टोडा विचेरे ॥ सदगुरु वयण सुधारस्येरे ॥ ए देशी ॥त्रणे नरपति जाए आदर्यो रे, चोखो चारित्र भार; संयम रंग लागो; तप तपता अति आकरा रे, पाले निरति चारः
संयम०॥ए आंकणी॥१॥ध्यान बलेथी क्षय कर्यां रे, घनघाती जे च्यार; संयम; केवलज्ञान लही करी रे, विचरे महीयल सार; संयम० ॥२॥श्रेष्ठिसुर महिमा करे रे, ठाम ठाममनोहार; संयम०; देशना देता केवलिजी, भाखे निज अधिकार; संयम; ॥३॥ पर्व तिथी आराधिए रे, भवियण भाव उल्लास; संयम; इम महिमा विस्तारीने रे, पाम्या शिव पुर वास; संयमः॥ ४ ॥ बारमा देवलोकथी चवीरे, श्रेष्ठिसुर थया राय; संयम महिमा पर्वनो सांभली रे, जाति स्मरण थाय; संयम॥५॥ संयम ग्रही, केवल लही रे, पाम्या अविचल ठाम; संयम; अव्यावाध सुखी थयां रे, केवल चिद् आराम; संयम, ॥६॥
ढाल-नवमी ॥ राग-धन्याश्री, ॥ गिरुआ रे गुण तुम तणां ॥ ए देशी ॥ उजमणां ए तप
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शांतिना- थना. ॥७८॥
तणां, करो तिथि परिमाण उपगरणां रे; रत्न त्रयी साधन तणां, भवि भव सायर निस्तरणां रे; क० उजमणां ए तप तणा ॥ए आंकणी ॥१॥ जो पण सह दिन साधवा, तो पण तेहनी अणशक्ते रे; पर्व
स्तवन. तिथि आराधिने, तुमे उजमज्यो बहु भक्तेरे; उजमणा०॥२॥ श्राद्धविधि वर ग्रंथमां, भलो भाख्यो ए । अवदातो रे; भगवतीने महानिशीथमां, कह्यो तिथि अधिकार विख्यातो रे; उजमणा० ॥३॥ तप गच्छ । गगनां गण रवि,श्रीविजयसिंह गणधारो रे अंतेवासी तेहनां,श्रीसत्यविजय सुखकारो रे; उजमणा०॥४॥ कारविजय वर तेहनां, वर खिमा विजय पन्यासो रे; जिनविजय जगमां जयो, शिष्य उत्तमविजय ते खासो रे; उजमणा० ॥५॥ तस पद चरण भमर समो, रही साणंद चोमासुं रे; अढार त्रीशसंवच्छरे, शुदि तेरस फालगुण मासे रे; उजमणा०॥६॥ पद्मविजय भक्ति करी,श्रीविजय धर्मसरि राज्ये रे: वर्द्धमान जिन गाइआ, श्री अमीझरा प्रभु साहये रे; उजमणा० ॥७॥
31॥७८॥ कलश-पर्व तिथि आराधो, सुकृत साधो, लाधो भव सफलो करो; संवेग संगी, तत्व रंगी,
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शां. १४
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उत्तमविजय गुणाकरो; तस शीष्य नामे सुगुण कामे, पद्मविजये आदर्यो; शुभ एह आदर, भवि | सुहागर; नाम षटू पर्वी धर्यो ॥ ८ ॥
"इतिश्री षट् पर्वी अधिकार गर्जित श्रीवीर जिन स्तवनम् सम्पूर्णम्” "अथ श्री दशविध पच्चख्खाण स्तवनम् ”
दुहा- सिद्धारथ नंदन नमुं, महावीर भगवंत; त्रिगडे बेठां जिनवरुं, परषदा बार मिलंत ॥ १ ॥ गणधर गौतम तिण समें, पूछे श्रीजिनराय; दश पञ्चख्खाण किसां कह्यां, कीयां कवण फल थाय ॥ २ ॥
ढाल १ ली ॥ सीमंधर करजो मया ॥ ए देशी ॥ श्री जिनवर इम उपदिशे, सांभलि गौतम स्वामिरे; दश पञ्चख्खाण कीयां थकां, लहीयें अविचल ठामरे ॥ श्री जिनवर ॥ ए आंकणी ॥ ३ ॥ नैवकारशी, बीजी पोरिसी, साढ पोरिसी, पुरिमढरे; ऐकासण निवी केही, एकलठाण दिवर्द्धरे ॥ श्री जिनवर ॥ ४ ॥ दाति आंबिल उपवासहि, एहज दश पञ्चख्खाणारे; एहनां फल सुण गौतमा, जूजूआ करूंअ वखाणरे || श्री जिनवर ॥ ५ ॥ रत्न प्रभा शर्करा प्रभा, वालूक श्रीजीय जांणरे;
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पंक प्रभा धुम्र प्रभा, तम प्रभ तम तम ठांमरे ॥ श्री जिनवर ॥ ६ ॥ नरक साते एहिज सही, कर्म कठिन करे जोररे; जीव कर्म वश करे जुदा, उपजे तिण हियठोर रे ॥ श्री जिनवर ॥ ७ ॥ ॥ ७९ ॥ छेदन भेदन ताडना, भूख तृषा वली त्रास रे; रोम रोम पीडा करे, परमा धाम्मि तासरे ॥ श्री
जिनवर ॥ ८ ॥ रात्रि दिवस क्षेत्र वेदना, तिलभर नवीतिहां सुख रे; कीयां कर्म तिहां भोगवें, पामें जिव बहु दुःखरे ॥ श्री जिनवर ॥ ९ ॥ इक दिन रे नवकारशि, जे करे भावथी शुद्धरे; सो वर्ष नरकनुं आउखुं, दूर करे ज्ञानी बुद्धिरे ॥ श्री जिनवर ॥ १० ॥ नित्य करे नवकारशी, ते नर नरकें नवी जायरे; न रहे पापवली पाछलां, निर्मल होवे तस काय रे ॥ श्री जिनवर ॥ ११ ॥
ढाल २– जी ॥ श्री विमलाचल शिर तिलो ॥ ए देशी ॥ सूण गौतम पोरसी कीयां, महा महोढुं फल होयरे; भावशुं जो पोरिसी करे, दूर्गति छेदे सोयरे ॥ सुण० ॥ ए आंकणी ॥ १२ ॥ नरक मांहे जीव नारकी, वर्ष एकेक हजाररे; कर्म खपावे नरकमें, करता बहुत पूकाररे | ॥ सू० ॥ १३ ॥ एक दिवसनी पोरसी, जीव करे एक वाररे; कर्म हणे सहस एकनां,
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पंच क० स्तवन.
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RIEREKA TERA
निश्चे ते गणधाररे ॥ सूण ॥ १४ ॥ दुर्गति मांहे नारकी, दश हजार प्रमाणरे; नरकनोग आयु क्षण एकमे, साढपोरिसी करे हाणिरे ॥ सूण०॥ १५॥ पूरिमट्ठ करतां जीवडा, नरके ते नहीजाय रे; लाख वर्ष कर्म निकंदे, पूरिमट्ठ करता खपायरे ॥ सूण ॥ १६ ॥ लाख वर्ष दस नारकी, पामे दुःख अनंतरे; तेटलां कर्म एकासगुं, दूर करे मन खंतरे ॥ सूण॥ १७॥ एक कोडि वर्षा लगे, कर्म खपावे जीवरे; नीवी करतां भावश्युं, दुर्गति हणे सदैवरे ॥ सूण० ॥ १८ ॥ दश | कोडि जीव नरकमें, जेटलो करे कर्म दूररे; तेटलो एकल ठाणेकरी, करे सहि चक चूररे॥सूण०॥१९॥
दाति करतां प्राणीयां, सोकोडि प्रमाणरे; एटलां वर्ष दुर्गति तणां, छेदे चतुर सूजाणरे ॥ सूण है॥२०॥ आंबिलनो फल वह कह्यो, कोडि दश हजार रे; कर्म खपावे एणि परे, भावे आंबिल
अधिकाररे ॥ सूण ॥ २१ ॥ कोडि हजार दश वर्ष सही, दुःख सहे नरक मोझाररे; उपवास करे इक भावश्यु, पामे मुक्ति द्वाररे ॥ सूण० ॥ २२ ॥
ढाल ३-॥जी॥ केइक वर मांगे सिता भणी चोपें ॥ ए देशी ॥ लाख कोडि वर्षा लगे,
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शांतिना
थना.
रे;
नरके करतां बहु रीवरे; ए छठ तप करतां थकां सही नरक निवारे जीव रे ॥ सूण गौतम गणधराः ॥ ए आंकणी ॥ २३ ॥ नरके विषे कोडि दसलाख सही, जीव लहे तिहां अति 'दुःख ते दुःख अट्ठम तप हुंते, दूर करे पामे सूख रे ॥ सूण० ॥ २४ ॥ छेदन भेदन नारकी, कोडा ॥ ८० ॥ - कोडि वर्षो रे; कुगति कर्म ने परिहरे, दशम एतो फल होय रे ॥ सूण ॥ २५ ॥ नित्य फासू
जल पीवतां, कोडाकोडि वरसनां पाप रे; दूर करे क्षण एकमें, जीव निरमल होय निरधार रे ॥ सूण० ॥ २६ ॥ ए तो वलिय विशेषें फल को, पंचमि करतां उपवास रे; ते तो पामे ज्ञान पांचे भलां, करतां त्रिभुवन उजाश रे ॥ सूण ॥ २७ ॥ चौदश तप विधिशुं करे, चौदह पूर्वि होय धार रे; इग्यारस एकादशी, करतां लहीए शीव सार रे ॥ सूण० ॥ २८ ॥ अष्टमि तप आराधतां, जीव न फरे इण संसाररे; इम अनेक फल तप तणां, कहेतां वली नावे पार रे ॥ सूण० | ॥ २९ ॥ मन वचनें काया ए करी, तप करे जे नरनार रे; अनंत भवना रे पापथी, छुटे तेह निरधार रे ॥ सूण० ॥ ३० ॥ तप हुंती पापी तर्या, निस्तरीया अर्जुन मालि रे; तप हुंती एक दिन
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पंच क० स्तवन.
॥ ८० ॥
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एकमे, शिव पाम्यो गजसुकुमाल रे ॥ सूण ॥ ३१॥ तपनां फल सूत्रे कह्यां, पच्चख्खाण तणां दश भेदरे; अवर भेद पण छे घणां, करतां छेदे तीन वेद रे॥ सूण ॥ ३२॥
कलश-पञ्चख्खाण दशविध फल प्ररुप्या महावीर जिन देव ए, जे करे भवियण तप अखंडित तास सुरपति सेवए; संवत् विधु गुण अश्व शशि वली पौष शुदि दशमी दिने, पद्म रंग वाचक शीश गणी रामचंद्र तप विधि भणे ॥ ३३॥
"इति श्री दशविध पच्चरुखाणस्तवनम् समाप्तमिति"
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___ “अथ श्री उपधान विधि स्तवनम्" A ढाल?-पहेली ॥ सारद बुध दाइ ॥ ए देशी ॥ श्री वीर जिणेश्वर, सुपरि दिए उपदेश; सुणे
बार परषदा, नही प्रमाद प्रवेश ॥ १॥ सूणजो रे श्रावक, जो वहिए उपधान; नवकार गण्यां | तो, सुझे सुगुण निधान ॥२॥
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टक-पडिकमणुं किया तो सुझे, जो वहिए उपधान; इम जाणि उपधान वहो तुमे, श्रावक
पंच कर थना. थइ सावधान ॥३॥
स्तवन. ॥८१॥ | ढाल–पूर्वली ॥ नवकार तणो तप पहिलं अढारीउं होय, इरियावहि नो तप बीजं अढारी
जोय; ए बिहु उपधाने दिन अढार अढार, उपवास एक एक तप होय साढाबार ॥४॥त्रूटकः-साढा बार उपवास ते कीजे, गुरु मुखे पोसह लीजे; चोथ एकांतर एक एकासगुं, पाप पडल सवि खीजे॥५॥ | ढाल-पूर्वली ॥ ए बिहं उपधाने मांडी नंदी मंडाण, पुजा प्रभावना ओच्छव करो सुजाणः । |क्रिया सवी शुद्धि साधुनी रहेणी-ए रहिए, देहरे देव वांदो सुमति गुप्ति निरवहिए ॥६॥ | त्रूटक-सुमति गुप्ति सुपरि आराधो, चैत्य वंदन न विसारो; दोय-सहस नवकार गणिने, ||
पोरिसी भणी संथारो ॥७॥ ढाल-पूर्वली ॥ पांचे उपवासे पहिली वायणा जोय, तप पुरे बीजी || गुरु मुखे वायणा होय; अॅठो जो छांडे तो तस दहाडो वाधे, तिम मुहपत्ति पडि जो शोधतांदा" ०९॥
नवि लाधे ॥८॥टक-तिम अकाल असझाय वमनज, दहाडो लेखे नावे; जीव घात विकथा
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हिंसादिक, तो आलोयण आवे ॥ ९ ॥ ढाल - पूर्वली ॥ अरिहंत चेइयाणं चोकिउं तप उपधान, | उपवासने आंबिल च्यार दिवसनुं मान; उपवास अढी जब तप संपूर्ण थाय, वायणा तव लीजें पामी सुगुरु पसाय ॥ १० ॥ नूटक-सुगुरु पसाले छकीउं वहीए, सात दिवस परिमाण; बे उपवासे पुखर वरदी, अढीए सिद्धाणं बुद्धाणं ॥ ११ ॥
ढाल - बीजी ॥ राग सोरठी ॥ उधारणदेशी ॥ काजसिधासकलहवेसार ॥ एदेशी ॥ भाइ हवे माल पहेरावो, साहमी साहमिणि नोतरावो; भला भोजन भक्ते करावो, रुपानी रकेबी घडावो ॥ १२ ॥ माहिं मेवा मीठाइ भरीए, हीरागल कमखो धरीए; चतुराइ चाल मचूको, माहिं रुपानाणुं मुको ॥ १३ ॥ चार पहोर देवरावो भास, गाए गंधर्व गुणरास; साहमी साहमिणि ने द्यो तंबोल, एम रात्रि जगो रंग रोल ॥ २४ ॥ एणिपरे माल जगावो, वाजा निसाण मंगावो; पंच सब्दा ढोल सरणाइ, सांबेला सबल सजाइ ॥ १५ ॥ कुंयर सिर खुप भरिजे, इंद्राणिने शणगारीजे; जिनशासन सोह चढावो, जगे बोधि बीज इम वावो ॥ १६ ॥ गयवर सीरे ठवीए माल,
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पंचक० स्तवन
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शांतिना-मार्गे दिओ दान रसाल; एणिपरे संघ साजन साथे, माल आणी दिओ गुरू हाथे ॥ १७ ॥ गुरुथना. राय ठवे तिहां वास, श्रावक मन अति उल्लास; जेणे माला कंठ ठवीजे, मणीमय भूषण तस
दीसे ॥१८॥ अंग पूजा प्रभावना कीजे, व्रत धारी पहिरावीजे; पाठा पुस्तक रुमाल, गुरु भक्ति करी सुविशाल ॥ १९ ॥ हवे शक्रस्तव उपधान, पांत्रीश दीवस तस मान; उपवास ते साढा ओगणीश, वायणा त्रण अतिहि जगीश ॥ २० ॥ हवे अठावीशुं जेह, उपधान लोगस्सनुं तेह; साढा पन्नर उपवास, वायणा त्रण लील विलास ॥ २१॥ एणिपरे छ ए उपधान, श्रावय श्राविका शुभधान; वही.सफल करो अवतार, संसार तणो लहीपार ॥ २२ ॥ कलश-श्री वीरजिन उपधान | विधिएम, भविक जीव हिते हेते कहि; महानिशिथ सिद्धांत माहें, सुलभ बोधि सदहे ॥ २३ ॥ आराधीए उपधान वहिने, च्यार भेदे धर्मए; दान शील तप भाव भक्ते, पामीए शीव शर्मए ॥२४॥ अघट्ट घाट शरीर होये, घाट माहें आवे घणो; खमासमण मुहपति शर्व क्रिया, जाणे विधि श्रावक तणो ॥ २५॥ उपधाननां गुण कहुं केतां, कहेता न आवे पार ए; होय सफल श्रावक,
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||८२॥
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तणी क्रिया, उपधाने निरधार ए ॥ २६ ॥ तप गच्छ नायक सुमति दायक, श्री विजय प्रभ सूरीश ए: पुण्य प्रभाव अधिक दिन दिन, जगत माहि जगीश ए ॥ २७ ॥ श्री कीर्ति विजय उवझाय सेवक, विनय इणी परे विनवे; देवाधिदेवा धर्म एहवो, मुज दीयो भवे भवे ॥ २८ ॥
"इति श्री उपधान विधि स्तवनम् सम्पूर्णम्"
“अथ श्री समवसरण, स्तवन्" पिउजी पिउजी नाम जपुं दिन रातियां ॥ ए राग ॥ जायव कुल सिणगार, सिरि नेमीसर पाय नमी; समवसरण विचार, कहुं संखेवे गुरु भणीअ ॥१॥ तिथंकर रहे नाण, उप्पन्ने सवि इंद तिहिं; आवे अति बहुमाण, निअ निअ कम्म करंति विहें ॥२॥ पहेलो वायु कुमार, जोयण || लगे भूमी सारवे ए; टाले कयवर वार, पावरेणु निअ हारवे ए॥३॥ पछे मेहकुमार, कुंकुम कपूरोदकेही; बुठिकरिअ लह धार, रय उवस करंति तिहिं ॥४॥ आवी अग्निकुमार, धुप उगाहण
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पंच क० ला स्तवन.
शांतिनातिहां करे ए; वाणवंतर देविंद, पीठरयण मणिमय रचे ए॥५॥ पीठ उवरि पंच वन्न, जानु
थना. प्रमाण कुसुम भरेए; उंधे बीट रचंत, वाण मंतर सुर सुरभितरो ॥६॥ ॥८३॥
| वस्तु-इंदभुइ इंदभुइ चढिय बहुमान ॥ए राग॥नमीअ सुर नर २ नेमी जिन पाय पणमेविअ. भत्तिभर समवसरण लवलेश; पभणओ रिद्धि अनंती जिणह तणी, तेसघली किम कहिअ जाणे नाण उपन्ने; जिणवरह आवे चउसठि इंद समवसरण, ते करे इसिओ तिहुअण हुए आनंद ॥७॥ ठवणी-जन्मजरामरणेकरीए॥ ए राग ॥ तो भवणाहिव देवमिली, रुपातणो पायार तो; कोसीसां सोवन्नमय, करे सुवृत्ता कारतो॥ ८॥ चंद सूर गह पमुह सुर, जोसिअभत्ति भरेण तो; कंचणमया पायार रचे, रयण कोसीसा श्रेणी तो ॥ ९॥ गढ त्रीजो तो रयण मये, करे आवी अति तुंगतो; |वेमाणीअ सुररायवर, मणी कोसीसां चंगतो ॥ १०॥ उंधी गढनी भीत सवी, धणुसय पंच प्रमाणतो; विच्छर पुण तेतीस धण, दुतीसंगुल वली जाणतो ॥ ११ ॥ गढ गढ अंतर समि अत्तुए, तेरसे घणुअ मोझार तो पहोलि कने पंचास घणु, तो सोपानक हारतो ॥ १२॥ पावडीयारा
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॥८३॥
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सहस दश, हुए पहेले पायारतो; बीजे त्रीजे सहस तेम, पंच पंच विचारतो ॥ १३ ॥ पावडीआरा हाथ भुई, उंचां तिम विस्तार तो; पंचवन्न तिहां रयण तणा, झलके चिहुं दिशि बारतो ॥ १४ ॥ वीस सहस होए पावडीआ, मेलिय त्रिहुं प्राकारतो; भूमि थकी उंचो अढीगाउ, उंचो ते पायार तो ॥ १५ ॥ त्रिण त्रिण तोरण चिहुं दिसी ए, नील रयणमयनुं मुगततो; मणिमय थंभे पूतलीए, दीशे करति रंग तो ॥ १६ ॥
वस्तु — भवणवासी भवणवासी पमुह देविंद, भत्तिभर भरि अहिअ सयल लोय अच्छरीय कारण; उज्जोयंता गयण तल, भवीअ जीव भव दुःख वारण; रुप्प सुवन्नह रयणमय तिनि रचे पायरे; नाना वीह कोसीस तिहां सोहे सुवृत्ताकार ॥ १७ ॥ ठवणी - त्रीजे गढे वण रचे पीठ, पिहुं धणुसय दुन्नितो; उंच जिण तणु माणि तथ्य, आसण इग तिन्नि चिहुंतो; आसण विचे देव छंद, तिहां रुख अशोकतो; कुंपल फल दल तणी, किसी बोलो रोकतो ॥ १८ ॥ चिहुं दिसि झलके छत्त तिन्नि, चामर सुर ढालेतो; कोतिगमो हिया लोक लक्ष, जिण रिद्धि निहालेतो; देव वणयर त्रिहुं दिशि ठवे,
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शांतिना. थना.
॥ ८४ ॥
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तव जिणवर पडि रूवतो; पूजे प्रणमि थुणे, देव उगाहे ध्रुवतो ॥ १९ ॥ बेसीअ आसण पुव तणे, पहु करे वखाण तो; देव मणुअ तिर्यंच सवे, बुझे जिणवयणतो; जोयण पमाण जिणंद वाणि, अति हरी । गाजेतो; तिहुअण जण संदेह राशि, तत्क्षण सवि भांजेतो ॥ २० ॥ मुणि पुठे विमाण देवि, तोमाहासे जाणितो; पहेली परषद् रहे तिन्नि, ए अग्नि कुणेणतो; जोसिअ भवणा वयणे राण, ए त्रिहुंनी देवीतो; नैरुत्य कूणे रहे, तिन्नि एजिण पणमेवीतो ॥ २१ ॥ जोसीअ भवणाधीश देव, तो व्रणयर देवातो; वायुकूण चिठंति सहि, करतां जिण सेवतो; वेमाणी सुर मणुय नारि, बहुभत्ति तुरंगतो; कुणरहे इसाण सामि, | मुह कमल जोअंततो ॥ २२ ॥ बार पर्षद सुणे, धम्म इणे कम्मे रहियतो; बांधा वइरने भूख तृषा, तिहांकेने नहिंयतो; वाजिंत्र कोडाकोडि गयणि, अणवाए वाजेतो; चार द्वजा तिहां सहस जोयण, उंचि अतिराजेतो ॥ २३ ॥ पोणि पोरिसी लगे देशना ए, जिनवर दिए सारतो; एक आढोवर सालिराय, | दिव्य गंध उदारतो; पूर्व बारे भत्तिजूत्त, आणे जिण खेव मेलीतो; देसणा मनोहर ए, जिण तिहुअण ||देवतो ॥२४॥ वधावे जिनराज काज, भवियण इम तारेतो; अणपडती इंद्रादि अद्ध, लेइ गुण संभारेतो;
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पंच क० स्तवन.
॥ ८४ ॥
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अद्धताण उजे सालिअद्ध, राजादिक लिजेतो; अवर अद्ध कण एक एक, सवि कढे दीजेतो ॥२५॥ षट्मासी तिणे रोग सोग, संकट सवि भाजेतो; दारिद्र दुःख विजोग जाए, महिमा जग गाजेतो; ए आचार करू पछी ए, जिन मेहले पधारेतो; तिहुअण जीव जिणंद, एम आपो तारेतो; ॥२६॥ जिण विसामा तणे हेते, मणिमय गढ बाहेरतो; देवछंदो सुरकरे कूणे, इसाण पमुअ भरेतो; जिण जिण निय करमाणि जाणि, ए सयल पमाणंतो; सोहे चिहुं दिशि धम्म चक्का, तेजि जियभाणतो ॥ २७॥ - वस्तु-पीठ मणिमय पीठ मणीमय, करे वणरायः चिहुं आसण सहिअ तरु, देवछंद मणि रयण
घडिओ; भामंडल छत्तजूअ; चर्मरइंद धय रयण जडीओ; जिणवर धम्मो वएस सुणे, अनुक्रमे प्रनषदा बार; वयर भाव भय टले, सवि कहे हर्ष अपार ॥ २८ ॥ भाषा-ठावेए पढम पायारे, वाह
णसी करि पालखी; बीजी ए गढ तिर्यंच, जलयर थलयर सवि पंखीअ; त्रीजे ए देव मनुष्य, रहीय सुणे जिणवर वयण, आवे ए अधिक्षण माहि, बारह जोयण भवि जाण ॥ २९ ॥ साहणी ए चउविह देवि, उद्धठिआ जिण देसणाए; सांभली ए मन उलासे; होय नहि पुण जंतणा ए; आठे ए प्राति
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शांतिनाथना.
॥ ८५ ॥
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हारज, होय निरंतर रातिदिह; बीजी ए अतिशय रिद्धि; कहुं केसी परि एक जीह ॥ ३० ॥ जाणीए जिणह समीवि, सेव करं तिहुअण सिरीअ; वाटले ए समवसरणे, चार वाव हुइ जल भरीअ; विदिशिए दो दो वाव, चउ खुणे तिहां होय निपुण; आगे ए जेणे ठामे, हवउ नहीं समवसरण | ॥३१॥ अहकिम ए अहिनव देव, कोइ आवे मह इंदि वर; तोकरे ए तीणेठामे, ए सहुए नियमेण सुर; पोलिआ ए, कणय मचकंद, कुंकुअ कज्जल सरिस पुण; सोहम ए वण भवणिंद, जोइसिया चिठंति पुण ॥ ३२ ॥ कणग मयना पट पडिहार, देवी जिन गुण रंजिया ए; नित्यरहे ए विजया देवि, जया | जिता अपराजिआ ए; तुंबरु ए देव षटुंग, पुरिस नांम अथि माल सुरं, रुप्यमय ए गढ च्यार, पडि - हारुं करे सट्ट धर ॥ ३३ ॥ धन्य धन्य ए ते नरनारि, सफल जन्म तेह जाणीए ए; लोअणु ए तसु सुकयह, वाणी तास वखाणीए ए; नित्य नित्य ए नयणा णंद, दायगजे पहु पणमसिए; देखशे ए ए रिसि रिद्ध रंगे जिण गुण गायसे ए ॥ ३४ ॥ उत्तम ए ते सविखंड देसगाम आग़र नयर जिणवरु ए; जिणे ठामे करे विहार उवयार पर, हरखीओ ए चित्त अपार; दुःख भांगिडं मुज तणु ए, बुठो
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पंच क०
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॥ ८५ ॥
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कल्याकनुं
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ए अमिय मय मेह, आल उपरि मह अतिघणुं ए ॥ ३५ ॥ वणिओ ए जय जिण नाह, समोसरणठि | अलग वर; श्रीगुरु ए सोम सुंदर सूरि, गुणे गोयम अवर; नित्य नित्य ए इसो विचार; भविअण | जिण आगल कहेए; सेवेए जेह गुरुपाय, रिद्धि अणंती ते लहेए ॥ ३६ ॥ " इति श्री समवसरण स्तवनम् समाप्त मिति"
"अथ श्री कल्याणकनुं स्तवन"
॥ दुहा ॥ सकल समीहित पूरवा, साची सुरतरु वेलि; पातिक पंक पखालवा, वर धाराधर रेलि ॥ १ ॥ भविराजी राजी रवि, सुर प्रति कृति गुण ज्ञान; जयकारी जिन मंडली, मन समरुं एक ध्यान ॥ २ ॥ श्री श्रुतदेवि दीपिका, दीपे प्रबल प्रकाश; मुजमन मंदिर रही करो, जाड्य तिमिर | भर नाश ॥ ३ ॥ चउवीसे जिनवर तणां, कल्याणक दिन नाम; भावधरी भणशुं भविक, सुख स्मरणनुं ठाम ॥ ४ ॥ आगा में पुनिम मासमें, मेली गणन अभ्यास; लोकरीति लेज्यो इहां, अमा वासि ए मास ॥ ५ ॥
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कल्याणकर्नु
॥८६॥
ढाल१-पहेली-इणिपरे राज्य करत रे ॥ ए देशी ॥धुरि कार्तिक शुदि त्रीज, सुविधि जिनेसः । स्तवन. केवल उजवल पामीया ए॥ ६॥ बारसें अरजिन नाण, कार्तिक वदी वली पंचमिरे; सुविधि जन्म हओ ए॥७॥ छठे नवम जिन दीक्षा, वीर दशमें दीक्षा; सिद्धि इग्यारसें जिन छट्ठा ए ॥८॥ मृगशीर्ष शुदि अभिराम, दशमि दिवस जिहां; अरजिन जन्म मुक्ति हुआ ए॥९॥ इग्यारसे मल्लीनाथ, जन्मज व्रत नाण; नमी केवल अरबत वली ए॥१०॥ चउदसें संभव देव, जन्म वखाणि ए; संभव व्रत पुनिम दिन ए ॥११॥ मृगशिर वदि जिनपास, दशमि दिवसे जण्या; इग्यारसें, दीक्षा लही ए ॥१२॥ बारसे शशीजिन जन्म, चारित्र तेरसे; चउदशे शीतल केवली ए॥१३॥ | ढालर-बीजी ॥ राग देशाख ॥ मल्हार ॥ आव्योआव्यो रे॥ए देशी॥पोसशुदि छठेरे केवल नाण विमल तणुं, नवमि दिनरे शांतिनाथ केवल भणुं; अग्यारसेरे अजितनाथ केवल भलं, अभि-gnen नंदनरे चउदशे केवल निर्मलं ॥ १४ ॥ त्रूटक-निर्मल केवलनाण पूनिम दिने धर्मजिने लद्यु, पोस वदि छठे छट्ठा जिनने च्यवन भविमन गहगहो; बारसे शीतल जन्म दीक्षा रुषभ तेरसें शीवगया,
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कल्या- श्रयासाजनपति
श्रेयांसजिनपति केवलीवर अमावास्या दिनथयां ॥ १५॥ ढालपूर्वली-महाशुदि तीथे रे बीजे णकर्नु IPअभिनंदन जण्या, वली वासुपूज्य रे केवल नाणी तिम गण्यां; तिथि त्रीजेरे विमल धर्म जन्मीआ.
दिन चोथेरे विमलनाथ संयम लीया ॥ १६ ॥ त्रूटक-वली आठमे अजित जनम्या, नवमि दीक्षा अति भली, दीक्षा संवर नंद बारसे धर्म तेरसे तिमवली; सुणो महा वदि छठे जिणेसर सातमा नाणी वली, सिद्ध सातमे सातमा जिन आठमा जिन केवली ॥ १७ ॥ ढाल पूर्वली-तीर्थकर रे |नवमि नवमा अवतां अग्यारसेरे आदिदेव केवल वर्या; जाया बारसेरे श्रेयांस मनि सव्रत केवली. तेरस तीथेरे श्रेयांस दीक्षां निर्मली ॥ १८॥ त्रुटक-निर्मली चउदशे बारमा जिन जन्म जगजन
जय कयों, वासुपूज्य नंदन देव दिक्षा अमावास्या वासरो; हवे फागण शुदे वखाणुं बीजे अर अवकतार ए, मल्ली जिनवर च्यवन चोथे दीओ भविक भव पार ए ॥ १९ ॥ ढालपूर्वली-श्री संभवरे
आठम च्यवन दिवस कह्यो, मल्ली सीद्धारे बारसे मुनि सुव्रत बतलह्यो; फागण वदिरे चोथे जिनपति पासनां, कल्याणकरे च्यवन नाण बिहुं आसनां ॥२०॥ त्रूटक-आसना पंचमी चंद्रप्रभजिन
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कल्याणकनु
८७॥
च्यवन भूतल भयहरु, नृपनाभि नंदन जन्म चारित्र दिवस आठम सुखकरूं; चैत्र शुदि तिथि त्रिज केवलनाण कुंथु अलंकर्या, अजित संभव जिन अनंतज पंचमी दिन शिववर्या ॥ २१ ॥ ढालपूर्वली-नवमि सीद्धारे सुमति इग्यारसे केवली, तेरस दिनरे वीर जन्म पुहत्ती रली; पुनम दिनेरे जिन छठां नाणीथयां, चैत्रवदिरे पडवे कुंथु मुक्तिगया ॥ २२ ॥ त्रूटक-गया शीतल मुक्ति बीजे कुंथुव्रत तिथि पंचमी, जिनराय शीतल च्यवन छठे दशमी सिद्धा जिन नमी; तेरसे जन्म अनंत जिननो जंतु कीधां निर्मलां, चउदशे देव अनंत दिक्षा नाण कुंथु जण्या भला ॥ २३ ॥ __ढाल३-त्रीजी ॥ राग केदारो ॥ गोडी ॥ पारधियारे मुज तें वनवाटि देखाडि ॥ ए देशी॥ आदरीयारे जिन कल्याण दिन सार ॥ ए आंकणी ॥ जेहथी लहीए भवनो पार, भजो भावे वारोवार; करो तप जप अतिही उदार, प्रभु पूजो लेइ घनसार ॥ आ० ॥ २४ ॥ वैशाख शुदि चोथे | चव्या रे, अभिनंदन जिन हंस; सातमे धर्म च्यवी थयारे, त्रिभुवन जन अवतंस ॥ आ०॥२५॥ आठमे शीव अभिनंदननुरे, सुमति जण्या जग धीर; नवमि सुमति संयम धर्योरे, दशमे केवल
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कल्या
कनुं
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वीर ॥ आ० ॥ २६ ॥ बारसे विमल च्यवन कह्योरे, तेरसे अजित जिणंद वैशाख वदि छट्ठे अवतर्यारे, श्रेयांस जिन सुखकंद || आ० ॥ २७ ॥ आठमे मुनीसुव्रत जण्या' नवमि सोप्रभु सीद्ध शांति जन्म शीव तेरसेरे, चउदशे चारित्र लीध, ॥ आ० ॥ २८ ॥
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ढाल ४ - चोथी ॥ राग परजीओ ॥ अभंगो तुहाणगोलो ॥ ए देशी ॥ मम लेखण मात्र मनथी, मैत्र परे जे दुःख हरे; च्यवन आदि दिवस जीननां, पंच परगट सुख करे ॥ मम० ॥ ए आंकणी ॥ | ॥ २९ ॥ ज्येष्ठ शुदि पंचमी दिवसे, धर्म जिन शिवपद वरे; बारमा जिन चवी नवमि, जया उदरे अवतरे ॥ मम० ॥ ३० ॥ बारसे जन्म्य जिन सुपासो, तेरसे ते व्रत भजे; जेठ वदि जिन ऋषभ चोथे, नाभि नृप घरे उपजे ॥ मम० ॥ ३१ ॥ सातमे जिन विमल सिद्धा, नवमे नमिजिन व्रतधरे; आषाढ । शुदि छट्ठे वीर जिनपति, सीद्धारथ कुल अवतरे ॥ मम० ॥ ३२ ॥ सकल टाली कर्म आठम, नेमीजिन शिवसुख लहे; चउदसे जिन जया नंदन, महानंद रमावहे ॥ मंम० ॥ ३३ ॥
ढाल ५ - पांचमी ॥ राग मालवी गोडी ॥ कहो भविक निःकारण सार ॥
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ए देशी | आराधो ए
स्तवन.
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स्तवन
कल्याणकनुं
८८॥
PRAHARAMSANCHAR
दिन भविलोगा, जग जेहना छे दुर्लभ जोगा; टाले आधि व्याधि सवि सोगा, दिए भव भव | मम वांछित भोगा ॥ आरा० ॥ ए आंकणी ॥ ३४ ॥ आषाढ वदि त्रीज वखाणुं, तिहां श्रेयांस मुक्ति मन आएं; सातमे च्यवन अनंत जिणंदा, आठमें नमि जनम्या जगचंदा ॥ आरा०॥ ३५॥ नवमि चव्या कुंथु जगदीश, श्रावण शुदि बीजे सुमति अवतारी; पंचमी नेमि जन्म जयकारी, छठे दीक्षा तजी राजुलनारि ॥ आरा० ॥ ३६ ॥ आठमे पास मुक्ति मन धारो, पुनिमे मुनिसुव्रत च्यवन चितारो; श्रावण वदि सातम तिथि सारी, शशिजिन सिद्ध शांति अवतारी ॥ आरा० ॥ ३७॥ आठमे सत्तम |जिनगामि, पृथिवीनयरे उपन्या स्वामि; भाद्रवा शुदि नवमे जिनराया, सीद्धा सुविधि धवल जसकाया ॥ आरा० ॥ ३८॥ भाद्रवा वदि नेमिसर नाणि, अमावास्या तिम ऊज्ज्वल जाणी; आशो शुदि पुनिम अवतरीया, एकवीशमा जीन गुणमणी भरीया ॥ आरा० ॥ ३९॥ ढाल-६ छट्ठी ॥ राग धन्याश्री ॥ हीचरे हीचरे हीच हीच हीडोलना ॥ ए देशी ॥पूज्यरे पूज्यरे
॥८८॥
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कल्याणकर्नु
स्तवन.
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पूज्यतुं प्रेमकरी, पंचदिन जिनतणां मुक्तिदायी; इंद्र चंद्रादि देवामिली हरखशुं, जास महिमा करे सुगुण गाइ ॥ पूज्यरे० २॥ ए आंकणी ॥४०॥ मास आशो वदि पंचमी केवली, देव संभव भुवन भाव जाणे; बारसे पद्मप्रभु जन्म जग दुःखहरु, नेमीजिन च्यवन चित्त चतुरआणे॥पूज्यरे २॥४१॥ तेरसे पद्मप्रभ चारीत्र आदरे, वीर अमावास्या दीन शीव वखाणे; भरतने ऐरवत काल त्रि तणा, शाश्वता मास तिथि एह जाणो॥ पूज्यरे २॥४२॥च्यवन दीन वीर परमेष्ठिने तेम गणो, जन्म | अर अर्हते तेम विचारो; संभवनाथाय तिम व्रत दिवसे, अर सर्वज्ञाय नमः नाण धारो॥पूज्यरे २ ॥४३॥5 वीर पाङ्गगताय तेम गणो शिव दिवस, एहपद सर्व जिन नाम साथे; गणो कल्याणक दिवसे पद सहस्स बे, तप करी होय मुक्ति जिम हाथे ॥ पूज्यरे २॥ ४४ ॥ चंद्र रस ऋतु गगन वर्ष कल्याणक, स्तवन कीधं भविक भणत भावे: कीर्ति कोटि कल्याणक सख संपदा, सिद्धि सौभाग्य मिली वेग आवे॥पूज्यरे २॥४५॥ कलश-तप गच्छ अधिपतिनामित नरपति रूपे रति पति सुंदरा, श्री विजयसेन
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श्रीसंवत्सरी
॥ ८९ ॥
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सूरिंद सुविहित मुगट गुणमणी आगरा; उवझाय श्री नय वीजय सीस्ये धुणिया सयल जिनेश्वरा, दिओमुज महोदय वास विद्या विजय संपद सुखकरा ॥ ४६ ॥
" इति श्री नय विजयजी शीष्य न्याय विशाद यशो विजयो पाध्याय रचित् कल्याणक स्तवनम् ”
"अथ श्री संवत्सरी दाननुं स्तवन"
॥ ढाल — ठरे जिहां समकित ते स्थानक, तेहनां षड्विध कहीये रे ॥ ए देशी ॥ श्री वरदायनां चरण नमीने, वली प्रणमि गुरू पायारे; सयल तिर्थंकर दानज देवे, ते कहुं हर्ष सवायारे ॥ श्री० ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ सुणजो दान संवच्छरी महिमा, जेहथि समकित लहीये रे; त्रीजगने वश करवा ए दान, मोटो मंत्राक्षर कहीयेरे ॥ श्री ॥ २ ॥ देव लोकांतिक तिर्थंकरने, कयजवणि समे आवीरे; तव तिर्थंकर दानज समये, वर्षी पडहो वजडावेरे ॥ श्री० ॥ ३ ॥ जे जिन ते निजतात सहित सुल, नामनी मुद्रा करावेरे; ते एक मुंद्राये सीरतिनी, माने कोस भरावेरे ॥ श्री ॥ ४ ॥ एक
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दाननुं
स्तवन.
॥ ८९ ॥
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दानस्तवन.
श्रीसंव
कोडि आठलाख सोवन मुंद्रा, नीत्यप्रत्ये ते दीये दानरे; एक पहोरपछी बे पहोरसुधि, भविजन आवी त्सरी लेवेरे ॥ श्री ॥ ५॥ ते एक दिन दीनारानुं सोवन, नवहजार मण थायरे; जेनीज वारानां सकट
वखाण्या, ते सवाबसो शकट भरायरे ॥ श्री ॥६॥त्रणसेकोडि अट्ठासी कोडिते, उपर एंषि लाख भणियेरे; एटला दिनारा वर्षी दाने, देजिन सूत्रमा सूणीयेरे ॥ श्री॥ ७ ॥ लाख बत्रीश मण
सहस ब्यालीसमण, होय कनकना एतारे; सहस एकाशि शकट भराये, एक वर्षमा देतारे ॥ श्री An८॥ एतोमुंद्रा कनकमणी गड्यां, तेह निशिथे वखाणीरे; पण हवे वीधी कहुं दान देवानी, सु
जो आगल प्राणिरे ॥ श्री ॥९॥ दानशाला जिन तात करावे, सौजीन दान आचरवा रे; तिहांबेसि प्रभु धन अपावे, संयम नारी वरवारे ॥ श्री ॥ १०॥ पहेली शालाये अन्न जमाडे, बीजीये वस्त्र |पहेरावेरे; त्रीजीये भूषण चोथीये टंका, देजन जने स्वभावेरे ॥श्री ॥ ११॥ एणे अवसर जिन जमणे पासे, रहे इंद्र सोहम वासीरे; कौसथी मुद्रा काढीदेवा, तेभणी रहे उल्लासी रे ॥ श्री ॥१॥ वलीजे मनुष्यना भाग्यमां लखीयु, इशान इंद्र इमधारीरे; तेहना मुख माहेथी ते तेहवाण, वयणठी
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श्रीसंवत्सरी
दानस्तवन.
ना देनारे ॥ श्री॥१३॥ चर्मइंद्र जीन मुठीना देनारा, एलेवे जो अधीका होयरे; उछाहोय तो| पुराकरे बलेंद्र, सामानी प्राप्ति जोइ रे ॥ श्री० ॥ १४ ॥जिन आगल रहे उभो इशानेंद्र, रत्न जडीत लेइ लखुटीरे; देवअसुर कोइ विघ्न करतो, काढे तेह कुटीरे ॥ श्री ॥ १५॥ भुवनपति सुर भरतना जनने, दानलेवा तेडी आवे रे; व्यंतरनांसुर पाछाते जनने, नीज नीज मंदीर ठावेरे ॥ श्री १६ ॥ ज्योतिष्य सुरमली वीद्याधरने, दानलेवाने ते जणावेरे; एवा अतिशय तीर्थंकरना, कहेतां पारन आवेरे ॥ श्री ॥ १७ ॥ चोसठ इंद्रादीक जिन आगल, लीजिये दान उच्छाहेरे; बारवर्ष लगे कलहो न आवे, तेहने पण मांहो महेिरे ॥ श्री ॥ १८॥ चक्रिहर नृप दानना टका, मुके ते नीज कोस उलटे रे; बारवर्ष लगे ते कोस टंका, काढतां किमही न खुटेरे ॥ श्री ॥ १९ ॥ इत्यादीक ते दान थकीजस, एकवर्ष जस गवायरे; वलि दानथी बार वर्षनां, रोगीनां रोग ते जाय रे ॥ श्री ॥२०॥ |वलीतस तनुए रोग न प्रगटे, बार संवत्सर सुधीरे; मंद बुद्धिकोइ दानज लेवे, तेहोवे ते सुरगुरु बुद्धिरे ॥ श्री ॥ २१ ॥ एवा पंचदश अतीशय प्रभुना, वर्षीदाने प्रगटे रे; इम दानदेइ प्रभु संयमलेइ, उप
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॥९०॥
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श्रीसंवत्सरी
शां. १६
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| शम कर्मने जपटे रे; ॥ श्री ॥ २२ ॥ केवललेइ शीवरमणी वशकरी, त्रीजग नायक उलसेरे; दान प्रभावे त्रिगडे बेसी, केवल कमला वासे रे ॥ श्री ॥ २३ ॥ दान देवानी विधी ए भाखी, सयल तीर्थंकर केरी रे; वीयसार जे ग्रंथ मोझारे, जो जो ए शीक्षा भलेरीरे ॥ श्री ॥ २४ ॥ एणीपेरे भवीया तमेपण निसुणी, देजो दान अभंगा रे; आभव परभव सुख अनंता, उलटे ज्यां गंग तरंगारे ॥ श्री ॥ २५ ॥ एवी दान शक्ति मुज सदा, भव भव उदयेते आवेरे; पंडित केसर अमरनो किंकर, लब्धी वंछीत पावेरे ॥ श्री ॥ २६ ॥
" इति श्री पंडित केसरअमर शिष्य लब्धी विजय विरचित श्री संवत्सरीदान स्तवनम् सम्पूर्णम्”
"अथ श्री आदीश्वर भगवाननां तेर भवनुं स्तवनम्"
दुहा - पुरिसा दाणी पासजिन, बहुगुणमणी आगार, ऋद्धि वृद्धि मंगल करण, प्रणमुं मन
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दाननुं
स्तवन.
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श्रीआदीश्वर
॥९१॥
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उल्लास ॥१॥ सरस्वति स्वामिने विनQ, कविजन केरी माय; सरस वाणी मुजने दियो, मोटो| स्तवन. करिय पसाय ॥२॥ लब्धीविजय गुरु समरिये, अहनिश हर्ष धरेव; ज्ञानद्रष्टि जेहथी लही, पद पंकज प्रणमेव ॥३॥ प्रथम जिनेश्वर जे हुआ, मुनीवर प्रथम वखाण; केवलधर पहेलां कह्या, प्रथम भिक्षा चर जाण ॥४॥ पहेलो दाता ए कह्यो, आ चोविशिमोझार; तेहनां तेरभव वर्णq, आणि हर्ष अपार ॥५॥ ___ ढाल-१-पहेली॥धन्य धन्य संप्रति साचोराजा॥ए देशी॥ राग आशाउरी॥पहेले भवे धनसारर्थ वाहे, समकीत पाम्यो साररे; आराधि बीजे भवे पाम्या, युगल तणो अवतार रे॥१॥सेवो समकित है साचं जाणि, ए सवि धर्मनी खाणीरे; नवी पामे जे अभव्य अनाणि, एहवी जिननी वाणीरे॥सेवो० ॥ ए आंकणी ॥ २॥ युगल चवि पहेले देवलोके, भव त्रीजे सूर थायरे; चोथेभवे विद्याधर कुले थयो, महाबल नामे रायरे ॥ सेवो०॥३॥ गुरुपासे दीक्षा पालीने, अणसण की, अंतरे; पांचमे || ॥९१॥ भवे बीजे देवलोके, ललीतांग सूर दीपंतरे ॥ सेवो॥४॥ देवचवी छठे भवे राजा, बनजंघ इणे नाम रे; तिहांथी सातमे भवे अवतरिओ, युगला धर्मश्युं ठामरे, ॥ सेवो०॥५॥पूर्ण आयु करी
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स्तवन.
दीवर
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आठमे भवे, सौधमें देवलोके देवरे, देवतणी ऋद्धि बहली पाम्या, देवतणा वली भोगरे ॥ सेवो
६॥ मुनी भव जीवानंद नवमे भवे, वैद थयो चवी देवरे; साधूनी वैयावच्च करी दीक्षा, लेइजपाले स्वय मेवरे ॥ सेवो० ॥७॥वैद जीव दशमे भवे स्वर्गे, बारमें सूर होय रे; तिहांकणे आयु में
भोगवी पूरुं, बावीश सागर जोयरे ॥ सेवो० ॥८॥ इग्यारमें भवे देव चवीने, चक्रीहुओ वज्रनाभरे; दीक्षा लेइ वीश स्थानक साधी, लीधो जिनपद लाभरे ॥ सेवो० ॥९॥ चौद लाख पूर्वनी दीक्षा, पाली निर्मल भावेरे; सर्वार्थ सीद्धे अवतरीआ, बारमे भवे आयरे ॥ सेवो० ॥ १०॥ तेत्रीश सागर आयु प्रमाणे,सुख भोगवे तीहां देवरे; तेरसमा भव केरो हवे हुँ, चरित्त कहुं संक्षेपेरे ॥सेवो०॥११॥ | ढाल-२ बीजी॥वाडी फूली अतिभली मन भमरा रे ॥ ए देशी ॥जंबुद्वीप सोहामणुं मनमोहना, लाख जोजन प्रमाण लाल मन मोहना; दक्षिण भरत भलं तिहां मन मोहना, अनोपम धर्मनुं ठाण लाल मन मोहना ॥१॥नयरी विनीता मांहि जाणीए मनमोहना०, स्वर्गपूरी अवतार लाल० नाभीराया कुलगर तीहां मन०, मरुदेवी तस नारिलाल०॥२॥ प्रितिभक्ति पाले सदा मन०, पीउशुं प्रेम
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श्रीआदीश्वर
९२॥
SASRANSLAK
अपार लाल सुख विलसे संसारनां मन०, सुरपेरे स्त्री भरतार लाल०॥३॥ एक दिन सूती मालिये|| स्तवन. मन०, मरुदेवी सुपवित्त लाल०; चोथ अंधारिआषाढनी मन०, उत्तराषाढा नक्षत्र लाल.॥४॥तेत्रीश सागर आउखे मन०; भोगवी अनोपम सुख लाल०; सर्वार्थ सिद्धथी चवी मन०, सूर अवतरिओ कुख है। लाल०॥५॥चउद सुपन दिठां तीसे मन०, राणीए मझिम रात लाल; जइकहे नीज कंतने मन०,शुपनतणी सावि वात लाल०॥६॥ कंत कहे निज नारीने मन०, शुपन अर्थ सुविचार लाल; कुलदिपक त्रीभूवन धणि मन०, पुत्र होशे सुखकार लाल० ॥७॥शुपन अर्थ पीउंथी सुणि मन०, मन हरख्यां मरुदेव लाल०; सुखे करे प्रति पालना मन०, गर्भतणी नित्य मेव ॥ लाल०॥८॥नव मासवाडा उपरे मन०, |दिन हआ साढासात लाल चैत्रवदि आठिम दिने मन०, उत्तराषाढा विख्यात लाल०॥९॥ मझिम रयणी ने समे मन०, जनम्यो पुत्र रतन्न लाल; जन्म महोच्छव तवकरे मन०, दिशी कुमरि छप्पन्न लाल०॥ १०॥
ढाल-३-त्रीजी ॥ हमचडीनी देशी॥आसन कंप्यु इंद्रतणुंरे,अवधिज्ञाने जाणि; जिननो जन्म
5%545ॐॐॐकर
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Acham Ka B
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श्रीआदीश्वर
महोच्छव करवा, आवे इंद्र इंद्राणीरे हमचडि ॥ १॥ सुर परिवारे परिवों रे, मेंरु शीखरे लेइ जाय;
स्तवन प्रभुने नमण करीने पूजी, प्रणमी बहु गुण गायरे हमचडि ॥२॥ आणी माता पासे महेली, सुर सुरलोके पहोता; दिन दिन वाघे चंद्र तणीपेरे, देखी हरखे मातारे हमचडि ॥ ३॥ वृषभतणुं लंछन| प्रभु चरणे, माता पिता देखे; सुपनमांहि वली वृषभज पहेलो, दीठो उज्ज्वल वगैरे हमचडि ॥ ४॥ तेहथी माता पिताए दीg, ऋषभ कुमार गुणगेह; पांचसे धनुष्य प्रमाणे उंचि, सोवन वर्णी देहरे हमचडि० ॥ ५॥ वीश पूर्व लाख कुंवर पणेरे, रहीया प्रभु गृहवासे; सुमंगला सुनंदा कुंवरी, परण्या है| दोय उल्लासेरे हमचडि०॥६॥ त्रीशलाख पूर्व गृहवासे, वसीया ऋषभ जिणंद; भरतादिक सुत शत हुआ रे, पुत्रीदोय सुख कंदरे हमचडि० ॥ ७॥ तव लोकांतीक सुर आवीने रे, कहे प्रभु तीर्थ । स्थापो; दान संवच्छरि देइ दीक्षा, समय जाणि प्रभु आपेरे हमचडि०॥८॥ दिक्षा महोच्छव करवा आवे, सपरिवार सूरिंदो; शीविका नामे सुदर्शना रे, आगल ठवे नरिंदोरे हमचडि० ॥९॥
ढाल-४चोथी॥राग-मारु॥ए देशी।चैत्रवदि आठम दिने रे,उत्तराषाढारे चंदशिबिकाए बेसी
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स्तवन
श्रीआ- गया रे, सीद्धार्थ वन चंदोरे ॥ ऋषभ संयम लीए ॥ ए आंकणि ॥१॥ अशोक तरुतले आवीने रे, दीश्वर |चउ मुट्ठी लोच कीध; चार सहस वड राजवी रे, साथे चारित्र लीधरे ऋषभ० ॥२॥ त्यांथी वि
चाँ जिनपति रे, साधु तणो परिवार; घर घर फरतां गोचरी रे, महीअल करे विहार रे ॥ ऋषभ० ॥३॥ फरतां तप करतां थकां रे, वर्ष दिवस हुआ जाम; गजपुर नयर पधारीया रे, दिठां श्रेयांसे 8 ताम रे॥ ऋषभ०॥ ४॥ वर्षि पार' जिनजीए रे, शेलडी रस तिहां कीध; श्रेयांसे दान देइने रे, परभव शंबल लिध रे ॥ ऋषभ०॥ ५॥ सहस वर्ष लगे तप तपि रे, कर्म कर्यां चकचुर; पुरीमताल पुर आविने रे, विचरंता बहुगुण पूरो रे ॥ ऋषभ०॥ ६॥ फागण वदि इग्यारसे रे, उत्तरा| पाढा जोगे; अट्ठम तप वड हेठले रे, पाम्या केवल नाण रे॥ ऋषभ०॥७॥ | ढाल-५पांचमी ॥ कपुर होवे अति उजलो रे ॥ ए देशी ॥ समवसरण देवे मली रे, रचिउं अतिहि उदार; सिंहासन बेसी करि रे, दिए देशना जिन सार ॥ चतुरनर कीजे धर्म सदाय, जिमतुम शिवसुख थाय ॥ चतुरनर० ॥ ए आंकणी ॥ १॥ बारे पर्षदा आगले रे,
सरकार
॥९
॥
स
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Shaha
na Kendre
Acharya Si Kag
uya mandi
श्रीआ- दीश्वर
स्तवन.
कहे धर्म च्यार प्रकार; अमृतसम देशना सूणि रे, प्रतिबोध्या नरनार ॥ चतुरनर० ॥२॥ भरत तणा सुत पांचसे रे, पुत्री सातसें जाण; दीक्षालीये जिनजी कने रे, वैराग्ये मनआण ॥ चतुरनर०॥३॥पुंडरीक प्रमुख थयारे, चौराशि गणधार; सहस चोराशि तिम वली रे, साधु तणो परिवार ॥ चतुरनर०॥४॥ ब्राह्मी प्रमुख वली साहुणी रे, त्रणलाख सुविचार; पांच सहस त्रणलाख भला रे, श्रावक समकित धार ॥चतुरनर०॥५॥ चोपन सहस पंचलाख कही रे, श्रावीका शुद्ध आचार; इम चतुर्वीध संघ स्थापीने रे, ऋषभ करे विहार ॥ चतुरनर०॥६॥चारीत्र एक लाख पूर्वमुंरे, पाल्युं ऋषभ जिणंद; धर्मतणां उपदेशथी रे, तार्या भविजन वृंद॥चतुरनर०॥७॥ मोक्ष समय जाणी करि रे, अष्टापदगिरि आवे; साधु सहसदशशुं तिहां रे, अणसण कीधुंभावे॥ चतुरनर०॥८॥माहावदि तेरशने दिने रे, अभिचि नक्षत्र चंद्र योग; मुक्ति पहोता ऋषभजी रे, अनंत सुख संजोग ॥ चतुरनर० ॥९॥ | ढाल-६छट्ठी ॥ राग-धन्याश्री ॥कडाखानि देशी॥ तुंजयो तुंजयो ऋषभ जिन तुंजयो, अलजयो हुँ तुम दर्श करवा; महेर करो घणी वीन, तुम भणी, अवर न कोई धणि जग उधरवा ॥
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स्तवन.
श्रीआ
तुंजयो २॥ ए आंकणी ॥१॥ जगमांहिं मेहने मोर जिम प्रीतडी, प्रीतडी जेहवी चंद चकोर: दीश्वर
प्रीतडि राम लक्ष्मण तणी जेहवी, रात दिन तिमन ध्याउं दर्शतोरा ॥तुंजयो २ ॥२॥ शितल सुरतरु
तणे छायडे, शियलो चंद चंदन घसारो; शीयलु केल कपूर जेम शीयलं, शीयलो तिम मुज मुख ॥९४॥
तुमारो ॥ तुजयो २ ॥३॥ मीठडो शेलडी रस जिम जाणीए, षट्रस दाक्षमीठी वखाणि; मीठडि आंबला शाखजीम तुम तणी, मिठडी मुजमन तिम तुम वाणी॥तुंजयो २ ॥४॥ तुमतणा गुणतणो पार हुं नवीलहं, एकजीभे केम ते कहीजे, तार मुजतार संसार सागर थकि; रंगश्युं शीवरमणी वरिजे ॥ तुजयो २ ॥ ५॥ __कलश-इम ऋषभ स्वामि मुक्तिगामी चरणनामी शीशए, मरुदेवी नंदन दुःख नीकंदन प्रथम दूजीन जगदीश ए; मनरंगआणी सुखखाणी गाइओ जग हितकरूं, कवीराज लब्धी नीजसु सेवक प्रेमविजय आनंद करो ॥१॥
"इति श्री आदिश्वर स्वामिना तेरभवनुं स्तवन सम्पूर्णः”
॥१४॥
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श्रीगोडीपार्श्व.
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"अथ श्री गोडी पार्श्वनाथजीनुं स्तवन"
दुहा - भावधरी भजना करूं, आपो अविचल मात; लघुताथी गुरुता करे, तुं शारद सरस्वत | ॥ १ ॥ मुज उपर मया धरो, देज्यो दोलत दान; गुणगाउं गोडी तणां, भावे भावे भगवान ॥ २ ॥ धवलधिंग गोडी घणी, सहुको आवे संग; महेमदावादे मोटको तारंगो नवरंग ॥ ३ ॥ प्रतिमा त्रणे पासनी, प्रगटी पाटण मांहि भक्ति करे जे भविजना, कुण ते कहेवाय ॥ ४ ॥ उत्पत्ति तेहनी उच्चरुं, शास्त्र भणी करि शाख; मांहि गुण मोटातणां भाखे कवीजन भाख ॥ ५ ॥
दाल - १ - १हेली ॥ नदियमुना के तीर उडे दोय पंखीयां ॥ ए देशी ॥ काशिदेश मोझार के नयरी वणारसी, एह समोवड कोयनहीं लंकाजसी; राज्यकरे तिहाराजके अश्वसेन नरपति, राणी वामानंदके तेहने दिनपति ॥ १ ॥ जन्म्या पासकुमार के तेणी राणीये, ओच्छव कीधो देवके इंद्र इंद्राणीये, यौवन परण्या प्रेमके कन्या प्रभावती, नीत्य नीत्य नव नवा वेश करीने देखावती ॥ २ ॥ दिक्षालेइ वनवास रह्या काउस्सग्ग जिहां, उपसर्ग करवा मेघमाली आव्यो तिहां; कष्टदेइ तेह गयो ते देवता,
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स्तवन.
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स्तवन.
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श्रीगोडीपार्श्व, ॥९
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पाम्या केवलज्ञान के आविनर सेवतां ॥३॥ वर्ष सोनुं आउखु भोगवी उपन्या, ज्योतमांहि मलिज्योति तिहांनही सुखमना; पाटण मांहि मूरत त्रणे पासनी, भरावी भोयरामांहि राखे केइ मासनी
४॥ एकदिन प्रतिमा तेह गोडिनी लेइकरी, पोताना आवास माहिं तरके धरी; खाड खणीने मांहि | घालि तरके जिहां, सूए नित्यप्रत्ये तेह शय्या वालि तिहां ॥५॥ एकदिन सुहणामांहि आवी यक्ष|इम कहे, तेणे अवसर ते तरक हीयामां सदृहे; नहिंतर मारिश मरडीश हवे हुँ तुजने, तेमाटे घर |माहेथी काढे मुजने ॥ ६॥ पारकर माहिथी मेघाशाह आवशे, ते तुज देशे टका पांचसे लावशे; देजे मूरत एहके काढी तेहने, मतकरजे कोइ आगल वात ए केहने ॥७॥ थाश्ये कोडीकल्याणके ताहरे आजथी, वाघश्ये पांचमांहि नामके लाजथी; मनसुंबीनो तरक थाए ते आकुलो, आगल जे थाशे वात ते भवीयण सांभलो ॥८॥
॥९५ ॥ | दुहा—मनशुं बीनो तरकडो, बडा भूतहे कोय; अबसताब प्रगट करे, नहितर मारशे सोय ॥१॥
ढाल-२-बीजी ॥ माहरा घणु रे सवाइ ढोला ॥ ए देशी ॥ लाख जोयण जंबु प्रमाण, तेहमां है।
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श्रीगोडी- भरतक्षेत्र प्रधान रे; माहरा सुगुण सनेही सुणज्यो॥ ए आंकणी ॥१॥पारकर देश ते रूडों, पार्श्व. जिमनारिने शोभे चुडो रे ॥ मा०॥२॥ शास्त्रमांहिं जिमगीता, तिम सतीओ मांहिं सीतारे ॥ मा;
वाजींत्र मांहिं जिम भेर, तिम पर्वत मांहिं जिम मोटो मेरुरे ॥ मा०॥३॥ देवमांहिं जिमइंद्र, ग्रहगणमाहिं जिम चंद्ररे ॥मा०; ॥ बत्रीशसहस तिहादेश, तेमां पारकरदेश विशेषरे ॥ मा०॥४॥ भूधेसर नामे नयरी, तिहां रहेतां नथी कोइ वैरी रे ॥ मा०; तिहांराज्य करे खेंगार, तेजात तणो परमाररे ॥ मा०॥ ५॥ तिहां वणीज करे वेपारी, अपछरा सरखी तसनारीरे ॥ मा०; मोटा मंदिर प्रधान, तीहां चौदसया बावनरे ॥ मा०॥६॥ तिहां काजलशा व्यवहारी, सहु संघमांछे अधी
कारीरे ॥ मा; तस पूत्र कलत्र परीवार, जस माने घणुं दरबाररे ॥ मा०॥७॥ ते काजलशानी है Pबहेन, सा मेघो कीधो जमाइ रे ॥ मा०; एकदीन सालो बनेवी, बेठां वातो करेछे एहवीरे ॥ मा० Filmc॥ इहांथी धनजइ लावो, वस्तु केइरे अणावारे ॥मा; गुजरातमाहे तुमे जाज्यो, जिमलाभ
आवे तो लेज्योरे ॥ मा०॥९॥
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पार्श्व.
श्रीगोडी- ढाल-३-त्रीजी ॥ पंचमी तप भणुंए, जन्म सफल करुंए॥ए देशी॥सा काजल कहेवात, मेघा
भणी दिनराति; सांभलि सदृहे ए, वलतुं इम कहे ए॥१॥ जाइश हुं प्रभाते, साथकरी गुज॥ ९६॥ कराते; शकुन भले सहि ए, केतो चालवू वही ए ॥ २॥ धनघणुं लेइ हाथ, परिवार करी साथ; कंकु
है तीलक कीओ ए, श्रीफल हाथे दीओ ए ॥३॥ लेइ उंट कतार, आव्यो चौटा मोझार; कन्या || सन्मुख मली ए, करती रंगरली ए॥४॥मालिण आवी जाम, छाब भरीने ताम; वधावे शेठजी| भणीए, आशीष आपे घणी ए ॥ ५॥ मच्छयुग्म मल्यो खास, वेद बोलतो व्यास; पत्र भरीयो| गणो ए, वृषभ हाथे धणीए॥६॥डावो बोल्यो सांढ, दधीनुं भरीउं भांड; खरडावोखरोए, लोककहे हीये धरो ए॥७॥ आगल आव्या जाम; मारग वुव्यां ताम; भैरव जमणी भली ए, देवडावी वली वली ए॥८॥ जमणी रुपारेल, तोरण बांधे तिणवेल; नीलकंठ तोरण कीओ ए, उलस्युं अति हियु ए ॥ ९॥ हनुमंत दीधीहाक, मधुरो बोले काग; लोक कहे सहु ए, काम होस्ये बहु ए॥१०॥ अनुक्रमे चाल्या जाय, आव्या पाटण मांहिं; उतारा भला किया ए, शेठजी आवीयाए॥११॥
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निशिभर सुतां ज्यांहि, यक्ष आवीने त्यांह; सुहणे इम कहेए, ते सघलुं सदहे ॥ १२ ॥ तरक तणुंछे धाम, तेहने घर जइताम; पांचसें रोकडा ए, तुं देजे दोकडा ए ॥१३॥ देशे प्रतिमा एक, पासतणी सुवीवेक; तेहथी तुज थाइये ए, चिंता दुर जास्ये ए ॥ १४ ॥ संभलावी यक्षराज, तरक भणी कहेसाज प्रतिमा तुं देज्ये ए, पांचसे धन लेजे ए ॥ १५ ॥ इम करता प्रभात, तरक भणी कहेवात; मनमांहि गह गहेए, अचरिज कुण लहे ॥ १६ ॥
• ढाल - ४ थी ॥ आसणरारे योगी ॥ ए देशी ॥ तरक भणी ये पांचसे दाम, प्रतिमा आणि नीज ठा मरे; पासजी मुने तुठा; ॥ ए आंकणी ॥ पूजे प्रतिमा हर्ष भराणो, भाव आणीने खरचे छे नाणोरे; पासजी० ॥ १ ॥ मुज वखते ए मूरति आवी, मुने आपस्यें दाम उपावीरे; पासजी० दाम देइने | पासजी लीधा, मनमान्या कारज कीधांरे; पासजी० ॥ २ ॥ रुनां भरीया उंट त्रेवीश, मांहि बेसाड्यां जगदीशरे; पासजी० अनुक्रमे चाल्या पाटण महिथी, साथै मूरति लइने त्यांथीरे; पासजी ० ॥ ३ ॥ आगल राधनपूरे सहु आव्यां, दाणलेवा दाणीमली आव्यांरे; पासजी० गणे उंटने भुले
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॥ ९७ ॥
हजुर
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लेखो, एक अधीकोने एक ओछो देखेरे; पासजी० ॥४॥ मली सहुदाणी वीचारे मनमां, एतो कौतुक दीसे छे इणमांरे; पासजी० मेघाशानें दाणी मली पुछे, कहो शेठजी ए कारण इयुंछेरे; पासजी० ॥ ५ ॥ साहमेघो कहे सांभलो दाणी, अमे मूरत गोडीनी आणीरे; पासजी० ते मूरत एक बरकी मांहि, किम जालवीए बीजे ठाणेरे; पासजी० ॥ ६ ॥ पार्श्वनाथ तणे सुपसाये, दाणी दाणमेली घरजायेरे; पासजी०; यात्रा करीने सहु घरे आवे, जिन पुजीनें आनंद पावेरे; पासजी० ॥ ७ ॥ तिहां थी आवे पारकरमांहि, भूधेसर नगर छे ज्यांहिरे; पासजी० वधामणी दीधी जेणे पुरुषे, थयो रली यायत घणुं हरखेरे; पासजी० ॥ ८ ॥
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ढाल - ५ मी ॥ राणकपूर रलीयामणो रे लाल ॥ ए देशी ॥ संघ आवीमले सामटा रे लाल, दरी | शण करवा काज भवीप्राणी; ढोल नगारा गड गडेरे लाल, नादे अंबर गाजे; भवीप्राणी० सुणज्यो ३ ॥ ९७ ॥ वात सोहामणी रे लाल, ॥ ए आंकणी ॥१॥ ओच्छव महोच्छव करी घणारे लाल, भेट्यां श्रीपार्श्वनाथ घणां रे लाल, हर्ष पाम्या सहुसाथ; भवी० ॥ सुणज्यो० ॥ २ ॥ २
भवी० पूजा प्रभावना करे
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श्रीगोडी- संवत् चौद बत्रीसमेरे लाल, कार्तिक शुदि बीज; भवी% थावरवारे स्थापियारे लाल, नरपति पाम्या स्तवन पार्श्व.
रीज; भवी०॥सुणज्यो०॥३॥ एक विनंती काजलशा कहेरे लाल०,मेघाशाने वात भवी; नाणुं अमारूं| लेइकरी रे लाल, गयाहुता गुजरात; भवी%; ॥सुणज्यो०॥४॥तेधन तुमे किहां वावर्यो रेलाल, तेयो लेखो आज; भवी०; तवमेघो कहे शेठजीरे लाल, खरच्यां धर्मने काज; भवी०॥सुणज्यो० ॥५॥
स्वामीजी माटे रुपीआरे लाल, पांचस्ये दीधा दाम; भवी; काजल कहे तुमे स्युंकयुरेलाल, ए पथर र केणेकाम; भवी०॥ सुणज्यो०॥६॥काजल भणीमधो कहेरे लाल, ए व्यापारमांहि नतुम भाग; भवी०8
ते पांचवें शीरमाहरे रे लाल; तेहमां नहीं तुमभाग; भवी०॥ सुणज्यो॥७॥मेघाशानी भार्यारेलाल, मृघादे छे नाम; भवी०; मइओने मेरो सारिखोरे लाल, बिहुसुत रविय सामान; भवी० ॥सूणज्यो० ॥८॥ ___ ढाल-६ ठी॥ कंत तमाकु परिहरो ॥ ए देशी ॥ साह काजल मेघाभणी, बिहुँ जणमांही संवाद मेरेलाल; तिहां मेघो धनराजने, एकदीन कीधोसाद; मेरेलाल. सुणज्यो वात सोहामणी ॥ए आंकणी ॥१॥ आप्रतिमा पूजोतमे, भाव आणीने चित्त मेरेलाल बारवर्ष लगे तिहां पुज्या, पूजि
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श्रीगोडी- प्रतिमा नित्य मेरेलालसुणज्यो॥२॥ एक दिन सुहणे इमकहे, मेघाशाने वात मेरेलाल०; तुंमुज साथे पार्श्व.|आवजे, परवारि प्रभात मेरे लाल०; सुणज्यो० ॥३॥ वहेल लेइ भावल तणी, चारण जातेछे तेह मेरे
लाल; देवाणंद राइका तणा, दोय वृषभछे तेह मेरेलाल; सुणज्यो० ॥४॥ वहेले खेडे तुं एकलो, मतलेजे कोइने साथ मेरेलाल०; डाबा स्थलभणी चालजे, मुजने राखजे हाथ मेरे लाल सुणज्यो० A॥ ५॥ इम मेघाशाने पीछवी, यक्ष गयोनिज ठाम मेरे लाल०; रविउगे मेघोतिहां, करवा मांड्यो
काम मेरे लाल०; सुणज्यो० ॥ ६॥ वहेल लीधी भावलतणी, वृषभ आण्या दोय मेरे लाल०; जोतरी वहेल स्वामीतणी, जाणोछो सबकोय मेरे लाल०; सुणज्यो०॥७॥ तव मेघो ते वहेलने, खेडी चाल्यो जाय मेरे लाल; अनुक्रमे मारग चालता, आव्यां थल डाबामांहि मेरेलाल सुणज्यो०॥८॥ ___ ढाल-७ मी ॥ आमली लाल रंगावो वरना मोलिया ॥ ए देशी ॥ तिहा छोटाने मोटा स्थल घणा, दिसे रुक्षतणा नही पाररे; तिहां भुतने प्रेत व्यंतर घणां, देखी शेठ करे विचाररे॥साहमेघो मनमा चिंतवे ॥ए आंकणी ॥१॥ कुण करस्य माहरी साररे, तव यक्ष आवीने इमकहे; तुंमत करजे फिकर
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श्रीगोडी- लगाररे ॥ साहमेघो॥२॥ तव वहेल हंकावीने चालीयो, आव्यो उजड गोडीपुर गामरेः तिहां पार्श्व.18 वाव्यकुवा सरोवर नहिं, नहिं महोल मंदिरना ठामरे॥साहमेघो०॥३॥तिहां वहेल थंभाणी चाले नहि,
हवे शेठहुओ दीलगीररे; मुजपासे नथी कांइ दोकडा, कुणजाणे पराइ पीररे॥ साहमेघो०॥४॥तिहां रात पडी रवी आथम्यो, चिंतातुर थइने सुतोरे; साह मेघाभणी आवीने इमकहे, सुहणामां यक्ष एकांतो रे॥ साहमेघो०॥५॥ हवे सांभल मेघा हुँ कहुं,आ वासे गोडीपुर गामरे;माहरो देरासर करजे इंहा, उत्तम जोइ कोइ ठामरे ॥ साहमेघो० ॥ ६॥ तुंजाजे दक्षिण दिशिभणी, तिहां पड्युछे निलं छाणरे; तिहांकुओ उमटश्ये पाणीनो, वली प्रगटस्य पाणीनी खाणरे॥ साहमेघो०॥७॥पासेउग्योछे उज्ज्वल आकडो,ते हेठेले धनछे बहुलोरे;पुर्यो छे चोखातणो साथीओ,तिहां पाणीतणो कुओपहोलोरे॥साहमेघो॥८॥
ढाल-॥ ८ मी ॥ सीता ते रूपेरुडी ॥ ए देशी ॥ सलावट सीरोही गामे, तिहां रहेछे चतुरछे कामेहो शेठजी सांभलो; रोगछे तेहने शरीरे, नमण करिछांटे नीरहो शेठजी सांभलो॥ ए आं कणी॥१॥ रोग जाशेने सुखथाशे, बेठोइहां काम कमासेहो शेठ; ज्योतिष निमित्त जोवरावे,
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| देहरासर पायो मंडावेहो शेठ० ॥ २ ॥ यक्षगयो इम कहीने, करो उद्यम शेठजी वहिनेंहो शेठ; | सिलावटने तेडावे, वली धननी खाण खणावेहो शेठ ० ॥३॥ गोडीपुरगाम वसावे, सगा संबंधी साजनने तेडावेहो शेठ, इम करता बहुदिन वित्यां, थयोमेघो जगत्र वंदीतोहो शेठ० ॥ ४ ॥ एकदिन काज लशा आवी कहे मेघाने वात बनावीहो शेठ ०; ए काममां भाग अमारो अर्द्ध अमारो अर्द्ध तुमारोहो ॥ शेठ० ॥ ५ ॥ इम करी देरासर करीए, जिम जगमां जश वरीएहो शेठ; तव मेघोकहे तेहेन, दाम जोइएछे हवे केहनेहो शेट० ॥ ६ ॥ स्वामीजीने सुपसाये, घणां दामछे वली आहिंहो शेठ ०; एकदिन कहता तुमेआम, ए पथ्थरछे कुण कामहो शेठ० ॥ ७ ॥ क्रोधवशे पाछो वलीयो, आपणा मंदिरमां भलिओ हो शेठ साहकाजल मनमांचिंते, मारुं मेघानें एम चिंतेहो शेठ० ॥ ८ ॥
ढाल - ९ मी ॥ कोइल्यो पर्वत धुंधलोरे लोल० ॥ए देशी ॥ परणावुं पुत्री माहरीरे लोल०, खरची धन अपाररे चतुरनर; न्यात जमाडुं आपणीरे लोल०; तेमुज उपजें कोररे चतुरनर; तेडी मेघोतेणी वाररे चतुरनर, सांभलज्यो श्रोता जनोरे लोल० ॥ ए आंकणी ॥ १॥ जो मेघो मारुंतो सही रे लोल०, तो मुज उपजे
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कराररे चतु०; देवल कराउं हुं वलीवलीरे लोल, तो नाम रहे निरधाररे चतु०, सांभलज्यो० ॥ २ ॥ एम चींतवी विवाहनोरे लोल०, करे कार्य तत्कालरे चतु०; साजनने तेडावीयारे लोल०, गोरीओ गावेध| मालरे चतु० ॥ सांभलज्यो ॥३॥ मेघा भणी मेलि नुंतर्यारे लोल०, मोकले काजल शाहरे चतु०; विवाहउपर आवज्योरे लोल०, अवस्य करिने आहिंरे चतु० ॥ सांभलज्यो० ॥ ४ ॥ सांभलि मेघो चिंत वेरे लोल०, किमकरी जइए त्यांहिरे चतु०; काज अमारे छे घणुंरे लोल०, देरासरनुं आंहिंरे चतु० सांभलज्यो ॥ ५ ॥ तवमेघो कहे तेहनेरे लोल, तेडीजाओ परिवाररे चतु०; काम मेली किमआवी येरे लोल०, तेजाणो निरधाररे चतु० ॥ सांभलज्यो० ॥ ६ ॥ मृगादेने तेडीनेरे लोल०, पुत्र कलत्र परीवाररे चतु०; मेघाविनासहु साथनेरे लोल०, तेडी आव्या तेणी वाररे चतु० ॥ सांभलज्यो ॥ ७ ॥ कहे काजल मेघो किहांरे लोल०, इहां नाव्यो शामाटेरे चतु०; तो मेघाविण किम सरेरे लोल०, न्यात तणि ए वाटरे चतु० ॥ सांभलज्यो० ॥ ८ ॥
ढाल - १० मी - नंद सल्लुणा मारा नंदनारे लोल० तेमुने नांखी छे फंदमारे लोल ॥ ए देशी ॥ कहे
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श्रीगोडी-8 यक्ष मेघा भणीरे लोल०, ताहरे हवे आवी बनीरे लोल०; काजल आवश्ये तेडवारे लोल०, कुडकरी पाश्वे. तुज तेडवारे लोल• ॥१॥ तुं मतजाजे तिहा कणेरे लोल०, झेरदेइ तुजने हणेरे लोल०; तेड्या ॥१०॥
विण जाए नहीरे लोल०, तो नमण करिलेजे सहीरे लोल० ॥२॥ दूधमांहि देशे खरुंरे लोल०,
नमणपीधे जाश्य परुरे लोल; तेमाटे तुजने घणुंरे लोल०, माने वचन सोहामणुंरे लोल०॥३॥ |यक्ष कहिगयो तेहेवे रे लोल०, काजलशा आव्यो एहवेरे लोल कहे मेघाने सांभलोरे लोलक,
आवोमेली मननो आमलोरे लोल०॥४॥ तुम आव्यां विण किम सरेरे लोल०, न्यातमा शोभीए किणी परेरे लोल; तुम सरिखा आवे सगारे लोल०, तो अम मनथाए उमंगरे लोल०॥५॥ हुंआ ६ व्यो धरती भरीरे लोल०, तोकिम जाउं पाछो फरीरे लोल; जो अमने कांइ लेखवोरे लोल०, आ |डो अवलोमत दाखवोरे लोल०॥६॥ हठकरी बेठां तुमरे लोल०, खोटी थाइएछये अमोरे लोल०, साहमेघो मन चिंतवेरे लोल०, अति ताण्यं किम पूरवेरे लोल०॥७॥ काजल साथे चल्यारे लोल०, भुधेसरमा आवीयारे लोल; नमण वीसार्यु तिहां कणेरे लोल०,भावीवशे आवी बनीरे लोल०॥८॥
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॥१०॥
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ढाल - ११ मी - काबिलरो पाणी लागणो काबील मतचालो ॥ ए देशी ॥ न्यात जमाडे आपणी, | देइने बहुमान; वरकन्या परणाविया, दीघां बहुदान ॥ १ ॥ काजल कहे नारीभणी, मेघाने अमे भेलां; जिमण देजे वीष भेलीने, दुधमां तेणी वेला ॥ २ ॥ दुधतणी छे आखडी, तुमने कहीश हुं रीसे; मेघाने मेलवो नहिं, पीरस्युं, जमण ते पीस्यें ॥ ३ ॥ तवनारी कहे पीउजी, मेघाने मत मारो; कुलमां लंछन लागइयें, थाइये पंचमा कारो ॥ ४ ॥ काजल ते माने नहीं, नारी कहीने हारी; मनभांग्यो मोती आड्यो, तेहने न लागे कारी ॥ ५ ॥ एम शीखवी नीज नारिने, जीमवा बेहु बेठां; भेलां एकण थालमा, हैये हर्षे हैठा ॥ ६ ॥ दुध आण्युं तिण नारिए, पीरस्युं थालि माहिं; काजल कहे मुज आखडी, पीधो मेघे त्यांहिं ॥ ७ ॥ मेधाने हवे तत्क्षणे, विष व्याप्युं ते अंगे; श्वासो श्वास रमीगयां, पाम्या गति सुरंग ॥ ८ ॥
ढाल - १२ - कीहारे गुणवंती मारी जोगणीरे ॥ ए देशी ॥ आवी मृगादे पीउने देखीनेरे, रोती कहे तिणि वाररे; मइओनेमेरो तेपण बिहुं जणारे, अतिघणो करे पोकाररे ॥ १ ॥ फिट फिटरे कुल
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श्रीगोडी- हीणा ए ते इयुंकयुरे॥ए आंकणी॥१॥नावी लाज लगाररे, मुख देखाडीश मलोकमारे; धीग धिग्
स्तवन. पार्श्व तुज अवताररे ॥ फीटफीटरे० ॥२॥ वीरडा न जाण्यु तें मन एहरे, ताहरी भक्तिनो कुण सल्ल
खरे; माहरेतो कर्मे ए छाज्युं नहींरे, पडी दीसे छे मुजमा चुकरे ॥ फीट फीटरे०॥३॥ एहवा लख्यां ॥१०॥
छठीये अक्षरारे, हवेदीजे कीणने दोषरे; नीराधारी मेलीगयो नाहलोरे, मुजने नकीधो कही रोषरे ॥फीट फिटरे० ॥ ४ ॥ इम विलवंति मृगादे कहेरे, वीरातें तोडी मोरी आशरे; तुजने किम उकल्यु एहदुरे, जीवीस तीन पंचासरे ॥ फीट फिटरे० ॥ ५॥ कुड करीने मुजने छेतरीरे, कीधो तें मोटो।
अन्यायरे; माहरा ना ना बेहु बालुडारे, केहने मलइये जइने धायरे ॥ फीट फीटरे ॥६॥ अधविच । रह्यां आजथी देहरारे, जगमां नामरह्यो नीरधाररे; नगरमां वात घरोघर विस्तरीरे, सहुकोना दिलमां
आव्यो खाररे ॥ फीट फीटरे० ॥७॥ द्वेष राखीने मेघो मारीयोरे, एतो काजल कपट भंडाररे; मन | ॥१०॥ नो मेलोने धीठो एहवोरे, एम बोले नरने नाररे ॥ ८॥
ढाल–१३ मी-प्रीत पूर्व पून्य पामीए ॥ ए देशी ॥ बेहनी अग्नी दाह देइकरी, आव्यां सहु ।
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श्रीगोडी-निज ठामहो बहेनी; काजल कहे तुंमत रोए, न करूं एहवो कामहो बेहनी०॥लेख लख्यो ते लाभीए। पार्श्व. I ए आंकणी ॥ १॥ दीजे केहने दोषहो बेहनी०, जन्म मरण हाथेनहीं; तो राखवो श्यो सोषहो
बेहेनी० ॥लेख० ॥२॥ ए संसार छे कारमो, खोटी माया जालहो बेहनी०; एक आंटे ठालीभर, जेहवा अरटनें मालहो बेहनी०॥लेख०॥३॥सुखदुख सरज्या पामीए, नहीं कोइने हाथहो बहेनी; मतकर फिकरतुं आजथी, बोहली आपणे हाथहो बेहनी० ॥ लेख०॥४॥ खाओपीओ सुख भोगवो, नकरो चिंता लगारहो बेहेनी०; जे जोइए ते मुजने कहो, म करो दीलमां वीचारहो बेहनी० लेख ॥५॥ जिननो प्रसाद करावश्युरे, महितल राखस्युं मामहो बहेनी; इजत आपणा धरतणी, खोस्युं किम करी नामहो
बेहनी०॥ लेख०॥६॥ सोढाने हाथे सुंपस्युं, गोडीपूर ए गामहो बेहनी; चालो आपणो सह तिहां, पहुं लेइआबु दामहो बेहनी लेख०॥७॥ अनुक्रमें आव्यां सहुतिहां, गोडीपुर गाम मोझारहो बेहनी; प्रभुनो प्रसाद करावीयो, काजलशाह तेणी वारहो बेहनी लेख० ॥८॥
ढाल-१४ मी-करेलडीगढदेरे ॥ ए देशी ॥ देहरे शिखर चढावीयोरे, स्थीर न रहे तेणिवार,
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श्रीगोडी-काजल मनमां चिंतवे, हवेकुण करइयु प्रकार; भविकजन सांभलोरे, मुकीयो मननो आमलोरे स्तवन. पार्श्व. 1ए आंकणी ॥१॥ बीजीवार चढावीयो, पडे हेठो तत्काल; सहुणामां यक्ष आवीने इम, कहे महिराने ॥१०२ सुवीशाल भविक० मुकीद्यो॥२॥ तुंचढावजे जाइने, स्थिर रहेशे शीखर जेह; काजलशाने जश कीमहोये,
मेघो मार्यो तेह; भविक० मुकीयो॥३॥मेहरिये शीखरे चढावीयो, नाम राख्यु जगमांहि मूरत स्थापी पासनी, संघआवे उछांहि भविक मुकीयो०॥४॥ संवतचौद चुमालमां, देहरे प्रतिष्ठा कीध;महिओमेहरो मेघातणो, तेणे जगमा जशलीध; भविक०मुकीयो०॥५॥देशी प्रदेशी घणां, आवे लोक अनेक; भावकरी भगवंतने, वांदे अधीक विवेक भविक० मुकीयो०॥६॥ खरचे द्रव्य घणांतिहां, रायराणा तेणी वार; मानत माने लाखनी, टाले कष्ट अपार भविक मुकीयो०॥७॥ नीरधनीया ने धनदिए, अपुत्रीयाने पुत्र; रोग नीवारे रोगीया, टाले दालिद्र द्येसुत्र; भविक० ॥८॥
R१०२॥ है| ढाल–१५ मी-घरे आवोजी आंबो मोरियो॥ ए देशी॥आज अमघर रंग वधामणां, आजतुल्या
श्रीगोडीपास; आज चिंतामणि आवी चढ्यो, आज सफल फली मुजआश। आज अमघररंग वधामणा॥
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ए आंकणी ॥ १ ॥ आज सुरतरु फलीयो आंगणे, आज प्रगटी मोहन वेलि; आज विछडीया वाला मिल्यां, आज अमघर हुइ रंगरोल | आज० ॥ २ ॥ आज अमघर आंबो मोरियो, आज वुठी सोवन धार; आज दुधे बुठा मेहुला, आज गंगा आवी घरबार ॥ आज० ॥ ३ ॥ आज गायो गोडी पूरधणी, श्रीसंघे कस्यो उच्छाहि; चौमासो कीधो चुपशुं, नगर ते महियाल मांहि ॥ आज० ॥ ४ ॥ चहु आण चावा चिहु खुटमां, तेमा मोटा सुजाणोजी होय; मेहदासशा डुलजी जाणीए, एहवा धरतिमा धणी नहीं कोय ॥ आज० ॥ ५ ॥ रामना राज्य तणीपरे, चलावे जगमां रीत; सोलंकी साथमां शोभता, विवेकी शावाघो सुविनीत ॥ आज० ॥ ६ ॥ प्रमाणीक वोहरो प्रतापशी, समर्थ राज का जने काम; भणशाली नाथो तिहां भलो, जेहने घर बहुला दाम ॥ आज० ॥ ७ ॥ संघवी लाधो ते जाणीये, लूणा मेता मांहि दोय; शेठमांहिं दीपो वखाणिये, वलि मनो मनजी जोय ॥ आज० ॥८॥ सारु पोटिलो जाणिये, तपगच्छ तिलक समान; मइयालनां महाजन शोभतां, दोलत करी दीपे वान ॥ आज० ॥ ९ ॥ श्री हीरविजय सूरीश्वरु, तस सुभवीजय कवि शीश; तेहना भाव विजय
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स्तवन !,
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सीमंधर- विनात
स्तवनम्
कवी दीपता, तस शिश नमुं निशदिश ॥ आज०॥१०॥ तेहना रुपविजय कवी राजमा, तेहना कृष्ण नमुं करजोडि; वलि रंगविजय रंगे करी, हुंतो प्रणमुं प्रणीत करजोडि ॥ आज. ॥ ११ ॥ संवत् | अढार सतलोतरे, भाद्रवा मास उदार; तिथि तेरश चंद्र वासरे, इम नेमीविजय जयकार॥आज०॥१२॥
__ "इति श्री गोडी पार्श्व नाथजीनुं स्तवन सम्पूर्णः"
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“अथ श्री सीमंधर स्वामी विनंति रूप स्तवनम्" धन्य धन्य क्षेत्र महा विदेह जी॥एदेशी॥सूण श्रीमंधर साहिबा जी, शरणागत प्रतिपाल; समर्थ जग जन तारवा जी, कर माहरी संभाल ॥ १॥ कृपानिधि सूण मोरि अरदास ॥ हुँ भव भव तुमचो दास कृ०। ताहरो छे विश्वास कृ० पूर माहरि आश कृपानिधि सूण मोरि अरदासे ॥ए आंकणी ॥२॥हुँ अवगुणनो राशिछंजी, तिल तुष नहिं गुणलेश; गुणनी होडि करूं सदाजी, एहिज सबल किलेस ॥ कृपानिधि ॥३॥ मच्छर भयने लालचे जी, करतो क्रिया लेश; तेपण परजनरंजवा जी, भलो भजाव्यो वेश ॥
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॥१३॥
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रूप स्तवनम्
सीमंधर- कृपानिधि ॥४॥छठा गुणठाणा धणी जी, नाम धराव्यु रेस्वामि; आगम वयणे जोयता जी, न गयो विनंति कषायने काम ॥ कृपानिधि ॥५॥ रसना रामाने रमाजी, ए त्रणे पातिक मुल; तेहनी अहनीश
चिंतना जी, करता भव थया धूल ॥ कृपानिधि ॥ ६ ॥ व्रत मुख पाठे उच्चरी जी, दिवस माहिं बहु वार; तेह नुरत विराधता जी, नाणी शकल गार ॥ कृपानिधि ॥ ७॥ धुलितणा देउल करि जी, जेम |पावसमारे बाल; थोमूला मुख इम वदे जी, तिम व्रत मे कर्यां आल ॥ कृपानिधि॥८॥आप अशुद्ध परने करुंजी, देइ आलोयण शुद्ध; मासा हंस पंखी परे जी, पाडे फंदे मुद्ध ॥ कृपानिधि ॥९॥ अछ्त्ता गुण नीसुणी मने जी, हरखं अति सुविशेष; दोष छता पण सांभली जी, तस उपरे धरु द्वेष ॥ कृपानिधि ॥ १०॥ परभव पर परिवादनाजी, परिपरि भारे आप; निज उत्कर्ष करूं घणो जी, एहिज मुज से |ताप ॥ कृपानिधि ॥ ११ ॥ निश्चय पंथ न जाणीओ जी, विवा हरिओ व्यवहार;मद मस्ते निःशंक
थी जी, थाप्यो असदा चार ॥ कृपानिधि ॥ १२॥ समय संघयणादि दोषथी जी, नावे शुक्ल ध्यानः || सूहणे पण नवि आवियोजी, निराशंस धर्म ध्यान ॥ कृपानिधि॥१३॥ आर्त रौद्र बिडं अहनिशी जी,
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सोमंधरविनंति
॥१०४॥
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| सेवाकार खवास; मीथ्या राजा जीहां होये जी, त्रसना लोभ विलास ॥ कृपानिधि ॥ १४ ॥ जिन मत वितथ प्ररूपणा जी, किधि स्वार्थ बुद्ध; जांड्य पनाना जोरथी जी, न रहि कोइ शुद्धि ॥ कृपा निधि ॥ १५ ॥ हिंसादीक अदत्त श्युंजी, सेव्यां विविध कुशील; ममता परिग्रह मेलवी जी, किधां भवना लील ॥ कृपानिधि ॥ १६ ॥ अक्रिय साधे जे क्रीया जी, ते नावे तिल मात; मद अज्ञान टले जेह थी जी, ते नहिं नाणानि वात ॥ कृपानिधि ॥ १७ ॥ दरिशण पण फरस्यां घणां जी, उदर भरणने काज; पण तुम तत्व प्रतित श्युं जी, नधरुं दरशण नाण ॥ कृपानिधि ॥ १८ ॥ सुविहित गुरु बुद्धि लोकने जी, हुं बंदारे आप; आचरणा नहिं तेहवी जी, ए मोटो संताप ॥ कृपानिधि ॥ १९ ॥ मिथ्या देव प्रशरीया जी, किधी तेहनीरे सेव; अह च्छंदाना वयणनी जी, नटलि मुजने देव ॥ कृपानिधि ॥ २० ॥ कोरे चित्त 'चूना परे जी, धर्म कथा मे किध; आप वंचि पर वंचिया जी, एको काज न सीद्ध ॥ कृपानिधि ॥ २१ ॥ रातो रमणी देखीने जी, जीम अण नांख्योरे सांढ; भांड भवाइयानि परे जी, धर्म देखाडुं मांड ॥ कृपानिधि ॥ २२ ॥ क्रोध दावानल प्रबलथी जी, उगे न समता वेल; मान महिधर आगले जी, नचले गुण
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रूप स्तवनम्
॥१०४॥
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स्तवनम
सीमंधर-IPIनदि वेल ॥ कृपानिधि ॥ २३ ॥ माया सापिणी पापिणी जी, मनछल मूकेरे नाहि; कोमल गुणने तेड विनंतियें जी, लोभ विलास अथाह ॥ कृपानिधि ॥ २४ ॥ धर्म तणे दंभे काँ जी, पूर्या अर्थने काम; तेणेथी
त्रण भव हारियाजी, बोधि होय बलिवाम ॥ कृपानिधि ॥ २५॥ वस्त्रपात्र जन पुस्तकेजी, त्रसना दकिध अनंत; अंत न आवे लोभनो जी, कहुं केतो वृत्तांत ॥ कृपानिधि ॥२६॥ कल्पा कल्प विचारणाजी,
राखी कांइ न संक; अनेषणिय परि भोगथी जी, रभ्यो चउगति जीम रंक ॥कृपानिधि ॥ २७ ॥ हवे तुम ध्यान सनाथता जी, आडो वलियोरे अंक; करुणा करिने राखीये जी, मत गणयो मुजवंक ॥ कृपानिधि ॥ २८ ॥ मुजने कहेतां नावडेजी, नाणे जे तुमदिठ; हुँ अपराधि ताहरोजी, खमजो अवनि अधिठ ॥ कृपानिधि ॥ २९ ॥ तुमे जिम जाणो तिम करोजी, हुँ नवि जाणुरे काइ; द्रव्य भाव सवी रोगनाजी, जाणो सर्व उपाय ॥ कृपानिधि ॥३०॥हुँ एक जाणुं ताहरू जी, नाम मात्र निरधार; आलंबन ताहरुंजी, तिणथी लहुं भवपार ॥ कृपानिधि ॥ ३१ ॥ माता सत्यकी नंदनोजी, रुखमणी राणीनो कंत; तात श्रेयांस नरेशछेजी, विचरंता भगवंत ॥ कृपानिधि ॥ ३२॥चित्त मांहिं अवधार
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सीमंधर -
खामी
॥१०५॥
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श्यो जी, तो एके तिक वात; लहि सहाय तुम्हारी जी, प्रगटे गुण अवदात ॥ कृपानिधि ॥ ३३ ॥ परम पुरुष परमे श्वरु जी, प्राणा धार पवित्र; पुरुषोत्तम हित कारकुं जी, त्रिभुवन जनना मित्र ॥ | कृपानिधि ॥ ३४ ॥ ज्ञान विमल गुणथी लह्यो जी, माहरा मननीरे होंश पूरिसि सुखियोसया करो जी, मुज मानस सर हंस ॥ कृपानिधि ॥ ३५ ॥
"इति श्री सीमन्धर स्वामी विनंति रूप स्तवनम् समाप्तम्”
"अथ श्री सीमन्धर स्वामी स्तवनम् "
दुहा—सुण सुण सरस्वती भगवती, ताहरी जग विख्यात; कवि जननी किर्त्ती वधे, तिम करज्यो मुज मात ॥ १ ॥ श्री सीमंधर स्वामी माहा विदेहमां, बेठा करेय वखाण; वंदणा माहारी त्यां जइ, कहेज्यो चंदा भाण ॥ २ ॥ मुज हीयडुं संशय भर्यो, किण आगल कहुं वात; जेशुं बांधु गोठडी,
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स्तवनम्
॥१०५॥
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मंधर खामी
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न मिले तस मुज धात ॥ ३ ॥ जाणुं जे आवुं तुझ क हे, विषम वाट पंथ दूर; डुंगरने दरीया घर्णा, विचे नदी वहे पूर ॥ ४ ॥ ते माटे इहांकिण रही, जे जे करूं विलाप; ते तुमे प्रभुजी सांभलो, अवगुण करज्यो माफ ॥ ५ ॥
ढाल – १ ली ॥ पवयण देवी चित्त धरीजी ॥ ए देशी । भरत क्षेत्रनां मानवी रे, ज्ञानी विणा मुझाय; ते माटे तुमने घणुं रे, प्रभुजी मनमें उच्छाह रे ॥ स्वामी आवोने इण खेत्र; तुम दरिशण जो देखीये रे, तो निर्मल थाये माहरां नेत्र रे ॥ स्वा० ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ धर्मीनी हांसी करे रे, पक्ष विदुनो सिदाय; लोभ घणो जग व्यापीओ रे, तिणे साधुं नवि थाय रे ॥ स्वा० ॥ २ ॥ गाडरीओ परिवार मिल्यो रे, घणा करे ते थाय; परिक्षावंत थोडा हुवे रे, सरधानो विश्वास रे ॥ स्वा० ॥ ३ ॥ सामाचारी जूजूई रे, सहु कहे माहरो धर्म; खोटं खरं किम जाणिए रे, एकुण भांजे भर्म रे ॥ स्वा० ॥ ४ ॥
ढाल - २ जी ॥ राग रामग्री ॥ अथवा मारु ॥ जगत गुरु हीरजी रे ॥ ए देशी ॥ ज्यारेने वीरजी विच
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स्तवनम्
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सीमंधर-दरता, त्यारे वर्तति शांति रे; जे जन जाइने पूछता, तस मन भांजता भ्रांति रे॥ है है झानीनो विरह || स्तवनम् खामी पडयो ॥ ए आंकणी ॥१॥ते तो दहे मुज दुःख रे, खामी सीमन्धर तुम विना; तेमुज कुण करे
सुखरे ॥ है है ॥२॥ विरहणीने रयणी जीसी, तेसि मुज घडी जाय रे; वात मुख नव नवी सांभलं. ॥१०॥
पण मुज निर्णय नवि थायरे ॥ है है ॥३॥ जे जे जीव दुर्भागीया, ते तो अवतरीया इंहाय रे; भूला भमेरे पून्य रहित वाडोलीया, जिहां जिन केवली नाहीरे ॥ है है ॥ ४॥ धन्य महा विदेहनां मानवी, जिहां जिनजी आरोग्य रे; ज्ञान दर्शन चारित्र आद रे, संयम ले गुरू संयोग रे॥ है है॥५॥ 8 ढाल-३ जी॥ मारग देशक मोक्षनारे ॥ ए देशी॥ श्री मंधर खामी माहरा रे, तुं गुरु ने तुं देवा तुज विना अवर न ओलखुं रे, न करूं अवरनी सेवारे॥ इहां किणे आवज्यो, वली चतुर्विध
॥१०६॥ टूसंघनेरे साथे लावज्यो०॥ ए आंकणी ॥१॥ ते किम संघ क्रिया करे रे, किणपेरे ध्याये छे ध्यान;
व्रत पञ्चखाण किम आदरेरे, किणिपरे घे बहु दानो रे ॥इंहां किणे ॥२॥ निश्चे सरसव जेटलो रे, बहु चाले व्यवहार; अभ्यंतर विरला हुआ रे, झाझो बाह्य आचारो रे ॥ इहां किणे ॥३॥ इंहा उचित
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सीमंधर - स्वाजी
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कीरति अति घणु रे, अनुकंपा लवलेश; अभय सुपात्र अल्प हुआ रे, एहवो भरतमा देशरे ॥ इंहां किणे ॥ ४ ॥
ढाल - ४ थी - राग परजिओ ॥ गुणिह विसाला मंगलीक माला ॥ ए देशी ॥ श्रीमन्धर तु माहरो साहिब, हुं सेवक तुम दास रे; भमी भमी भव हुं करि थाक्यो, हवे आपो शिवपुर वास रे ॥ श्रीमन्धर | ॥ ए आंकणी ॥१॥ इण वाटे वटे मारगु नावे, नावे कासीद कोय रे; कागल को साथै पहोंचा, हुं मोह्यो | तस मोह रे ॥ श्रीमन्धर ॥२॥ चार कषाय घटे मुज व्याप्या, हुं रातो इंद्रीय रस रे; मदन पणो क्यारे को व्यापे, मन नावे माहरु वश रे ॥ श्रीमन्धर ॥ ३ ॥ तृष्णानु दुःख न होत मुजने, होत संतोषनं ध्यान रे; तो हुं ध्यान धरत प्रभु ताहरो, स्थिर करी राखत माहरुं मन्न रे ॥ श्रीमन्धर ॥४॥ निबिड परिणामे गांठ्यो बांध्यो, तो किम छूटुं खाम रे; ते तो हुं नर तुममां छे प्रभुजी, आवो अमारे कामरे ॥ श्रीमन्धर॥५
ढाल - ५ मी - अरिहंत पद ध्यातो थको ॥ ए देशी ॥ श्रीमन्धर जिन इम कहे, पूछे तिहांना लोक रे; भरत क्षेत्रनी वारता; सांमले सुरनर थोक रे ॥ श्रीमन्धर ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ त्रीजोने आरो
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स्तवनम्
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स्तवनम्
सीमंधर-
खामी ॥१०७॥
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बेठा पछे, जाइये केटलो काल रे; पद्मनाभ जिन जब हुश्ये, ज्ञानी झाक झमाल रे ॥ श्रीमन्धर ॥२॥ छठेने आरे जे हुश्ये, ते तो प्राणीने पाप रे; शाता नहि एक.घडी, रविनां झाझा ताप रे ॥ श्रीमन्धर ॥३॥ ओछं ने आयु मणुअतणुं, मोटुं देवर्नु आयु रे, सुख भोगवता स्वर्गनां, सागर पल्योपम जाय रे ॥ श्रीमन्धर॥४॥ सरागी नर जे इमभणे, तुमे तारो भगवंत रे; आपेथी आपे तरो, एम सांभलो सुर नर संघरे ॥ श्रीमन्धर ॥५॥ | ढाल–६ थी- एहवी वात जीव ते सूत्र में सांभली रे, म करिश विषम विषाद;जो ते पूरव पुण्य पुरो कीधो नहीं रे, तो किहांथी पहोंचे आश; जिनजी किम मीले रे, भोलाइयुं वल वले रे प्राणीश्यु टल वले रे ॥ ए आंकणी ॥१॥ तुं सरागी प्रभु वैरागीमां वडोरे, किम तेडे तुं त्यांहा शागुण देखी तुज उपर क्रिपा करे रे, किम आवे प्रभु इहाय ॥ जिनजी० भोला प्राणी ॥२॥ चोल मजीठ सरीखो जिनजी साहिबो रे, जीव तुं तो गलीनो रंग; कटको काच तणो मुल तुजमें नहीं रे, जिनजी नगीनो नंग ॥ जिनजी० भोला प्राणी ॥३॥ भमर सरीखो भोगी श्री भगवंत ।
***%ARASHTRA
॥१०७॥
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सीमंधर - स्वामी
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जी रे, जीव तुं माखीने तोल; सरिखा सरखा विना क्युं बाजे गोठडी रे, जीवतुं ह्रदय विचारी बोल ॥ जिनजी० भोला० प्राणी० ॥ ४ ॥ जीवतुं कर्म लगे लपटाणो ज्यां लगे रे, त्यां लगे तुज नहीं कास; समतानो गुण ज्यारे तुजमें आवश्ये रे, त्यारे जाइश जिनजी पास ॥ जिनजी० भोला० प्राणी० ॥ ५ ॥
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ढाल – ७ मी ॥ राग धन्याश्री ॥ श्री मंधर स्वामी तणी गुणमाला, जे नर भावे भणश्ये; तस शिर वैरी कोइ न व्यापे, कर्म शत्रुने हणश्ये रे ॥ हमच्छरी ॥ १ ॥ श्रीमंधर स्वामी तणी गुणमाला, जे नांरी नित्य गुणश्ये; सतीरे सोहागण पिहर पसरी, पुत्र सुलक्षणा जणश्ये रे ॥ हमच्छरी ॥ २ ॥ श्रीमं धर स्वामी शिवगति गामी, कविता कहे शिरनामी; वंदणा मारी ह्रदयमां धारी, धर्मलाभ द्योस्वा मी रे ॥ हमच्छरी ॥ ३ ॥ श्री तपगच्छ नायक सुंदर, श्री विजयदेव पट्टोधारी; जस कीर्त्ति जेहनि जंगमाही झाझी, बोले नरने नारी रे ॥ हमच्छरी ॥ ४॥ श्री गुरु वाणी सुणी बुध सारु, श्रीमंधर जिन में गाया; संतोषी कहे देवगुरु धर्मे, पूर्व पुण्ये पाया रे ॥ हमच्छरी ॥ ५ ॥ "इति श्री सीमन्धर स्वामी स्तवनम् सम्पूर्णम्"
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स्तवनम्
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स्तवनम्
सीमंधरजिन
"अथ श्री सिमंधर जिन स्तवनम्" I अहो गतिवाले साजन ॥ ए देशी॥ ढाल-१-ली॥निश्चय नय वादी कहे, एक भाव प्रमाण छ | साचो रे; वार अनंती जे लही, ते क्रियामां मत राचो रे ॥ चतुर सनेही सांभलो ॥ ए आंकणी ॥
१॥ भरत भूप भावे तों, वली परिणामे मरु देवा रे; अवेयक उपर नही फले, द्रव्य क्रियानी सेवा रे ॥ चतुर० ॥२॥ नय व्यवहार कह्यो तुमे, किम भाव क्रिया विण लहेस्यो रे; रतन शोध शत पुटपरे, क्रिया ते साची कहशो रे ॥ चतुर०॥३॥ एक सहेजे एक यत्नथी, जिम फलकेरो परि पाकोरे; तिम क्रिया परिणामनो, जग भिन्न भिन्न छ वांकोरे ॥ चतुर०॥ ४ ॥ स्हेजे फल अमे पामश्युं, इम गलिया बलद जे थायरे; स्हेजे तृपता ते दृश्य, कां अन्न कवल करी खाय रे ॥ चतुर० ॥५॥ विण व्यवहारे भावजे, ते तो क्षण तोलो क्षण मासोरे; तेहथी हांसि उपजे, वली देखे लोक तमासोरे ॥ चतुर०॥६॥ गुरु कुलवासी गुणनिलो, व्यवहारे स्थिर परिणामी रे; त्रिविध अवं चक योगथी, होए सुजस महोदय कामी रे॥ चतुर०॥७॥
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॥१०॥
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॥१०॥
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सीमंधर - जिन
5to 18
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ढाल - २ श्री ॥ मोतीडानी ॥ ए देशी ॥ निश्चय कहे कुण गुरु कुण चेला, खेले आपहि आप एकेला; मोहना मनरंगी हमारा, सोहना सुख संगी॥ जास प्रकाशे जग सवि भाषे, नवनिधि अष्ट महासिद्धि पासे; मोहना० सोहना ० ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ कर्म विभाव शक्ति श्युं जोडे, ते स्वभाव शक्ति सवि तोडे; भांग्यो भर्म मर्म सवि जाण्यो, पूर्ण ज्ञान निज रूप पिछान्यो; मोहना ० सोहना०॥२॥ करतां होइ हाथी परे झुझें, साखीगुण निज मांहि सलूझें; करतां ते क्रिया दुःख वेदे, साखी भवतरु कंद उछेदे, मोहना ० सोहना ० ॥ ३ ॥ ज्ञानीने करणि सवि था कि, होइ रह्यो नरम कर्म स्थिति पाकी; माला अण देखे जे भ्रमतो, ते क्षय होइ निज गुण रमतो; मोहना० सोहना० ॥ ४ ॥ भाव अशुद्ध जे पुद्गल केरां, ते तो जाण्या सबीही अनेरा; मोक्ष रूप अमे निजगुण वरीयां, ते अर्थे कुण करशे क्रिया; मोहना० सोहना ० ॥ ५ ॥ हवे व्यवहार कहे सुणो प्यारा, एम मीठां तुम बोल दुचारा; भणतां ने अण करतां भाषो, वचन वीर्य करी आप विमाशो; मोहना० सोहना ० ॥६॥ जे अभिमान रहित ते साखी, शक्ति क्रियामां ते छे आखी; क्रिया जे शुभ योगे मांडे, खेदादिक दूषण सविछांडे; मोहना० सोहना० ॥७॥ भूख न भांजे भोजन दीठे, विण खांडे
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स्तवनम्
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स्तवनम्
सीमंधर जिन ॥१०९॥
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तुष वृहि न नीठे; मांज्या विण जिम पात्र न आछु, तिम क्रियाविण साधन पाछु; मोहना० सोहना०॥८॥ मोक्ष रूप आतम निरधारी, नवि थाके जिनवर गणधारी; क्रिया ज्ञान जे अनुक्रमें सेवे, सुजस रंग प्रभु तेहने देवे; मोहना० सोहना० ॥ ९॥
ढाल-३ जी ॥ बेडले भार घणोछे राज॥ए देशी॥निश्चय कहे विण भाव प्रमाणे, क्रिया काम न आवे; आव्यो भावतो क्रिया थाकी,क्रिया जिममणन भावे॥मानो बोल हमारोराज ताणो ताण न कीजे ॥ए आंकणी॥१॥श्रमण होइ गणधर प्रव्रज्या, मिले ते भाव प्रमाणे; लिंग प्रयोजन जन मनरंजन, उत्तराध्ययने वखाणे ॥ मानोबोल ॥२॥ निज परिणामज भाव प्रमाणे, वली ओघ निर्जरा ते; आतम सामायिक भगवइमां, भारव्यु ते जुओ जुगते॥ मानोबोल ॥३॥ नय व्यवहार कहे, सवि श्रुतमां, भाव कह्योवतें साचो; पण क्रियाथी ते होय जाचो, क्रिया विण होय काचो॥ मानोबोल ॥४॥ भाव नवो क्रियाथी आवे, आव्यो ते वली वाधे; नवि पडे चढे गुणश्रेणि, तिणे मुनि क्रिया, साधे ॥ मानोबोल ॥ ५॥ निश्चयथी निश्चय नवि जाण्यो, जेणे क्रिया नवि पाली; वचन मात्र निश्चयशु
॥१०९॥
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स्तवनम्
सीमंधर- मानो, ओघ वचन जुओ भाली। मानोबोल ॥६॥ जिम जिम भाव क्रियामां, भलश्ये, साकर जिन जिम पय माहि; तिम तिम स्वाद होशे अधिकेरो, सुजस विलास उछांहि ॥ मानोबोल ॥ ७॥
__ ढाल-४ वटउनी ॥ ए देशी ॥ निश्चय नय वादी कहेरे, पट् दरिशण माहिं सार; समता : साधन मोक्ष- रे, एहवो कीधो निरधार रे;मनमांहि धरिजे प्यार रे;अमे कहुंछं तुम उपगाररे; बली हारी गुण गौणनी मेरे लाल ॥ ए आंकणि ॥१॥ पन्नर भेदछे सिद्धनांरे, भाव लिंग तिहां एक; द्रव्य लिंग भजना कही, शिव साधन समता छेकरे; तेहमांछे सबल विवेक रे, तिहांलागी मुज मन टेकरे; भम्याछे अवर अनेकरे ॥ बलीहारी ॥ २॥ तिहां मारग भांजे; सवेरे, धारणा ने असराल; जोगनालि समता तिहां, डांडो दाखे तत्कालरे; होइ योग अयोग विशराल रे, लघु पण अक्षर संभाल रे; पहुंचे शिवपद, देइ फालरे ॥ बलीहारी॥३॥ स्थिविर कल्प जिन कल्पनी रे, क्रिया छे बाहु रूप; समाचारी जुजुइ, कोइ न मिले एक स्वरूप रे; तिहां छे उंडो कूप रे, तिहां पास धरे मोह भूपरे; ते तो विरुओ विषम विरूपरे॥ बलीहारी॥४॥नय व्यवहार कहे हवेरे, तिहांश्युं बोल्यांए मित्त; समता तुमने
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सीमंधर-3
वालही, अमने पण तिहां दृढ चित्त रे; अमे संभालं नित्य नित्य रे, क्रिया पण तास निमित्त रे; इम स्तवनम् वधश्ये बिहुंने हित रे ॥ बलीहारी ॥५॥ पन्नर भेदछे सिद्धनां रे, राज पंथ जिहां एह; ते मारग
अनुसारिणि, क्रिया ते इयु धरो नेह रे;क्षणमांहि न दाखो छेह रे, आलस छोडो निज देहरे; आलसुने ॥११०॥
घणा संदेह रे ॥ बलीहारी ॥ ६॥ स्थापे भाव जे जे कही रे, भरतादिक दृष्टांत; आवश्यक माहिं कह्यां, ते तो पासट्टा एकांत रे; ते तोप्रवचन लोपे तंत रे, तस मुख नवि देखे; इम भाखे श्री भगवंतरे ॥ बलीहारी ॥ ७॥ क्रिया जे बहु विधे कही रे, तेहिज कर्म प्रति काररे; रोग घणां औषध घणां, कोइने
कोइथी उपगार रे; जिनवैद्य कहे निरधार रे, तेणे कडं ते कीजे सार रे; इम भाखे अंगं आचाररे ॥ बली-2/ ६ हारी ॥८॥राज पंथ भांगे नहिं रे, भागे नाह नासे; एपण मनमा धारज्यो ए, एक गांठो सोफेर रे;
११०॥ श्युं फुली थाओछो भेररे, जो मिले बिहं एक बेर रे;तो भाजेभ्रांत उकेर रे ॥ बलीहारी ॥९॥ सूत्र परं परशुं मीले रे, सामाचारी शुद्ध विनयादिक मुद्रा विधि, ते बहुविध पण अविरुद्ध रे; जे मुंझे ते होय मुद्धरे, नवि मुंझे ते प्रतिबुद्ध रे; वली सुजस अलुद्ध अकुद्ध रे ॥ बलीहारी ॥१०॥
CCCCESSOCIA
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सीमंधर
UGAK
स्तवनम्
जिन
ढाल-५मी॥ राग धन्या श्री ॥ वाद वदंता आवीआ, तुज समवसरण जब दीटुं रे; ते बेहुनो | झगडो टल्यो, तुज दर्शन लाग्युमीटुंरे॥बलीहारी प्रभु तुमतणी॥ए आंकणी॥१॥स्यादवाद आगल करी, तुमे बेहुने मेल कराव्यो रे; अंतरंग रंगे मिल्या, दुरिजनो नो दाव न फाव्यो रे॥बलीहारी०॥२॥ परघर भंजक खल घणां, ते तो चित्तमां खांचो घाले रे; पण तुम सरिखा प्रभुजेहने, तेहइयु तिणे नवि चाले रे ॥ बलीहारी ॥ ३ ॥ जिम ए बेहुनी प्रीतडी, तुमे करी आपी स्थिर भावे रे; तिम मुज अनुभव मित्तश्यु, करी आपो मेल स्वभावेरे ॥ बलीहारी ॥४॥ तुज शासन जाण्या पछी, तेहश्यु मुज प्रीतछे झाझिरे; पण ते कहे ममता तजो, तिणे नवि आवे छे बाझी रे॥ बलीहारी॥५॥ काल अनादि संबंधनी, ममता केड न मूके रे; रीसाइ अनुभव तदा, पण चित्तथी हीत नवि चूके रे ॥ बलीहारी॥६॥६|| एवा मित्तश्यु रूसगुं, ते तो मुज मन लागे माटुंरे; तिम किजे ममता परे, जिम छोडं चित्त करी काटुंरे || ॥ बलीहारी ॥७॥ चरण धर्म नृप तुम वश्य, तस कन्या समता रूडी रे; अचिरा सुत ते मेलवो,
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सीमंघर- जिम ममता जाए उंडीरे ॥ बलीहारी ॥ ८॥ साहेबे मानी विनंती, मील्यो अनुभव मुज अंतरंगिरे। स्तवनम् जिन ओच्छाव रंग वधामणा, हुआ सुजस महोदय रंगेरे ॥ बलीहारी ॥९॥
___ कलश-इम सकल सुखकर दुरित भय हर शांति जिनवर में स्तव्यो, यूग भुवन संजम मान॥१११॥
वर्षे चित्तमहर्षे विनव्यो; श्री विजय प्रभसूरि राज राजित सुकृत काजे नय कही, श्री नयविजय बुधशिष्य वाचक जशविजय जयसिरी लही ॥१॥
"इति श्री निश्चय नयवाद गर्भित श्री सीमन्धर जिन स्तवनम् सम्पूर्णम्" गाथा-जय कमल लोचन जग विरोचन विगत शोचण वंवणो, निःसंगरंग तरंग जिनवर अकल रूप निरंजणो; इय सहज कुशल विनेय बोले चेतीओ श्रीमंधरो, श्रीविजय दान मुणिंद वाचक
॥१११॥ सकलचंद कृपा करो ॥३२॥
“इति श्री सीमन्धर जिन स्तवनम् सम्पूर्णम्"
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अष्टमीनुं
“अथ श्री अष्टमीनुं स्तवनम्"
स्तवनम् दुहा-पंच तीरथ प्रणमुंसदा, समरी शारद माय; अष्टमी स्तवन हरखे रचुं, सुगुरू चरण पसाय॥१॥ ढाल-१-ली॥हारे लाल चंद्रप्रभ जिन आइमा,अष्ट कर्म कर्यां चक चूररे लाला ॥ए देशी॥हारे लाला ||| जंबुद्वीपना भरतमां, मगध देश महंत रे लाला; राजगृही नयरी मनोहरं, श्रेणीक बहु बलवंत रे लाला M॥ अष्टमी तिथि मनोहरं ॥ ए आंकणी ॥१॥ हारे लाला चेलणा राणी सुंदरूं, शीयलवंती शीरदार रेलाला; श्रेणीक शुद्धबुध छाजतां,नामे अभय कुमार रे लाला ॥अष्टमी ॥२॥ हारेलाल वर्गणा आठ मीटे एहथी, अष्ट साधे सुख निधान रे लाला; अष्ट मद भाजें वज्रछे, प्रगटे समकीत निधान रे लाला ॥ अष्टमी ॥३॥ हारे लाला अष्ट भय नाशे एहथी, अष्ट बुद्धि तणो भंडार रे लाला; अष्ट प्रवचन ए संपजे, चारीत्र तणो आगार रे लाला ॥ अष्टमी॥४॥हारे लाला, अष्टमी आराधन थकी, अष्ट कर्म है करे चक चूररे लाला; नवनिधी प्रगटे तसघरे, संपूर्ण सुख भरपुर रे लाला ॥ अष्टमी ॥५॥ हारे
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अष्टमीं
॥११२॥
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लाला अड दृष्टी उपजे एहथी, शीव साधे गुण अंकुर रे लाला; सिद्धनां आठ गुण संपजे, शीव कमलारूप सरुप रे लाला ॥ अष्टमी ॥ ६ ॥
ढाल - २ - जीहो कुंवर बेठो गोंखडे ॥ ए देशी ॥ श्रीपालना रासनी ॥ जीहो राजगृही रलियामणी, जिहो विचरे वीर जिणंद; जिहो समवसरण इंद्रे रच्युं, जिहो सुरा सुरनां वृंद ॥ जगत सहु वंदो वीरजिणंद ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ जीहो देव रचित सिंहासने, जीहो बेठां श्री वर्द्धमान; जीहो अष्ट प्रातीहारज शोभतां, जीहो भामंडल झलकंत ॥ जगत ॥ २ ॥ जीहो अनंत गुणे जिनराजजी, जीहो पर उपगारी प्रधान; जीहो करुणा सिंधु मनोहरु, जीहो त्रिलोके जिन भाण ॥ जगत ॥ ३ ॥ जीहो चोत्रीश अतीशय बिराजतां, जीहो वाणी गुण पांत्रीश; जीहो बारे परर्षदा भावश्युं, जीहो भक्ति | नमावे शीश ॥ जगत ॥ ४ ॥ जीहो मधुर ध्वनी दीये देशना, जीहो जिम आषाढोरे मेघ; जीहो अष्टमी महिमा वर्णवे, जीहो जगबंधु कहे तेम ॥ जगत ॥ ५ ॥
ढाल - ३ - रुडीने रढियाली वाहला ताहरी वांसली रे, तेतो मारे मंदरीये संभलाय रे ॥ ए देशी ॥
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स्तवनम्
॥१९२॥
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अष्टमीन रुडीने रढियालीरे प्रभुताहरी देशना रे, तेतोजोजन लगे संभलाय रे; त्रिगडे विराजे रे जिन दिये देश- | स्तवनमू
ना रे, श्रेणिक वंदे प्रभुनां पाय; अष्टमी महिमा रे कहो कृपा करी रे, पूछे गोयम अणगार; है अष्टमी आराधन फल सीद्धनुं रे ॥ ए आंकणी ॥ १॥ वीर कहे तपथी महिमा एहनो रे, ऋषभर्नु
जन्म कल्याण; रुषभ चारीत्र होय निर्मलं रे, अजितनुं जन्म कल्याण ॥अष्टमी॥२॥संभव च्यवन त्रीजा PIजिनेश्वरु रे, अभिनंदन निर्वाण; सुमति जन्म सुपास च्यवनछे रे, सुविधि नेमि जन्म कल्याण
अष्टमी॥३॥मुनिसुव्रत जन्म अति गुणनिधि रे, नेमीशीवपद लद्यु सार; पार्श्वनाथ नीर्वाण मनोहरु |रे, ए तिथी परम आधार ॥ अष्टमी ॥ ४॥ उत्तम गणधर महिमा सांभली रे, अष्टमी तिथि प्रमाण; 8 मंगल आठतणी गण मालिका रे, तस घर शीव कमला प्रधान ॥ अष्टमी॥५॥
ढाल–४-श्री जिनराज जगत उपगारी, मुरति मोहन गारीरे॥ए देशी॥ आवश्यकनी नियुक्ति ए भाषे, माहानिशिथ सूत्रे रे;ऋषभ वंशदृढ वीरजी आराधे, शिवसुख पामे पवित्र रे॥श्री जिनराज जगत उपगारी ॥ ए आंकणी ॥१॥ ए तिथि महिमावीर प्रकाशे, भविक जीवने भाषे रे; शासन ताहरूं
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अष्टमीन
स्तवनम्
॥११३॥
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अविचल राजे, दिन दिन दोलत वाधे रे; श्रीजिनराज जगत उपगारी ॥२॥त्रीशलारे नंदन दोष नीकंदन, कर्म शत्रुने जीत्यां रे; तीर्थंकर महंत मनोहर, दोष अढारने वरत्यां रे ॥ श्रीजिन ॥३॥ मन मधुकर जिन पदकज लीनो, हरखी निरखी प्रभु ध्याउं रे; शीव कमला सुख दीओप्रभुजी, पूर्णानंद पद पाउंरे ॥ श्रीजिन ॥४॥ वृक्ष अशोक सुर कुसुमनी वृष्टि, चमर छत्र वीराजे रे; आसनभामंडल जिन दीपे, दुंदुभि अमर गाजे रे॥ श्रीजिन ॥ ५॥ खंभात बंदर अतिय मनोहर, जिन प्रा-5 साद घणां सोहे रे; बिंब संख्यानो पार न लडं, दरीशण करी मन मोहे रे ॥ श्रीजिन ॥ ६॥ संवतअढार ओगणचालीश वर्षे, आश्विन मास उदारो रे;शुक्ल पक्ष पंचमी गुरुवारे, स्तवन रच्यु छे त्यारे रे॥ श्रीजिन ॥७॥ पंडित देव सोभागी बुधी लावण्य, रत्न, सौभागी तिणे नामेरे; बुधी लावण्य लीओ, सुख संपूर्ण, श्री संघने कोड कल्याण रे ॥ श्रीजिन० ॥८॥
"इति श्री अष्टमी- स्तवनं संपूर्णम्"
॥११३॥
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स्तवनम्
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समकित
"अथ श्री समकित पञ्चीशीनुं स्तवन" पच्चीशीन
दुहा-वंदु वीर जिणंदने, समरूं सरस्वति मात; पदकंज प्रणमुं गुरु तणां, कहेवा समकित वात ॥१॥जिम स्वरुप समकित तणो, भाख्यो वीर जिणंद; तिम भा गुरु साक्षिथी, पाम परमाणंद ॥ २॥ स्वामि अनादि अनंतजे, चिहुं गति एह संसार; मोहादिक गुरु स्थिति थकी, भमे अनंती वार ॥३॥ यथा प्रवृत्ति करणे करी, आवे गंठी देश; पल्ल उपल दृष्टांतथी, यथा
प्रवृत्ति सुणो लेश ॥ ४॥ KI ढाल-१-ली॥ चउ सदृहणा ति लिंगछे॥ए देशी॥जिम कोइक गृहपति घरे, पालो धान्यनो भरी
ओरे; घर खरचे बहु काढीओ, थोडो तेहमां धरीओ रे ॥५॥ a त्रूटक–धर्यो तहेमां स्तोक इणीपेरे अनुक्रमे खाली करे, तिम कर्म भरीओ जीव क्षय करे बहु
स्तोक ग्रही भरे; अनाभोगथी अनुक्रमे इम बहु खपावी शुभमने, गंठीदेशे तदा बांधे, आयु विना
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स्तवनम्
समकित-सग कर्मने॥६॥ ढाल-पूर्वली ॥ पल्योपम असंख्यातमो, भाग ते उणो जाणो रे; कोडाकोडी सागर पच्चीशीनुं माहिं, स्थिति बांधे एम आणो रे ॥७॥ ॥११॥
टक-आणो मनमां एह सत्ता यथा प्रवृत्ति व्यापार ए, कोइ प्रछे किम खपावे अणाभोग तिणि वार ए: गुरु कहे सांभल शिष्य आगल उपलनो दृष्टांत ए, जेह सांभली जाए संशय चित्त हर्षित हंतए ॥८॥ ढाल पूर्वली ॥ पर्वत भूमी नदी यथा, उपल शकल जिहां बहला रे; पवना घोलना बहु हुए, पाणीनां बहु छोला रे॥९॥
टक–बह छोहला होय इणीपेरे उपलना कटका तिहां, त्रण खुणा गोल केह चार खुणा पण जिहां; सहेज भावे इम होवे अना भोगथी बहुपरे, हा हा गंठी देश पण प्रभु तुज दर्शन नविधरे ॥१०॥ ढाल पूर्वली ॥ तिहां गंठी राग द्वेषनी, जीव न भेदी शक्तोरे; पाछो जायकें तिहां रहे, अथवा आगल नवि टकतो रे ॥ ११ ॥
त्रूटक–नवि टकतो कोइ आगल अपूर्व करण मार्गे करी, दुष्ट गंठी भेद कीधो सुपरिणाम
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॥११॥
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समकित - पच्चीशीनं
शां० २०
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मनमां धरी; नथी पाम्यो पूर्वे एहवं, तिणे अपूर्व छे नाम ए; पथिक पिपीलिका न्याये; सांभलो गुण कामए ॥ १२ ॥
ढाल - २ - जी ॥ कपुर होये अति उजलोरे ॥ ए देशी ॥ त्रण पुरुष इण लोकमां रे, कोइ नगर भणी जाय; अटवी ओलंघ्या घणुंरे, अर्क अस्तंगत थायरे ॥ प्राणी सुणिए उपनय एह- तेणे अपूर्व छे | जेहरे ॥ प्राणी० तेणे० ॥ ए आंकणी ॥ १३ ॥ भय ठामे दोय चोरनेरे, दीठां दूरथी तेम; तेहमां एक भय लही करीरे, नाठो पाछो जेमरे || प्राणी० तेणे० ॥१४॥ बीजो मनमां चिंतवेरे, जब जाइये ए चोर; तब आगल जाइश वही रे, चिंती रह्यो इम ठोर रे ॥ प्राणी० तेणे ॥ १५ ॥ त्रीजे मनमां चिंतव्युंरे, पह | मनीस हुं मनीस; कर पद दोय एहने माहरेरे, करश्ये रण तो करीशरे ॥ प्राणी ० तेणे ॥१६॥ इम अवलंबी धैर्यनेरे, चोरने सन्मुख जाय; रण करी हणी ते चोरनेरे, पहोतो वांछित ठायरे ॥ प्राणी० तेणे ॥१७॥ अटवी कर्म गुरु स्थिति तणीरे, पंथी समए जीव; राग द्वेष दोय तस्करारे, विचरंता तेह सदैव रे ॥ प्राणी० | तेणे ॥ १८ ॥ प्रथम पुरुष सम जे थयांरे, बांधे गुरु स्थिति तेह; तेटली बांधे ते नरा रे, बीजां पथिक
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स्तवनम्
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SAE
स्तवनम्
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समकित- सम जेहरे ॥ प्राणी० तेणे०॥ १९ ॥ लेइ अपूर्व मोगर करेरे, त्रीजे हणीआ चोर; समकितादिक पच्चीशीनुंपुर भणीरे, पोहतां ते निज ठोररे ॥ प्राणी० तेणे० ॥ २० ॥ ॥११५॥ ढाल-३-जी ॥ प्रथम गोवाला तणे भवेजी ॥ ए देशी ॥ पंच प्रकार कीडी तणांजी, तेहमां
पहेली जोय; भुंइ भ्रमणकरे घणुंजी, यथा प्रवृत्त इंहा होयरे ॥प्राणी समजो इदय मोझार॥ उपनय | पह उदार रे ॥ प्राणी ॥ उप०॥ ए आंकणी ॥ २१ ॥ स्थंभ उपर बीजी चढीरे, कीडी अपूर्व छ तेह; त्रीजी पांखथी उडतीजी, अनिवृत्ति जाय छे जेहरे ॥ प्राणी. उप० ॥ २२॥ चोथी स्थंभ मस्तक रहीजी, गंठी देशने संधि पांचमीते पाछी वलीजी, बांधे गुरु स्थिति बंधरे ॥ प्राणी० उप०॥ ॥ २३ ॥ एम मिथ्यात्वथी प्राणीआजी, पामे समकित सार; अर्द्ध पुद्गल परावर्त्तमांजी, होये तास संसाररे ॥ प्राणी० उप०॥ २४॥ जाए भिन्न मुहर्तमांजी, वर्त्ततो शुभ परिणाम; अनिवृत्ति करणे करीजी, ते समकित शुद्ध ठामरे ॥ प्राणी. उप०॥ २५॥ जिम सुभट संग्राममांजी, जीत्यो वैरी
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| ॥११५॥
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स्तवनम्
समकित- पञ्चीशीन
RECACANCREENA
समग्र माने तिम आणंदनेजी, समकित लहे सुख वगरे ॥ प्राणी. उप०॥ २६ ॥ धर्म वृक्षमूलछेजी, धर्म आवासद् द्वार; प्रतिष्ठा न पणे तेहनुंजी, लेखे ज्ञान आचाररे ॥प्राणी० उप०॥२७॥ __ ढाल-४-थी। रहोरे रहो रथ फेरवो रे ॥ ए देशी ॥ एक प्रकार समकित कडं रे, तिम बेत्रण च्यार पांच भेदरे; एक प्रकार जे तुज कह्यां रे, द्रव्यादिक रुचिओ मेद रे ॥ सुणीए भेद समकीत तणां रे ॥ ए आंकणी ॥ २८॥ द्रव्य भाव भेदे करी रे, तिम निश्चयने व्यवहार रे; अथवा सहेज उपदेशथी रे, कडं तुज वचन जाणण हार रे ॥ सुणीए ॥ २९ ॥ तुज वचनें जे तत्वनी रे, रुचि ते द्रव्य समकित होय रे; जोइं परमार्थ नवि लहे रे, जीव ते तत्त्व जाणज जोय रे ॥ सुणीए ॥ ३०॥ ज्ञानादिक आत्मक हुवे रे, निश्चयते शुभ परिणाम रे; उपशम आदि कारण थकी रे, व्यवहार दर्शन गुण धाम रे ॥ सुणीए ॥ ३१ ॥ जले वस्त्रे मार्ग कोद्रेव उवर रे, द्रष्टांते निसर्ग उपदेश रे; समकित एह प्ररूपीउं रे, हुं नमुं नमुं नमुं तेह जिनेश रे ॥ सुणीए ॥ ३२॥
ढाल-५-मी ॥ समकित दूषण परिहरो॥ ए देशी ॥पंथी मारग चूकीओ, अटवी भ्रमण करंतरे;
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समकीत- पच्चीशीनु
जिम कोइक निजथी लहे, मारग तिम इंहा हुँतरे ॥ समकित प्रापण विधि वहुं ॥ए आंकणी ॥३३॥ कोइक पर उपदेशथी, लहे मार्ग तिग प्राणीरे; समकित लहे कोइ गुरु थकी, जिननो मारग है. जाणीरे ॥ समकित ॥ ३४ ॥ गंठी देश आव्यो थको, पाछो ते वली जायरे; ज्वर द्रष्टांत तिम जायें, सहेजे पण क्षय थायरे ॥ समकित ॥ ३५॥ उपदेशथी अस्वभावथी, कोइ मार्ग नवि पामेरे; तिम अभव्य दुर्भव्यवा, न लहे ते गुण कामरे ॥ समकित ॥ ३६ ॥ कोइक वैद्य औषध थकी, कोइकने स्थिर थावेरे; इम मिथ्या ज्वर सहेजथी, गुरुथी जाय वा न जावेरे ॥ समकित॥ ३७॥ भव्यने त्रण| गति होवे, त्रीजी अभव्यने एकरे; कोद्रवनो द्रष्टांत जे, सुणीए तेह विवेकरे ॥ समकित ॥ ३८॥ __ढाल-६-थी ॥भोलीडा हंसारे विषय न राचीये॥ए देशी॥मदन कोदरा रे जेम खभावथी, उतरे मद विकार; कोइक गोमय आदि उपायथी, कोइक नवि होय सार ॥ भावे भविअण समकीत |॥११६॥ आदरो ॥ ए आंकणी ॥ ३९ ॥तिम मिथ्यात्वना पुंज त्रिविध करे, शुद्ध मिश्रने अशुद्ध तेह; अपूर्व करण परिणामथी, जल चिवर सुणो बुध ॥ भावे०॥४०॥ जिम जल चिवर होये मेलडु, जिम
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समकीत - ते शुद्ध करंत; करतां शुद्ध अशुद्ध मिश्र रहे, तिम त्रण पुंज धरंत ॥ भावे० ॥ ४१ ॥ इम स्वभाव पच्चीशीनं तथा उपदेशथी, समकितनां दोय भेद; महा भाष्यमां भाख्या ए सवे, जोयो मुकी खेद ॥ भावे ० ॥ ४२ ॥ कारगे रोग दीवैग भेदथी, समकित त्रण प्रकार ; क्षय उपशम उपर्शम क्षायिक थकी, त्रण प्रकार विचार ॥ भावे० ॥ ४३ ॥
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ढाल - ७- मी ॥ सतिय सुभद्रा ॥ ए देशी ॥ जिम भाख्युं जिनवर मते, सखि कर पण तिम तास; कारक समकित जिन कहे, सखि जिन कहे केवल ज्ञान विलास ॥ सुख कारक समकित आदरो ॥ ए आंकणी ॥४४॥ रोचक कहीए तेहने, सखि रुचि मात्र होए जास;धर्म कथादिके दीपतां, सखि दीपतां पण नहिं अंतर वास ॥ सुख० ॥ ४५ ॥ तुज समयविद इम कहे, सखि दीपक समकित तेह; त्रण प्रकार बीजा हवे, सखि बीजां हवे क्षय उपशम आदि जेह ॥ सुख० ॥ ४६ ॥ त्रण पुंज करे तेहमां, सखि उदये तेह खपाय; अण उदय उपशम करे, सखि शम करे क्षयोपशम कहेवाय ॥ सुख० ॥ ४७ ॥ अंतर करणे जे होए, सखि अथवा जे गत श्रेणि; त्रणे पुंज जेणे नविकर्यां, सखि नवि कर्यां उखर अग्नि ना एण
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समकित- सुख०॥४८॥ पयडि सात मिथ्यादिका, सखि क्षय करी ने तिहां ठाय; बांध्यु पूर्वे आउखु, सखि पच्चीशीनआउ त्रण चार भवें सिद्ध थाय ॥ सुख०॥४९॥ बांध्युं न होवे आउखु, सखि पाम्यो क्षायक जेहा
ते निश्चय वीरजिन कहे, सखि जिन कहे ते भविजाए शिवगेह ॥ सुख०॥५०॥ ॥११७॥
| ढाल-८-मी॥ लक्षण पांच कह्यां समकित तणां॥ए देशी॥चार प्रकारे समकित दाखीउं, साखा दन समकित ॥ सुगुणनर; सहित तथा जे अनंतर भाखीउं, तस लक्षण सुणो मित्र॥सुगणनर॥वीरजी नेश्वर भाषे एणिपरे ॥ ए आंकणी ॥ ५१ ॥ गुड आदिक जिम वमन करे तथा, माल थकी पडे | जिम ॥सुगुणनर; उपशमथी पडतो अण पहोचतो, मिथ्यात्वे होय तेम ॥ सुगुणनर ॥ वीर ॥५२॥
वेदक युक्त करे पंचविध तदा, दोय पुंज क्षय करंत; सुगुणनर; त्रीजा पुंजने चरम समय यथा, |श्रुद्ध अणु ते वेदंत ॥ सुगुणनर ॥ वीर ॥ ५३॥
ढाल-९-मी ॥ जिन जिन प्रतिमा वंदन कीजे ॥ ए देशी ॥ काल प्रमाण का पंच केरा, उपशम महूर्त पट्; आवलि प्रमाण कहे जिन, सास्वादन समकित रे ॥ भविका वीर वचन चित्त
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॥११७॥
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मसकीतपच्चीशीनुं
|धरीये ॥ ए आंकणी ॥५४॥ समय एक वेदक होय समकित, उदधि तेत्रीश झाझेरा; क्षायक
क्षय उपशम ने छासट्ठी, सागर कह्या अधिकेरा रे ॥ भविका ॥ ५५ ॥ उत्कृष्टं, सास्वादन उपशम, |पंच वार ते आवे; वेदेक क्षायक एक वार ते, जे आव्यु नवि जावे रे । भविका ॥ ५६ ॥ वार असं ख्याती क्षय उपशम, बीअ गुणे सासाण; चोथाथी अगीयारमा सुधि, उपशम समकित ठाणरे ॥ भविका ॥ ५७॥ चोथाथी वली चउदमा सुधी, क्षायक समकित जाणो; वेदक क्षय उपशम |चोथाथी, सात लगी गुणठाणो रे ॥ भविका ॥ ५८॥ __ढाल-१०-मी ॥ ठरे जिहां समकित ते स्थानक ॥ ए देशी ॥ शुद्धि लिंग त्रण लक्षणं दूषण, भूषण पंच विचारो रे; आठ प्रभावक षट् आगारा, सदृहणा चउँ धारो रे ॥ ५९ ॥ जया भावण ठाण ते षट् षट्, दर्श विध विनय उदारो रे; सडसट्टि भेद अलंकृत समकित, भाष्यो जिन सुख कारि रे ॥६०॥ वाचक जश विजये ए प्रपंच, कीधो जेह सझायो रे; तिणे विस्तार न आण्यो| एहमां, ते कहेता बहु थायो रे ॥ ६१ ॥ एह स्तवन सइहीने भणता, समकित निर्मल थायरे; वीर
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स्तवनम्
मौनएका दशीनुं ॥११॥
जिनेश्वर स्तवन करता, मुज मन हर्ष सवायो रे ॥ ६२॥ भावनगर चोमासुं रहीने, वीर जिणंद मलायो रे; चंद्र शशि मद राजावर्षे, शीत आशो बीज गायोरे ॥ ३ ॥ एहनी चर्चा जेह करे तस, थाए निर्मल बुद्धि रे; एह प्रयासथी फल मुज होजो, समकित रत्ननी शुद्धी रे ॥ ६४ ॥ विजय देव सूरिश पटोधर, विजय सिंह गणधारो रे; तास शिष्य पंडित आचारी, सत्य विजय सुख कारो रे॥ ॥ ६५ ॥ कपूर विजय मुनि क्षमा विजय गणी, क्षमा तणो भंडारो रे; तास शिष्य जिनं विजय वैरागी, उत्तम विजय श्रीकारो रे ॥ ६६ ॥ विजय धर्म सूरिश्वर राज्ये, प्रथम जिणंद उपाशी रे; उद्यम पारे खका कहेणथी, घोघा बंदर वाशी रे ॥ ६७॥ ते उत्तम गुरु बह श्रुत ग्राही, गुणवंता वैरागीरे; तास कृपाथी पद्म विजय कहे, शुभ मति माहरी जागीरे ॥६॥
"इति श्री समकित पच्चीशी स्तवनम् सम्पूर्णम्"
"अथ श्री मौन एकादशीनुं स्तवन" दुहा-शांति करण श्री शांतिजी, विघ्न हरण श्री पास; वाय देवी विद्या दिये, समरूं धरी
॥११८॥
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जौनपकाउल्लास ॥१॥ जादव कुल शिर सेहरो, ब्रह्म चारि भगवंत; श्री नेमिश्चर वंदिये, जेहनाः दशीनुं गुण अनंत ॥२॥
| ढाल-१-ली ॥ राग मल्हार-देखी कामिनी दोय, के कामें व्यापीयो रे; के कामें व्यापीयो ए देशी ॥ नयरि निरुपम नाम द्वारामति दीपति हो लाल ॥ द्वारा ॥ धनवंत धर्मि लोक देव पुरि जिपति हो लाल ॥ देव ॥ यादव सहित गदाधर राज करे जिहां हो लाल ॥ गदा ॥ उपगारि अरिहंत
प्रभु आव्या तिहां हो लाल ॥ प्रभु ॥१॥ अंतेउर परिवार हरि वंदन गयां हो लाल ॥ हरि ॥ प्रददाक्षिणा देइ त्रण्य प्रभु आगल रह्यो होलाल ॥ प्रभु ॥ देशना देइ जिनराज सूंणे सह भाविया है। हो लाल ॥ सुणे ॥ अरिया अमृत वयण सूणि सुख पाविया हो लाल ॥ सुणि ॥ २॥ हरि तव जोडी
हाथ प्रभुनें इम कहे हो लाल ॥ प्रभु ॥ सकल जंतुनां भाव जिनेश्वर तुंलहे हो लाल ॥ जिने ॥ वर्ष दिवसमा कोइक दिन एक भाखियें हो लाल ॥ कोइक ॥ थोडे पुण्ये जेहथी अनंत फल चाखिये हो लाल ॥ अनंत ॥३॥
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स्तवनम्
मौनएका दशी,
॥११९॥
दुहा-प्रभुजी तव हरिनें कहे, मौन एकादशी जाण; कल्याणक पंचास शत, शुभ दिवसे चित्त आंण ॥१॥ वासुदेव वलतुं कहें, दोढसो कल्याणक केम; अतित अनागत वर्तमान, एणिपरे है भाषे नेम ॥२॥
ढाल-२-जी ॥ केसर भिनो मारो सायबो, प्रभू माहरा रति एक रूप देखाड हो ॥ ए देशी माहाजस सर्वानु भूति-भविक जन, किजे श्रीधर सेव हो; नमिमल्लि अरनाथनि-भवि०, राखो वंदन टेवहो-भवि० ॥ नाथ निरंजन साचो सजन दुःखनो भंजन मोहनो गंजन साहेबो भवि० एहिज जिनवर देव हो ॥ ए आंकणि ॥१॥ स्वयंप्रभ देवश्रुत उदय नाथजि-भवि०, साचो शिवपुर साथ हो;अकलंक शुभंकर वंदियें-भवि०,साचो श्री सप्त नाथ हो ॥ नाथ० साचो दुःख० मोहनो० साहे. एहिज० ॥ २॥ ब्रौद्र गुणनाथ गांगिक-भवि०, सांप्रत श्री मुनि नाथ हो; विशिष्ट जिनवर वंदिए-1 भवि०, एहज धर्मनो साथ हो ॥ नाथ० साचो दुःख० मोहनो० साहे. भवि० एहिज०॥३॥ सुमृद्ध श्री व्यक्त नाथजे-भवि०, साचो कलाशत जांण हो; अरण्यवास श्री योगजे-भवि०, श्री अजोग
॥११९॥
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मौनएका चित्त आंण हो ॥ नाथ० साचो० दूःख० मोहनो० साहे. भवि० एहिज० ॥ ४ ॥ परम नाथ सुधारति-18 स्तवनम् दशीनुं भवि०, किजें निकेस सेव हो; सर्वार्थ हरिभद्रजि-भवि०, मगधाधिप शुद्ध देव हो॥नाथ० साचो० दुःख० ।
मोहनो० साहे. भवि० एहिज०॥५॥प्रयच्छ अक्षोभ जिनवरा-भवि०, मलयसिंह नित्य वंद हो; दिनकर धनंद प्रभु नमो-भवि०, पौषध समरस कंदहो॥नाथ० साचो दूःख० मोहनो० साहे भवि० एहिज०॥६॥
दुहा-जिन प्रतिमा जिन वाणीनो, मोहटो जग आधार; जिव अनंता एहथी, पाम्यां । भवनो पार ॥ १॥ नाम गोत्र श्रवणे सुणी, जपे जे जिनवर नाम; आठ कर्म अरि जितिनें, पामे शिवपूर ठाम ॥२॥
ढाल-३-जी ॥ मोरा साहेब हो श्री शितल नाथ तो विनती सुणो एक माहरि ॥ ए देशी ॥ श्री प्रलंब हो चारित्र निधि देवके प्रशमराजित नितु वंदियें, श्री स्वामिक हो विपरीत प्रसादके वंदि पाप निकदिए; श्री अघहित हो ब्रह्मणेंद्र जिनराजके ऋषभ चंद्र चित्त आणिए । पश्चिममा हो
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मौनएका दशीं
॥१२०॥
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ए भरत मबारके, त्रण चीविसी जांणीइं ॥ १ ॥ श्री दयांत हो अभिनंदन पूज्यके रत्न शेखर त्रिभुवन धणी, श्याम कोष्टक हो मरुदेव दयालके अति पार्श्व किर्ति घणी; नंदिखीण हो व्रतधर निर्वाण के सेवंतां संकट टले, जंबुद्वीपे हो चउविसि त्रण्यके सेवतां संपत्ति मले ॥ २ ॥ श्री सौंदर्य हो त्रिविक्रम नामके नारसिंह सेवो सहि, श्री क्षेमंत हो संतोषीत देवके कामनाथ वंदो वहि; मुनिनाथज हो जिनवर चंद्र दाहके दिला दिव्य चित्तमां धरो, खंड धातकि हो पूर्व ऐरवत मांहिंके त्रण | चोविशि मंगल करो ॥ ३ ॥ अष्टाहिक हो श्री वणिक जाणके उदय ज्ञान सेवो सुखने, तमोकंद हो श्री साय काक्षके खेमंत वांदि गमो दुःखनें; श्री निर्वाणिक हो श्री जिन रवि राजके प्रथम नाथ शिव साथछे, पुरकरवर हो चउविसि त्रण्यके त्रण जगतनां नाथछे ॥ ४ ॥ श्री पुरुर वाष हो श्री अवबोध देवके विक्रमेंद्र इंद्रे नमो, श्री स्व शांति हो हरनाथ मुणिंदके; नंदिकेश मुज मन गम्यो; महा मृगेंद्र हो श्री अशो चितके 'महेंद्र नाथ नाथाय नमुं, धातकि खंड हो ऐरवत क्षेत्रके त्रण्य | चोविसि चरणे नमुं ॥ ५ ॥ अश्ववृंद हो श्री कुटलिक वृंद के वर्द्धमान मुज मन रम्यो, श्री नंदि
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स्तवनम्
॥१२०॥
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और काकेश हो श्री धर्मचंद्रके-विवेक मुज मनमां गम्यो; कलापक हो श्री विशोम पहके-अरण्य नाथ । स्तवनम् दशीनुं
कीर्ति घणी, पुस्कर द्वीपे हो चोविशी त्रण्यके-त्रीश चोविशि स्तुति भणी ॥६॥
ढाल-४-थी॥ कोइ ल्यो पर्वत धुंधुलो रे लोल॥ए देशी॥नेमि जिनेश्वर उपदिश्यो रे लोल०,8 अद्भुत एह अधिकार रे॥सुगुण नर सांभलतां चित्त हरखीयो रे लोल०, हुवो जय जय कार रे॥सुगुण नर॥श्रीजिनशासन जग जयोरेलोल०॥ए आंकणि॥१॥मंत्र जंत्र मणि औषधीरे लोल,सकल जंत हित कार रे॥सुगुण नर॥ एह नित्य थुणतांथकां रे लोल०, टाले विषय विकार सुगुण नर॥श्रीजिन ॥२॥ रोग ने शोक विजोगडा रे लोल०, नाशे उपद्रव दुःख रे सुगुण नर सेवंतांसुख स्वर्गनां रेलोल०, वलि पामे शीव शर्म रे॥सुगुण नर॥श्रीजिन ॥॥आराधन विधि सांभलो रेलोल०, चोथ भक्त उपवास रे॥ सुगुण नर॥मौन ध्यान ध्यानतां रे लोल०, होये अघनो नाश रे॥सुगुण नर॥श्रीजिन॥४॥ अहोरत्तो पोसह करि
रे लोल०, जपिये ए जिन नाम रे ॥सुगुण नर ॥रिद्ध वृद्धि सुख संपदारे लोल०, लहिए शिवपूर ठाम हारे॥ सुगुण नर॥श्रीजिन ॥५॥ मृगशिर शुद एकादशी रेलोल०, इग्यार वर्ष वखाण रे॥ सुगुण नर॥मास
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मौनएका अग्यार उपर वलि रेलोल०, ए तप पूरण प्रमाण रे ॥सुगुण नर॥श्रीजिन ॥६॥ उजमणुं करो भावथी रे । स्तवनम् दशी, लोल०, शक्ति तणे अनुसार रे॥ सुगुण नर ॥ जिन पूजा संघ सेवना रे लोल०, दान दिये सुविचार रे ।
सुगुण नर॥श्रीजिन॥७॥ पाटि पोथी पुठीयारे; लोल०, इग्यार इग्यरा एम जाण रेसुगुण; सूत्रतशेठ । तणी परें रे लोल०, हुये गुणनी खाणरे॥सुगुण नर॥श्रीजिन ॥८॥ तप क्रिया कीधां घणां रे लोल०, पण
नाव्युं प्रणीध्यांन रे॥सुगुण नर॥ते विण लेखे आव्यो नहिं रेलोल०,कास कुसुम उपमांन रे॥सुगुण नर onश्रीजिन ॥९॥काल अनंते में लह्यां रे लोल०, कर्म इंधण केइ तुररे ॥सुगुण नर॥शुद्ध तप भले|
भावथी रे लोल, तेह करे चक चूर रे॥सुगुण नर॥श्रीजिन ॥१०॥दान शियल तप भावथी रे लोल०, उद्धयाँ प्राणी अनेक रे॥सुगुण नर॥आराधो आदर करि रे लोल०, आणि अंग विवेक रे ॥ सुगुण नर॥श्रीजिन ॥ ११ ॥ बारे पर्षदा आगले रे लोल०, ए भाख्यो नेमि खाम रे ॥ सुगुण नर ॥ कृष्ण नरेसरे सह हि रेलोल०, पोहता निज निज धामरे ॥ सुगुण नर ॥ श्रीजिन ॥ १२ ॥
दुहा-श्री नेमिश्वर उपदिश्यो, सद्दह्यो कृष्ण नरेश; विर विमल गुरुथी लह्यो, में शुद्धो उप
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॥१२॥
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स्तवनम्
दशीर्नु
मौनएका देश ॥१॥ काल अनंतां निर्गम्यो, अनंत अनंती वार; आवी निगोदे हुँ भम्यो, केणे न कीधी
सार ॥२॥ प्रभुदर्शन मुज नवि हुओ, नवि सूण्यो धर्म उपदेश; नाटीया नाटक परें, बहु बनाव्या वेष ॥३॥अनुक्रमें नरभव लह्यो, उत्तम कुल अवतार; दुर्लभ दर्शन पामियो, तार प्रभु मुज तार ॥ ४॥ ___ ढाल-५-मी॥राग धन्याश्री ॥ दुषम काले एह आलंबन, सुगुरु सदागम वाणीजी; तेहने संघे बहु सुख पाम्यां, भव मांहिं भवि प्राणीजी ॥१॥ समकीत दायक शुभ पंथ वाहक, गुरु गीतारथ दीवोजी; पशु टाली सुर रूप करेजे, तेह गुरु चिरं जिवोजी॥२॥ गुरु कुल वासे रहेतां लहिए, विनय |विवेक सवि क्रियाजी; तेहनी सेवा करता थाये, पूरण ज्ञाननां दरियाजी ॥३॥ एह स्तवन भणशे गणशे, छोडि चित्तनां चालाजी; सूरतरु सुरमणि सुर गवि प्रगटे, तस घर मंगल मालाजी ॥४॥संवत सत्तर एंसी वर्षे, स्तवन रच्युमन खंतेजी; यंत्र अनुसारे जोइ कीg, बार गाथामें तंतेजी॥५॥श्री वीर विमल गुरुसेवा करतां, ऋद्धि किर्ति बहु पायाजी; विशुद्ध विमल कहे तेहवेसंगे, पुरुषोत्तम गुण गायाजी ॥६॥
"इति श्री मौन एकादशी स्तवनम् सम्पूर्णम्"
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श्रीरोहिणी तपर्नु
स्तवनम्
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॥१२२॥
“अथ श्री रोहिणी तपनुं स्तवन" दुहा-सुख कर संखेश्वर नमी, शुभ गुरुने आधार; रोहिणी तप महिमा विधि, कहेश्यं भवि उपगार ॥१॥ भक्त पान कुत्सित दीये, मुनीने जाण अजाण; नरक तिर्यंचमां जीवते, पामे बहु दुःख खाण ॥२॥ ते पण रोहिणी तप थकी, पामी सुख संसार; मोक्ष गया तेहनो कहुं, सुंदर ए अधिकार ॥३॥ | ढाल-१-ली ॥ शीतल जिन सहेजा नंदी ॥ ए देशी ॥ मघवा नगरी करी जंपा, अरी वर्ग थकी नहिं कंपा; आ भरते पुरी छे चंपा, राम सीता सरोवर पंपा ॥ पनोता प्रेमथी तप कीजे ॥ गुरु पासे तप उचरीजे ॥पनोता. गुरु०॥ ए आंकणी ॥ ॥१॥ वासुपूज्यना पुत्र कहाय, मघवा नामे तिहां राय; तस लक्ष्मीवती छे राणी, आठ पुत्र उपर एक जाणी॥पनोता० गुरु०॥२॥रोहिणी नामे थइ बेटी, नृप वल्लभ शुं थइ मोटी; यौवन वयमा जब आवे, तव वरनी चिंता थावे ॥ पनोता. गुरु० ॥३॥ स्वयं वर मंडप मंडावे, दूरथी राज पुत्र मिलावे;रोहिणी शणगार धरावी, जाणुं चंद्र प्रिया इहां आवी॥पनोता० गुरु०
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॥१२२॥
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श्री रोहिणी तपनुं
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॥ ४ ॥ नाग पुरवित शोक भुपाल, तस पुत्र अशोक कुमार; वरमाला कंठे ठावे, नृप रोहिणी ने पर णावे ॥ पनोता० गुरु०॥ ५ ॥ परिकरशुं सासरे जावे, अशोकने राज्ये ठावे; प्रिया पुण्ये वधी बहु रिद्धी, वीतशोके दिक्षा लीधि ॥ पनोता० गुरु० ॥ ६ ॥ सुख विलसे पंच प्रकार, आठ पुत्र सुता थइ च्यार; रहि दंपति सातमे मालें, लघु पुत्र रमाडे खोले ॥ पनोता० गुरु० ॥ ७ ॥ लोकपाला भिधान ते बाल, रहि गोखे जुए जन चाल; तस सन्मुख रोति नारी, गयो पुत्र मरण संभारी ॥ पनोता ० गुरु ॥८॥ शिर छाती कुटे मलि केती, माय रोती जलांजली देति; माथानां केश ते रोले, जोइ रोहिणी कंतने बोले ॥ पनोता० गुरु०॥ ९ ॥ आज में नवुं नाटक दीयुं, जोतां बहु लागे मीढुं; नाच शिखि किहांथी नारी; सुणी रोषे भय | नृप भारी ॥ पनोता ० गुरु० ॥ १० ॥ कहे नाच शिखो इणि वेला, लेइ पूत्र बाहिर दिए झोलां; करथी विछढ्यो ते बाल, नृप हा हा करे तत्काल ॥ पनोता० गुरु० ॥ ११ ॥ पुर देव विच्येथी लेतां, भुंइ सिंहासन करि देतां; राणी हसति हसति जुए हेतुं, राजाए कौतुक दीढुं ॥ पनोता० गुरु० ॥ १२ ॥ लोक सघलां
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श्रीरोहिणी तपनुं
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॥१२३॥
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विस्मय पामे, वासुपूज्य शिस वन ठामे; आव्या रूप सोवन कुंभ नामा, शुभवीर करे परणामा ॥ स्तवनम् पनोता० गुरु०॥ १३॥ | ढाल-२-जी ॥ चोपाइनी॥आसो सुदि सातम सुविचार, ओली मांडी स्त्रीभरतार ॥ ए देशी॥ चउ नाणी नृप प्रणमी पाय, निज राणीनुं प्रश्न कराय; आ भव दुःख नवि जाणे एह, ए उपर मुज अधिको नेह ॥ १॥ मुनि कहे इणे नगरे धनवंतो, धनमित्र नामा शेठज हतो; दुर्गधा तस बेटी थइ, कुबजा कुरूपा दुर्भग भइ ॥२॥ यौवन वय धन देतां सही, दुर्भग पण कोइ परणे नहीं; नृप हणतां | कै तव सिखेण, राणी परणावि सा तेण ॥ ३ ॥ नाठो ते दुर्गधज लही, दान दीयंती सायर रही; ज्ञानीने परभव पूछती, मुनी कहे रैवत गिरि तट हती ॥ ४॥ पृथिवी पाल नृप सिद्धीमति, नारी नृप वनमां क्रीडती; राय कहे देखी गुणवंता, तपसी मुनि गोचरी ए जता ॥ ५॥ दान दीयो घर पाछां ॥१२३॥ वली, तुं क्रिडारस रिसेंबली; मुर्खपणे करि बल ते हिये, कडवू तुंबडं मुनिने दीये ॥६॥ पारj - करतां प्राणज गयां, सुरलोके मुनि देवज थयां; अशुभ कर्म बांधे सा नारी, जाणी नृप काढे पुर बार
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श्रीरोहिणी तपनुं
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॥ ७ ॥ कुष्ट रोग दिन साते मरी, गइ छट्ठी नरके दुःख भरी; तिरिय भवे अंतरता लेइ, मरीने सात नरकमां गइ ॥ ८ ॥ नागिण करभीने कूतरी, उंदर धीरोली जलो शुकरी; काकी चंडालण भव लही, नवकार मंत्र तिहां सद्दही ॥ ९ ॥ मरीने शेठनी पुत्री भइ, शेष कर्मे दुर्गंधा थइ; सांभली जाति स्मरण लहे, श्री शुभवीर वचन सदहें ॥ १० ॥
ढाल - ३ - जी ॥ गजरा मारुजी चाल्यां चाकरी रे ॥ ए देशी ॥ दुर्गंधा कहे साधूने रे, दुःख भोग वियां अतिरेक करुणा करिने दाखीयेरे, जिम जाए पाप अनेकरे - जिम० ॥ १ ॥ मुनी कहे रोहिणी तप करोरे, सात वर्ष उपर सात मास; रोहिणी नक्षत्रने दिनेरे, गुरु मुख करिए उपवासरे - गुरु० ॥२॥ तपथी अशोक नृपनी प्रियारे, थइ भोगवि भोग विलास; वासुपूज्य जिन तीर्थे रे, तमे पामश्यो | मोक्ष निवासरे - तमे० ॥ ३ ॥ उजमणे पूरण तपेरे, वासुपूज्यनी पडिमा भराय; चैत्ये अशोक तरु तलेरे, अशोक रोहिणी चितरायरे - अशो० ॥ ४ ॥ साहमी वत्सल पधराविनेरे, गुरु वस्त्र सिद्धांत लखाय; कुमर सुगंध तणी परेरे, दुःख कर्म सकल क्षय जायरे - दुःख० ॥ ५ ॥ साधु कहे सिंह पुरमारे,
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श्रीरोहि- णी तपर्नु
स्तवनम्
॥१२४॥
सिंहसेन नरेसर सार; कनकप्रभा राणी तणोरे, दुर्गंधी अनीष्ट कुमाररे-दुर्गंधी०॥६॥ पद्म प्रभुने पूछतारे, जिन जंपे पूर्व भव तास; बार योजन नागपूरथीरे,एक शील्ला निलगिरि पासरे-एक०॥७॥ ते उपर मुनि ध्यानथीरे, न लहे आहेडी शिकार; गोचरी गत शिल्ला तलेरे, कोप्यो धरे अग्नि अपाररे-कोप्यो०॥ ८॥ शिल्ला तपी रह्यां उपरेरे, मुनि आहार करी काउस्सग्ग;क्षपक श्रेणी थइ केवलीरे, |तरक्षण पाम्या अपवर्गरे-तत्क्षण ॥९॥ आहेडी कुष्टि थइरे, गयो सातमि नरक मोझार; मच्छ मघा अहि पांचमीरे, सिंहचोथी चित्रक अवताररे-सिंह० ॥ १०॥ त्रीजी बीलाडो बीजीएंरे, घुक प्रथम नरक दुःखजाल; दुःखनां भव भमी ते थयोरे, एक शेठ घरे पशु पालरे-एक० ॥११॥ धर्म लही दवमां बल्योरे, निद्राए इदय नवकार; श्री शुभ वीरनां ध्यानथीरे, तुज पुत्र पणे अवताररे-तुज०॥ १२ ॥ __ ढाल-४-थी ॥मारी अंबानां वडला हेठ ॥ ए देशी ॥ निसुणी दुर्गध कुमार जातीस्मरण पाम
२, पद्मप्रभु चरणे शीष-नामी उपाय ते पूछतोरे; प्रभु वयणे उजमणे युक्त-रोहिणीनो तप सेवी-1
॥१२४॥
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स्तवनम्
श्रीरोहिन योरे, दुरगंध पणुं गयुं दूर-नामे सुगंधी कुमर थयो रे, रोहिणी तप महिमा सार-सांभलता णी तपर्नु नवि विसरेरे ॥ए आंकणी ॥१॥ रहि वात अधुरी एह-सांभलश्यो रोहिणी ने भवेरे, इम सुणी दुर्गधा
नारी-रोहिणी तप करे ओच्छवेरे; सुगंधी लही सुख भोग-खर्गे देवी सोहामणीरे, तुज कांता मघवा धुअ-चवि चंपाए थइ रोहिणीरे ॥ रोहिणी०॥२॥ तप पुण्य तणे प्रभाव-जन्मथी दुःख न देखियुरे, अति स्नेह किस्यो अम साथ-राय अशोके वली पूछीउंरे; गुरु बोले सुगंधी राय-देव थइ पुखला वतीरे, विजये थइ चक्री तेह-संजम धरि हुआ अच्युत पतिरे ॥ रोहिणी० ॥३॥ च्यबिने थयां तमे ६ अशोक-एक तपे प्रेम बन्यो घणोरे, सात पुत्रनी सुणज्यो वात-मथुरामां एक माहणोरे; अग्निशर्मा वसुत सात-पाडलीपुर जइने भिक्षा भमेरे, मुनी पासे लही वैराग्य-विचयां साते रही संयमेरे । है रोहिणी० ॥ ४ ॥ सौधर्मे हुआ सुर सात-ते सुत साते रोहिणी तणारे, वैताढ्ये भल्ल चूल खेट-समकी
त शुद्ध सोहामणारे; गुरु देवनी भक्ति पमाय-धुर स्वर्गे थइ देवतारे, लघु सुत आठमो लोकपाल रोहिणीनो ते सुर सेवतांरे ॥ रोहिणी०॥५॥ वलि खेट सुता छे च्यार-रमवाने वनमा गइरे,
*ARUSSASSIM
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श्रीरोहिणी तपर्नु
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स्तवनम्
॥१२५॥
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तिहां दिठां एक अणगार-भाखे धर्म वेला थइरे; पुछयांथी कहे मुनि तास-आठ पहोर तुम आयुछेरे, आज पंचमीनो उपवास-करश्यो तो फल दायछेरे ॥ रोहिणी०॥६॥धुजंति करी पच्चक्खाणगेह अगासे जइ सोवतीरे, पडि विजलीयें बली तेह-धुर सुरलोके देवी थतीरे; च्यवि थइ तुम पुत्री च्यार-एक दिन पंचमी तप करिरे, इम सांभली सह परिवार-वात पूर्व भवनी सांभलीरे॥रोहिणी० ॥७॥ गुरु वंदी गयां निज गेह-रोहिणी तप करता सहरे, मोटी शक्ति बहुमान-उजमणामां वस्तु बहु रे; इम धर्म करी परिवार-साथे मोक्षपुरि वरिरे, शुभ वीरनां शासन मांहि-सुख फल पामो तप आदरीरे ॥ रोहिणी०॥८॥
कलश-इम त्रिजग नायक मुक्तिदायक वीर जिनवर भाखियो, तप रोहिणीनो फल विधाने विधि विशेषे दाखीओ; श्री क्षमाविजय जश विजय पाटे शुभ विजय समता धरो, तस चरण सेवक कहे पंडित वीर विजयो जयकरो ॥१॥
"इति पंडित वीर विजय रचित श्री रोहिणी तप विधि स्तवनम् सम्पूर्णम्"
॥१२५॥
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"अथ श्री बीजनुं स्तवन"
दुहा—सरस वचन रस बरसती, सरस्वती कुल भंडार; बीज तणो महिमा कहुं, जेम को शास्त्र मोझार ॥ १ ॥ जंबु द्वीपना भरतमां, राजगृही नगरी उद्यान; वीर जिणंद समोसर्या, वंदवा आव्यां राजन् ॥ २ ॥ श्रेणिक नामे भूपति, बेठो बेसण ठाय; पुछे श्री जिन रायने, द्यो उपदेश | महाराय ॥ ३ ॥ त्रिगडे बेठां त्रिभुवन पति, देशना दिये जिनराय; कमल सुकोमल पांखडी, इम जिन ह्रदय सोहाय ॥ ४ ॥ शशि प्रगटे जेम तेदिने, धन्यं ते दिन सुविहाण; एक मने आराधतां, पामे पद निर्वाण ॥ ५ ॥
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ढाल - १ -ली ॥ चैत्रशुद पंचमी दीने सूण प्राणीजीरे, ॥ ए देशी ॥ कल्याणक जिननां कहुँ सुण प्राणिजीरे, अभिनंदन अरिहंत ए भगवंत भवि प्राणीजीरे; माहा शुद्ध बीजने दिने सुण प्राणी जीरे; पाम्यां शिवसुख सार हरख अपार भवि प्राणीजीरे ॥ १ ॥ वासु पूज्य जिन बारमां सुण प्राणिजीरे, एहज तिथी नाण सफल विहाण भवि प्राणीजीरे; अष्ट कर्म चूरि करी सुण प्राणी
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भावण शुदनी की
श्रीबी- जीरे, अवगाहन एक वार मुक्ति मोझार भवि प्राणीजीरे ॥ २॥ अरनाथ जिनजी नमुं सुण प्राणीस्तवनम्
, अष्टादशमो अरीहंत ए भगवंत भवि प्राणीजीरे; उज्वल तिथी फागुणनी भली सुण प्राणी ॥१२६॥
जीरे, वरिया शिववधु सार सुंदर नार भवि प्राणीजीरे ॥३॥ दशमा शितल जिनेश्वर सुण प्राणी जीरे०, परम पदनी वेल गुणनी गेल भवि प्राणीजीरे; वैशाख वद बिज दिने सुण प्राणीजीरे०, मूक्यो सर्वे ए साथ सुरनर नाथ भवि प्राणीजीरे ॥४॥श्रावण शुदनी बीज भली सुण प्राणी जीरे, सुमति नाथ जिन देव सारे सेव भवि प्राणीजीरे; इण तिथी ए जिन भला सुण प्राणीजीरे०, कल्याणक पांचे ए सार भवनोपार भवि प्राणीजीरे ॥५॥
ढाल-२-जी॥श्री सिद्धचक्र आराधिय रे लाल ॥ ए देशी ॥ जगपति जिन चोवीशमोरे लाल, जाए भाख्यो अधिकार रे भविक जन; श्रेणिक आदि सहु मिल्यां रे लाल, शक्ति तणे अनुसार रे भविक जन॥ भाव धरिने सांभलो रे लाल, आराधे धरि खांतरे भवि० भाव० ए आंकणी ॥१॥
॥१२६॥ दोय वर्ष दोय मासनी रे लाल, आराधो धरी खांतरे भवि० उजमणुं विधीशुं करोरे लाल, बीज
सव भवि प्राणी
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श्रीबीजनुं
श० २२
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ते मुक्ति महंत रे भवी० भाव० ॥ २ ॥ मारग मिथ्या दुरे तजो रे लाल, आराधो गुण नाथ रे भवि०; विरनी वाणी सांभली रे लाल, उच्छ रंग थयां बहु लोक रे भवी० भाव० ॥ ३ ॥ एणे बीजे केइ तय रे लाल, वली तरश्ये केइ सेवरे भवि०; शशी सिद्धी अनुमानथी रे लाल, शील नाग घरो अंकरे भवि० भाव० ॥ ४ ॥ आशाढ शुदि दशमी ने दिने रे लाल, ए गायो स्तवन रसाल रे भवि०; | नवल विजय सुपसायथी रे लाल, चतुर ने मंगल माल रे भवी० भाव० ॥ ५॥ कलश - इय वीर | जिनवर सयल सुखकर गाइयो अति उल्लट भरे, आषाड उज्ज्वल दशमी दिवसे संवत अढार अट्टो त्तरे; बीज महिमा इम वर्णव्यो रही सिद्धपुर चोमासुं ए, जेह भाविक भावे भणे गुणे तस घर लील विलास ए ॥ ६॥
"इति श्री बीज स्तवनम् सम्पूर्णम्”
"अथ श्री चोवीश जिननां - आंतरानुं स्तवन"
दुहा— शारद शारदा सुपरे, पद पंकज प्रणमेव; चोवीसे जिन वर्णकुं, अंतर जिन संक्षेप
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स्तवनम्
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चोवीश
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जिन
॥१२७॥
॥१॥ वीर पार्श्वने आंतर, वर्ष अढीसे होय; पंच कल्याणक पार्श्वना, सांभलजो सहु
आंतरानुं 5॥ २॥ ढाल-१-प्रथम ॥पंच महाव्रत आदरो साहेलडी रे॥ए देशी ॥ नीरूपम नयरी वणारसी
स्तवनम् जी, श्री अश्वसेन नरीद तो; वामा राणी गुण भांजी, मुख जीम पुनेम चंद-भवि भाव धरिने प्रणमो ए पास जीणंद तो ॥ए आंकणी ॥ १॥ प्राणत कल्प थकी चव्या जी, चैत्र वदि चोथ ने दीन तो; तेहनी कुखे अवतयाँ जी, प्रभु जीम किन्नर सिंह ॥ भवी० ॥ २ ॥ पोष बहुल दशमी दिनें जी, जनम्या ए पास कुमार तो; जोबन वय प्रभु आवीयां जी, वरीया प्रभावती नार ॥ भवि०॥३॥ कमठ | तणो मद गारीजी, उद्धयों नाग सजोड लीयो तो; वद अगीयारस पौषनी जी, संयम लीयो ऋद्धि छोड ॥ भवी०॥४॥ गाज वीज ने वायरोजी, मुशल धारा मेह तो; उपसर्ग कमठे को जी, धरणेंद्रे निवार्यो तेह॥भवी०॥५॥ कर्म खपावी केवल लद्यु जी, चैत्र वदि चोथ सुजाण तो; श्रावण शुदि
॥१२७॥ दीन आठमेजी, प्रभुजीनो निर्वाण ॥ भवी०॥६॥ एकसो वर्षतुं प्रभु आउखुं जी, पास चरित्रे कडं एम तो; वर्ष चौराशी सहसनुं जी, आंतरु पासने नेम ॥भवी०॥७॥
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जिन
चोवीश
आंतरानुं ॥ ढाल-२ बीजी-सोना-केरुं मारु बेडलु रे, खाम अलगा रहेजो; रुपला इंढोणि हाथ, हो|
|स्तवनम् IF स्वाम अलगा रहेजो ॥ ए देशी ॥ शौरी पूर नयर सोहामणुं रे, जग जीवना रे नेम; समुद्र
वीजय नरपाल हो दील रंजना रे नेम, चव्या अपराजीत थकी रे, जगजीवना रे नेम, कार्तिक वदि बारस दिन हो, दिल, रंजना रे नेम ॥ ए आंकणी॥१॥ शीवादेवी कुखे अवतर्या रे, जग मान सर जिम मराल हो, दील० श्रावण शुदि दिन पंचमी रे, जग०; प्रसव्यो पुत्र रत्न हो, दील० ॥ २ ॥ जोबनवय प्रभु अवीयां रे, जग०; नील कमल दल वाण हो, दील०३ परणो सुंदर सुंदरी रे, जग०; एम कहे गोपी कान हो, दील० ॥ ३ ॥ श्री उग्रसे | ननी कुंवरी रे, जग; वरवा कीधी जाण हो, दील० पशु देखी पाछा वल्यां रे, जग हुआ जादव कुल हेरान हो, दील०॥४॥त्रोडां हारने हारडा रे, जग०, राजुल दुःख न माय हो, दील०| कहे पीउजी पाए पहुं रे, जग; छोडी मुने मत जाओ हो, दील०॥ ५ ॥कीडी| कटक करो रे, जग; ए तुम कुण आचार हो, दील. माणसनां दिल दुहवो रे, जग०; पशुआंशुं करो
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चोवीश
जिन
आंतरान स्तवनम्
॥१२८॥
प्यार हो, दील;॥६॥ नव भव नेह नीवारिओ रे, जग; देइ संबच्छरी दान हो, दील.| श्रावण शुदि छठने दीने रे, जग; संजम लीओवड वाण हो, दील० ॥ ७॥ तारी राजुल सुंदरी रे, जग०; देइ दीक्षा दाण हो, दील० अमावास्या आशो तणी रे, जग०; प्रभु लीयु केवल ज्ञान हो, दील॥८॥ सहस्र वर्ष प्रभु आउखुं रे, जग; पाली श्री जिनराज हो, दील; आषाढ शुदि दीन आठमे रे, जग; प्रभु लहे शीवपुर राज हो, दील०॥९॥
ढाल-३-त्रीजी॥ राग मल्हार॥नयरि निरुपम नाम द्वारामति डीपती हो लाल, द्वारा ॥ए देशी ॥ पांच लाख वर्ष नमि नेमिने आंतरं हो लाल, के नमि नेमिने आंतरं हो लाल; मुनिसुव्रत नमि नाथने छ लाख चित्त धरूं हो लाल, के छ लाख चित्तधरूं हो लाल; चौपन लाख वर्ष मुनि सुवृत मल्लीने हो लाल, के सुव्रत मल्लीने हो लाल कोड सहस वली जाणो मल्ली अर नाथने होलाल, के मल्ली अरनाथने हो लाल॥ए आंकणी ॥१॥क्रोड सहस वर्षे करी ओछं पल्योपम हो लाल, के ओछं०; चोथो भाग अरनाथने कुंथु नाथ ने हो लाल, के कुंथु०; पल्योपमर्नु अडधजाणो शांती कुंथुने
॥१२८॥
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जिन
आंतरानुं स्तवनम्
चोवीश होलाल के जाणो शांती०; शांतीधर्म पल्योपम उणे सागर त्रण्ये होलाल,के उणे सागर॥२॥सागर चार
अणंतने धर्म जीणंदने हो लाल, के धर्म; नव सागर वली अनंत विमल जिण चंद्रने हो लाल, के विमल जिण; सागर त्रीश विमल वासुपूज्य जिणेशने हो लाल, के वासुपूज्य जि०; सागर चोपन श्री वासुपूज्य श्रेयांसने हो लाल, के वासुपूज्य ॥३॥ लाख पांसेठ सहस छबीस वर्ष सो सागलं हो लाल, के वर्ष०; उनी सागर क्रोड श्रेयांस शीतल करे हो लाल, के श्रेयांस०; सुविधी
शीतल ने नव कोड सागर भावजो हो लाल, के सागर० सुविधी चंद्रप्रभु सागर क्रोड नेQ गावजो, द्र हो लाल, के नेवु०॥ ४॥ सागर नवसे क्रोड सुपार्श्व चंद्रप्रभु हो लाल; के सुपार्श्व०; सागर नव सहस्र
कोड सुपास पद्म प्रभु, हो लाल, सुपास०; सुमती पद्म प्रभु ने सहस्र क्रोड सागरुं हो लाल, के क्रोड सागरुं०; सुमति अभिनंदन नव लाख, क्रोड सागर वरु, हो लाल, के क्रोड०॥५॥ दश लाख क्रोड सागर संभव अभिनंदने, हो लाल, के संभव०; त्रीश लाख क्रोड सागर संभव जिन अजितने हो लाल, के संभव०; पचाश लाख कोड सागर अजित जिन ऋषभने
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चोवीश जिन
॥१२९॥
हो लाल, के अजीत; एक कोडा कोड सागर ऋषभने वीरने हो लाल, के ऋषभने०॥६॥अंतर काल आंतरानुं जाणो जिन चोविशनो होलाल, के जिन; सहस बेंतालीश तीन वर्ष वली जाणीए हो लाल; के स्तवनम् वर्ष; साडा आठ महीना उणा ते वखाणीए हो लाल, के उणा; नवसें ऐंसी वर्षे होय पुस्तक वांचना हो लाल , के पुस्तक० ॥७॥ ___ ढाल-४-चोथी ॥ दिन सकल मनोहर ॥ ए देशी॥जायो आदि जिणेशर, त्रीभुवननो अवतंसः।
नाभिराजा मारुदेवा, कुल मानु सर हंस; सर्वार्थ सिद्धथी, च्यव्या इक्ष्वाकु भूमि वर ठाम; अशाड ||8 वदि चोथ ने दीने, अवतयाँ पुरुष प्रधान ॥१॥ चैत्र वदि आठम दीने, जनम्या श्री जिनराज; आवे । इंद्र इंद्राणी, प्रभुजीनां गुण गावे; सुनंदा सुमंगला, वरीआ जोबन पाय; भरतादिक एकसो, पुत्र पुत्री दोय थाय ॥२॥ करी राज्यनी स्थापना, वासी वीनीता इंद्र; जग नीती चलावे, मारु देवीनो नंद; सवि शिल्प देखाडे, वारे जुगलो आचार; नर कला बहोतेर; चोशठ महीला सार ॥३॥ ॥१२९॥ भरतादीकने दीए, अंगादिकनु राज्य; सुरनर एम जंपे, जय जय श्री जिनराज; दीए दान
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चोवीश जिन
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संवच्छरी, प्रभु लीओ संयम भार; चार सहस्र राजाशें, चैत्र वदि आठम सार ॥४॥प्रभु विचरेडा
आंतरार्नु महीयल, वर्ष दिवस विणा हार; गज रथने घोडा, जन दीए राज कुमारी; प्रभु तो नवि लेवे, जोवे
स्तवनम् शुद्धो आहार; पडी लाभ्या प्रभुजी,श्री श्रेयांस कुमार ॥ ५॥ फागण अंधारि, अगीयारस शुभ ध्यान; प्रभु अट्रम भक्ते, पाम्या केवल ज्ञान; गढ त्रण रचे सुर, सेवा करे कर जोड; चक्र रत्न उपन्यु, भरत तणे मन कोड ॥६॥ मारुदेवा मोहे, दुःख आणे मन जोर, मारो ऋषभ सहे छे, वनवासी दुख घोर; तव भरत पयंपे, त्रीभुवन केरुं राज; आवो आइजी तमने, देखाडुं हुं आज ॥७॥ गजरथमां बेसाडी, समवसरणनी पास; भरतेसर आवे, प्रभु वंदन उल्लास; सुणी देवनी दुंदुभी, उल्लसित आणं| दपुर, आव्यां हर्षनां आंसु, तिमिर पडल गयां दूर ॥॥ पूत्रनी ऋद्धि देखी, एम चिंते मन मात; धीक्| धीक् कुडी माया, कीना सुत कीना तात; एम भावना भावतां, पाम्यां केवल ज्ञान; तत्क्षण मारुदेवा, त्यां लह्यां निर्वाण ॥ ९॥ धन्य धन्य एप्रभुजी, धन्य एहनो परिवार; लाख पूर्व चौराशी, पाली आयु उदार; माहा वदि तेरस दीने, पाम्या सिद्धर्नु राज; अष्टापद शीखरे, जय जय श्री जिनराज ॥१०॥
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नाथ
IP कलश-चोविश जिनवर तणो अंतर, भण्यो अति उल्लास ए; संवत सत्तर तहोंतेरे एम, रही सुरत है। श्रीचतु.
शांतिदेश गुण
|चोमासु ए; संघ तणे आग्रहे ग्रही में,श्री विमल विजय उवझाय ए; तस शिष्य रामें तस नामे, वर्यो स्थान जय जय कार ए ॥१॥
स्तवनम् "इति श्री चोविश जिन आंतरानुं स्तवन सम्पूर्ण" ॥१३०॥
"श्री शांतिनाथ स्तुतिगर्भित चतुर्दश गुणस्थान स्तवन" ॥ दुहा ॥ सकल मंगल करण सदा, श्री शांतिनाथ गुणगेह; तस मुख पंकज वासिनी, प्रणमुं |सरश्वती तेह ॥१॥बे कर जोडी वीन, सुणजो स्वामी कृपाल; कर्मजोगे ए जीवडो, भम्यो
अनंतो काल ॥२॥ विण गुण ठांणक जाणता, किंम लहीए सुध धर्म; तेणे हुं संक्षेपे कहूं, जिम दा॥१३०॥ पंथ कुपंथ समजाय ॥३॥
ढाल १ -ली॥ चोपाइ ॥ अशो सुदि सातम सुविचार, ओली माडी स्त्री भरतार;॥ए देशी॥प्रथम
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श्रीचतु-| देश गुण- स्थान
मिथ्यात्व गुणठाणुं कहुं, बीजुं साखदन नामे लहुं; मिश्र गुंणठाणुं त्रीजुं सुणुं, अविरति समकित
शांतिद्रष्टी चोधुं गणुं ॥ ४॥ देश विरति गुणठाणुं पांचमुं, छटुं प्रमत्त अप्रमत्त सातमुं; आठमुंअपूर्वकरण नाथ गुणठाण, नउमुं अनिवृत्तिबादर वखाण ॥ ५॥ दसमुं गुणस्थानक सुक्ष्मसंपराय, उपशांत मोह स्तवनम् इग्यारमुं कहेवाय; क्षीणमोह गुण स्थानक बारमुं, तेरमुं सयोगी अयोगी चौदमुं॥६॥ कह्या गुणठाणां ए नामथी सार, हवे कहूं भेदथी अल्प विचार; प्रथम मिथ्यात्व किम गुणठाणुं होए, ते कहूं गुणस्थानक ग्रंथे जोय॥७॥व्यक्त अव्यक्त मिथ्यात्व बे प्रकार, अव्यक्त ते अव्यवहार राशि मोजार; व्यक्त मिथ्यात्व व्यवहार मांहि लहुँ, तिणे ए प्रथम गुणठाणुं सद्दहुं॥ ८॥ तेहना भेद छे दश प्रकार, जुओ श्री ठाणांग सूत्र मजार; धर्मनें विषं जिहां अधर्मनी बुध्धि, अधर्मने विषे जे धर्मनी शुद्धि ॥ ९ ॥ इत्यादिक दस बोल छे जिहां, वली संशयादिक पांचे कह्यां; एहनी नथी। आदि भव्यनी छे अंत, अभव्यने नथी आदि ने अंत ॥ १०॥ एकसो वीश प्रकृति बंधनी कही, तेहमां एत्रण बांधे नही; तीर्थंकर नाम आहारक शरीर, अंगोपांग एहनां जाणुं धीर
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श्रीचतुदश गुणस्थान
॥१३१॥ |
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॥ ११ ॥ सत्तरोत्तरीसो प्रकृति बंध उदे होय, सत्तामां एकसो अडतालीश जोय; एहने उदए च्यार गतिए भम्यो, अनंत पुद्गल परावर्त नीगम्यो ॥ १२ ॥ राज ऋद्धि पाम्यो बहु वार, पांम्यो अर्थ गर्थ भंडार; जिहां लगें न गयुं ए मिथ्यात, तिहां लगिं एके नावी लेखे वात ॥ १३ ॥ ४ स्तवनम् जिहां राजा मोह तिहां ए छे प्रधान, तेणे एहनी वर्ति बहू आण; एह विचार प्रथम गुणठाणा तणो, हवे एहनी करणी तुझे सुणो ॥ १४ ॥
ढाल – २ – बिजी - ॥ राग मारु ॥ कुंअर गभारो नजरे देखतांजी ॥ ए देशी ॥ जूओ जुओ करणी ए मिथ्यात्व नी रे, सर्व कष्ट रद कर एह जिम ताव मांहि खीर भोजन करीरे, बहु दुःख पामे देह; जुओ जूओ करणी ए मिथ्यात्वनीरे ॥ ए आंकणी ॥१५॥ जे जे दर्शनीने जई पूछीए रे, कहे ते नव नवा आचार; एक कहे ईश्वर इच्छा छे जेहवी रे, ते तिम थाय निरधार ॥ जूओ जूओ० ॥ १६ ॥ एक कहे स्नान होम त्रपण करि रे, एक कहे वेदोक्तिथी मोक्ष; एक कहे टाढ ताप भुख तृषा सहोरे, एक कहे जाणि बहु दोष ॥ जूओ जूओ० ॥ १७ ॥ एम अन्य दर्शणे वात छे घणी रे, ते में कहीअ
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शांति
नथ
॥१३१॥
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श्रीचतु- दश गुण-
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न जाय; पण अश्रुद्ध । करि जे जिन दर्शण लही रे, ते वात हैये न समाय ॥ जूओ जूओ ॥१८॥ शांतिएक मलीन वस्त्र पहेरी कष्ट क्रिया करे रे, वली कहे अम्हे अणगार; करे बाहिर यतना लोक देखा नाथ डवा रे, अंतर यतना नही लगार ॥ जूओ जूओ ॥ १९ ॥ आप प्रशंसे पर निंदे घणुं रे, सिद्धांत
स्तवनम् भणी थापे निज मति; कलह कारी कदाग्रहथी भस्या रे, ते देखी मूढ पामे रति॥जूओ जूओ॥२०॥ एक जिन प्रतिमानी अविधि करे घणी रे, विनय न जाणे लगार; पुत्र कलत्र धन संपद।भणी रे, यात्रा माने वारंवार ॥ जूओ जूओ ॥ २१ ॥ एक मूढ जिन प्रतिमा माने नही रे, कहे अहीं आरंभ अपार; बीजी व्यवहारनी करणी करे घणी रे, धरि चित्तशु द्वेष गमार ॥ जुओ जूओ ॥ २२ ॥ एका द्रव्य संयम लेइ विकथा मांहि नीगमें रे, देव धर्म न जाणे धुर; आत्म तत्वनी खबर पडे नही रे, एम वाध्यु मिथ्यात्वर्नु पूर ॥ जूओ जूओ ॥ २३ ॥ उपशम समकित लहि पडतां थकां रे, जीव आवे बीजे गुणठाण; तिहां छ आवली समकित फरशे सही रे, खीर खांड वमन समान ॥ जूओ जूओ ॥ २४ ॥ नरक गति आयु आनुपूर्वी ए त्रण कहीरे, एकेंद्रियादिक च्यार जाति; थावर सुक्ष्म अप
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नाथ
श्रीचतु- र्याप्त साधारण सहि रे, हुंडक आतप मिथ्यात ॥ जुओ जुओ ॥ २५ ॥ सेवा” संघयण नपुंसक वेद । शांतिर्दश गुण-जाणी ए रे, ए सोल न बांधे निरधार; एकसो एक प्रकृति बांधे सही रे, उदय होय एकसो अग्यार में स्थान । जूओ जूओ ॥ २६ ॥ त्रीजुं गुणठाणुं अंतर्मुहर्तनुं सही रे, जिहां हरिहर जिनदेव समान; राग
स्तवनम् ॥१३२॥
द्वेष नही जिनधर्म मिथ्यात्वशुं रे, सर्व वर्ते एक तान ॥ जूओ जूओ ॥ २७ ॥ तिरियंच गति आयु आनुपूर्वी एहनी रे, डुर्भाग्य डुःश्वर अनादेय; निद्रा निद्रा प्रचला प्रचला थीणद्वि कही रे, कषाय अनुत्तानुबंधी जोय ॥ जूओ जूओ॥ २८ ॥ संघयण ऋषभनाराच नारच जाणी ए रे, अर्धना राच कीलिका ए चार; संस्थान निग्रोध सादि वामन वली जाणीए रे, कुब्ज नीच गोत्र विचार ॥
ओ जूओ ॥ २९ ॥ आयु देव मनुष्य माहि भेलीये रे, ऊखगइ स्त्रीवेद उद्योत; ए सतावीश न बांधे बांधे चिहुत्तर सही रे, उदय प्रकृति सो होत ॥ जूओ जूओ ॥३०॥ केम फिरि आधे जीव मिथ्यात्वमा रे, किम समकित पामें सोय; ए गुणठाणे काल धर्म नही जीवने रे, ए वात निश्चय
॥१३२॥ होय ॥ जूओ जूओ ॥३१॥
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शांतिनाथ स्तवन
श्रीचतु- ढाल-३जी-देश सोरठ द्वारापूरी|अथवाजुओ जुओ अचिरज अति भलं॥ए देशी॥धन धन ते दिन दश गुण-तेघडी, जब पामुं चोथु गुणठाणुंरे; जे हर्ष ते दिन उपजे, कहो केम ते वखा[रे धन धन ते दिन ते घडी स्थान | ए आंकणी॥३२॥ कषाय जे अप्रत्याख्यानीया, रोके गुणवत तेहरे; केवल समकित जिहां अनुभवि,
उच्छेदे मिथ्यात्व जेहरे; धन धन० ॥३३॥ कहूं भेद हवे समकितना, क्षाइक वेदक निरधाररे;क्षयोपसम उपसम रुचक वली, कारक दीपक प्रकाररे; धन धन०॥३४॥ च्यार कषाय जे अनंतानु बंधिआ,मोहनी मिश्र सम कित मिथ्यातरे; ए सातेना क्षये क्षायिक हुए, ए उपशमे उपशम विख्यातरे;धन धन०॥३५॥ क्षयोपशम काइ क्षिणतो, रुचिक रुचि करि जाणुंरे; धर्म करे कारक भलं, दीपक दीवा परि मानुरे; धन धन०॥ ३६ ॥ करुणा वच्छल सज्जन पणुं, करि आतम निंदा जेहरे; समता भक्ति वैरी ग्यता, धर्मराग आठ गुण एहरे; धन धन ॥ ३७॥ जीवादिक नव तत्व जे, तिहां उपजे नही संदेहरे; सहज नही प्रपंचर्नु, समकित लक्षण एहरे; धन धन०॥ ३८ ॥ ज्ञान गरव मति मंदता,
१ उपशम । २ क्षयोपशमे । ३ उपशम । ४ विराजता ।
शां० २३
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शांति
नाथ
श्रीचतुदेश गुणस्थान
स्तवनम्
॥१३३॥
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बोलि निठुर वचन उल्लासरे, रुद्र भाव आलस दिशा, होय एहथी समकित नाशरे, धन धन०॥३९॥ शंका कंखा वितिगिच्छा, करे अन्य दरशणनी सेवरे; वली प्रशंसा मिथ्यात्वनी, ए अतिचार टालो नित्य मेवरे; धन धन०॥ ४०॥ देव गुरु श्री संघनी, भक्ति करि दृढ चित्तरे; जिनशासन उन्नति करी, इम समकित अजुआले नीत्यरे; धन धन० ॥४१॥ आयु देव मनुष्यनु, तीर्थकर गोत्रज साररे; ए त्रय प्रकृति मांहि भेलता, बांधि सत्तोत्तेर निरधार रे, धन धन०॥ ४२ ॥ उदय प्रकृति एकसो च्यारनी, जघन्य स्थिति अंतरमुहूर्त दिशरे; उत्कृष्टी स्थिति वली एहनी, साधिक सागर तेत्रीशरे; धन धन०॥ ४३ ॥ आत्मीक सुख जिहां अनुभवी, रहि जगतशुं उदासरे; भाषे नही मुखे दीनता, करे निशिदिन ज्ञान अभ्यासरे; धन धन० ॥ ४४ ॥
ढाल-g-थी॥ ओषारणनी॥धन साधु मृगासुत दिसि.॥ए देशी॥ एणिविधि समकित पामे प्राणी, इम बोले श्री केवलनाणी; केईक सहज स्वभावे जागी, कोइक गुरु वचने लागि॥एणिविधि
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॥१३३॥
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श्रीचतुदश गुणस्थान
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समकित पामे प्राणी ॥ ए आंकणी ॥ ४५ ॥ आतम परचित परगुण त्यागिं, राग द्वेषथि वेगलो भागि; जेहवो मार्ग जिनवर भाषे, तेहवो निज हीयामांहि राखे; एणिविधि० ॥ ४६ ॥ हंस तणी परे करि य परिक्षा, जेम लहे तेहनी दे श्रुशिक्षा; परनुं कीधुं गुण बहु जाणे, धर्माचार्यनें अति घणुं |माने; एणिविधि० ॥ ४७ ॥ शुभ अशुभ कर्म उदय जे आवे, ते भोगवतां रति अरति न पावे; कांक्षा सहित जे न करे धर्म, कल्पनाथी बंधाए कर्म; एणिविधि० ॥ ४८ ॥ समकितविण जे तप जप क्रिया, जाणुं जिम विणमेहि हरिआ; समकितनी वात कहेतां नावे पार, जिम कहीए |तिम थाये वहु विस्तार; एणिविधि० ॥ ४९ ॥
ढाल - ५ - मी ॥ राग आसाउरी ॥ नमोरे नमो श्री शेत्रंजा गिरिवर ॥ ए देशी ॥ व्रत धरोरे व्रत धरो भवियण, पामो पंचम गुणठाणरे; च्यार कषाय जिहां मद्या अप्रत्याख्यानी, तेणे निरमल थाय | पञ्चखाणरे | व्रत धरोरे व्रत धरो भवियण ॥ ए आंकणी ॥ ५० ॥ करे त्याग जे मद्य मांसनुं, करि स्थूल जीवनी रक्षा जेहरे; गणे नवकार जे चोखे चित्ते, जघन्य श्रावक कहेवाय तेहरे ॥ प्रत० ॥ ५१ ॥
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शांति
नाथ स्तवनम्
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श्रीचतु
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६ मध्यम श्रावक कहीए तेहने, जे उच्चरे व्रत बाररे; करि उभय काल सामायिक चोखेचित्ते, चउ परवी शांतिदश गुणपोसह निरधाररे ॥ व्रत०॥५२॥ वहि अनुक्रमे इग्यार प्रतिमा, सहे परीसह जे थायरे; देव दानव
नाथ स्थान
जेहने न शके चलावी, ते उत्कृष्टो श्रावक कहेवायरे ॥ व्रत० ॥ ५३ ॥ आणंद कामदेव चुलणी, स्तवन
पिया, इत्यादिक श्रावक जेहरे; श्री वीर वखाणे गोयम आगल, द्रढ धर्मी कह्या तेहरे ॥ व्रत०॥ ॥१३४॥
॥ ५४॥ मनुष्यगति आयु अनूपूर्वी एहनी, क्रोध अप्रत्याख्यानी च्याररे; उदारिक शरीर एहना । अंगोपांग, वन ऋषभनाराच विचार रे ॥ व्रत०॥ ५५॥ ए दश काढतां बांधे सडसठ, एहने उदये सत्तासी जोयरे; पूर्वकोडि आठ वर्षे उणी, एनी उत्कृष्टी स्थिति होयरे ॥बत०॥५६॥
ढाल-६-ट्ठी॥ जननी मन आशा घणी ॥ ए देशी ॥ संयम मारग आदरं, चढि छठे गुणठाण, जिहां उदय नही च्यारनो, क्रोधादि प्रत्याख्यान ॥ संयम मारग आदरुं०॥ए आंकणी ॥ ५७॥
| ॥१३४॥ जिहां उदय होय पंच प्रमादनो, निद्रा विषय कषाय; धर्म राग विकथा कहि, तेणे प्रमादी कहे|
१ प्रतिक्रमण ।
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श्रीचतुदश गुणस्थान
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वाय ॥ संयम० ॥ ५८ ॥ पांच समिति त्रिहुं गुप्तिशुं, पाले पंचाचार; बावीस परिसह जीपवा, वहि पंच महाव्रत भार ॥ संयम ॥ ५९ ॥ थिविर कल्पी कांइ सरागता, जिनकल्पी निर हंकार; आरति रौद्र निवारवा, धरे धर्म विचार ॥ संयम० ॥ ६० ॥ च्यार प्रत्याख्यानी काढतां बंधे त्रेसठ होय; उदय एकाशीनुं कयुं, इम छट्ठे गुणठाणे जोय ॥ संयम० ॥ ६१ ॥ जिहां प्रमाद नही जीवने, ते कहे सत्तम गुणठाण; तिहां आतम तत्व अनुभवि, धरि निरालंबन ध्यान ॥ संयम० ॥६२॥ शोक अरति अशुभ अथिरता, अशाता वेदनीय अजस; ए छ प्रकृति काढतां, रही सत्तावन अवश्य ॥ संयम० | ॥ ६३ ॥ आहारक सरीर भेलीए, वली एहनां अंगोपांग; आयु बांध्युं न होय जो देवनुं, तो अडवन बांधे मनरंग ॥ संयम० ॥ ६४ ॥ ए ऋण प्रकृति मांहे भेलतां, बंध उगणसाठ होय; उदय छहुंतेरनुं सहि, इम सत्तम गुणठाणें जोय ॥ संयम ॥ ६५ ॥
ढाल – ७ – मी ॥ चोपाई ॥ अशोसुदि सातम सुविचार ॥ ए देशी ॥ हवे कहुं अट्ठम गुणठांण, नांम अपूर्व करण वखाण; जिहां क्षपक उपशम श्रेणी मंडाय, तिहां जीव प्रणाम अति निर्मल
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शांति
नाथ
स्तवनम्
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चतुश्री
स्थान
॥१३५॥
थाय ॥६६॥ निद्रा प्रचला देवगति आयु, जाति पंचेंद्रिय शुभ विहाउ; त्रस बादर प्रत्येक पर्याप्त || शांति भेय, स्थिर शुभ सौभाग्य शुखर आदेय ॥ ६७ ॥ तैजस कार्मण वैक्रिय आहारक, वली एहनां अंगो | नाथ पांग निरधार; पहेलु समचउरस संठाण, वर्ण गंध रस फर्ष वखाण ॥ ६८॥ पराघात अगुरुलघुः स्तवनम् उपघात, उसास निर्माण जिन नाम विख्यात; ए बत्रीश काढतां छवीस बंधाय, उदय प्रकृत्ति || बहुंतेर कहेवाय ॥ ६९ ॥ कहुं हवे अनिवृत्ति बादर गुणठांण, जिहां अधिक भाव स्थिरता अहिनाण; पूर्व भाव चलाचल जेह, सहेजे अडोल थया सर्व तेह ॥ ७॥ हास्य रति भय डुगंच्छा विण एहै, बांधे बावीस प्रकृति वली जेह; उदय प्रकृति छासहि निरधार, कहुं ए नवमा गुणठाण विचार ॥ ७१ ॥ हवे दसमुं गुणठाणुं सुणो, सुक्ष्म लोभ उदय जिहां सुणो; तिहां सर्वे अभिलाष8 सूक्ष्म होय, सूक्ष्मसंपराय कहीए सोय ॥ ७२ ॥ पुरुषवेद च्यार संज्वलन कषाय, ए काढतां प्रकृति
॥१३५॥ सत्तर बंधाय; उदय प्रकृति साठ एहनी कही, ए विच्यार दसमे गुणठाणे सही ॥७३॥ इग्यारमुं
******CARRERA
१ चउ, छेह ।
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शांतिनाथ स्तवनम्
श्रीचतु
उपशांत मोह गुणठाण, जिहां मोह उपसमावे सुजाण; तिहां यथाख्यात चारित्र प्रकाश, वली पांमी देश गुण- तेहनो होय नाश ॥ ७४ ॥ पंच ज्ञानावरणी पंच अंतराय, दर्शणा; वरणी च्यार कहेवाय; उंच गोत्र स्थान ||जस नाम ए सोल विण जेह, बांधे एक श्याता वेदनी वली तेहः ॥ ७५॥ उदय प्रकृति ओगणसाठ
कही, इम जाणो इग्यारमे गुणठाणे सही; हवे बारमुं क्षीणमोह गुणठाण, जिहां आवे यथाख्यात चारित्र प्रधान ॥ ७६ ॥ सर्व घनघाती कर्म खपावे तिहां, बांधे एक स्याता वेदनी वली जिहां; उदय प्रकृति तिहां पंचावन कही, हवे एहनि स्थिति कहुं गहगही ॥ ७७॥ छट्ठाथी बारमा गुणठाणा लगिजोय, उत्कृष्टी स्थिति अंतर मुहुर्त होय; जो एकटुं रहे छटुं सातमुं गुणठाण, तो देशे उणुं पूर्व कोडि प्रमाण; ॥ ७८॥ काल धर्म इग्यार गुणठाणे जोय, चारमे तेरमे त्रीजे न होय; जाय केडे साखादन समकित मिथ्यात्व, ए प्रमाण जिन मतमें विख्यात ॥ ७९ ॥ एणीपरे कह्यां ए गुणठाणा बार, सुणो हवे तेरमानुं कहुं निरधार; जेहना गुण कहेतां नावे पार, जो सुरगुरु करे मुखें उच्चार ॥८॥
१ साथे।
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श्रीचतुदश गुण
स्थान
॥१३६॥
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ढाल - ८ - मी ॥ राग मेवांडु ॥ पद्म प्रभुजि जइ अलगा रह्या ॥ अथवा ॥ भोली डारे हंसा विषय न राचीए ॥ ए देशी ॥ सुगुण सनेहारे जिनजी तुं जयो, सोहे तेरमें गुणठाण; शुक्लध्याने रेलयलीन थइ, तिहां पाम्या केवल नाण सुगुण० सनेहारे जिनजी तुं जयो || ए आंकणी ॥ ८१ ॥ अनंत ज्ञान दरिशण चारित्र लही, पाम्या अनंत बल तेज; तुझ दरिसण देखीने भविकने सही, उपजे अतिघणुं हेज; सुगुण० ॥ ८२ ॥ दोष अढारे रे गया मूलथी, सोहे अतिशय चोत्रीश; योजन गामिनी रे वाणी खिरे, जेहना गुणनो पार न दीश सुगुण० ॥ ८३ ॥ लोकालोक प्रका शक तुं प्रभु, रूपी अरूपि जांणेरे जेह; केवलझानीरे जे होवे सही, सोहे ए गुणठाणेरे तेह | सुगुण० ॥ ८४ ॥ सता पंचाशीरे रही च्छारशी, उदय प्रकृति बेंतालीश होय; समयिक बंधीरे स्याता रही, नावे जे सुख तोलेरे कोय ॥ सुगुण० ॥ ८५ ॥ आठ वर्ष ऊणीरे पूर्व कोडीनी, कहि उत्कृष्टिरे स्थिति रे एम; अंतरर्मुहुरन्तनीरे जघन्य स्थिति कही, मध्यम स्थीति कहेवाय केम | सुगुण० ॥ ८६ ॥ कहुं अयो
१ रज जेवी ।
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शांति
नाथ
स्तवनम्
॥१३६॥
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श्रीचतुदशगुणस्थान
शांतिनाथ. स्तवनम्
गीरे गुणठाणुं चौदमुं, पंच अक्षर लघु स्थिति जेह; योग रंधीरे शैलेशी करण करी, सर्व कर्म छेदीरे एह ॥ सुगुण०॥ ८७ ॥ अजर अमर रे निकलंक थई, पाम्या मोक्ष सुठाम; अष्ट गुणेरे करी शोभे सदा, ते सिद्ध करुं प्रणाम ॥ सुगुण०॥ ८८॥ कह्या गुणठाणारे ए व्यवहारथी, निश्चय एक चेतन अभेद; शुद्ध नयनेरे जे समझे सही, न रहे रे तेहने मन खेद ॥ सुगुण० ॥ ८९ ॥ च्यार गुणठाणारे जे कह्या आदिनां, ते लाभे देव नारकीरे मोझार; देश गुणव्रत सहित पांच गुणठाणा लगि, गर्भज तिर्यंच मांहि विचार ॥ सुगुण०॥९०॥ चउद गुणठाणारे लाभे मनुष्यमां, ते पण चोथे आरे रे जोय; पंचम |आरेरे षटू सत्तम लगे, ते पण कोइकमां रे होय ॥ सुगुण ॥ ९१॥ ___ कलश-राग धन्याश्री ॥ एणीपरे गुणठाणा कह्या, कर्मग्रंथ जिन आगम जोइरे; ए मांहि असत्य कहेवाणुं होय जे काइ, होजो मिच्छामिदुक्कड सोइरे ॥९२॥ सुण सुण शांतिजिणेश्वरुपए आंकणी॥ एक वीनतडि अवधारोरे; तुझ शरणागते आवीयो, भव भ्रमण भय निवारुरे ॥ सुण सुण ॥ ९३ ॥
१ पांच हस्व अक्षर।
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Kailag
Gyamandie
दशमता धिकारे
वर्धमान स्तवनम्
॥१३७॥
शुद्ध निमित्त छे प्रभु ताहरूं, तो ते आवे लेखेरे; जो लगन थइ तुझ नाममां, तो निज श्वरुपने देखेरे। सुण सुण ॥ ९४॥ कष्ट करे क्रिया करे, विविध करुं व्यवहाररे; ज्ञानदिशा विण जीवने, नहिं दुख छेह लगाररे ॥ सुण सुण०॥ ९५॥ अचिरा नंदन तुं जयो, विश्वसेन कुल राय दिणंदरे; मारि'नीवारी देशथी, तुझ जन्मे जिणंदरे ॥ सुण सुण ॥९६॥ चक्रवर्ती थयो पांचमो, वेली सोलमो जिनवर होयरे; एकण भवे दोय पदवी लही, तुझ समो अवर नही कोयरे॥सुण सुण ॥ ९७ ॥ श्री विधिपक्ष गच्छे दीपता, श्री कीर्तिरत्नसूरि सोहेरे; तस शीश शिवरत्न कहे, तुंझ आधार छे जगदीशो रे॥सुण सुण०॥९८॥
॥ इति श्री चतुदेश गुणस्थानक गाभत शांतिनाथ स्तवनम् ॥
॥१३७॥
“अथ श्री दस मताधिकारें वर्धमान जिन स्तवन" ___ दुहा-सुखदाई चोविसमो, प्रणमि तेहना पाय; गुरुपद पंकज चित धरि, श्रुत देवी सारदाय
१ मरकी.२ सौभाग्यरत्न ।
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Acharya Shri
Ka
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दश मता धिकारे
॥१॥त्रण तत्व स्वरुप छे, आत्म तत्व धरेय; देव तत्व गुरु तत्वहें, धर्म तत्व जो लेय ॥ २॥ तास , वर्धमान परिक्षा कारणे, शुद्धा शुद्ध स्वरुप; कहेशुं ते भवि सांभलो, भाख्यो त्रिभुवन भूप ॥३॥
स्तवनम् ___ ढाल-१-प्रथम-जिहो प्रणमु दिनप्रति जिनपति लाला, शिवसुख कारि अशेष ॥ ए देशी जिहो चरम जिणेश्वर शिव गयारे लाला, वर्ष एकविस हजार; जिहो शासन श्री वर्धमाननो लाला, रहेशे जंबु भरत मोझार ॥ भविक जन ओलखो धर्म श्वरुप ॥जेहथी माने सुरनर भूप॥भविक जन ओलखो धर्म श्वरुप ॥ ए आंकणी ॥ १॥ जिहो अनुयोग द्वारमांहि कह्योरे लाला, आगम त्रण प्रकार; जिहो संप्रति सम परंपरारे लाला, माने नहि ते गमार ॥ भविक०॥ जेहथी० ॥२॥ जिहो वीरथी सुरि परंपरारे लाला, दुपसह लगण निरधार; जिहो वर्तवे मारग विरनोरे लाला, उपदेश माला अधिकार ॥ भविक०॥ जेहथी०॥३॥ जिहो जिहां तीर्थंकर विना नवी होवेरे लाला, तीर्थ | तणो उद्धार; जिहो सुरि विना शोभे नहिरे लाला, गच्छ तणो वीचार ॥ भविक० ॥ जेहथी०॥४॥ जिहो महानिसिथे भाखियारे लाला, सुरिना पंच प्रकार; जिहो पडते काले एवा होशेरे लाला,
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दश मता
वलि अनुयोग द्वार ॥ भविक०॥ जेहथी० ॥५॥जिहो वकुसने कुसिलनारे लाला, तेहना पञ्चविस वर्धमान धिकारे
|भेद; जिहो जोइ महा निसिथनेरे लाला, पछे धरज्यो खेद ॥ भविक० ॥जेहथी०॥६॥ जिहो भष्म स्तवनम् ॥१३॥ ग्रहना योगथिरे लाला, पडता कालनो स्वभाव; जिहो बाह्य क्रीया आडंबरेरे लाला, धुत्यानो मल्यो ।
छे दाव ॥ भविक०॥जेहथी॥७॥ जिहो वीर वचन उथापतारे लाला, फरता फरे जिम ढोर; जिहो
परम पदना प्रगट छेरे लाला, सहि ते जाणो चोर ॥ भविक० ॥ जेहथी०॥८॥ जिहो ममते जेणे ४ काटियारे लाला, तेहनो सुणो अधिकार; जिहो मत तिहां धर्म नहिरे लाला, जाणो भवि निरधार । भविक० ॥ जेहथी०॥९॥ जिहो तत्व पदारथे तत्वनेरे लाला, जांणिने जे नर ध्याय; जिहो। सुयस सुख लहश्ये घणोरे लाला, तेहना त्रिलोक सुरगुण गाय ॥ भविक० ॥ जेहथी० ॥१०॥
ढाल-२-बीजी ॥ धन धन संप्रति साचोराजा ॥ ए देशी ॥छसेंनें नव वर्षे महावीरथी, दीगं जबर मत थाप्योरे; आपमते नवा शास्त्र उपावी, वीर आगम उथाप्योरे; ॥१॥ धन धन श्री महावीर |जिनीवाणी, सकल सुखनि खांणिरे; साते नए चउ नीक्षेपे मलति, पांचमे प्रकरणे वखाणिरे ॥धन
॥१३
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दश मता धिकारे
शां. २४
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धन ॥ ए आंकणी ॥ २ ॥ नारीने न मुक्ति माने मुर्ख, खुहा पिवा सांहि भेदरे; त्रिलोक सार विसार विचारय तो, नारिने मुक्ति ज्युं वेदरे ॥ धन धन ॥ ३ ॥ ब्राह्म सुंदरी चंदन बाला, राजीमति जोनास्चरे; गोमटसार वृति जो जोतो, मुक्ते पहोंची छे नायरे ॥ धन धन ॥ ४ ॥ विक्रमथी अगी यारसें वर्षे, वली ओगणसाठ अधिकरे; पुन्य विहुणा पुनमीया उपना, जावाने नर्क नजीकरे ॥ धन धन ॥ ५ ॥ वीरजीए सुगडांगे चउदश भाषि, ते कीम आदरी पाखीरे; आवस्यक चुर्णे ने महानि सिथे, तीहां पण चउद्दश दाखीरे ॥ धन धन ॥ ६ ॥ कंबल संबल सागरचंद, आठम चउदश पोसहरे; विवहार चुर्णे जोज्योने मूर्खो, मत धरो मनमां धोस्यारे ॥ धन धन ॥ ७ ॥ पन्नर दिने आवे ते पाखि, चउदशे आलोयणा भाखिरे; पुनमनो दिन सर्वथा वर्जवो, सुगडांग टिका छे साखिरे ॥ धन धन ॥ ८ ॥ संवच्छर द्वादशने चार, विक्रमनो नीरधाररे; खर सरिखा खरतर उपना, पुजा त्रिने | निवारीरे ॥ धन धन ॥ ९ ॥ कल्यांणक पट वीरनां थाप्यां मास कल्प कस्यो दुररे; दुःख देखसे आगल जाता, भवो दधिने पुररे ॥ धन धन ॥ १० ॥ श्रावण भाद्रवा दो जिणे वर्षे, पंचास दिव
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वर्धमान स्तवनम्
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वर्धमान
दशमता धिकारे
स्तवनम्
॥१३९॥
4560555CARRORSC)
सने फरषेरे सित्तेर दिवसने दुरे वारे, तो मूढमती कीम तरशेरे॥धन धन ॥११॥दुपदि ज्ञात्रा श्रुत्रे पुजे,। जिन प्रतिमा त्रण कालरे; कल्याणक षट कांइ न दीसे, श्रुत्र चरित्र निहालरे ॥ धन धन ॥ १२॥ अधिक मास मंगलिकने कामे, क्याए न दिसे रीतरे; धर्म कर्मनो एकज मारग, राजा रुषि एक नित्यरे ॥ धन धन ॥ १३ ॥ आगलथी पञ्चास जो लेस्यो, तो पुटे कीम करश्योरे; समवायंगना अर्थ जोतांतो, भवोदधि कहो कीम तरश्योरे ॥ धन धन ॥ १४ ॥ उतराध्यन आगममां कह्यो, मास कल्प उपदेशरे; ते देखिने कीम नवि मानो, मुनीनो धर्म विशेषरे ॥ धन धन ॥ १५॥ आचा रंगथी अर्थ लहीने, जे मुनि पंचमे कालेरे; वाचकजस कहे तेहने भामणे, जे शुद्ध मारग पालेरे॥ धन धन ॥ १६ ॥ | ढाल-३–त्रीजी॥मोरडीनी देशी ॥ विमलजिन विमलता ताहरीजी॥ ए देशी ॥ मुनीवर वेष धर्यों विण गुरुजी, लोपीरे गुरुनी आण; अंग उपांग उथापतोजी, धिक्क पड्यो एहनो जाण ॥ भवि मुको मंगत राहविजी ॥ ए आंकणी ॥ १॥ नाम द्रव्यने ठवण भावनाजी, भगवइ अंगे होय;
HALCARSANSA
॥१३९॥
R
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दश मता धिकारे
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| विजय देव पुजे समकीतिजी, जिवा भगवइ जोय ॥ भवि० ॥ २ ॥ तुगीया श्रावक जीन भणिजी, द्रव्य भावे पुजे त्रण काल; अन्य देव पुजे नहि समकीतिजी, जोने तुं हृदय निहाल ॥ भवि० ॥ ३ ॥ राय पसेणीरे श्रुत्रमांजी, पुजा सत्तर प्रकार; जिन पडिमा जिन सारखिजी, उपंग उवाइ ए धार ॥ भवि० ॥ ४ ॥ जंघाने विद्या चारणाजी, नवमा अंगमां ताम; नंदिसरे जाय कहो स्या भणीजी, शुं छेरे तिहां ने काम ॥ भवि० ॥ ५ ॥ छठ्ठारे अंगमां प्रतिमाजी, द्रुपादि बहुल प्रकार; पुजे छे किम ते देखो नहिजी, वैकूल हिणो गमार ॥ भवि० ॥ ६॥ दया दया मुखथी पोकारताजी, देखे नहि आगम प्रमाण; जल मांहीथीरे काढे साधुनेजी, साधवि गागमा जाण ॥ भवि० ॥ ७ ॥ शुद्ध श्रद्धा कहो किम रहेजी, जेहने बहुल संसार; शुद्ध श्रद्धा विना किम होवेजी, श्रुजस भवनोरे पार ॥ भवि०॥८॥
ढाल - ४ – चोथी ॥ कालिने पिलि वादली ॥ ए देशी ॥ संवत पंन्नर चोसठेरे लाला, कडुए काले कीधः गुरु तत्व उथापतारे लाला, खोइ अनुभव रिद्धि ॥ जोज्यो भवि पंचमा कालनो स्वभाव० ॥ प्राणियो चितलाय ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ पांचे भरते पांचमेरे लाला, काले सरिखा कीध; तो
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वर्धमान स्तवनम्
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C
वर्धमान
दश मता धिकारे
स्तवनम्
॥१४०॥
HORSHAN
पाडली पुरे कीम कहेरे लाला, मूर्ख मोटा ए मिथ ॥ जोज्यो भवी० ॥ प्राणीयो० ॥२॥ द्रव्य क्षेत्र काल |भावनारे लाला, आगमे प्रगट ए पाठ; भेद महानिसीथे घणारे लाला, दुष्ट निमीते पडयो काल॥ | जोज्यो भवी० ॥ प्राणीयो० ॥३॥ पुरे गुण नवि पामिएरे लाला, ए तो पंचमो काल; काल विषेश नवि गणे लाला, आखें मत एक ताल॥ जोज्यो भवि०॥ प्राणीयो०॥४॥ भेद कह्या देशवृतिना लाला, ते एकवीस देख्याल; आप जोइ गुण आपणा लाला, पछे साधुना तुं भाल ॥ जोज्यो भवि० ॥ प्राणीयो० ॥५॥ सूरि आवे सिद्धाचले लाला, दशमा अंगमा धार; तो किम उतराखंडनी लाला, नावे ते अणगार ॥ जोज्यो भवि०॥ प्राणीयो०॥६॥ वकूसने कुसिलनारेलाला, तेहना बहुल प्रकार; शुद्धा शुद्ध करता थका लाला, थासे बहुल प्रकार ॥ जोज्यो भवि०॥प्राणियो०॥७॥ साधवृत्तिमा कह्मो लाला, देश वृतिनो लाग; साधु काले जे हुवेरे लाला, तेहने देवो संविभाग ॥ जोज्यो भवि० ॥ प्राणीयो०॥ ८॥ साधु विना श्रावक होसे लाला, तिहां अछेरो थाय; अछेरा भूत उपन्यो लाला, कपटी कडवो साह ॥ जोज्यो भवि०॥ प्राणीयो०॥९॥नाम लेता पण एहनो लाला, होय दुर्गती
॥१४०॥
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दश मता धिकारे
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वास; गरु विना गति नही लाला, सुजस वचन विशाल ॥ जोज्यो भवि० ॥ प्राणीयो० ॥ १० ॥ ढाल – ५ – पांचमी ॥ वैरागिनी ॥ लोको भुलोमां ॥ ए देशी ॥ संवत पन्नर सीत्तेर समेरे, विजया मतिनीरे वात; लुका मांहीथी उपन्यारे, कलि युगमे कमजातोरे ॥ लोको भूलोमा ॥ ए आंकणी ॥ ॥ १ ॥ पुजा नीवारी जिनभणि, इर्या सुमतिनी राह; माला रूप मांने नहि, कलियुगे उपनी धाडरे ॥ लोको भूलोमां ॥ २ ॥ कहेतां अवगुण एहनारे, कोइ न आवे पार; जे अवले भामे पाड्यारे, ता रुठो कीरतारोरे ॥ लोको भूलोमा ॥ ३ ॥ नागोरि तप गच्छधीरे, पाय चंद उपन्न; कलयुगे कलंकी समोरे, शांन्तिदास नीपन्नोरे ॥ लोको भूलोमा ॥ ४ ॥ सागर जेहनी उपमारे, तेहना रे जलना खभावरे; पिधे जीम दुःखिया होयेरे, दुःख समुद्र नीवारोरे ॥ लोको भूलोमा ॥ ५ ॥ लोभि | लंपटी जे हुतारे, मुकी लाज निज आप शांन्तिदासने जेणे कर्योरे, बुडवा भवनो पायोरे ॥ लोको भूलोमा ॥ ६ ॥ तप गच्छ मांहि करीरे, नयवेमले नविरीत; नव मानव नव सारीखोरे, घिरनो ए अवनितोरे ॥ लोको भूलोमा ॥ ७ ॥ आप मतिलो उपन्योरे, अवली जेहनी वात; आगम लोपे
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वर्षमान स्तवनम्
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दश मता
धिकारे
॥१४९॥
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आणा विनारे, तेर बोलनी वातोरे ॥ लोको भूलोमा ॥ ८ ॥ प्रथमतो इरीया वहीरे, पट आवशक्य अंत; महानिसिथे अक्षरारे, न देखे अवनीतोरे ॥ लोको भूलोमा ॥९॥ आचारंगे अंगे वस्त्रनेरे, धोवे रंगेरे जेह; पासथो ते सर्वथीरे, किम होवे साधु तेहरे ॥ लोको भूलोमा ॥ १० ॥ एकण देशे किम फरेरे, साधु जेहनोरे भेख; सकल देशे जयवरे, उतराध्येयन देखोरे ॥ लोको भूलोमा ॥ ११ ॥ संवर पांच इंद्रि तणोरे, चउ कषाय निवार; गच्छनो ममत जेहने नहीरे, ते संवेगी जाणो रे ॥ लोको भूलोमा ॥ १२॥ राग द्वेषना ममतमारे, साधु धराव्युंरे नाम; आचारज पदवि तणुरे, साधुने छे कामरे ॥ लोको भूलोमा ॥ १३ ॥ ज्ञानविमल सूरिए धर्युरे, अवनि ते ए नाम; छांडो एह नाम भणीरे, जो वांछो शिव ठामोरे ॥ लोको भूलोमा ॥ १४ ॥ षट् आवशक्ये फरी फरी मांहिरे, इरिया वहिनुंरे नाम; नवमे अंगे अक्षरारे, मूढ ने देखे तांमरे ॥ लोको भूलोमा ॥ १५ ॥ घोर घनाघन वरसतारे, विजली चिहुँ दिसि थाय; दोय घडींनो सामायिक करेरे, पुरो किणविध थायरे ॥ लोको भूलोमा ॥ १६ ॥ उ बिहारि बहुहुयारे, आगे पण मुनिराय; ममत केणे नवि आदर्योरे, ममते दूर्गते
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वर्धमान
स्तवनम्
॥१४९॥
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दशमता धिकारे
जायरे ॥ लोको भूलोमा ॥ १७॥ भाणचंद्र सरीखा थयारे, अण काले मुनि जोय; आगे पण बहुला वर्धमान हवारे, ममत न कीधो कोयरे ॥ लोको भूलोमा ॥१८॥ शुभ द्रष्ठि प्रभु तुम तणिरे, जेहने उपनीरे स्तवनम् होय; तिणे शुद्ध आदरिरे, सामाचारी जोयरे ॥ लोको भूलोमा ॥ १९ ॥ ममती मते जे पड्यारे, तेहने दुर्गति वास; उतराध्ययनमा अक्षरारे, जोइ मुको कुमति पासोरे ॥ लोको भूलोमा ॥ २० ॥ सामाचारि तप गच्छ तणीरे, आदरि शुद्ध खभाव; तप जप क्रिया जे करेरे, जश वलि होवे जावे पापोरे ॥ लोको भूलोमा ॥ २१॥ __ढाल ६-छट्टी ॥ रागधन्याश्री ॥ थुणियो थुणियो रे प्रभु तुं सुरपति जिन थुणियो ४॥ए देशी ॥ एम बोहले मत जोइने, मत भूलो भवि प्राणीरे; मत तिहां कोई धर्म न* दिशे, बोले केवल ज्ञानिरे ॥ तुव्योरे मने त्रिभोवन स्वामी तुल्यो ॥ ए आंकणी ॥१॥ मत करिने मेंतो पडतो मुक्यो, श्री आगम हित आणीरे; आणा विना कोई धर्म न दिशे, उत्तराध्येयनी वाणीरे ॥ तुव्योरे० ॥२॥ आतम ध्याने आगमे भाख्या, राग रोष तिहां नहि दिशेरे; राग
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धिकारे
॥१४२॥
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रोष तिहां बोध न दिशे, बोध विना नहि मोक्षरे ॥ तुट्योरे ॥ ३ ॥ कुमतिने तमे मुकोरे भाई, हुरे जिम जलनि खाइरे; बुडतो बुडाडे छे तमने, आचारंग सखाइरे ॥ तुठयोरे० ॥ ४ ॥ आगम लोपीने तप करे मुनिवर, वर्ष पुर्व क्रोडरे; एक दिवस आणाधारिनि, ते पण नावे जोडेरे ॥ तुट्यो रे० ॥ ५ ॥ श्रुत प्रमाणे समाचारि दिठि, साकरथी अति मीठीरे; विजयप्रभ सूरिनि वाणी, संघले लोके दीठीरे ॥ तुव्योरे ॥ ६ | श्रीमहावीरनी महेर थइ जब, कुमत मत मुकि टालीरे; नयविजय सुपसायथी जशने, आज थइ दिवालीरे ॥ तुट्योरे ॥ ७ ॥
कलश - त्रिशला ते नंदन त्रिजग वंदन, वर्धमान जिनेश्वरो मे शुध पामी अंतरजामी, वीनव्यो अलवे सरो ॥ १ ॥ शकल सुख करता दुःकृत हरता, जगत तारण जग गुरु; युग भवन संयम पौषमासे, शुक्ल सप्तमी सुख करु ॥ २ ॥ तपगच्छ राजा सुजश ताजा, श्रीविजयप्रभ दिनकर समो; नय विजय सुपसाय वाचक, जशविजय शिर नमो ॥ ३ ॥
“इति श्री दशमता धिकारे वर्द्धमान जिन स्तवनम् सम्पूर्णम्”
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वर्धमान
स्तवनम्
॥१४२॥
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वर्धमान
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"अथ श्री विजय धर्म सूरि सिस्य रत्नविजय कृत वर्द्धमान तप स्तवन"
दुहा-वर्द्धमान जिनपति नमी, वर्द्धमान तप नाम; ओलि आयंबिलनी करूं, वर्द्धमान परिणाम ॥ ९ ॥ एक एक दिन यावत् शत, ओली संख्या थाय; कर्म निकाचित तोडवा, वज्र समान गणाय ॥ २ ॥ चौद वर्ष त्रण मासनी, ए संख्या दिन वीश; यथा विधि आराधता, धर्म रत्न पद इश ॥ ३ ॥
ढाल - १ - पहेली ॥ नवपद धरज्यो ध्यान, भविक तमे नवपद धरज्यो ध्यान ॥ ए देशी ॥ तप पद धरज्यो ध्यान-भविक तमे तप पद धरज्यो ध्यान ॥ नामे श्री वर्द्धमान ॥ भ० दिन दिन चडते वान ॥ भ० ॥ सेवो थई सावधान ॥ भविक तमें तप पद धरज्यो ध्यान ॥ आंकणी ॥१॥ प्रथम ओली एम पालिनेरे, बीजीए आयंबिल दोय ॥ भ० ॥ त्रिजी एत्रण चोथी चार छेरे, उपवास अंतरे होय ॥ भविक० ॥२॥ एम आयंबिल सो वृत्तनीरे, सोमी ओली थाय ॥ भ० ॥ शक्ति अभावे आंतरेरे, विश्रामे पहोचाय ॥ भ विक० ॥३॥ चौद वर्ष त्रण मासनीरे, उपर संख्या वीश ॥ भ० ॥ काल मान ए जाणवुंरे, कहे वीर जगदीश | ॥ भविक० ॥ ४ ॥ अंतगड अंगे वर्णव्युंरे, आचार दिनकर लेख ॥ भ० ॥ प्रथांत्तरथी जाणवुरे, ए
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स्तवनम्
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वर्धमान
तप
स्तवनम्
॥१४३॥
तपर्नु आलेख ॥ भविक०॥५॥पांचहजार पञ्चाशछेरे, आयंबिल संख्या सर्व ॥भा संख्या सो उपवा सनीरे, तपमान गाले गर्व ॥ भविक०॥६॥ महासेन ऋष्णा साधवीरे, वर्द्धमान तप कीध ॥ भ०॥ अंतगड केवल पामीनेरे, अजरामर पद लीध ॥ भविक०॥७॥ श्रीचंद्र केवलीए तप सेवीओरे, पाम्या पद निर्वाण ॥ भ०॥ धर्म रत्न पद पामवारे, ए उत्तम अनुमान ॥ भविक०॥८॥ | ढाल-२॥ बीजी ॥ जिम जिम ए गिरी भटीएरे ॥ तिम तिम पाप पलाय सलणा ॥ पदेशी ॥ जिम जिम ए तप कीजीएरे, तिम तिम भव परिपाक; सलूणा, निकट भवि जीव जाणवोरे, एम गीतारथ साख; सलूणा ॥ जिम जिम ए तप कीजीएरे, तिम तिम भव परिपाक; सलूणा ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ आयंबिल तप विधि सांभलोरे, वर्द्धमान गुण खाण; सलूणा, पाप मल क्षय कारणेरे, कतक फल उपमान ॥ सलूणा ॥.जिम जिम तिम तिम॥२॥शुभ मुर्हत्त सुभ योगमारे, सद्गुरु आदि योग; सलूणा, आयंबिल तप पद उचरीरे, आराधो अनुयोग ॥ सलूणा ॥ जिम जिम०॥ तिम तिम० ॥३॥ गुरु मुख आयंबिल उच
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रीरे, पूजी प्रतिमा सार; सलूणा०; नवपदनी पूंजा भणीरे, मागो पद अणाहार ॥ सलूणा ॥ जिम | स्तवनम् जिम०॥तिम तिम॥४॥षट् रस भोजन त्यागवारे, भुमि संथारो थाय; सलूणा; ब्रह्मचर्यादि पाल वारे, आरंभ जयणा थाय ॥ सलूणा ॥ जिम जिम०॥तिम तिम०॥५॥ तप पदनी आराधनारे, काउस्सग्ग लोगस्स बार; सलूणा; खमासमणा बार आपवारे, गुणगुं दोय हजार ॥ सलूणा ॥ जिम जिमः॥तिम तिम०॥६॥ अथवा सिद्धपद आश्रयिरे, काउस्सग्ग लोगस्स आठ; सलूणा० खमा समणा आठ जाणवारे, नमो सिद्धाणं पाठा ॥ सलूणा ॥ जिम जिम०॥तिम तिम०॥७॥ बीजे दिन उपवासमारे, पौषधादि वृत्त युक्त; सलूणा; पतिक्रमणादि क्रिया करीरे, भावना परिमल युक्त ॥ जिम जिमनातिम तिम०॥८॥ एम आराधता भावथीरे, विधि पूर्वक धरो प्रेम; सलूणा०; भावो घ्यावो भविजनारे, धर्म रत्न पद एम ॥ सलूणा ॥ जिम जिम०॥ तिम तिम ॥९॥ | ढाल-३-त्रीजी ॥ नर भव नयर सोहामणुं, वणजारारे ॥ ए देशी ॥ जिन धर्म नंदन वन | भलो, राज हंसारे ॥ शीतल छाया सेविने; राज हंसारे ॥ प्राणी तुं था सावधान, अहो राज हंसारे
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वर्धमान
तप
॥१४४॥
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॥ १ ॥ अमृत फल आखादिने ॥ राज० ॥ काढ अनादिनी भुख ॥ अहो ० ॥ भव परी भ्रमणा भमतुं ॥ राज० ॥ अवसर पामी नः चुक ॥ अहो० ॥२॥ शत साखाथी शोभतो ॥ राज० ॥ पांच| हजार पच्चास ॥ अहो० ॥ आयंबिल फुले अलंकर्यो | राज० ॥ अक्षय पद फल तास ॥ अहो ० ॥३॥ विमलेश्वर सुर शांति ॥ राज० ॥ तुं निर्भय थयो आज ॥ अहो० ॥ कृत कृत्य थइ मागतुं ॥ | राज० ॥ अकल स्वरुपी राज ॥ अहो० ॥ ४ ॥ विग्रह गति वोसरावीने ॥ राज० ॥ लोकाधे कर वास ॥ अहो० ॥ धन्यतुं कृत्य पूम्य तुं ॥ राज० ॥ सिद्ध स्वरुप प्रकाश ॥ अहो० ॥ ५ ॥ तप चिंता | मणी काउस्सग्गे ॥ राज० ॥ वीर तपो धन धन्य ॥ अहो० ॥ महासेन कृष्णा साधवी ॥ राज० ॥ श्रीचंद भवजल नाव ॥ अहो० ॥ ६ ॥ सुरि श्री जगचंद्रजी ॥ राज० ॥ हीर विजय गुरु हीर ॥ अहो० मल्लवादि प्रभु कुरगड | राज० ॥ आचार्य सुहस्ती वीर ॥ अहो० ॥ ७ ॥ पारंगत तप जल धिना ॥ राज० ॥ जे जे थया अणगार ॥ अहो० ॥ जीत्या जिव्हा वादने ॥ राज० ॥ धन्य धन्य तस अवतार ॥ अहो० ॥ ८ ॥ एक आयंबिले तुटसे ॥ राज० ॥ एक हजार दश क्रोड || अहो० ॥ दस
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सौभाग्य पंचमी
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स्तवनम्
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हजार कोड वर्षतुं ॥ राज०॥ उपवासे नरक आयुष्य ॥ अहो० ॥९॥तप सुदर्शन चक्रथी ॥ राज०॥ करो कर्मनो नास ॥ अहो० ॥ धर्म रत्न पद पामवा ॥ राज०॥ आदरो तप अभ्यास ॥ अहो॥१०॥ ___ कलश-तप आराधन धर्म साधन वर्द्धमान तप परगडो, मन कामना सहु पूरवामे सर्वथा ए सूर घडो; अन्नदानथी शुभ ध्यानथी शुभवि जीव ए तपस्या करो, श्री विजय धर्म सुरिश शेवक रत्नविजय कहे शिव वरो ॥१॥
"इति श्री वर्धमान तप स्तवनम् संपूर्णम्" “अथ श्री कांतिविज्यजी कृत श्री सौभाग्य पंचमी स्तवन" ढाल १-प्रथम ॥सूरती महीनानी॥धीरपुरे एक शेठने पर्व दिने व्यवहार ॥ अथवा ॥ शासन नायक लायक शिववधु कंत मुनीश ॥ ए देशी ॥ प्रणमुं पवयण देवी रे सुर बहु सेवीत पास ॥ पंचमी तप महिमा कहुं देज्यो वचन प्रकास॥ जे सुणता दुख नीकसे रे वीकसे संपद हेज॥आगिम
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शां. १५
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सौभाग्य
स्तवनम्
पंचमी
॥१४५॥
साखे आराधतां साधता वाधे तेज ॥१॥ देव असुर नर लोके रे पुजीत त्रीभुवन भाण ॥ एक दिन नेमि समोसर्या द्वारिका नयरी उजाण ॥ त्रीगडे देव वीराजे रे गाजे दुंदुभि नाद ॥ चढत दीवाजे रे भाजे मोह तणां उन्माद ॥ २॥ कानड हलधर आदिरे यादव वीर अनेक ॥ परवर्या रुधि अछे के वांदे धरीय विवेक ॥ बेठी पर्षदा बारे रे आरे जीनने आय ॥ क्लेस मथन उपदेसतां भाषे श्री जीनराय॥३॥पंच प्रमाद नीवारो रे धारो व्रत नीज अंग । तारो आतम आपणो वारो भवनो संग ॥ आतिम सक्ति संभालो रे टालो विषय कषाय ॥ सहज धर्म अजुआलो रे एहीज तरण उपाय ॥४॥ दसण नाण चरीत्तरे ए छे मुक्तिना अंग ॥ चारीतनी भजना हुई दसण नाण स संग ॥ पहेलं ज्ञान जो होय रे तो करे क्रीआ सार ॥ अन्नाणी स्युं करस्य नाणीनी बलिहार ॥ ॥५॥ अन्नाणी फल काचे रे माचे आचे आप ॥ साचे नाणी राचे जाचे एह न ताप॥भोग उदय ते देखे रे लेखे ए तो वीपाक ॥ एहने नाण विभागे रे लागे जीम किंपाक ॥ ६॥ क्रीआ करतां केतारे नाणी वीरला होय ॥ नाण क्रीया मांहे अंतर सरसव मेरु नो जोय ॥ रुपी अरुपी
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सौभाग्य अनंत रे द्रव्य असंख्य अबाध ॥ देखे सवी जो होय रे नाण नयण नीराबाध ॥७॥नाण परम हीत बंधाला
स्तवनम् पंचमीबारे सिंधु अमृत रसरेल ॥ कामगवी चिंतामणी नाण ते मोहन वेल ॥ ज्ञान विना नर अंध रे बंध
नथी नही दूर ॥ पशु सरीखो दाखीजें बीजे ते भव भूर ॥ ८॥ देसा राहग क्रीया रे सहा राहग नाण ॥ पंचम अंग उच्छंगे अक्षर एह प्रमाण ॥ ज्ञानस्युं क्रीआ सूद्ध रे दूधमां साकर भेल ॥वार न लागेतरता करता कर्म उकेल ॥९॥ ते तो ज्ञानना ग्रंथे रे कारण भाष्य अनेक ॥ पिण पंचमी तप सरी रे नीरखु न बीजं अनेक ॥ पंचमी प्रेमें आराधो रे साधो कांति अनंत ॥जीम वरदत्त गुणमंजरी तेह सुणो वीरतंत ॥१०॥ ___ ढाल-२-बीजी ॥ चंद्राउलानी ॥ समरी श्रुत देवी सदारे॥हंस वाहन कर वेण ॥ ए देशी॥
जंबुद्वीपनां भरतमा रे, नयर पदम पदमपूर सारो; अजित सेन तिहां राजीयो रे, यशोमती भरतारो Dil॥१॥Jटक-यशोमती जण्यो नंदन वारु, वरदत्त नामे अति दीदारु; आठ वर्षनो जाणी भूपाले,
भणवा सारु मुक्यो नीसाले ॥ जी पंडीत जी जी रे ॥ करज्यो भाव विषेशे आराधन ज्ञान
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स्तवनम्
सौभाग्य पंचमी
॥१४॥
रे ॥ ज्ञान वीराधन स्वाद अछे वीष पान- रे ॥ ए आंकणी ॥२॥ ढाल पूर्वली-अक्षर तस मुख नवी चढेरे, पाकें घडे जीम कंठ; गुरु उद्यम अहिले हुओ रे, रहीयो केवल बंठ ॥ ३॥ त्रुटक–रहीयो । थाकी समजण नावी, गुरु कहे लाभ अलाभ एभावी; तरुण पणे हवे थयो ते कोढी, वेयण वाधी आडी डोढी ॥ जी पंडीत जी जीरे ॥४॥ ढालपूर्वली-एहवे ते पूरमा वसेरे, सिंहदास एक सेठ सात कोडि कंचन धणीरे, जीनमत भावित देव ॥५॥त्रुटक-जीनमत भावित ते घर घरणी, कर्परतिलका पति मन हरणी; गुणमंजरी तस पुत्री मुंगी, वीष महा मुख रोगे गुंगी ॥ जी पंडीत जी जी रे ॥६॥ ढाल पूर्वली-सोल वर्षनी ते थइरे, वर न वरे कोइ तास; मात पीतादीक ते दुखेंरे, दुःख्यां चीत्त उदास ॥७॥ त्रुटक–दुःख्या बेहु करे तिहां चिंता, एहवे देश नयर, विहरंतो; वीजयसेन सूरी चउनाणी, आव्या ते पूर गुरु गुण खांणी ॥ जी पंडीत जी जी रे ॥८॥ ढालपूर्वली-पुत्र सहीत पूरनो धणीरे, सपरीवार सिंहदास; लोक सकल नगरी तणारे, गुरु पद वांदे उल्लास ॥९॥ त्रुटक-गुरु वांदी बेठा मुख आगे, देशना में गुरु भाव वैरागे; ज्ञान आरा
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॥१४६॥
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सौभाग्य धन करज्योरे प्राणी, ज्ञान विराधन डुखनी खाणी ॥ जी पंडीत जी जी रे ॥ १०॥ ढाल पूर्वली स्तवनम् पंचमी मनथी झान वीराध तारे, होय सूनां अविवेक; वचन थकी मुख रोगीया रे, होय वली मुंगा छेक्|
॥ ११॥ त्रुटक-होय वली कोढी काय विराधे, मन वच काया ए ज्ञान जे बाँधे; इह भव परभव नीर्धन रोगी, ते परीवारना होय वियोगी ॥ जी पंडीत जी जी रे ॥ १२ ॥ ढालपूर्वली-सिंहदास या पूछे तीसे रे, पामी सदगुरु जोग; भगवन स्ये कमें हुओ रे, मुज पुत्रीने रोग ॥१३॥त्रुटक-मुजने पुछे ।
स्युं महाभाग, वीषम कर्म ते फल किंपाक; पूर्व भव एहनो कहुं माडी, सांभलज्यो सहु आलस छांडी ॥ जी पंडीत जी जी रे ॥ १४ ॥ ढालपूर्वली-धातकी पूर्व भरतमा रे, खेटक नगर पूराणो;18 सेठ सुंदरीनो धणी रे, जीनदेव नामे जांणो ॥ १५ ॥ त्रुटक-जीनदेवने श्रुत पांच वखाणो, आस तेज गुणपाल प्रमाणो; धर्मपाल धर्मसार ए वाल्हा, माए लाड लडाव्या काला॥ जी पंडीत
जी जी रे ॥ १६ ॥ ढालपर्वली-च्यार हुइ वली बेटडी रे, प्रथम लीलावती नाम; सीलावती सारंगावतीरे, वली मंगावती नाम ॥ १७॥ त्रुटक-वली ते सूत भणवानी आसे, मुंके अध्यारु ने
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सौभाग्य पंचमी
॥१४७॥
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पासे; प्रेमे जो उध्यम उल्लासे, कांति सकल विद्या अभ्यासे ॥ जी पंडीत जीजी रे ॥ १८ ॥ ढाल - ३ – त्रीजी ॥ करहलडीनी ॥ देहरे शिखर चढावीयो रे ॥ स्थीर न रहे तेणि वार ॥ ए देशी ॥ नंदन ते जीन देवना, करता अति चपलाई; काइ न विद्या साधे हो लाल, बोले बोल कु देवनां, रस राता मद मद माता; न भणे पल
एक आधें हो राजि ॥ १ ॥ सीख न माने हीत तणी, दुःख रोता मुख जोता कहे; नीज माता आगे हो राजि०; मारे तार्डे अम भणी, अध्यारु हतियारो; खारो अमने लागे हो राजि ॥ २ ॥ मात कहे नंदन शुणो, काम कीस्यो भणवानो; मानो सीक्षा मानी हो राजि०; नाम लीयें जो तुम तणो, तो हीयडामां साह्मां हणज्यो; इंटज छांनी हो राजि ॥ ३ ॥ फिरी नही आवे बारणें, वीण औषध खस हाणी; थास्ये टाढे पाणी हो राजि०; पंडीत मुर्ख समा गणे, काल न छोडें त्रोडे; कुण मुर्ख कुण नाणी हो राजि ॥ ४ ॥ कंठ शोषमां फल नही इंम वीष वयण वधारी; सुतनें भणता वारी हो । | राजि०; धम धमती आवी पछे, पंडीतनें ओलंभा द्ये; त्यां भारी नारी हो राज ॥ ५ ॥ पाटी पोथी
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स्तवनम्
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स्तवनम्
सौभाग्य पंचमी
रीसमां, जालें पावक काले बालें, कलनी जाइ हो राजि०; पती आव्यो घरनीगमा, कहें प्रेमदाने, स्याने: कीधी नीच कमाइ हो राजि ॥६॥ कुण देस्य सुतने सुता, नीर्वाह कीणीपरें थास्यें; सीदासें व्यापारें हो राजि०; कालें ए निर्धन हता, मुर्ख मुख कहास्य; जास्ये कुण आधारें होराजि॥७॥वचन सुणी प्रेमदा कहें, कां न भणावो पोते; जो ते वांक तुम्हारोहो राजि० सेठ अबोल्यो तव रहे, अनुक्रमें श्रुत मती वाम्यां; पाम्यां यौवन सारो हो राजि ॥८॥ कन्या कोइ दीयें नही, कुल रुडुं पण कुटुं ज्ञान नही जन भाषे हो राजि०; सेठ कहे अवसर लही, कन्या कोइ कदीयें न दीयें; वीद्या पाखें हो राजि ॥९॥ तुज वांके कोरा रह्यां, पुस्तक पाटी बाली; दुहव्यो पंडीत गाली हो राजि०; आलिंकां बोलो वह्या, पुत्र जनक वश बाली; कहीयें मानी पाली हो राजि ॥ १०॥ सेठ कहे तव रुठडो, आपण दोष उपाइ; पापिणी इंम कां बोले हो राजि०; तुज जनक पापी वडो, मूढे समजाव्यो; आव्यो तुंपशु तोले हो राजि ॥११॥पठर दल करमांग्रही, रसमें दशमें द्वारें; नाहे नारीमारी हो राजि०; काल धर्म तिहाथी लही, तुज घरे गुणनी पेटी; बेटी ए थइ प्यारी हो राजि ॥ १२॥ कीधी ज्ञान
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सौभाग्य पंचमी
॥१४८॥
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आसातनां, तेह कर्मनें जोगे; रोगे व्यापी बाला हो राजि०; कांति सुगुरू कहे हेजना, उदयें आवे दावे; कीधा कर्म रसाला हो राजि ॥ १३ ॥
ढाल - ४ - चोथी ॥ जीरे मारे जाग्यो कुंमर जाम ॥ तव देखे दोलत मीली ॥ जीरेजी ॥ ए देशी ॥ जीरे मारे ॥ गुणमंजरी सुंणी एम ॥ जाति स्मरण तिहां लही ॥ जीरेजी ॥ जीरे मारे | मारे ॥ नीज भव देखे जाम ॥ तव मुर्छा आवी वही ॥ जीरेजी ॥ १ ॥ जीरे० ॥ मुर्छा टली लघुं चेत ॥ गुरुनें कहे आदर भरी ॥ जीरेजी ॥ जीरे० धन्य सुगुरु तुम ज्ञान ॥ वात पूर्व भवनी खरी ॥ जीरेजी ॥ २ ॥ जीरे० पूछें गुरुनें सेठ ॥ रोग जास्ये कीम एहनां ॥ जीरेजी ॥ जीरे० गुरु कहे न रहे रोग ॥ करता नाण आराधनां ॥ जीरेजी ॥ ३ ॥ जीरे० करीयें तप उपवास ॥ अजुआली पंचमि दिने ॥ जीरेजी ॥ जीरे० स्वस्तीक भरीयें खास ॥ पुस्तक पाटे स्थापीयें ॥ जीरेजी ॥ ४ ॥ जीरे० ॥ पंच वाटिनो दीप ॥ करी आगल ढोइयें ॥ जीरेजी ॥ जीरे० पंच वर्ष पंच मास ॥ ए तप कीधो जोइयें ॥ जीरेजी ॥ ५ ॥ जीरे० मास मास असमर्थ ॥ नरनें जो नावे वर्गे ॥ जीरेजी
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सौभाग्य पंचमी
जीरे० कात्ती सुदिनि एक ॥ करवी जिहां जीवीत लगें ॥जीरेजी ॥ ६॥ जीरे० आराधी तिथी स्तवनम् एह ॥ दीए सोहाग सोहामणा ॥ जीरेजी ॥ जीरे० रोग रहीत नव रुप ॥ जस धन धान्य दीयें। घj ॥ जीरेजी ॥७॥ जीरे शुत संतती परीवार ॥ खर्ग दियें आराधतां ॥ जीरेजी ॥ जीरे० सीधी बुद्धी पण नाण ॥ जीन पदवी दीयें साधतां ॥ जीरेजी ॥ ८॥ जीरे० इमनी सुणी जीन देव॥कहे नही सक्ति सुतातणी ॥ जीरेजी ॥ जीरे० करस्य वर्षनी एक॥वीस्तारी विधि कहो मुंणि॥ जीरेजी ॥९॥ जीरे वैसाख जेठ आषाढ ॥ मृगसीर माहें फागुणें ॥ जीरेजी ॥ जीरे० उच्चारीयें गुरु साख ॥ पंचमी शुभमुहुर्त दिणें ॥जीरेजी॥१०॥जीरे० गुरु कहें पुस्तक पाट॥थापी कुशुमें पुजीयें ।
जीरेजी ॥ जीरे०॥धुप उखेवो धान ॥ पंच वर्ण ढोइजीयें। जीरेजी ॥ ११॥ जीरे० पांच जाति पक्कवान ॥ पांच पांच फल मुकीयें ॥ जीरेजी ॥ जीरे० चोथ तणो पच्चखाण ॥ गुरु मुखथी नवी चुकीयें ॥ जीरेजी ॥ १२॥ जीरे०॥ देहरे देव जुहार ॥ गीतार्थ गुरु वांदीयें ॥ जीरेजी॥ जीरे०॥ पुजी पुस्तक भाव ॥ करे प्रभावना हसी हीयें ॥ जीरेजी॥१३॥जीरे० सक्तिनाण मंडाव ॥
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स्तवनम्
पंचमी
सौभाग्य 8ए तप माहि पेसीयें ॥ जीरेजी ॥ जीरे ॥ पडीकमणां बिहं टंक ॥ ब्रह्मचरिज धरी बेसीयें ॥
जीरेजी ॥१४॥ जीरे० वांदीयें देव त्रीकाल ॥ आरंभ शकल नीवारीयें ॥ जीरेजी॥ जीरे० स्तवन ॥१४९॥
थइ धरी खांति ॥ पंचमिनी नीरधारीयें ॥ जीरेजी ॥ १५॥ जीरे० नमो नाणस्स पद एक ॥ उत्तर पूर्व मुख जपें ॥ जीरेजी ॥ जीरे० ए विध तप करे जेह ॥ ते तो त्रीभुवनमा तपें ॥ जीरेजी॥ १६॥ जीरे० ॥ जो होय पोसह युक्त ॥ तो विधि बीजे दिन करे ॥ जीरेजी ॥ जीरे० उजमगुं करी कांति ॥ ए तपथी भवजल तरे ॥ जीरेजी ॥ १७ ॥ | ढाल-५-पांचमी ॥ एकवीशानी॥ जग नायकजी, त्रीभुवन जन हितकार ए ॥ परमातमजी, |चिदानंद घनसार ए॥ ए देशी॥ नीज सक्ति रे उजमणुं तपनुं करो, धन खरचीरे नर भव सफल करो खरो; जीनवरनीरे प्रतिमा भरावो मनरुली, पंच तिर्थी रे पाट पाटली सुंदर वली ॥१॥
त्रुटक-वली नाण दंशण चरित्त टीकी देइ पुस्तक पुजीए, स्थापना पुजी पांच लोगस्स काउ लस्सग्ग तिहां कीजीए; रुमाल पाठा परत लेखण नवकारवाली वरतणां, पाटीपोथी ठवणी कवली पुंजणी
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॥१४९॥
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CAUSES
सौभाग्य पंचमी
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वेटिंगणा ॥२॥ ढाल पूर्वली ॥ दोरा चाबखी रे काबी खडीया डाबडी, कांठा मलिकारे स्थापना
स्तवनम् मुहपत्ती पडवमी; धुपधाणां रे जरमर वाडने चंहुआ, वालाकुंचीरे आरती कलसा जु जुआ॥३॥ त्रुटक-जु जुआ द्वज वासकुंपी रकेबी थाली भली, दीवी चंगेरी अंग लहणा गंधवाती नीरमली; घनसार सुकड अगर केसर जीन तणा सीणगार ए, उपगरण दसण नाक केरां पंच पंच। प्रकार ए॥४॥ ढाल पूर्वली ॥ पंच वाटीनोरे दीपक करीये आगळे, ढोइजेंरे पक्कान फल दल पाखलें; ना ना विधरे धान सरस भक्तिधरो, उजमगुंरे वीस्तारे इणि विधि करो॥५॥ त्रुटकविधि सहीत साहमी भक्ति करीयें जागीए रातीजगें, जीन नाण देसण गीत गाता पाप भवनां उभगें; थावे आराधन झान- इम सुंणी ते गुणमंजरी, तप पंचमी- कांति प्रेमे आदरें आदर भरी॥६॥ __ढाल-६-थी॥ हस्तिनाग पुरवर भलो ॥ अथवा ॥ प्राणी वाणी जिनतणी, तुम्हें धारो चित्त
मजार रे; श्रीपालना रासनी ॥ए देशी॥ इण अवसर भुपति हवें ॥पूछे शुत भवनो स्वरुपरे ॥ कोढ। थियो कुण कर्मथी ॥नावे वली वीद्या अनुपरे ॥ नावे वली वीया अनुप ॥ सुगुरु कहे सांभलो॥भवी
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सौभाग्य त लोकरे॥थाए घोर कठोर सजोर कर्मनो वेदवो॥कीम फोकरे॥ए आंकणी॥१॥जंबुद्वीपना भरतमा पंचमी पर श्रीपूर नामें समृधरे ॥ वसुनामें व्यवहारीयो॥वसतो तिहां समृधरे ॥वसतो०॥सुगुरु॥२॥ तेहनें । ॥१५०॥
नंदन बेहुता ॥ वसुसार अनें वसु देवरे ॥ वनमा गुणसुंदर गुरु ॥ नीरख्या तस सारे सेवरे ॥ नीरख्यालासुगुरु०॥३॥ गुरु मुख धर्म कथा सुंणी॥तव पाम्यां बे वैयरागरे॥अनुमति मागी तातनी ॥2
लेइ चारित्र त्यां वड भागरे ॥ लेइ०॥सुगुरु०॥४॥ लघु बंधव वसुदेवनें ॥आगम धर सुधो जाणरे ॥ 18 आचारज पद गुरुदीयें॥पात्रे ठवता नही हाणरे।।सुगुरु०॥५॥पांचसे मुनिनें वाचना॥ आपे वसुदेव स्मर्थरे॥
आलस तजी आगम तणा॥कहे उंडा आलोची अर्थरे ॥ कहे॥सुगुरु०॥६॥ एक दिन सूरि संथारीया ॥
तेहवे मुनि आव्यो एकरे ॥ अर्थ ग्रही पाछो वल्यो ॥ इम बीजा आव्या अनेकरे ॥इम०॥सुगुरु०॥७॥ 18||काइक नीद्रा वस हुआ ॥ वली पुळे अपर मुनि आयरे ॥ जपमाला मणीया परें ॥ एक आवे बीजो
जायरे ॥ एक०॥सुगुरु०॥८॥ आखें न आवे नीद्रडी ॥ जंपे नही जागर होयरे॥ सूत्र अर्थ पद आपता॥ आकुल थयो सूरि सोयरे॥आकुल०॥सुगुरु०॥९॥अमृत फीटी वीष थयु॥पलव्या तस अध्यवसायरे॥
SARKARO
॥१५०॥
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Shegame
स्तवनम्
ॐook
ॐॐ
सौभाग्य |पुर प्रमाद नदी तणें ॥ आगम तरु नाखें खिसायरे॥आगम०॥सुगुरु०॥१०॥पालटता परीणामथी पंचमी चिंते मन विकल्प एमरे ॥ श्रुत दुख कारण मुज थयुं॥भण्यां शुक ने पंजर जेमरे॥ भण्यांसुगुरु०॥
॥ ११ ॥ मुर्खपणामां गुण घणा ॥ पंडीत जन दुखीया होयरे ॥ जुवो ए बंधव माहरो ॥ अभण्यो| रहे सुखमां सोयरे ॥ अभण्यो॥सुगुरु०॥१२॥ न भणुंभणावून आजथी।वीसारु पठीत पुराणरे ॥ जो थाउं बंधव समो॥ तो वांछयु होय प्रमाणरे ॥ तो वांछयुगासुगुरु०॥१३॥दीन दस दोय मौने रह्यो। आलोयां पाप न तेहरे ॥ काल करी रुद्रध्यानमां ॥ तुज पुत्र पणे थयो एहरे ॥ तुज०॥सुगुरु०॥१४॥ कोढ थयो कृत कर्मथी ॥ नही वीद्यानो पण लेसरे ॥ कीधा कर्म वीपाकथी ॥ संतापे आपे रेसरे ॥
संतापे०॥सुगुरु०॥१५॥सूरी सहोदर ते मरी ॥ थयो मानस सरनो हंसरे॥गती विचित्र ए कर्मनी हड दिसंभव नही जस अंसरे॥ हुइासुगुरु०॥१६॥सांभलतांगत भव कथा॥वरदत्तने सांभरी जातरे। मुर्छा दाचिते वल्ये कहे ॥ साचुंसवी ए जग भ्रातरे॥साचुं॥सुगुरु०॥१७॥ भूप कहें भगवन सूणो ॥ कीम
जास्ये सुतनां रोगरे ॥ गुरु कहे तप साधन थकी। लहस्ये सुख कांति नीरोगरे॥लहस्ये॥सुगुरु०॥१८॥
शो. २८
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सौभाग्य पंचमी
॥१५९॥
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ढाल - ७ - सातमी ॥ बापडली रे जीभडली तुं कांइये न बोले मितुं ॥ ए देशी ॥ कहे वरदत्त सक्ति नही मुजमां ॥ तेहवी तप करवानी ॥ मुजथी थाय उचीत ते दाखो ॥ तव बोल्या गुरु ज्ञानीरे ॥ आराधो हीत जाणी प्राणी- पंचमी उज्जल पक्षनी ॥ भाव सहीत आराधन करता ॥ नीसाणी शिव सुखनीरे ॥ आराधो हीत० ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ पेहेली भाषी जे विस्तारें ॥ ते विधि कुंवरे कीधी ॥ नृप राणी आदि पूरी जननें ॥ गुरुए हीत करी दीघीरे ॥ आराधो हीत० ॥ २ ॥ भूपादिक निज निज घर पोहता ॥ पंचमी तप अभ्यासें ॥ वरदत्तनां तपनां महीमाथी ॥ रोग | देहनां नासेरे ॥ आराधो हीत० ॥ ३ ॥ दत्त सहस एक कन्या परण्यो | स्वयंवर मंडप साजें ॥ | अजीत्तसेंन तस राज्य देइने ॥ ल्ये संयम सुख काजेरे ॥ आराधो हीत० ॥ ४ ॥ वरदत्त राज्य घणा दीन पाली | पंचमी तप आराधे ॥ भुक्तभोग सुत राज्ये स्थापी ॥ अवसर दीक्षा साधेरे ॥ आराधो हीत० ॥ ५ ॥ ए हवें पंचमी तप महीमांथी ॥ गुणमंजरीने अंगे ॥ रोग हता ते नाठा रे ॥ रुप हुओ नव रंगरे ॥ आराधो हीत० ॥ ६ ॥ ते श्रावक जीनचंद्रे परणी ॥ तातें बहु धन
॥
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स्तवनम्
॥१५९॥
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स्तवनम्
सौभाग्य दीधां ॥ भोग भोगवी तप आराधी ॥ अंते महावत लीधारे ॥ आराधो हीत.॥७॥ चरण करण पंचमी
धर साधु साधवी ॥ करी अणसण संथारो ॥ वैजयंत सूर पदवी पाम्यां ॥ हवे लहेस्य भव आरोरें॥ आराधो हीत०॥ ८॥ जंबुद्वीपे पूर्ववीदेहे ॥ वीजय पुष्कला नामें ॥ पुंडरीकगीणी नगरी नामें ॥ अमरसेन तिहां नामरे ॥ आराधो हीत०॥९॥ गुणवंती तस राणी कुखें ॥ सूर भव तजी दत्त | आव्यो ॥ जनम्यो सुरसेन इंण नामें ॥ अनुक्रमें जोवन भाव्योरे ॥ आराधो हीत.॥१०॥ बार वर्षनो मात पीताए । सो कन्या परणाव्यो । अमरसेंन तस राज्य देइनें । परलोकें सीधाव्योरे॥ आराधो हीत० ॥ ११॥ अन्य दिवस श्रीमंधर स्वामि ॥ पोहता तिहां विचरंता ॥ वनपाले जई| राय वधाव्यां ॥ समवसख्या अरीहंतारे ॥ आराधो हीत०॥ १२॥ सुरसेन जइ जिनने वांदी॥
सुणी धर्मनी वाणी ॥ जिन कहे पंचमी तप करज्यो । वरदत्त परे भवी प्राणीरे ॥ आराधो हीत. Au१३ ॥ तव पुछे प्रभु कुण ते वरदत्त ॥ जिन तव सकल प्रकासे ॥ ज्ञान पंचमी महीमा सुणता ॥
भवीजन मन उल्लासेरें॥ आराधो हीत.॥१४॥ लोक घणां उचरें जिन मुखथी ॥ ज्ञान पंचमी
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सौभाग्य पंचमी
॥१५२॥
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भावें ॥ वांदी राय गयो निज धामें ॥ सुतनें पाटे ठावेरे ॥ आराधो हीत० ॥ १५ ॥ वर्ष सहस्स दस नृपपद पाली || व्रत ल्यें जिनमें चरणें । वर्ष सहस्स एक चारीत्र पाली || केवल कमला पर रे ॥ आराधो हीत० ॥ १६ ॥ नाण पंचमी तपथी इंणीपरें ॥ सीद्धा भवीक अपार ॥ कांतिविजय कहे सूणज्यों आगें ॥ गुणमंजरी अधीकाररे ॥ आराधो हीत० ॥ १७ ॥
ढाल – ८ - आठमीलाछलदे मात मल्हार ॥ ए देशी ॥ जंबुद्वीप मोझार ॥ रमणी विजय उदार ॥ आजहो० राजेरे तिहां छाजे नगरी विश्रुताजी ॥ १ ॥ अमरसिंह तिहां राय ॥ मोहटो जस भड वाय ॥ आजहो० राणीरे गुणखाणी अमरवती सतीजी ॥ २ ॥ गुणमंजरीनो जीव ॥ पाली आय अतीव ॥ आजहो० कुखैरे सुत भुर्खे तेहनें अवतस्योजी ॥ ३ ॥ जनम्यो समये बाल ॥ मन हरख्यो भूपाल | आजहो० नामरें तमामें सुग्रीव स्थापीयोजी ॥ ४ ॥ वीस वर्षनो जाम ॥ हुओ धीर उद्दाम || आजहो० जाणीरे माणीगर राज्य नृपे दीयुंजी ॥ ५ ॥ चारीत्र ल्यें नीसोक ॥ नृप साधें परलोक ॥ आजहो० कुमरें रे रसभरें बहु कन्या वरयोजी ॥ ६ ॥ सहस चौरासी पुत्र ॥ रुप जीस्या
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स्तवनम्
॥१५२॥
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स्तवनम्
सौभाग्य पंचमी
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पुर हुत्त ॥आजहो० हुआरे जुजुआ राज्ये ते ठव्याजी ॥७॥ दीक्षा ल्ये सुग्रीव ॥ स्थावर सुक्ष्म जीव ॥ आजहो० पाले रे संभालें व्रत चोखे मनेजी॥८॥ तप तपतां सुहजाण ॥ उपनुं केवल नाण ॥ आजहो० सोहेरे पडीबोहे भवीयण वीश्वनांजी ॥९॥ लाख वर्षनुं आय ॥ पाली ते रुषी राय ॥ आजहो० कांतिरें बलीहारी शीवनारी वस्योजी ॥१०॥ | ढाल–९-नवमी॥जयो जिन वीरजी ए ॥ ए देशी ॥ पंचमी तिथि तणो भाषीयो ए॥इम महीमा | सुवीवेक ॥ जयो जिन नेमजी ए॥ सींचि सद्दहणां रसें ए॥ तास्या भविक अनेक ॥ जयो जिन नेमजी ए॥ए आंकणी ॥१॥ जिन वाणी रस भावीया ए ॥ पाम्यां केइ प्रतिबोध ॥ जयो॥ केटले ए तप उच्चरी ए ॥ कीधो आतम सोध ॥जयो॥२॥ आणा ए आराधता ए॥ लहीयें एहथी सौभाग ॥ जयो ॥ सौभाग्यपंचमी ते भणी ए॥ए कही सेवा लाग ॥ जयो ॥३॥ धन धन प्रभुजी नी देशना ए॥ जेणें सुणी ते पण धन्य ॥ जयो॥ दुषम काले कां अवता ए ॥ अम्हें पण सुणता वचन्न ॥ जयो ॥४॥ दोष घणां मुजमां भस्या ए॥ नही क्रिया व्यवहार ॥ जयो ॥ पण
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ACHEC++
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अर्बुदाचलउत्पत्ति
॥१५३॥
एक छे तुज आसरो ए॥ तारे जो तुं तार ॥ जयो ॥ ५॥ सत्तर नवाणुमा रहि ए॥ पाल्हणपुर चैत्यपचोमास ॥ जयो ॥ श्रावण शुदि तिथि पंचमि ए ॥ हस्तारक दिन खास ॥ जयो ॥६॥ संघ रिपाटी तणा आग्रह थकी ए॥ कीधा ते दिन जोड ॥ जयो॥ कांति कहे जे सांभले ए॥ ते घर संपद स्तवनम् कोडि ॥ जयो ॥७॥
कलश-इम भुवनभूषण दलितदूषण दुरितशोषण जिनपति ॥ शिरताज जगजदुराय है। गातां पाइओ सुख संपत्ती ॥ श्री विजयप्रभगुरुचरणसेवक शिष्य प्रेमविजय तणो ॥ कहे कांति सुणतां भविक भणता पामिए मंगल घणो ॥१॥
"इति श्री सौभाग्यपंचमीमाहात्म्य गर्भित स्तवनम्" “अथ श्री अर्बुदाचल उत्पत्ति चैत्यपरिपाटी स्तवन"
॥१५३॥ दुहा–जिनवर चोवीसे नमी, सकल जीव सुखकार; हंसवाहिनी हर्खसो, वाणी मुज आधार
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SCE
चैत्यपरिपाटी
स्तवनम्
अर्बुदाच ॥ १॥ श्री गुरु चरण कमल नमुं, दोष रहित सुख धाम; संपत्ति दायक दुख हरण, पूरे वंछित ल उत्पत्ति काम ॥२॥ आबु गिरिवर अति प्रबल, महिमा अकल अनंत; परमत जिनमत तीर्थ ए, भाखे
श्री भगवंत ॥३॥ उत्पत्ति चैत्य परवाडि सह, दीठो सांभल्यों जेह; ते अतिशय आदर करी, भाष आणी नेह ॥४॥ मत अनेक आबु कल्प, शिव शासन कहे वात; जिनमत कल्प आबु तणो, ते
कहेस्युं अवदात ॥५॥ III ढाल-१-पहेली ॥ उठि कलाली भरि घडोहे ॥ ए देशी ॥ आगे वात सुणी ऐसीहे, आबु गिरि
उत्पत्ति; तापस परमतना घणांहे, करता तप संपत्ति ॥ भविक जन सांभलो आबु वात ॥ भेद विचार विख्यात ॥ भविक भेद०॥ए आंकणी॥१॥भूमि पवित्र जल अति घणांहे, दर्भ समिध पलास; * गायवृंद वच्छ सह चरेहे, पूरे तापस आस॥भविक० भेद॥२॥ एक खाड तिहां आकरीहे, जोतां मन
अकुलाय; कामधेनु मुनिवर तणी हे, चरती चरती जाय ॥भविक० भेद०॥३॥खाड उंडी बीहामणीहे, * तिहां पडी सुरवर गाय; तापस आकुला सहुए, अति दुःख मनमां थाय॥भविक भेद०॥४॥ मंत्र
FESTER
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चैत्यपरिपाटी स्तवनम्
जाप बहु आचरेंहे, वेद भणे बहुंभाति; गाय रही तिहां एकलीहे, दुध जरे बहुख्याति ॥भविक भेद लउत्पत्ति ॥ ५॥ खाड भरी दुधे करीहे, धेनु अतिशय निधान; तरती आवी उपरहे, तापस वाध्यो वान
18 भविक भेद०॥६॥ भृगु कहे वात वशिष्टनेहे, खाड टले कहो केम; बुद्धि विचारी आपणीहे, धर्म कर्म ॥१५४॥
रहे नेम ॥ भविक० भेद०॥७॥ हेमाचल हलवो नहीहे, एकसो सुतनी जोडि; बीजा डुंगर देखताहे,
एहनी नही कोय जोडि ॥ भविक० भेद०॥८॥रुषि सघला मिलि आवीयाहे, हेमाचलने पास; आदर है मान देई करीहे, भक्ति करे उल्लास ॥ भविक० भेद०॥९॥ सुणि हेमाचल आदरेहे, तुं अतिशय गुण
जाण; सकल गिरिवरनो तुं धणीहे, ताहरी वहे शिर आण ॥ भविक० भेद० ॥१०॥ पुत्र भला छे ताहराहे, एकसो अति बलवंत; सेवा सारे ताहरीहे, तुं अविचल सुणि संत ॥ भविक० भेद० ॥ ११ ॥ एक पुत्र आपि अम भणीहे, पूरि अम्हारी आस; खाड पूरेवा अम तणीहे, आव्या ताहरे पास॥भविक भेद०॥१२॥ | दुहा-आदर करी आकरो, पुत्र तेज्या धरि प्रीति; आज्ञाधारक आवीया, विनय वडा कुल
SOCॐॐॐ15
॥१५॥
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XI
चैत्यपरिपाटी स्तवनम्
रीति ॥१॥नंदीवर्धन नाहडो, मानीतो मतिवंत; हेमाचल कहे हित भणी, तुं अतिशय लउत्पत्ति बलवंत ॥ २॥ ऋषि साथें जाओ आदरे, करज्यो सारी सेव; पुण्य प्रभूतं तुमने थस्ये, थास्ये|
सेवक देव ॥३॥ | ढाल-२-बीजी ॥ कपूर होय अति उजलो रे ॥ ए देशी ॥ नंदीवर्धन पुत्र नाहनडो रे, तात तणी लही आण; अबूंदनाग तिहां आवीयो रे, जोरावर अति जाण ॥ ऋषिश्वर आवे निज
आवास, नंदीवर्धन धन लेईने ए॥सफल करी निज आस ॥ रुषिश्वर ॥ ए आंकणी ॥१॥ नंदीवर्धन ६ अर्बुद वह्योरे, अर्बुदाचल अति जोर; आवी खाडमा उतस्यो रे, रुषिकुमर करे सोर ॥ रुषिश्वर
॥२॥ खाड गई कहो किहां कणेरे, अचरिज अतिशय थाय; तपथी सुख संपत्ति मिलेंरे, लोक कहे ते न्याय ॥ रुषिश्वर ॥३॥ हवें आबुनी वर्णनारे, सांभलज्यो चित्त आणि; अढार भार वनस्पती रे, आंबा कंदली सणि ॥ रुषिश्वर ॥४॥ ठाम ठाम वहे वाहलां रे, निरमल गंगा नीर; आंबा उपरे आकरारे, बोलें कोकिल कीर ॥ रुषिश्वर ॥ ५॥ मुनिवर सघला तिहां रहे रे, करे धर्म शुभ
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अर्बुदाच-ध्यान; तेत्रीसकोडि सुर आवें तिहां रे, धरे सुमति मति ग्यान ॥ रुषिश्वर ॥ ६ ॥ यात्रा बारे वर्षे | चैित्यपलउत्पत्ति मिलेरे, गौतम रुषिनी सार; वशिष्ट रुषि देखो आदरे रे, तप जप शील अ
रिपाटी ॥१५५॥ उंची गुफा मांहि अति भली रे, अर्बुदाचलनी राणी; नयणे हरखें निरखसें रे, सफल जन्म तस
स्तवनम् जाणि ॥रुषिश्वर ॥८॥जगमाता श्रीदेवीनो रे, रसीओ जोगी एक; जगमाताने इम कहेरे, मुज |परणा विवेक ॥ रुषिश्वर ॥ ९॥ बार पाज एक रातिमां रे, न बोले कूकडा जाम; पहिले पाज सह बांधवी रे, पुत्री परणावो ताम ॥ रुषिश्वर ॥ १०॥ रसिओ निरसीओ कीयोरे, कूकडा बोल बोलावि; बुद्धि बलें तेहरावीयो रे, श्रीदेवी घरे आवि ॥ रुषिश्वर ॥ ११ ॥ विमलसाहने आदरें रे, देखाडी 5 शुभ ठाम; देहरो कराव्यो अतिभलो रे, दीठा आणंद धाम ॥ रुषिश्वर ॥ १२॥ | दुहा-नमवि श्री गुरु सारदा, अविचल सुख ये राज; आबुचैत्य परिवाडि कहुं, भवजल तरण ||॥१५५॥ |जहाज ॥१॥ आबु गिरिवर उपरे, सुरवर कोडि तेत्रीस; वली विशेषे तिहां रहे, जगतारण जग
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अर्बुदाच- ८ दीश ॥ २ ॥ आदिश्वर अरिहंत तिहां, नमो सदा कर जोडि; बीजा देव संसारना, न करे लउत्पत्ति * जेहनी होडि ॥ ३ ॥
ढाल - ३ - त्रीजी ॥ मेंतुरे मणुया वरजीओ ॥ ए देशी ॥ अंबिका देवी प्रसादथी, विमल प्रसाद | मंडाविरे; नाग खेतल वाली मिली, ततक्षण सघला आवेरे ॥ चैत्य वंदन करी भावसु, सकल संपत्ति सुखं पावोरे; वीतराग आराधतां, फिरि संसारमां नावोरे ॥ चैत्य० ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ भूमि तणा जे देवता, भाट भरडा बहु आवेरे; न हुवो नवि छे नही होसे, धन खरचें कोडि लाखेंरे ॥ चैत्य ॥ २ ॥ विमल प्रसाद मंडावसो, खरचस्यो द्रव्य अनेकरे; राति समे ते पाडसो, चैत्य न रहेश्यो एकोरे ॥ चैत्य ॥ ३ ॥ इम करता जो मनछे, अमने देव देखाडोरे; श्री आदिश्वर तिहां कणे, प्रगट थया धन जाजोरे ॥ चैत्य ॥ ४ ॥ देव सकल सुख उपनो, खेतलवीर वर धारीरे; तेल सिंदुर बलि बाकुला, बलि देई गावें नारीरे ॥ चैत्य ॥ ५ ॥ भरडा भूमीया तिहां 'हुता, संतोष्या धन आपीरे; जोटिंग प्रेत मानें आगन्या, भूमि देहरानी स्थापीरे ॥ चैत्य ॥ ६ ॥ सुंदर तिल तिल
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चैत्यप
रिपाटी
स्तवनम्
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Shanna Kendre
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चैत्यप
रिपाटी स्तवनम्
अर्बुदाच
कोरणी, नव नवी भाति करावीरे; रुपा सोना सम ते थई, आरासज वहर हरावीरे ॥ चैत्य ॥७॥ लउत्पत्ति
|चिहुं दिसि फरती देहरी, एक एकथी रुडीरे; मंडपे मंडपे पूतली, नाचंता खलके चूडी रे॥ चैत्य ॥१५६॥ ॥ ८॥ स्तंभ सकलनी कोरणी, स्वर्ग मृत्यु नवि दीठीरे; सुणता दीठां सुख उपजे, अमृत सम
लागे मीठीरे ॥ चैत्य ॥९॥ मूल नायक तिहां स्थापीआ, पीतल में आदि जिणंदरे, विमल मंत्रीश्वर जग जयो, बोले नरवर इंद्ररे ॥ चैत्य ॥ १० ॥ हस्तिशाला आगलि भली, विस्तर भूमि अपा ररे; असवार विमल मंत्री थया, प्रणमें जगदाधारोरे ॥ चैत्य ॥ ११॥ कोडि अढार सोना तणी, उपरे छपन्न लाखोरे; प्रतिमा देहरा कोरणी, ध्वजा दंड ये शाखोरे ॥ चैत्य ॥ १२॥ ।
दुहा-हवे जगदीश्वर पूजसो, लेई चंपक फुल; अगर धुप उखेवसो, जेहनो नही जग मूल 3॥१॥ बोघरीओ सुलतान वलि, करे जिन मूर्ति भंग; स्तंभ स्तंभनी प्रतली, टाली टाले रंग ॥२॥ विजडसाह एक वाणीयो, श्रावक समकित धार; मूर्ति स्थापे आदरे, भवे भवे सुख दातार ॥३॥ ढाल-४-चोथीं ॥
वीजडसाह नो जस वारु, करे जिन वन भवन औंधारु;
॥१५॥
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अर्बुदाचलउत्पत्ति
शां. २७
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लूणग वसही जिन वंदु, भवनां पाप निकंदुं ॥१॥ नेमीश्वर जग जयवंत, लूणग वसही भगवंत; मंत्रीश्वर श्री वस्तुपाल, बीजो बांधव श्री तेजपाल ॥ २ ॥ धन खरचें अति उदार, साढीबारह कोडि विस्तार; जिन भवन उत्तुंग सुरंग, कोरणी अति सूक्ष्म सुचंग ॥ ३ ॥ वर्ष सहस आयु जो होय, कहेतां पार न पावे कोई; हस्तिशाला तिहां अति सोहे, परीया सात बेग मन मोहे ॥ ४ ॥ वस्तुपाले पुण्य भंडार, भरीया भवे भवे सुखकार; गिरनार समान ए कहीये, वांदी अविचल पदवी लहीये ॥ ५ ॥ हवे पेथडसाह पुण्यवंत, करे चैत्य उद्धार गुणवंत; धन मनने भावे वावे, सुरनर जोवा तिहां आवे ॥ ६ ॥ हवे गुर्जर ज्ञाति गुण भारी, भीमसाह वडो व्यवहारी; त्रीजो उद्धार करावे, प्रासाद जिन जोवा आवे ॥ ७ ॥ पीतलमय श्री जिन आदि, नारी गावें वादो वादि; हवे कुंभ राणानी रीति, लीधुं कुंभल मेरु घरी प्रीति ॥ ८ ॥ चौमुख जग सघलो जाणे, मूल नायक सकल वखाणे, संघपति मंडग नाम, रचें देहरी सुंदर ठाम ॥ ९ ॥ मंडग वसही श्री पास, पूजता पहोचें आस चौमुख पूतलीसु विचित्र, च्यार मंडप वांदो मित्र ॥ १० ॥ ओरडी सघली जिन देव, पूजी वांदी
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चैत्यपरिपाटी
स्तवनम्
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चैत्यप
रिपाटी स्तवनम्
अर्बुदाच- क सेव; इणिपरे तिहां जिनवर वांद्या, निज चित्त सकल आनंया ॥ ११॥ हवे खमणावसही लउत्पत्ति दीठी, जिणवर सो लागी मीठी; तिहां श्री जिन महिमा निवास, पूरे पूजक जन मन आस ॥१२॥ ॥१५७॥
| दहा-विमल वसहीयें आदिजिन, लूणगवसही नेमि; करस्यों पूजा भावस्यु, आणी मनमा प्रेम ॥१॥ तीम गवसही आदिजिन, पास जिणेसर भाव; चौमुख पूजा वंदना, करता भवजल नाव ॥२॥ सघले ठामे जिनवरु, पूजी प्रणमी शुद्धि; खमणा वसही जोइसों, आणी निरमल बुद्धि ॥३॥ | ढाल-५-पांचमी ॥ तुज साथे नही बोलु रुषभजी ॥ ए देशी ॥ हवें कुंभाराणानी वातो, सांभलज्यो चित्त देईजी; कुंभ राणे सांध्या सगला, सुजस भलो जग लेईजी ॥१॥ चैत्य परिवाडि आबू गिरिनी, कहेतां मन उल्हासजी; सांभलतां सुख संपत्ति थाये, सफल फलि सह आसजी ॥२॥ कुंभो राणो आबु उपरि, आवे करवा वासजी; विषम ठेका' जाणी सुंदर, गढ मंडावे उल्हासजी ॥३॥ नाम अचलगढ तेहनों दीधो, वारु पोलि कुठारजी; नागोरी घडीयालू वाजे, वावि सरोवर राजेजी ॥४॥ अनेक ठाम आराम अनोपम, वीसामा जल ठामजी; जिहां
CONCECTS-25AGACAR
॥१५७॥
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अर्बुदाच- लउत्पत्ति
%252-%AR
लगि चंद ह तारा, रहवराव्यो जग नामजी ॥ ५॥ अचलेश्वर तिर्थ शुभ देहरो, मंदागिणि चैत्यपदेखोजी; शुभ लौकिक तिर्थ छे अनोपम, देखत जन्म शुभ लेखोजी ॥६॥ कुमर विहार जून तिर्थए,
रिपाटी जन सघलो जन जाणेजी; पीतलमे तिहां शोभे, सुरनर चित्तमा आणेजी ॥७॥प्रतिमा गाली
स्तवनम् श्री जिन केरी, सांढीओ सुंदर कीधोजी; अचलेश्वर तिहां लिंग स्थापना, अपयश तिलक सिर लीधोजी ॥ ८॥ पाल्हो पापी पुण्ये हीणो, श्री जिन प्रतिमा त्रिण गाली जी; कुमती पापीने सुं कहियें, यश कीर्ति शुभ बालीजी ॥ ९॥ तत्क्षिण विणस्यो अंग तेहनो, गलित कोढ अंग व्यापेजी; देव स्वप्न दीधों पाल्हाने, पालविहार जिन स्थापेजी ॥१०॥ पाल्हणपुर नगरमां सुंदर, पाल्ह विहार जयकारीजी; उद्धार राय लखाने वचने, रायविहार प्रीति सारीजी ॥ ११ ॥ खंभाति नगरथी आणी सुंदर, मूर्ति श्री जिन शांतिजी; गढ माहिं पूनुं ओरडीये, कुंथुनाथ भगवंतजी : ॥ १२ ॥ साह शीरोमणि खेता संघवी, स्थापे प्रतिमा सारजी; श्री जिन स्थापी पूजी वांदी, सफल करि अवतारजी ॥ १३॥ लखपति राजाने आदेखें, मांडवगढनो वासीजी; सहसा सुलताणी चित्त
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आणी, खरचे धन बहु रासीजी ॥ १४ ॥ अर्बुद गिरि प्रासाद मंडावे, मेरु शिखर सम भावेजी;
चैत्यपलउत्पत्ति है पीतलमय तिहां बिंब भरावे, च्यार बिंब चित्त आवेजी ॥ १५॥ आगे पण ए घरें तम्हारे, धरण रिपाटी विहार मंडाव्योजी; धन धन सहसा संघवी श्रावक, चौमुखे इंडो चढाव्योजी ॥ १६ ॥
स्तवनम् ॥१५॥
दहा-चैत्य प्रवाडि गढमां करी, ओरी आस गढ पास; श्री जिनवर पूजों आदरे, पूरे मननी आस ॥ १॥ साह उजल पासादि हवे, पूजों श्री अरिहंत; सालि ग्राममा वांदसो, भव भंजन 8 भगवंत ॥ २॥ विमल वसही आदिजिन, नमसो धरि आनंद; परम पद दातार जिन, चिदानंद सुखकंद ॥३॥ | ढाल-६-थी॥ रंगीले॥ ए देशी॥ हवे जिनवर आगल कहुं ॥ आपवीत अवदात ॥ रंगीले ॥ कहेतां कर्मनी निर्जरा ॥ भवबंधन भय जात ॥रंगीले ॥ हवे जिनवर आगल कहुं । ए आंकणी ॥१॥अतीत चउवीसी एणे ठामें ॥ अर्बुदगिरि शुभ ठाम ॥रंगीले ॥ मुनि कोडि
१ ॥१५॥ बहु परिवस्या ॥ ल्ये अणसण सुख धाम ॥ रंगीले ॥ हवे ॥२॥ सिद्धक्षेत्र ए जाणीए ॥ सीधा
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अर्बुदाच मुनिवर कोडि ॥ रंगीले ॥ सेव॒जय गिरि सम जाणीये ॥ प्रणमो वे कर जोडि ॥ रंगीले ॥ हवे॥३॥ चैत्यपलउत्पत्तिा सिद्धाचल सम अबूंद कह्यो । सिद्धक्षेत्र शुभ नाम ॥ रंगीले ॥ ए तिर्थ सम को नही ॥ मना रिपाटी
सोहन अभिराम ॥ रंगीले ॥ हवे ॥ ४॥ दशद्रष्टांते दोहिल्यो ॥ मनुश्य जन्म में लाध ॥ रंगीले ॥ स्तवनम् आर्य क्षेत्र जैन धर्मनो ॥ मार्ग जगमा अगाध ॥ रंगीले ॥ हवे ॥५॥ पंचेंद्री पूरा लह्या ॥ धर्म श्रवण सुख राशि ॥ रंगीले ॥ सदहणा साची लही ॥ देव धर्म गुरु पासे ॥ रंगीले ॥ हवे ॥६॥ हवे संभालं आपणा ॥ गति आगतिना फेर ॥ रंगीले ॥ निगोद नरकमां हूं भम्यो । कर्म कठिन घोर ॥ रंगीले ॥ हवे ॥७॥ नरक मांहि दुःख अनुभव्यां ॥ कहेतां नावे पार ॥ रंगीले ॥ ते दुःख सघला तुं प्रभु ॥ जाणे जग किरतार ॥ रंगीले ॥ हवे ॥८॥ तिर्यंच भव अति अनुभव्या॥ बिना विवेक विचार॥रंगीले॥ अज्ञान पणे जाण्यो नहीं॥ जैन धर्म सुख दातार ॥ रंगीले॥ हवे॥९॥देव तणा सुख अनुभव्यां ॥ कहेतां नावे पार ॥ रंगीले ॥ क्षीण पुण्य तिहाथी च्यवी ॥ आव्यो मनुष्य मोजार ॥रंगीले॥ हवे॥१०॥ तट पामी जिन धर्म लही॥च्यार परमांग समेत ॥रंगीले ॥ भव भव
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अर्बुदाचलउत्पत्ति
॥१५९॥
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भमतां पामीयो ॥ सुंदर आर्य क्षेत्र ॥ रंगीले ॥ हवे ॥ ११ ॥ संसार चक्र मोहजालमां ॥ भमतां नाव्यो पार ॥ रंगीले ॥ कुण आगल कहुं वीनती ॥ जिनपति तुं अवधार ॥ रंगीले ॥ हवे ॥ १२ ॥ रत्नत्रय जिनवर कह्यां ॥ ज्ञान दर्शन चारित्र ॥ रंगीले ॥ सुद्ध परे नवी आदस्यां ॥ न कस्यो जन्म पवित्र | रंगीले ॥ हवे ॥ १३ ॥ तारक बिरुद प्रभु ताहरो ॥ संभारो जिन देव ॥ रंगीले ॥ ताहरा चरण पंकज तणी, नित्य आपेवी सेव ॥ रंगीले ॥ १४ ॥
॥
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ढाल – ७ – सातमी ॥ वीर जिणंद वैरागीया ॥ ए देशी ॥ अर्बुद गिरिवर गाईयो, शास्त्र श्रवण आधारोरे; ए गिरि दीठा वांदतां, में सफल कीयो अवतारोरे ॥ में सफल कीयो अवतारोरे ॥ अर्बुद गिरिवर गाइयो | ए आंकणी ॥ १ ॥ जिहां जिनवरनां जन्म छें, दीक्षा ज्ञान विशेषोरे; मुक्ति गया जिहां जिनवरु, ते भूमिका पावन लेखोरे ॥ अर्बुद ॥ २ ॥ सिद्व अनंता जिहां थया, यतिवर ध्यान प्रमाणेंरे; ते स्थानिक नित्य वांदतां भवसागर अंत ते आणिरे ॥ अर्बुद ॥ ३ ॥ आबुकल्प जिन मत विषे, कहितां नावे छेडोरे; रसकूपी छे एणे डुंगरे, कंचननो वर्षे मेहोरे ॥ अर्बुद ॥ ४ ॥ आबु
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चैत्यप
रिपाटी
स्तवनम्
॥१५९॥
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चैत्यप
अबंदाच- लउत्पत्ति
रिपाटी स्तवनम्
महिमा जिन कहे, षट्दर्शन जय जय मानीरे; सघला मतमा सारिखो, ए वात नहीं छे छानीरे॥ अर्बद ॥ ५॥ सिंहिं बृहस्यति संचरि, त्यारे लोक आवे लख कोडीरे; पूजे आराधे भावस्युं, प्रणमें बे कर जोडीरे ॥ अर्बुद ॥६॥ आबु गिरिवर गावतां, में सफल करी निज जीद्वारे; पुण्य संचय प्रगट्यो थयो, सफल जन्म मुज दीहारे ॥ अर्बुद ॥७॥ विधिपक्ष गच्छ जग परगडो, सुद्ध सिद्धांत पक्ष पालेरे; पूज्य शिरोमणि परगडा, निज गच्छ कुल अजूआलेरे ॥ अर्बुद ॥ ८॥ श्री अमर सागर सूरीसरो, कल्याण सूरी पाटे विराजेरे; सकल सूरिश्वर तिलक सारिखो, पदवी नित्य प्रते राजेरे ॥ अर्बुद ॥ ९॥ तासुपक्ष शुद्ध संयम धारी, पालीताणा शाखा सारीरे; पंडित श्री मुनिसील हितकारी, राय राणा सुखकारीरे ॥ अर्बुद ॥ १०॥ तेह तणा शिष्य अति गुणवंता, गुणशील मुनि जयवंतारे; तेह तणा शिष्य वाचक जाणो, विनयशील चित्त आणोरे ॥ अर्बुद ॥ ११ ॥ संवत् ( १७४२) सत्तर बेंतालीस वर्षे, वडनगरमा हर्षेरे; अर्बुद गिरि गावो चित्त भावें,
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स्तवनम
श्रीज्ञान
सुख संपत्ति फल पावोरे ॥ अर्बुद ॥ १२॥ ए स्तवन जे भावें भणस्ये, चित्त दईने सुणस्येरे; ते पंचमी ||घर लक्ष्मी लीलाकरस्ये, भव समुद्र ते तरस्येरे ॥ अर्बुद ॥ १३ ॥ ॥१६॥ ISI कलश-इम सकल गिरिवर मुख्य हितकर-हिमाचल सुत जाणीये, मोक्ष स्थानिक दुःखवामक
नित्य प्रते चित्त आणीय वा विनय शीलें जय सुमति लीले-ज्ञान कांति आदर वशकरी, कल्याण कारी पाप वारी-नित्य प्रणमो हित धरी ॥१॥ "इति श्री अर्बुदाचल उत्पत्ति चैत्य परिपाटी स्तवनम् सम्पूर्णम्"
___ “अथ श्री ज्ञान पंचमी स्तवन" "देशी ॥ चंद्राउलानी ॥ जंबुद्वीपनां भरतमां रे ॥ ए देशी ॥ समरी श्रुतदेवी सदारे, हंस वाहन कर वेण; मुर्खने पंडीत करे रे, सद्गुरु ये श्रुत नेण ॥ त्रुटक-सदगुरु घे श्रुत नेण घणेरी, टाले मिथ्यात्व कूमति भव फेरी; शुक्र कस्यां शनि हुता जेह, ते गुरुनें नमीए नित नेहें ॥१॥
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॥१६०॥
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श्रीज्ञानपंचमी
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जिननेमीसरजीरे ॥ एटेक ॥ ढाल पूर्वली - पंचमी तप महीमा कहुं रे, सांभलो सुगुण सुजाण; एक दिन नेमी समोसख्या रे, द्वारिका नयरी उद्यान; त्रुटक- द्वारिका नयरी उद्याने यावे, कृष्ण प्रमुख यादव मन भावे; वांदी नेमने पुछे प्रश्न, ज्ञान पंचमी तणो श्री कृष्ण ॥ जिननेमी ॥२॥ ढाल पूर्वलीनेम कहे हरीनें तदारे, ज्ञान तणो अधीकार; क्रीया नें निर्मल करें रे, मुक्ति तणो दातार; त्रुटकमुक्ति तणो दातार ग्रंथे, पंचमा अंगनें माहा निसिथे; ज्ञानी श्वासोश्वासे जेह, कर्म निकाचित्त | त्रोडे तेह ॥ जिननेमी ॥ ३ ॥ ढाल पूर्वली - क्रोड वर्ष नारकी तणा रे, कर्म छूटे तत्काल; ज्ञानविना नर जांणजोरे, पशु सम अंधनें बाल; त्रुटक- पशुसम अंधनें बाल ते दाख्यो, ज्ञान ग्रही जेणें समकित चाख्यो; पयसाकर नो जेम बनाव, ज्ञानक्रीयानो तेम स्वभाव ॥ जिननेमी ॥ ४ ॥ ढाल पूर्वली-रुपी अरुपी लोकमां रे, नीवें नें व्यवहार; द्रव्य भाव क्रिया तणोरे जाणें सर्व विचार ॥ त्रुटक-जाणे सर्व विचारते नाणी, लोक अलोक निगोद वखाणी; नरक तणा छूटवा पास, आराधो नाण पंचमि सुविलास ॥ जिननेमी ॥ ५ ॥ ढाल पूर्वली - पंचमी तप साधन थकिरे, पामें पंचम
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स्तवनम्
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श्रीज्ञानपंचमी
॥१६९॥
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नाण; पंचमी गतिनें ते देयेरे, जो आराधे शुभ ध्याने; त्रुटक- आराधें शुभ ध्यानें नियमां, पंच वर्ष पंच | मासनी सीमा; चोथ भक्त उपवास करीनें, देहरे देव गुरु वांदीनें ॥ जिननेमी ॥६॥ ढाल पूर्वली - वैशाख ज्येष्ट आषाढमां रे, मृगसिर माहनें फाग; उचरियें गुरु आगले रे, पंचमी धरी मनराग; त्रुटकपंचमी धरी मनरागे किजे, पंचवाट घृत दीप भरिजे; स्वस्तिक पंच फलादि धरीजे, मुख आगल | पुस्तक स्थापीजे ॥ जिननेमी ॥ ७ ॥ ढाल पूर्वली - त्रण काल देव वांदिये रे, पडिकमणां बे वार; ब्रह्मचर्य धरि बेसीये रे, आरंभ सकल नीवार; त्रुटक- आरंभ सकल नीवारी पोसो, पूर्व उत्तर सामा बेसो; नमो नाणस्स हजार बे जपीये, तो तप तेजें त्रीभोवन तपीयें ॥ जिननेमी ॥ ८ ॥ ढाल पूर्वली - पोथी पुजो ज्ञाननी रे, प्रभावना श्रीकार; नाण मंडावी पेसीयें रे, सक्ति तणे सुविचार; त्रुटक- सक्ति तणें सुविचारे जोई, पंच वर्ष पंच मासज होई; उजमणुं करी तप आराधें, जलथी | कमल ज्युं तेजें वाधे ॥ जिननेमी ॥ ९ ॥ ढाल पूर्वली - प्रतिमा भरावो जिन तणीरे, पंच तिथें सुविशाल; ज्ञान लखावीनें दीयोरे, पाग पंच रुमाल; त्रुटक- पाठा पंच रुमाल नें काबी, लेखण
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स्तवनम्
॥१६१॥
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स्तवनम्
श्रीज्ञान- दोरा खडिआ डाबी; जरम वाड तोरण चंदुवो, पक्कवान पांच सूद्वाने दओ ॥ जिननेमी॥१०॥ पंचमी ढाल पूर्वली-पूजा रचावो जिन तणीरे, दीवी कलस गार; अंगहणा, ठाली भली रे, चंदन
में घनसार; त्रुटक-चंदन ने घनसार उखेवी, घंट नाद जालर रकेबी; एम सघली पांच पांच X मेलीजें, रातीजगें उजमणुं कीजे ॥ जिननेमी ॥ ११॥ ढाल पूर्वली-सक्ति नही मास मासनी रे,
वर्ष वर्ष प्रते एक; वरदत्त गुणमंजरी परेंरे, आराधो धरीय वीवेक; त्रुटक-आराधो अति राग धरीने, रोग सोग सर्व जाय टालीने; सुध बुध सुत संपत सारी, राग धरी सेवो नर नारी ॥ |जिननेमी ॥ १२ ॥ ढाल पूर्वली-वरदत्तें पूर्व भवेरे, ज्ञान उपर धस्यो द्वेष; दिन दश दोय मुनि रह्यो रे, आलोयो पाप नरेष; त्रुटक-आलोयो नही कर्म संयोगें, तेह मुर्खनें व्याप्यो रोगे; गुरु वचने आराधे नाण, उद्यमी पोहतो स्वर्ग वीमान ॥ जिननेमी ॥ १३ ॥ ढाल पूर्वली-तिहांथी च्यवि जंब द्विपमा रे, पूर्व विदेह मोजार वरदत्तनो जीव ते सहीरे, सुरसेन नाम कुमार; त्रुटक-सूरसेन श्रीमंधर वांदी, देशना सांभली मन आणंदी; राज छंडि ग्रह्यो संयम भार, केवल लही पोहता मुक्ति मोजार ॥ जिननेमी ॥ १४ ॥ ढाल पूर्वली-गुणमंजरी पूर्वभवे रे, पावके श्चाल्युं ज्ञान; तेह
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श्रीज्ञान- कौ एह भव थइ रे, मुंगी रोगी अनाण; त्रुटक-मुंगी कोई न परणे तेहनें, सोले वर्षे गुरु मलीया है स्तवनम् पंचमी एहने; विधे आराधि पंचमि अजुआली, भोग भोगवी अंते चारित्र पाली॥जिननेमी ॥ १५॥ ढाल ॥१६२॥
पूर्वली-विजय विमाने भोगविरे, सूरपणे सूख अपार; तिहाथी च्यवि जंबुद्वीपमा रे, रमणि विजय मोजार; त्रुटक-रमणि विजय सूग्रीव कुमार, राजनो सोपि पुत्रने भार; संयम ग्रही लयं केवल सार, थयो ते शीवरमणी भरतार ॥ जिननेमी ॥१६॥ ढाल पूर्वली-नेमी जिणेश्वर स्वयं मुखे रे, अल्प कह्यो अधिकार; ज्ञान पंचमी आराधता रे, केई पाम्या भव पार; त्रुटक-पाम्यां नेमनें वांदीने गेहें| कृष्ण प्रमुख आराधे नेहें; प्रेमे पंचमितप आराध्यो, कांति लह्यो जिम भक्ति साध्यो।जिननेमी॥१७॥
___ कलश-श्री नेमिजिनवर सयल सुखकर भविक हितकर जयकरु, संसारतारक दुःखवारक सुखका-| दूरक सुरतरु; तपगच्छनायक सुमतिदायक बिजयप्रभ सूरीश्वरु, शिष्य प्रेमनो कहो कांति सेवक भक्तिविजय जयंकरु ॥ १८॥
॥१६२॥ "इति श्री ज्ञान पंचमी स्तवन सम्पूर्ण"
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संयम
अर्थ
श्रेणीनुं
स्तवनम्
CAREIAS
“अथ श्री पंडित उतमविजयजीकृत संयमश्रेणिर्नु स्तवन अर्थ सहित” ॥ सकलपंडितचक्रचक्रवर्ति पं० श्री खिमाविजयगणि शिष्य मुख्य पं० पर्षदभामिनीभाल तिलक पं० श्री जिनविजयगणिगुरुभ्यो नमः सिद्धिबुद्धिविधायिने श्रीमदगौतमस्वामिने नमः
श्री वर्द्धमानजिनं नत्वा, वर्द्धमानगुणास्पद; खोपज्ञ संयमश्रेणि, स्तवस्यात्ों वितन्यते ॥ १॥
ढाल-१-पहेली ॥ प्रथम गोवाला तणें भवेजी ॥ए देशी ॥ केवल ज्ञान दिवा-12 |करुजी, सिद्ध बुद्ध सुखदाय; आतम संपद भोगवेजी, वर्धमान जिनराय ॥ गुणोदधि
शासननायक वीर ॥ मेरु महीधर धीर० गुणो दधि शासन नायक वीर॥ए आंकणी ॥१॥ ___ भावार्थः समस्त केवल ज्ञानावरणीय कर्मना क्षयथी उत्पन्न थयु जे केवल ज्ञान तद्रुप सूर्य समान एवा वली ॥ सिद्ध के०६॥क्षायिकभावें सकलगुण निष्पन्न सिद्ध छे। बुद्ध के०, सकल वस्तु खभावनां जाण छे ॥ सुखदाय के० उपगारी पणे सर्व सुखनां दातार छे ॥ आत्म संपदा अनंत गुण पर्याय रूप स्याद्वाद पणे परिणमती तेने भोगवे छे ॥ एहवा वर्द्धमान खामि चोवीशमा
शा. २८
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Sanna Kendre
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२
संयमश्रेणीनुं स्तवनम्
॥१६३॥
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तीर्थकर जिनराय के० समस्त केवलीओमा राजा समान छे ॥ गुणनां समुद्र गुणरुप रत्ननी उत्पत्ति | अर्थ स्थान तेमज वर्तमान शासननां अधिपति एवा वीर भगवान् छे ॥ वली उपसर्ग-परिसह आवे सहित अडग रह्यां माटे मेरु पर्वतनी पेठे धीर छे ॥ एटले वंदनात्मक स्तवनात्मक अने वस्तुनिर्देशात्मक एत्रण प्रकारना नमस्कार छे तेम आगाथाथी त्रिविध नमस्कारमाथी स्तवनात्मक इष्ट समुचित नमस्कार कयों ॥१॥ ___गाथा-अनुक्रमे संयम फरसतोजी, पाम्यो क्षायक भाव; संयम श्रेणि फूलडेजी, पुजुं पद निष्पाव० गुणो दधि० मेरु० ॥२॥
भावार्थः-अनुक्रमें-उत्तरोत्तर प्रधान संयम स्थानक फरसतोथको यदुक्तं-दशाश्रुतस्कंधे "तस्सणं भगवंतस्स अनुत्तरेणं नाणेणं अनुत्तरेणं देशणेणं अनुत्तरेणं चरित्तेण अनुत्तरेणं आलएणं अणुत्तरेणं| P॥१६३॥ साविहारेणं अनुत्तरेणं वीरिएणं अनुत्तरेणं अजवेणं अनत्तरेण मविणे” इत्यादिक मोहनीय कर्भनो
क्षयकरी उत्कृष्टुं संयम स्थान रुप खीणमोह गुणस्थानने पाम्या पहवा श्री वर्द्धमान स्वामीनां संयम
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अर्थ
संयमश्रेणी स्तवनम्
श्रेणिरुप भाव फुले करीने निष्पाव के० पाप रहित पद के चरण कमलने पुजु के० अर्चा करुं छं ॥२॥ गाथा-वाचक जशविजये रच्योजी, संक्षेपे सझाय; विस्तरि जिन गुण गावतांजी,
सहित जीव्हा पावन थाय० गुणो दधि० मेरु०॥३॥ बारकषाय क्षय उपशमेंजी, सर्व विरति || गुण ठाण; तेहना आदिम ठाणमांजी, पर्यवना परिमाण० गुणो दधि० मेरु०॥४॥ |
भावार्थः-न्यायवादि शिरोरत्न महोपाध्याय श्री यशोविजय गणिए तिक्ष्णबुद्धिगम्य संयम ||२|| श्रेणिनो सझाय ते पण विस्तार रुचिनां अर्थे अमे संक्षेप रचेलछे ॥ विस्तारे संयम स्थान गर्भित जिनेश्वरना गुण गाता थका जीह्वा तथा जन्म पवित्र थाय ॥ उत्तम जीवने ए मनोरथज होय ॥ यदुक्तं-चिरसंचियपावपणासणीए, भवसय सहस्समहणीप; चउवीसजिणविणिग्गयकहाई, वोलंतु मे दीअहा; एटले मंगलीक अभिधेयादिक कयां ॥३॥
हवे आदिम बार कषायने क्षयोपशमें एटले जे उदय आव्या दलीकने क्षय करे अने | उदय नथी आव्या तेहने उपशमावे ॥जे प्रदेशे उदय आव्याने वेदे एहवी अवस्थाए वर्त्ततां |
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संयमश्रणीनुं
स्तवनम्
॥१६४॥
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उपन्युं अविरति देशविरति प्रमुख० कषाय बारनां अभावे उपनुं जे सर्वविरतिरूप जे छटुं गुणस्थानक तेहना आदिम ठाणमां कहेतां सर्व जघन्य स्थानकमां एटले प्रथम स्थान मध्ये पर्यव के० निर्विभाग एटले जेना केवली प्रज्ञाये पण एक सडनां बेअंश नथाय एवा पर्याय चारित्रना जे अंश प्रमाण संख्या ते कहे छे ॥ ४ ॥
गाथा - सर्वाकाश प्रदेशथीजी, अनंत गुणा अविभाग; बृहत्कल्पनां भाष्यमांजी, भाखेतुं महाभाग० गुणो० दधि० मेरु० ॥ ५ ॥
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भावार्थ:- सर्व आकाश के० लोक तथा अलोकनां आकाश प्रदेश जेटले अनंतछे एटले अनंतानी गणना अनंत प्रकारनीछे ॥ तेमां लोकालोकना आकाश प्रदेशनी गणनानु जे अनंतु छे तेने अनंत गुणो करियें एटला ए वीभाग छठा गुणस्थानकना सर्वथी जघन्यमां जघन्य स्थानक जे पहेलुं स्थानक तेमां छें एरीते हे महा भाग महा पूज्य तुं कहे छे यदुक्तं - बृहत् कल्पनाभाष्य मध्ये " ते कत्तीआ परसा, सवागासस्स मग्गणा होइ; तेजत्तीआ पएसा, अविभागतओ अनंतगुणा ॥ १ ॥ ते अविभाग सर्वो
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॥१६४॥
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संयमश्रेणीनुं
स्तवनम्
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त्कृष्ट देशविरति विशुद्ध स्थानकनां निर्विभाग भागथी सर्व जीव अनंत रूप गुणकारे अनंत गुणा जाणवा ॥ ग्रंथांतरे असत् कल्पना ए उत्कृष्ट देशविरति विशुद्ध स्थानकनां अविभाग १००० छे ॥५॥ गाथा - भाग अनंते आदिथीजी, बीजे ठाणे रे वृद्धि; इम अनंत भागुत्तरेंजी, स्थानकनी होय सिद्धि० गुणो दधि० मेरु० ॥ ६ ॥
भावार्थ:-ए पहेलां संयम स्थानकेथी अनंतमे भागें एतले प्रथम संयम स्थानमां जेटला अविभाग छे ॥ ते सर्व जीवनें वहेंची आपतां एक जीव ने भागे एतले प्रथम जेटलां संयमनां अविभाग आवे तेटलां बीजा संयम स्थानकमां वृद्धि होय ॥ एम बीजां संयम स्थानथी त्रीजामां ॥ त्रीजाथी चोथामां यथोत्तर अनंत भाग वृद्धि होय । तेम आगल पण संयम स्थानकनी निष्पत्ति जाणवी ॥ ते केटलां होय ते आगल कहे छे ॥ ६ ॥
गाथा -अंगुल भाग असंख्यमांजी, जे आकाश प्रदेश; तेतां स्थानिक नीपजेंजी, कंडक तास निवेश० गुणो दधि० मेरु० ॥ ७ ॥
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संयम
श्रेणीनुं स्तवनम्
॥१६५॥
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भावार्थ:-अंगुल मात्र आकाश क्षेत्रनो भेद तेना असंख्यातमो भाग ते मांहि जेटलां आकाश प्रदेशछे ॥ तेटला अनंतभाग वृद्धिनां संयम स्थानक निपजे ॥ आगम परिभाषाए एटलां स्थानकनो समुदाय तेहने कंडकनी स्थापना जाणवी ॥ उक्तंच-कडातिए च्छभन्नइ, अंगुल भागो असंखिजो हवइ ॥७॥
गाथा-बीजे कंडक ठाणमांजी, आदि असंख अंसज्जाण; तदनंतर नंत भागतांजी, स्थानक कंडक माण• गुणो दधि० मेरु० ॥८॥ | भावार्थः-अनंत भाग वृद्धि कंडकने अनंतर असंख्यात भाग वृद्धिनुं कंडक मंडाय ते बीजा कंडकनी आदि स्थानक माहें अनंत भाग वृद्धि कंडकनां चरमस्थानकथी असंख्यातमे भागे वृद्धि जाणवी ॥ एटले प्रथम कंडकनां चरम स्थानकमांहे जेटलो अविभागछे ते असंख्यलोकाकाशना प्रदेशने वहेंची आपी एक प्रदेशने भागे जेटलो अविभाग आवे तेटलो असंख्यातमो भाग वधे तेने अनंतर अनंत भाग वृद्धिना स्थानक कंडक प्रमाण थाय ॥ तेकिम असंख्यात भाग वृद्धिनां प्रथम ठाणथी
॥१६५॥
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संयमश्रेणीनुं स्तवनम्
अनंतमो माग बघे एवं प्रथम तेनो अनंतमो भाग वृद्धिरुप बीजुं एम यथोत्तरे कंडक प्रमाण होय ॥ इम आगल पण पाछला स्थानकथी आगला स्थानकमा भागवृद्धि तथा गुणवृद्धि पोतानी बुद्धिए जाणवू ॥८॥ | गाथा-इम अनंत भाग वृद्धिनेजी, कंडक कंडक मध्य; ठाणअसंख्य अंश द्धिनांजी, कंडक मानें लद्द० गुणो दधिः मेरु०॥९॥
भावार्थ:-इम अनंत भाग वृद्धिनां कंडक प्रमाण स्थानक अने असंख्यात भाग वृद्धिनुं एक स्थानक ए रीते अनंत भाग वृद्धि कंडक कंडकने विचाले असंख्यात भाग वृद्धिनुं एक एक स्थानक करता असंख्यात भाग वृद्धिनां स्थानक केटला होय ते कहेछे कंडक प्रमाणे लाधां एटले एक कंडक प्रमाण थयां एटले षट् वृद्धि माहिं असंख्यभाग वृद्धिरुप बीजी वृद्धि पूरी थइ ॥९॥
गाथा-ते आगे अनंत भागनांजी, स्थानक कंडक मात; तदनंतर संख्यभागनुंजी, स्थानक एक विख्यात० गुणो दधि० मेरु० ॥१०॥
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॥१६६॥
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भावार्थ:- ते असंख्यात भाग वृद्धि कंडकना चरम स्थानकमां आगल अनंतर अनंत भाग वृद्धिनां स्थानक कंडक मात्रथाय एटले कंडक प्रमाणे करीए ॥ तेवार पछी संख्यात भागवृद्धिनुं एक स्थानक प्रसिद्ध थाय ॥ एटले पश्चात् कंडकनां चरम स्थानकमां जेटलां अविभागछे ते उत्कृष्ट संख्यात पद साथे भागदेतां एकने भागे जेटलां आवे तेटलां वधे ॥ इम आगल पण खबुद्धिए
जाणवा ॥ १० ॥
गाथा - ते उपर द्वय वृद्धिनांजी, जेतां ठाण अतित; ते कीधे संखभागनुंजी, बीजुं ठाण पवित्त० गुणो दधि० मेरु० ॥ ११ ॥
भावार्थ:- ते असंख्यात भाग वृद्धिनां प्रथम स्थानक ने उपर ए बे वृद्धिनां स्थानक जेटलां अतिक्रम्याछे || एटले पूर्वे अनंत भाग वृद्धि || असंख्यात भाग वृद्धिनां जेटलां स्थानक गयाछे ते सघलाए प्रथम संख्यातमो भाग वृद्धि स्थानकने आगल कीजीए ते कीधा पछी संख्यात भाग वृद्धिनुं बीजुं स्थानक पवित्र संयम परिणाम रूप आवे ॥ ११ ॥
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अर्थ
सहित
॥१६६॥
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संयमश्रेणीनुं स्तवनम्
___ गाथा-इम वृद्धिद्वय अंतरेंजी, कंडक माने रे ईठ; अंस संख्या ते वृद्धिनांजी, स्थानक । अर्थ जिनवर पुठ० गुणो दधि० मेरु० ॥ १२॥
सहित | भावार्थः-एम आगल पण बेबे वृद्धिना स्थानकने विचाले एक एक संख्या निक करतां कंडक प्रमाणे हे इष्ट ? हे प्राण वल्लभ? नीपजे ॥ ते असंख्यात भाग वृद्धिनां स्थानक हे जिनवर हे वीतराग तमने फरस्यां ॥ १२॥ | गाथा-वलि पूरवद्वय वृद्धिनांजी, स्थानक सर्व करेह; आगल गुण संख्यातनुंजी, स्थानिक एक धरेह० गुणोदधिः मेरु० ॥ १३ ॥ | भावार्थः-वली संख्यात भाग वृद्धि कंडकनां चरम स्थानक ने आगल पूर्वनी बे वृद्धिनां जेटला स्थानक गयाछे ॥ तेटलां सर्व स्थानक करवां ॥ तेहने आगल संख्यात भाग वृद्धिनुं कंडक पुरुं थयुं तेमाटे तेहने ठामे संख्यात वृद्धिन एक संयम स्थानक धरिए ॥ स्थापीए एटले पाछला अनंतर भाग वृद्धिनुं कंडक गयुं तेनां चरम स्थानकमां जेटलां अविभागछे ॥ ते उत्कृष्ट संख्यात गुणा
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संयम-2 कीजे करतो जेटलां अविभाग थाय तेटलां अविभाग प्रथम संख्यात गुण वृद्धि स्थानादिकमां वधे॥ श्रेणीनुं इम आगल पण स्वबुद्धिए जाणवु ॥ १३ ॥ स्तवन गाथा-इम त्रिक दृद्धि अंतरेजी, गुण संख्यातनां ठाणं; कंडक माने नीपजेंजी, जाणे ॥१६७॥ तुंवर नाण० गुणों दधि० मेरु०॥१४॥
| भावार्थ:-इम त्रिक वृद्धिने विचाले एटले अनंत भाग वृद्धि १ असंख्य भाग वृद्धि २ संख्यात भागवृद्धि ३ ए त्रण वृद्धिनां स्थानक ने विचाले एक एक संख्यात गुंणर्नु स्थानक करीए इम करतां संख्यात गुण वृद्धिनां स्थानक कंडक प्रमाण निपजे ॥ एतले षट्वृद्धीमांहिं चोथी संख्यात गुण वृद्धि पूरीथइ॥संयम स्थानक चारित्र परिणाम रूप अरुपिछे ते माहि हे सर्वज्ञ सर्व तुं जाणे छे ॥ १४ ॥ | गाथा-पुनरपि त्रिक वृद्धितणांजी, परीस्थानक सर्व; असंख्यात गुण वृधिनुंजी, स्थानक एक अग० गुणो दधि० मेरु० ॥१५॥ भावार्थ:-संख्यात मुण वृद्धि कंडकनां चरम स्थानकथी आगल वली त्रण वृद्धिनां एटले
॥१६॥
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अर्थ
सहित
संयम
अनंत भाग वृद्धि १ असंख्य भाग वृद्धि २ संख्यात भाग वृद्धि ३ स्थानक जेटलां पूर्वे गयांछे।। श्रणीनुं ते सर्व संयम स्थानक परीने नीपजावीने पछी असंख्यात गुण वृद्धिनुं संयम स्थानक हे अगर्व ? स्तवनम् एक आवे ॥ एटलेपाश्चात्य अनंतर संयम स्थानकमां नेटलां अविभागछे ॥ असंख्य लोकाकाश
प्रदेश प्रमाण गुणा करतां जेटला गुणाथाय तेटलांप्रथम असंख्य गुण वृद्धि स्थानमा अविभाग वघे॥१५॥ KI गाथा-चउरंतर चउरंतरेजी, स्थानक कंडक मेय; असंख्यात गुण रद्धिनांजी, पंडीत
वीर्य वरेय० गुणो दधि० मेरु०॥ १६॥ M भावार्थः-आगल पण चार चार वृद्धिने विचाले एक एक असंख्यात गुण वृद्धिनुं स्थानक निपजे ॥ एटले असंख्यात गुण वृद्धिनां प्रथम स्थान पछी अनंत भाग वृद्धि १ असंख्य भाग वृद्धि २ संख्यात भाग वृद्धि ३ संख्यात गुण वृद्धि ४ एवं चार वृद्धिनां स्थान कर्या पछी असंख्य गुण वृद्धिनुं बीजं स्थान आवे ॥ एरीते चार चार वृद्धि विचाले एक एक स्थान करतां कंडक मात्र थाय ॥ एटले षट्वृद्धि मांहिं असंख्य गुण वृद्धि रूप पांचमी वृद्धि पूरी थइ । असंख्यात गुण|
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संयमश्रेणीनुं स्तवनम्
॥१६८॥
RECERENCE
वृद्धिनां संयम स्थानक इम नीपजावतां कंडक मात्र थाय ॥ एसर्व संयमस्थानरूप आत्मगुण हे अर्थ वीर ? हे परमेश्वर ? तमे पंडित वीर्ये करीने वर्या ॥ पाम्या ॥ एटला माटे तमे वंद्यछो॥ पूज्यछो॥ सहित स्तुत्यछो॥ तमने स्तवतां एवा गुणो पामीए ॥१६॥
गाथा-उपर वली चउ वृद्धिनांजी, फरसे स्थानक सार; तदनंतरनंतगुण-जी, स्थानक एक उदार० गुणो दधि० मेरु० ॥ १७ ॥
भावार्थः-असंख्यात गुण वृद्धि कंडकनां चरम स्थानकने उपर वली चार वृद्धिनां एटले अनंत है। |भाग वृद्धि १ असंख्यात वृद्धि २ संख्यात भाग वृद्धि ३ संख्यात गुण वृद्धि ४ ए चार वृद्धिनां सर्व स्थानक
हे सार हे उत्कृष्ट ? फरसे ॥ तेवार पछी आंतरारहित अनंत गुणवृद्धिर्नु एक प्रथम स्थानक महोटुंआवे॥ ६ एटले पाश्चात्य अनंतर संयम स्थानकमा जेटलां अविभागछे ॥ ते सर्व जीवरुप अनंत साथे अनंत गुणा
करतां जेटलां अविभाग थाय तेटलां अनंत गुण वृद्धिनां प्रथम स्थानकमा अविभाग वघे ॥१७॥
॥१६८॥
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संयमश्रेणीनुं
स्तवनम्
SAXCCCCASICS
गाथा-पंच पंच बुड्ढि विचेंजी, ठाण एक एक जोय; इम अनंतगुण बुढिनांजी, कंडक माने होय० गुणोदधि० मरु०॥१८॥
भावार्थः-अनंत गुण वृद्धिनां प्रथम स्थानक पछी अनंतर अनंत भाग वृद्धि १ असंख्य भाग वृद्धि २ संख्यात भाग वृद्धि ३ संख्यात गुण वृद्धि ४ असंख्यात गुण वृद्धि ५ ए पांच वृद्धि रूप सर्व संयम स्थानक उपजे त्यार पछी एक अनंत गुण वृद्धनुं बीजं संयम स्थानक आवे ए रीते पांच पांच वृद्धिने वच्चे एक एक अनंत गुण वृद्धनुं स्थानक निपजे ते ज्ञान द्रष्टि ए जुओ इम करतां अनंत गुण वृद्धनां संयमस्थानक केटलां होय ते कहे छे कंडक प्रमाणे होय ते अंगुल ने असंख्या-3 तमा भागमा जेटला आकाश प्रदेशछे ते प्रमाण जाणवा ॥१८॥
गाथा-उपर वली पंच वृद्धिनांजी, फरसे संयम ठाण; प्रवचन अनुसारे कडुंजी, षट् स्थानक परिमाण० गुणोदधि० मेरु०॥ १९॥
भावार्थः-अनंतगुण वृद्ध कंडकनां चरम स्थानकने उपर वली मूल थकी पांच वृद्धिनां सर्व है।
शा. २९
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संयम
श्रेणीनुं
स्तवनम्
॥१६९॥
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संयम स्थानक फरसे पण पांच वृद्धि कर्या पछी प्रसंगे आव्युं अनंत गुण वृद्धिनुं स्थानक ते न करवुं जे माटे षट् स्थानक पूरुं थयुं ते माटे प्रवचन अनुसार क० "कल्प भाष्य" तथा " प्रवचन सारोद्धार” नी टीकाने अनुसारे कयुं छे षट् स्थानकनुं परिमाण प्ररूपणा एतावता स्वमति कल्पनाए नथी कयुं ॥ १९ ॥
गाथा - असंख्य लोका काशनाजी, प्रदेशने परिमाण; एक षट् स्थानक उपरेजी, उठे वली षट् ठाण० गुणोदधि० मेरु० ॥ २० ॥
भावार्थ:- एक चौदराज प्रमाण लोकछे एवा असंख्याता लोकाकाशमां कल्पीये तेना जेटला आकाश प्रदेशनो समुह तेटला प्रदेशने परिमाणे उक्तंच ॥ छ ठाणग अवसाणे, अन्नं छठाणयं पुणो अन्नं; एव मसंखा लोगा, छ ठाणाणं मुणेअवा ॥ १ ॥ एक प्रथम मूल षट् स्थानक उपर उपर वली बीजा षट् स्थानक उपर जे एतावता असंख्याती वार उपर उपर षट् स्थानक थायई इति ॥ २० ॥
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अर्थ
सहित
॥१६९॥
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अर्थ
संयम- श्रेणीनुं स्तवनम्
साहत
गाथा-एह संयम गुण ठाणमांजी, जे वर्ते मुनि सोय; वंद्य अपर भजना पणेजी, भाष्य कल्पमा जोय० गुणोदधि० मेरु० ॥२१॥
भावार्थ:-पह संयम गुणठाण क. चारित्र गुणना स्थानका एटले छटा गुणठाणाना आदि स्थानकथी मांडी असंख्यात चारित्र रूप चरम स्थान पर्यंते तेहमां जे मुनिराज वर्तेछे ते वांदवा योग्य पण वेषमात्रनुं प्रयोजन नहीं उक्तंच "वेसो विअप्पमाणो, असंजमए सुमाणस्स; किं परि अत्तिय वेसं, विसंन मारेइ खजंतं इति ॥१॥ अपर क० बीजा संयम श्रेणीथी बाह्य ते भजनाए वंदनीक एतावता कारणे वांदवायोग्य छे कारण विना नहीं ए अर्थ बृहत्कल्प भाष्यमा जोवो उक्तंच "संयम ठाण ठियणं किइकम्मे बाहिराणं भइयत्वं इति ॥ २१॥ | गाथा-षट् स्थानिक संयम तणाजी, कहेतां स्तवतारे वीर; खिमा वीजय जिन भक्तथी जी, उत्तम लहे भव तीर० गुणोदधि० मेरु० ॥२२॥ - भावार्थः-षट् स्थानक नाम अनन्त भाग वृद्धि १ असंख्य भाग वृद्धि २ संख्यात भाग वृद्धि
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संयम
श्रेणीनुं
स्तवनम्
॥१७०॥
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संख्यात गुण वृद्ध ४ असंख्यात गुण वृद्ध ५ अनंत गुण वृद्धि ६ इहां भाग तथा गुण कुण संख्याए ते जाणवा ने आगम गाथा "सब जिए हिं अनंतं, भागं च गुण असंख; लोगेहिं जाण असंखं, संखं संखी जेणं च जिठेणं ॥ १ ॥ एहनो अर्थ इहां षट् स्थानक ने विषे अनंत भागने अनंत गुण सर्व जीवें जाण असंख भाग तथा असंख्याता लोकाकाश प्रदेशे संख्यात भाग तथा संख्यात गुण उत्कृष्ट संख्याए तथाही जे संयम स्थानक अनंत भागे वृद्ध पाने ते पाछला संयम स्थानकनां जे अविभाग तेहनुं सर्व जीव संख्या प्रमाणे भाग हरे ते जेटला लाभीये तावत् प्रमाण अनंत भागे अधिकुं जाणवुं जे असंख्यात भाग वृद्ध ते पाछिला संयम स्थानिकना निर्विभाग असंख्य लोका काश प्रदेश प्रमाण भाग हरे ते जें पामीए तावत् प्रमाण असंख्ये भागे अधिकं जाणवुं जे असंख्यात भागे वृद्ध ते पाछला संयम स्थानकना अविभाग तेहनुं उ० संख्यातक राशिं भाग हरता जे लाभे तेटले संख्यात भागे अधिकं जाणवुं जे संख्या गुणे वृद्ध ते पाछला संयम स्थानना जे | निर्विभाग उ० संख्यात गुण राशि गुणता थाय तावत् प्रमाण जे असंख्यात गुण वृद्ध ते पाछला
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69
अर्थ
सहित
॥१७०॥
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अर्थ
संयमश्रेणीनुं स्तवनम्
सहित
संयम स्थानिकनाज अविभाग तेहने असंख्याता लोका काशना जे प्रदेश तत गुणा करीए तावत् प्रमाण जे अनंत गुण वृद्ध ते पूर्व संयम स्थानकना विभाग सर्व जीवा नंतकारे गुणीए तावत् प्रमाण एह संयमनां षट् स्थानक क. संयम श्रेणी गर्भित वीर परमेश्वर स्तवता तथा वली क्षमागुणे करीने विजय कर्यो छे मोह ते जेणे यतः अणुत्तराए खंतिएत्ति वचनात् एहवा जिन क. वीतराग श्री वीरस्वामी तेहनी भक्तिथी उत्तम जीव भवसमुद्रना पार पामे सिद्ध परमेश्वर थाय एतावता पंडित श्री क्षमाविजय गणि तत् शिष्य पं०जिनविजय गणि तेनी भक्तिथी उ०० उत्तम विजय भवनो पार पामे एपण जणाव्यु ॥२२॥ हवे पूर्वोक्त संयम स्थानक सुगम थाय ते माटे यंत्रनो ढाल वीर प्रभुनी स्तवना करतां थकां कहिये छीये॥ इति संबंद्ध ॥ ___ ढाल-वीजी-सूरती महीनानी ॥ धीर पुरे एक शेठने पर्वदिने व्यवहार ॥ए देशी॥
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साहत
संयम- वस्तु स्वभाव प्रकाशक भासित लोगा लोग, वीर जगत गुरु भोगवे रत्न त्रयीनो भोग; || अर्थ श्रेणीनुं संयमना षट् स्थानक सूक्षम बुद्धि गम्य, स्व परविबोधन हेते स्था' यंत्र सुरम्य ॥१॥ स्तवनम् भावार्थ:-सदसदादिक अनंत धर्मात्मक वस्तु खभाव तेहनो प्रकाशक तथा केवल ज्ञान ॥१७१॥
आदर्शमां भाख्योछे जे लोकालोक जेणे एवा श्री वीर परमेश्वर जगतनो गुरु भावरत्न त्रयीनो आखाद अनुभवेछे “सम्यग् ज्ञानं यथार्थाऽव बोधः” “सम्यग् दर्शनं तत्त्वप्रतीतः” “सम्यग् चारित्रं निज वरूप, रमण स्थिरता रूपं” इति रत्नत्रयी संयमनी षट् वृद्धिनां स्थानक तिक्ष्ण बुद्धिए गम्यछे ते माटे पोताने तथा परने समजाववाने काजे असत्कल्पनाए मनोहर यंत्रस्थापुंछं तथा अनंत भाग वृद्धि स्थाने मीडां असंख्यात भाग वृद्धिस्थाने एकडा संख्यात भाग वृद्धिस्थाने बगडा संख्यात गुण वृद्धिस्थाने प्रगडा असंख्यात गुण वृद्धिस्थाने चोगडा अनंतगुण वृद्धि स्थाने पांचडा असत्कल्पनाए चारमीडा ने अनंत भाग वृद्धि कंडक ४ एकडे असंख भाग वृद्धा इत्यादि संज्ञा ॥१॥
॥१७॥ * गाथा-भाग अनंत वृद्धिना ठाण छे कंडक सार, छे यद्यपि ते असंख्य ठq तस
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संयमश्रेणी- स्तवनम्
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NASEARCASSALA
बिंदु च्यार; असंख भाग वृद्धिनुं स्थानक आगल एक, तस ठामे ठq एको मनधरी|| अतिहि विवेक ॥२॥
भावार्थ:-अनंत भाग वृद्धिना स्थानक भला कंडक मात्र अंगुल असंख्य भाग मत आकाश प्रदेश प्रमाणे छे. यद्यपि ते अनंत भाग वृद्ध स्थानक असंख्याता छे तोपण असत् कल्पना ए चार बिंदु है। स्थापुंछं एटले अनंत भाग वृद्ध कंडक पूरुं थयुं ते माटे आगल असंख्यात भाग वृद्धिनुं स्थानक एक आवे तेहने ठामे १ एकडो मनमा अत्यंत विवेक आणीने स्थापुंछु पूर्वोक्त.स्थानकथी भिन्न पडवा निमित्ते एम सर्वत्र जाणवू ॥२॥ __गाथा-चउ चउ बिंदु अंतर इम होय एकाचार, तदनंतर चउ बिंदु सघलां वीश : उदार; आगल भाग संख्यातह वृद्धितो बीओ जाण, इम चउ बीआ ठवतां मीडां शत परिमाण ॥३॥
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संयमश्रेणीनुं
जानु स्तवनम् ॥१७२॥
भावार्थः-वली आगल अनंत भाग वृद्धिना कंडक मात्र स्थानक थाय तेहने ठामे चार बिंदु स्थापीए आगल असंख्य भागनुं एक स्थानकछे ते माटे वली एकडो स्थापीए एरीते चार चार बिंदुने आंतरे चार एकडा थाय एटले संख्य भाग वृद्ध कंडक थयुं ते वार पछी आंतरा रहित अनंत भाग वृद्धनुं कंडक आवे तेहने ठामे चार बिंदु स्थापिए एटले सघला सरवाले चार एकडा अने वीश मीडां थयां आगल संख्यात वृद्धनुं स्थानक एक आवे तेने ठामे बगडे बगडा आवे तेवारे संख्यात भाग वृद्ध कंडक पूरूं थाय जाणनी स्थापना एरीते चार एकडा गर्भित वीसमीडां : अनंतर संख्यात भाग वृद्धनो एक एक बगडो आणतां जेवारे चार बगडा आवे ते वारे संख्यात भाग वृद्ध कंडक पूरं थाय तेवार पछी वली चार एकडा गर्भित वीस मीडां आवे ॥३॥
गाथा-चउ बीआ वीस एक मीडां शत समुदाय, भागनी वृद्धि मांहि थयां हवे गुण रद्धि कहेवाय; संख्यात गुणनी रद्धिमां तीओ आदि उदार, इम सवि मीडां अंका विचे । ठविति आच्यार ॥४॥
॥१७२॥
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Adrerit
kaila
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संयम
सहन
भावार्थ:-संख्यात भाग वृद्धि पर्यंत सर्व समुदाये मीडां शत १०० एकडा वीस २० बगडा श्रेणीनुं चार ४ एतावता संख्यात भाग वृद्धD कंडक १ असंख्यात भाग वृद्धना कंडक ५ अनंत भाग वृद्धना स्तवनम् कंडक पचवीस २५ एटला स्थानक भागवृद्धिमां थयां हवे गुण वृद्धि मांहे थाय ते कहीए छीए
हवे आगल संख्यात गुण वृद्धिन स्थानक आवे तेने ठामे एक जगडो स्थापीये एटले संख्यातगुण वृद्धि मांहि प्रथम उत्तम स्थान ३ जाणवू एरीते वली चार बगडा वीस एकडा गर्भित शत मीडां
अनंतर बीजो त्रगडो आवे इम चार बगडा थाय ए चार बगडे संख्यात गुणे वृद्ध रूप कंडक थियुं चोथा त्रगडाने अनंतर वली चार बगडा वीस एकडा शत मीडां थापीये ॥४॥
गाथा-वीस बीआं शत एका पणसय बिंदु मान, असंख्यात गुण वृद्धिनो चोको धुरि मंडाण; इम चउ चोका आणतां त्रिक वीस द्विक शत जोय, पंचमय एकडा मीडां पचवीस सय होय ॥५॥
भावार्थ:-सर्व मली संख्यात गुण वृद्धि पर्यंत त्रगडा ४ बगडा २० एकडा शत १०० मीडां
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संयम
श्रेणीनुं
स्तवनम्
॥१७३॥
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पांचसे ५०० एतावता संख्यात वृद्धिनुं कंडक १ संख्यात भाग वृद्धिनां कंडक ५ असंख्यात भाग वृद्धना कंडक २५ अनंत भाग वृद्धिना कंडक १२५ ते वार पछी असंख्यात गुण वृद्धिरूप प्रथम स्थानकनो चोगडो मांडीये एरीते चार त्रगडा वीस बगडा एकागये थके बीजो चोगडे चार | चोगडाथाय एटले शत १०० सहित मीडां ५०० मांडीए ए परीपाटी असंख्यात गुण वृद्धनुं कंडक पूरुं थयुं चोथा चोगडाने अनंतर ४ चार त्रगडा २० बगडा १०० एकडा ५०० मीडां स्थापीए सर्व बगडा शत १०० एकडा एतावता असंख्यात गुण वृद्ध मली चोगडा चार त्रगडा २० ५०० मीडां पचवीससें २५०० कंडक १ संख्यात गुण वृद्धिनां कंडक ५ संख्यात भाग वृद्विनां कंडक २५ असंख्यात भाग वृद्धना कंडक १२५ अनंत भाग वृद्धिनां कंडक छसें पचवीस ६२५ थायछे ॥ ५ ॥
गाथा - हवे अनंत गुण वृद्धि पदे ठवि पंचक चंग, पुनरपि पूरव रीते मीडां अंक सुरंग; | तेवार पछी पंचक इम पंचक चउ जव थाय, आगे पण पचवीससे मीडां अंक कराय ॥ ६ ॥ भावार्थ:- हवे अनंत गुण वृद्धि पदे कहेतां अनंत गुण वृद्ध रूप प्रथम स्थानकने ठामे एक
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अर्थ
सहित
॥१७३॥,
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संयम
श्रेणीनुं
स्तवनम्
4-
पांचडो स्थापीये फरी पण पूर्वनी रीतिए चोगडा चार ४ त्रगडा वीस २० बगडाशत १०० एकडा ५०० ।।
अर्थ गर्भित मीडां २५०० स्थापीये तेवार पछी बीजो पांचडा स्थापीये ए रीते अनुक्रमे जे वारे पांचडा सहित चार थाय ते वारे अनंतगुण वृद्ध कंडक पूरूं थाय आगलपण चोथा पांचमाने अनंतर चोगडा ४ त्रगडा वीस २० बगडा शत १०० एकडा पांचसे ५०० युक्त मीडां पचीसें २५०० करीए एटले एक षट स्थानक पूरुं थयुषट् स्थानक मध्ये आंक तथा मीडांनी संख्या आवीते पश्चानुपूर्वीए कहीए छीए॥६॥ * गाथा-पांचडा चोगडा त्रगडा बगडा एकडा बिंदु, षट् स्थानकनां यंत्रनी संख्या कहे
जिन चंद: चउवीस सय पणसय पचवीस सय सार, अंकमीडांगणतांसाढाबार हजार॥७॥ | भावार्थः-पांचडा तथा चोगडा तथा त्रगडा तथा बगडा तथा एकडा तथा मीडां तेहना समुदाय
रूप षट् स्थानकना यत्रनी संख्या जिनचंद्र एवा ऋषभादिक कहे हे वीर परम इश्वर? तेम तमे फरसी |पांचडा चार ४ चोगडा वीश २० त्रगडा शत १०० बगडा पांचसे एकडा पचवीसें मीडांगणतां साढाबार सहस्र १२५०० सरवाले थयां एतावता अनंत गुण वृद्ध कंडक १ असंख्यात गुण वृद्ध कंडक ५ संख्यात
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संयमश्रेणीनुं
स्तवनम्
॥१७४॥
ortor
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गुण वृद्ध कंडक २५ संख्यात भाग वृद्धना कंडक १२५ असंख्यात भाग वृद्धना कंडक ६२५ अनंत भाग वृद्धना कंडक एक त्रीशसेंने पंचवीश सरवाले ३९०६ कंडक थयां ए सर्व यंत्र प्रमाणे असत्कल्पनाए लख्युंछे परमार्थ रीते आगली ढालमां कहिए छीए ॥ ७ ॥
गाथा - संयम श्रेणिमां श्रेण क्षपक लही शुक्लध्यान, घाती कर्मनो क्षय करि पाम्या पंचम ज्ञान; प्रवचन सारनी वृत्तिमां यंत्रनी ठवणा दीठ, खिमाविजय जिन वयणथी उत्तम चित्त पविठ ॥ ८ ॥
भावार्थ:-संयम श्रेणि आरोहतां अनुक्रमे क्षपक श्रेणी मांहि शुक्लध्यान पामीने घातीआं चार ४ कर्म क्षय करतां यथाख्यात चारित्र केवलज्ञान - केवलदर्शन रूप रत्नत्रयी पाम्या तद् अनुक्रमें यथा| अप्रमत्तगुणठाणे अनंतानुबंधी चार ४ दर्शनमोहनीय त्रिक त्रण ३ एवं सात प्रकृति क्षय करी अपूर्व करण | अनिवृत्ति गुणठाणे चढ्या अनिवृत्तिना प्रथम भागने अंते १६ सोल प्रकृति खपावे तेनां नाम “थावर |तिरि निरया यव, दुग थिण तिगेग विगल साहार;" बीजे भागने अंते अप्रत्याख्यानीया चार ४ प्रत्या
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अर्थ सहित
॥१७४॥
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San ka
mandi
5-
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संयमश्रेणीनुं स्तवनम्
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KAAR
ख्यानीया चार ४ एवं आठ प्रकृति खपावे त्रीजे भागे नपुसक वेद चोथे भागे स्त्रीवेद ततः पंचमें भागे हास्यषट्क छठे भागे पुंवेद सातमे भागे संज्वलन क्रोध अष्टमे भागे संज्वलनमान नवमे भागे संज्वलनमाया, एटले नवमे गुणठाणे २० वीश खपावे दशमे गुणठाणे लोभ शुक्ल ध्याननो पृथक्त्व वितर्क सविचार रूप प्रथम पायो ते रूप अनले करी सकल मोहनीय भस्मसात् करे पछी क्षीण |मोह गुणठाणो चढे क्षायिक चारित्रवान् थाय तिहां एक "त्ववितर्क, अविचार रूप शुक्लध्याननो
बीजोपायो अनुभविने द्विचरम समय निद्रा दुग खपावी चरम समये ज्ञानावरणीय पांच ५दर्शनावरणीय |चार ४ अंतराय पांच ५ एवं चौद १४ प्रकृतिने क्षये अनंत चतुष्टयी विभूषित सिद्धिवधु योग्य थाय छे” इति ॥श्री सिद्धसेन दिवाकरकृत प्रवचन सारोद्धारनी वृत्तिमांहे षट् स्थानकनी यंत्र स्थापना दीठी ते क्षमाए उपलक्षित दशविध धर्म तेणे करी विशेषे जयवंता जिन कहेतां श्रुतकेवली अवधि जिन मनः पर्यव जिन एवा सुधर्मा स्वामी तेनां वयण कहेता वर्तमान आगम तेहथी उत्तम साधु-साध्वीने फरसन रूपें तथा उत्तम श्रावक-श्राविकाने श्रद्धा रूप संयम श्रेणी चित्तमा पेठी एटले पंडित
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॥१७५॥
श्रीखिमाविजय गणि शिष्य रत्नपं० श्रीजिनविजयगणिनां वचनथी मनी उत्तमरिजरना चित्तमा यंत्रनी स्थापना पेठी. स्थिरपणे रही.
____ "इति श्री प्रथमढाले षट्स्थानकप्ररूपणा समाप्तम्" ढाल-३-त्रीजी ॥धन्य पूरमारे शेठ धनेश्वर शुभमति ॥ एकवीसानी ए देशी ॥ आतम रामीरे शिव विसरामी नित्य नमुं, प्रभूजी स्तवतारे पाप पोताना निगमुं; षड़ स्थानकरे जे अहठाण परुपणा, सुणो सयणारे वयणा कल्पनी भाष्यनां ॥१॥ | भावार्थः-बीजी ढालनी यंत्र स्थापना करतां स्थूल बुद्धिने पण सुखे समजाय हवे एकांतरादिक मार्गणा कोड प्रछे तेने सुखे कही शकीए तेमाटे वीरप्रभुनी स्तवना करतां थकां अधस्तन स्थान प्ररूपणानी ढाल कहिए छीए.
"शुद्ध निर्मल निःकलंक आत्म खभावी रमण शील निरूपद्रव स्थान क्षेत्रथी उर्द्ध लोकाग्र
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संयमश्रेणीनुं स्तवनम्
भावथी निरावर्ण स्थाननें विषं विशरामी एवा श्री वीरप्रभुने नित्य प्रत्ये नमुं. प्रभुजीनी स्तवना करता थकां अनेक भवोपार्जित पोताना कस्यां क्षीरनी पेरे अभेद रह्यां जे पाप कर्म ते निगम प्रभो नमस्कार स्तुति फलम् उत्तर इव संयमनां षड् स्थानकने विषे जे अनंतरएकांतरादिक अहठाण प्ररूपणा छे ते हे सयणा हे सम्यग्दृष्टि उत्तमजीवो तमे सांभलो ए वचन श्रीबृहत्कल्पभाष्य वृत्तिनां छे ॥१॥ | त्रुटक-आदि असंख्य अंस वृद्धिथी कहो भाग अनंतर अंश केटलां, हेठ स्थानक इम पुछत कहिए कंडक जेटला; भाग संख्यातह गुणसंख्याते असंख्य अनंतह गुण वली, तस प्रथमथी कहे अध अनंतर कंडक माने केवली ॥२॥ | भावार्थः-असंख्यात भाग वृद्धनां प्रथम संयम स्थानकथी हे उत्तमजी कहो अनंत भाग वृद्धनां हेठलां स्थानक केटलांगयां एवीरीते कोइजीवपूछे त्यारे कहिए जे एक कंडक जेटलां गयांछे तेमाटे
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संयम- श्रेणीनुं स्तवनम् ॥१७६
अनंत भाग वृद्ध कंडकने अनंतर जे असंख्याता भाग वृद्धिनुं प्रथम स्थानक थयुंछे इममाटे ते संख्याता अर्थ भागनां प्रथम स्थानकथी असंख्य भाग वृद्धनां स्थानक तथा संख्यात गुण वृद्धना प्रथम स्थानथी संख्यात भाग वृद्धनां स्थानक तथा असंख्यात गुण वृद्धनां प्रथम स्थानथी संख्यात गुण वृद्धिनां । स्थानक तथा अनंत गुंण वृद्धिनां प्रथम स्थानकथी असंख्यात गुण वृद्धिनां स्थानक कोइ पुछे त्यारे सर्वत्र हेठल आंतरा रहित मार्गणाये कंडक प्रमाणे संयमस्थानक केवली कहे-यदुक्तं (पंचसंग्रहे ) सवासं वुद्विणं कंडक मेत्ता अनंतरा बुंडीइ-अनंतर मार्गणा हवइ ॥ २ ॥
गाथा-एकांतर रे मार्गणा सुणो सवि संतरे, भागे संख्याते रे मूल स्थानकथी तंतरे; हेठे स्थानक रे भाग अनंतनी भाखीए, एक कंडक रे कंडक वर्ग ते दाखीए ॥३॥
भावार्थः-हे सर्व संतो ? एकांतर मार्गणा तमे सांभलो एकांतर मार्गणा ते एकवृद्धि विचाले |IREOn मुकीने पूछवो-संख्यात भाग वृद्धनां मूल स्थानकथी प्रथम स्थानकथी हेठल अनंत भाग वृद्धिनां
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स्थानक केटलां गयां एम कोइ एकांतरे पूछे ते वारे एम प्रकाशीये-एक कंडक अने कंडकवर्ग श्रणीनुं
प्रमाण जे माटे हेठल असंख्य भाग वृद्धिनां स्थानक कंडक मात्र गयांछे-अने एक एक असंख्य स्तवनम्
भाग वृद्धिनां स्थानने हेठल एक एक अनंत भाग वृद्धनुं कंडक गयुंछे असंख्यात भाग वृद्धनां
स्थान कंडकः ॥ ३॥ * त्रुटक–दाखीए गुण संख्यातथी वली असंख्य अनंत गुणथी तथा, पढम ठाणथी एक
अंतर कंडकवर्ग कंडक यथा; "इत्येकांतर मार्गणा” एक अंतर मार्गणा कही सुणो इयंतर मार्गणा, संख्यात गुणथी हेठे स्थानक अनंत भागनां शुभमना ॥४॥
भावार्थः-एमवली संख्यातगुण वृद्धनां स्थानकथी असंख्यातभाग वृद्धनां स्थानक तथा असं| ख्यातगुण तथा अनंतगुण वृद्धिनां प्रथम स्थानकथी हेठल संख्यातभाग वृद्धिनां तथा संख्यातगुण वृद्धिनां स्थानक एकांतरमार्गए केटला पामीये एम कोइ पूछे ते वारे एम कहीएजे कंडक वर्ग अने
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स्तवनम्
॥९७७॥
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उपर एक कंडक जेम पूर्वे कह्यांछे तेम समजवा. इति एकांतर मार्गणा ॥ यदुक्तं पञ्चसंग्रहे - एगंत राओ वुट्टिए, वग्गो कंडस्स कंडंच ॥ ए रीते एकांतर मार्गणा कही, हवे यंतर मार्गणा सांभलो अंतरमार्गणा ते बेवृद्ध बिचाले मुकीने पूछीए संख्यात गुणनां प्रथम स्थानकथी अनंत भाग वृद्धिनां स्थानक केटलां ते हे शुभमन ? कहीए छीए ॥ ४ ॥
गाथा -कंडक घनरे कंडक वर्ग दुगुण करो, एक कंडक रे तस संख्या मनमां धरो; दुग अंतर रे असंख्य अनंत गुणथी लह्यां, अधः स्थानक रे पूरव परे जाणो कह्यां ॥ ५ ॥
भावार्थ — कंडक घरना कंडकवर्ग २ इहां संख्यात गुण वृद्धनां प्रथम स्थानकथी हेठल प्रत्येके एक एक संख्याता भाग वृद्ध स्थानक ने हेठल प्रत्येके एक एक कंडक अधिक कंडक वर्ग अने एक| कंडक पामीए-ए सर्व भेला करतां संख्या थाय ते मनमां धरो एकवर्ग अनंत भाग वृद्ध स्थानकनो पामीए अने संख्यात भाग वृद्धि स्थानक कंडक प्रमाणछे ते वास्ते कंडक वर्ग जे वारे एक कंडकसाथे गुणीए ते वारे कंडक घन थाय अने एक कंडक छे तेने कंडक साथे गुणीए ते वारे कंडक
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स्तवनम्
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वर्ग थाय अने संख्यात भाग वृद्ध स्थानक हेठल कंडक वर्ग १ ? अने एक कंडक पामीए ए सर्व भेला करतां सूत्रोक्त प्रमाण थाय इम आगल दुगंतर मार्गणाये असंख्यात गुण वृद्धनां प्रथम स्थान कथी तथा अनंत गुण वृद्धना प्रथम स्थानकथी यथाक्रमें हेठल असंख्यात भाग वृद्धनां तथा संख्यात भाग वृद्धनां संयम स्थानक पूर्वे जेम कह्यांछे तेम जाणो यदुक्तं पंचसंग्रहे - कंड कंडस्स घनोवग्गो - दुगुणो दुगं तराएउ ॥ इति द्व्यंतर मार्गणा ॥ ५ ॥
टक - त्रिके अंतर कोइ पूछे आदि असंख्य गुण वृद्धिथी, हेठे भाग अनंत केरां ठाण कहो गुरु वयणथी; कंडक वर्गनो वर्ग कीजे कंडक घन त्रिक उपरे, कंडक वर्ग त्रिक | एक कंडक होय ते मनमां धरे ॥ ६ ॥
भावार्थ - हवे त्रीकांतर मार्गणाए कोइ पूछे एटले त्रण वृद्धि विचाले मूकीने प्रथम जे असंख्य गुण वृद्धनुं स्थानक तेहथी हेठल अनंत भाग वृद्धनां स्थानक केटला गया ते कहो सुविहित गीतार्थ
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संयमश्रेणीनुं
स्तवन ॥१७॥
गुरुनां वचन जाण्या होय ते एक कंडक वर्ग वर्ग एटले जेम असत् कल्पनाए चार आंकने कंडक स्थापी तेनो वर्ग करतां सोल थाय तेनो वर्ग करता २५६ थाय एरीते असंख्यातानुं समजवू-उपर वली कंडक घन त्रिण ३ तथा वली कंडक वर्ग३त्रिण वली उपर एक कंडक होय ते सर्व उत्तम श्रद्धा सहित मनमा राखे ए संख्या केम जाणीये जे माटे प्रथम असंख्य गुण वृद्धनां स्थानकथी हेठल संख्यात गुण वृद्धनां स्थानक कंडक माने गयाछे-तिहां एक एक स्थानकने हेठल प्रत्येके अनंत भाग वृद्धनां स्थानक कंडक घन १ कंडक वर्ग २ कंडक प्रमाण पामीए ते माटे पर्वने कंडक गुणा करीने सरवालो करी राखीए संख्यात गुणा वृद्ध कंडकने उपर कंडक घन १ कंडक वर्ग २ एक कंडक छे ते पूर्व राशिमा प्रक्षेपीए तेवारे यथोक्त मान थाय यदुक्तं पञ्चसंग्रहे "कंडस्सवग्ग वग्गो घण व ग्गाति
|॥१७८॥ गुणिया कंडं" इति ॥६॥
गाथा-छठा वृद्धिनारे पहेला ठाणथी हेठलां, बीअवृद्धिनारे स्थानक पूरव जेटला; ||
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संयम श्रेणी, स्तवनम्
सात
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इति त्रिकांतर मार्गणा ॥ चउरंतररे अनंत गुणादिम ठामथी, हेठे स्थानकरे भाग अणंतना मानथी॥७॥
भावार्थः-इम छठी अनंत गुण वृद्धना पहेलां स्थानकथी हेठल बीजा वृद्धना असंख्यात भाग वृद्धना स्थानक पण पूर्वे जेटलां एटले त्रिकांतर (वृद्ध) मार्गणानां अनंतर कल्छे तेटला जाणवा इति त्रिकांतर मार्गणा-चउरंतर मार्गणाने विषे अनंत गुण वृद्धनां आदिम कहेतां प्रथम स्थान कथी हेठलां स्थानक अनंत भाग वृद्धनां प्रमाणथी केटलां छे ते आगल कहे छे ॥ ७॥ | Jटक-परिमाणथी ते अष्ट कंडक वर्ग वर्गा षड् ठाणा, चार कंडक वर्ग आगल एक कंडक सोभना; इति चतुरंतर मार्गणा ॥ पर्यवशाननी मार्गणा ते षट्स्थानक पूरे करे, मूलथी संयम ठाण फरसी वीरविभू केवल वरे ॥ ८॥
भावार्थः-ते परिमाणथी आठ कंडक वर्ग कंडक संज्ञा ४ ने तद्गुणो वर्गः १६ वर्ग कंडक गुणोधनः |
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संयम
श्रेणीनुं
स्तवनम्
॥१७९॥
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६४ वर्ग वर्गों २५६ घन कंडक गुणोपि २५६ यथोचित स्थानके संख्या करवी -वर्ग ८ तथा छ कंडक घन ६ तथा चार कंडक वर्ग ४ तथा उपर एक कंडक १ शोभन संयम परिणाम रूप छे ए केम जाणीए जे माटे अनंत गुण वृद्ध प्रथम स्थानकथी हेठल असंख्य गुण वृद्धनां स्थानक कंडक प्रमाण गयाछे अने असंख्यगुणनां एक एक स्थानकने हेठल अनंत भाग वृद्धनां स्थानक कंडक वर्ग १ कंडक घन ३ कंडक वर्ग ३ कंडक १ प्रमाण पामीये ते माटे ए सर्वने कंडक गुणा करी | जे थाय ते सरवालो करी राखीए असंख्य गुणवृद्धने उपर कंडक वर्ग १ कंडक वर्ग ३ कंडक १ पामीए ते पूर्व राशिमां प्रक्षेपीए त्यारे यथोक्त मानथाय यदुक्तं - पंचसंग्रहे - " अड कंडक बग्गा, चत्तारि वग्ग छग्घना कंड; चउ अंतर बुढीए, हेठठाण परूवणाए १ ॥” इति चतुरंतर मार्गणा ॥ | हवे पर्यवज्ञाननी मार्गणा कछे पर्यवसान एटले छेहडो तेनी मार्गणा ते षट् स्थानक पूरे थये जाणवी मूलथी कहेतां धुरथी संयम स्थानक फरसी वीर परमेश्वर जगतनां नायक केवल ज्ञान वरे॥८॥
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॥ १७९ ॥
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संयम-18| गाथा-उपर मध्यथीरे संयम स्थानक जेभजे, ते नियमारे हेठ उत्तरी पुनरपि सजे; श्रेणीनुं । अंतर्मुहूर्त्तनीरे बुढ्ढी हानि ठाणमां, हुए मुनिनेरे ज्ञानी देखे ज्ञानमां ॥९॥ स्तवनम्
| भावार्थः-उपरलां संयम स्थान तथा वचला संयम स्थानक अनुक्रमे फरसे ते निश्चये करीने से | हेठो उतरीने कालांतरे पुनरपि वली सजे सावधान थइ संयम श्रेणि पामे यदुक्तं-"अंतो मित्तंपि, फासियं हुज्ज जेहिं सम्मत्तं; तेसिं अवट्ठ पुग्गल, परिअट्टो चेव संसारो" ॥१॥ तो संयम पाम्यानु स्युं कहेवू अंतर्मुहूर्त काल प्रमाणे अधस्तन संयम स्थानकथी उपरितन संयम स्थानारोह रूप वृद्धि तथा उपरितन स्थान थकी अधस्तन स्थानावरोह रूप हानि मुनिने थाय हे ज्ञानवान् वीर परमेश्वर ते तमे देखोछो यदुक्तम्-कल्पभाष्ये गाथा द्वयम् “एयं चरित्त सेटिं, पडिवज्जइ हेठ कोइ उवरिंव; जे हेठा पडिवजइ, सिलाइ णियमा जहा भरहो ॥१॥ मने वा उवरिंवा, नियमा गमणं तु हेठि मंठाणं; अंतो मुहत्त वुड्डी, हाणि विते हेव नायव ॥२॥ इति ॥९॥
त्रुटक-अप्पबहुअ विचार करतां अनंत गुणना थोअडा, तेहथी गुणह असंख्य
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संयम-1 केरां कंडक वर्ग कंडक भला; पाछानुपूविं वुद्धिं उत्तर एहनां भावीए, खिमाविजय जिन श्रेणीनुं चरण उत्तम भक्ति भावे पावीए ॥१०॥ स्तवनम्
भावार्थ:-अल्प बहत्वनो विचार करतां अनंत गुण वृद्धिनां संयम स्थानक सर्वथी थोडा ॥१८॥
जाणवा तेथी असंख्यात गुण वृद्धनां संयम स्थानक कंडक वर्ग अने कंडक जेटलां एटले परमार्थे असं ख्यात गुणा पश्चानुपूर्वीए वृद्ध आगल आगल एरीते भावीए ए सर्वत्र अनंतर वृद्धि स्थान असंख्यात गुणा भाव इति खिमाविजय जिन कहेतां श्री वीर परमेश्वर तेनां चरण कमलनी उत्तम विधियुक्त भक्तिना महिमाथी पामीए संयम श्रेणि भव निस्तार थइए ॥१०॥
सर्वगाथा-४०कलश-रागधन्याश्री-गायोगायोरे भलें वीर जगत गुरु गायो॥ए आंकणी ॥ संयम श्रेणि स्थानक षड्विध, ठवणा यंत्र बनायो; अहठाण प्ररूपणा करतां, मनुज जनम फल पायोरे-भले०॥१॥
SARACIAS
॥१८॥
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संयमश्रेणीनु स्तवनम्
CCCESSOCCESS
भावार्थ:-संयम श्रेणिनां स्तवननी संग्रह गाथा कहेतां कलश रचीये छीये तेमां प्रथम ढाले संयम श्रेणिनी षड्रस्थानक प्ररूपणा बीजी ढाले यंत्र स्थापना त्रीजीढाले अहठाण प्ररूपणा करतां मनुष्यजन्मनो फल प्राप्त कयों ॥१॥ | गाथा-शुद्ध निरंजन अलख अगोचर, एहिज साध्य सुहायो; ज्ञानक्रिया अवलंबि है।
फरस्यो, अनुभव सिद्ध उपायोरे-भले० ॥२॥ | भावार्थः-शुद्ध निरावर्ण निरंजन राग द्वेष अंजन रहित अलखक लिपि अंगोचर जे स्वरुप है। |चरम चक्षुये जणाय नहीं एहवो परमात्मा स्वरुपानंद विलासी परभाव उदासी तेहिज अमारो स्वरुप अमने साध्य सुहायो रूच्युं हे आत्मन् ! हे जीव ? ज्ञानक्रिया समग्रज्ञान सम्यग् क्रिया अवलंबीने फरस्युं पाम्युं स्व स्वरूपना विचारमा मन विशराम पामे अने अपूर्वरस खाद उपजे एहवो जे अनुभव ते सिद्धनो उपायछे "नाण किरियाहि मुरको" इति वचनात् ॥२॥
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संयमश्रेणी- स्तवनम्
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॥१८॥
गाथा-श्रद्धा ज्ञान लह्यांछे तो पण, जो नवि जाय पमायो; वंध्य तरु उपम ते पामे, संयम ठाण जो नायोरे-भले० ॥३॥ । भावार्थ-हवे संयम श्रेणिनो महिमा कहीए छीए. सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान पाम्याछे तो पण जो प्रमाद स्थानक न जाय तो वांझीयां फल रहित वृक्षनी उपमां पामेछे. (राजा श्रेणिकनी पेठे अथवा सत्यकी विद्याधरनी पेठे जो संयम स्थानके न आव्यो होय तो)॥३॥ | गाथा-जिम खर चंदन भारनो वाहक, भारतो भोगी कहायो; तिणिपरे ज्ञानी
संयम हीनो, सद्गति ए नवि जायोरे-भले ॥४॥ al भावार्थ:-जेम गर्दक-गधेडो चंदननो भार धारण करतो छतो भारनोज भोगी कहेवायछे. किंतु ते चंदननी सुगंध तेने प्राप्त थती नथी. तेवीज रीते संयमथकी हीन ज्ञानी पण सद्गतिए जइ शकतो नथी. अर्थात चारित्र विना एकला ज्ञानीने पण सदगति प्राप्त थती नथी. यदुक्तम्
लासन
॥१८॥
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अर्थ
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संयम- “जहा खरो चंदण भारवाही, भारस्सभागी नहु चंदणस्स; एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स श्रेणीनुं भागी नहु सुग्गइ ए" ॥ १॥ गाथा ॥ ४॥ स्तवनम् गाथा-आश्रव त्यागे संवर परिणत, अविरति सरव उठायो; स्व स्वरूपमा स्थिरता
तेहिज, संयम शुद्ध ठरायोरे-भले० ॥५॥
भावार्थ:-संयमनं मल स्वरूप कहीए छीए पंच आश्रवने त्यागे पंच संवर परिणत अविरति १२ "मणकरणा नियमा छजिय वहो" ए बार अविरति अभावे खक-पोतानां स्वरुपमा स्थिरता रमण निश्चलता तेज शुद्ध संयम वीतराग आगममां ठरायोछे ॥५॥ HI गाथा-अनुभव सुरतरु फलने काजे, कीजे आतम अमायो; सन्मुख भावे जेह प्रवबर्तन, तेह निवर्त्तन दायोरे-भले०॥६॥ A भावार्थः-अनुभव रूप जे कल्पवृक्ष तेनुं फल जे मोक्ष तेने माटे आत्मा माया रहित करवो.
अथवा अनुभव सुखी जीवन मुक्तछे. यदुक्तम्-"निर्जितमदमदनानां, वाकायमनोविकार
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संयम- रहिताना; विनिवृत्त पराशाना, मिहेव मोक्षः सुविहितानां ॥१॥"मोक्षने सन्मुख भावे प्रभु मार्गानुसारी श्रेणीनु जे प्रवर्तन तेज भव निवर्त्तननो उपायछे ॥६॥ स्तवनम् : गाथा-ज्ञानक्रिया दुग चक्रे शोभित, संयम रथ सुखदायो; अनुभव धोरीयुत शिव ॥१८२॥
नगरे; जातां विघ्न न थायोरे-भले ॥७॥
भावार्थः-ज्ञान क्रियारूपजे चक्र का पैडुं तेणे करीने शोभित संयमरुपी रथ सुखदायीछे. अनुभवरुपी धोरीये जोडवो तदारुढक. त्यारे ते आत्मा चिदानंद शिवनगरे जतां निरावरण थतां विघ्न अंतराय न थाय ॥७॥ | गाथा-राय सिद्धारथ वंश विभूषण, त्रिशला राणी जायो; अजअजरामर सहजा नंदी, ध्यानभुवनमां ध्यायोरे-भले०॥८॥
भावार्थः-उदितोदितराजा सिद्धारथना वंशनो विभूषण शोभावनहार शील सम्यक्त्व देशविरति त्रिशला राणीए जन्म्यो. अपुनरायत्तिए योनि निर्गम थयां. हवे सिद्धावस्था कहीये छीये.
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॥१८॥
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जन्म जरा मरण रहित सहज अकृत्रिम व स्वरूपानंदी एवा श्री वीर परमात्मा हे भव्यो ! तमे ध्यान रूप भाव घरमां ध्यावो ॥ ८ ॥
गाथा - संवत् नंदन निधि मुनिचंद्रे, देव दयाकर पायो; प्रथम जिनेश्वर पारणदिवसे, | स्तवना कलश चढायोरे-भले ० ॥ ९ ॥
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भावार्थ:- नंदक० नव, ९ निधिनव, ९ मुनि सात ७, चंद्र १ आंकना वामतउगति रिति वचनात् - एटले संवत् १७९९ नां वर्षे देवदयानो करणहार पाम्यो अर्थात् तेनां शासनने पाम्या. प्रथम जिनेश्वर श्रीआदिनाथे वरसी तपनुं पारणं इक्षुरसे श्रेयांसने हाथे कीधुं ते दिवसे संयम श्रेणि गर्भित श्री वीरप्रभुनां स्तवनरूप प्रासादे कलश चढाव्यो एटले पूरुं कीधुं. हवे आगली गाथामां गुरुनी परंपरा जणावे छे. ॥ ९ ॥
गाथा - विजय देव सूरीश पटोधर, विजयसिंह सवायो; सत्य शिष्यधर कपूरविजय विबुध, खिमाविजय पुण्य पायोरे-भले० ॥ १० ॥
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॥१८३॥
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भावार्थ:-श्री वीर स्वामीना पंचम गणधर अने पहेलां पटोधर श्रीसुधर्मस्वामीथी आठपाट लगी निग्रंथ बिरुद धारी १ नवमेपाटे सूरीमंत्र कोटीवार जय्या माटे कोटिक बिरुद धारी २ पनरमे पाटे चंद्रसूरी चंद्रवत् संघलुं सौम्यथाय तेमाटे श्रीजो चंद्रगच्छ कहेवाणो ३ सोलमे पाटे सामंत भद्राचार्य घणा निर्मम थयां वनवासे रह्यां माटे वनवासी बिरुद ४ छत्रीशमे पाटे सर्व देवसूरि थया. वडतले आचार्य पद दीधुं. अने तेना साधु वडशाखा परिवारे तथा तेमनी साची ग्रहणशिक्षा आसेवनाशिक्षा धारी अर्थात् पं० श्री सत्यविजयगणि गच्छ नायकनी आज्ञामागी क्रीया उद्धारकीधो. श्रीआनंदघनजीनी संघाते वनवासे रही अनेक तप कीधां. अनुक्रमे वृद्धाववस्थाजाणी अणहीलपुर पाटणम रहेतां धर्मोपदेश देतां देतां शिष्य थयां पं० श्री कर्पूरविजय पं० श्री कुशल विजय ए वे थयां तेमां पं० श्रीकर्पूरविजयगणि अर्हत् प्रतिमा प्रतिष्ठादि अनेक धर्मकार्य करी प्रभावकथया. देश-नगर पुर पाटण विहार करतां करतां पं० श्रीवृद्धि विजय गणिपं० खिमा विजयगणि ए वे शिष्य थयां. तेमांहि पं० श्री खीमा विजय गणि शिष्य.
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॥१८३॥
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संयम- श्रेणीनुं
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गाथा-सूरत मांहिं सूरय मंडण, श्रीजिनविजय पसायो; विजय दयासूरी राजे जग- है। अर्थ पति, उत्तमविजय मलायोरे-भले वीर० ॥११॥
सहित भावार्थः-श्रीसूरत बंदिरे श्रीसूर्यमंडण पार्श्वनाथनी स्मृति-प्रणति-महिमाए तथा पं० श्री खीमा विजय गणिशिष्य रत्न संप्रति वंद्यमान चिरंजीवी परमोपकारी पं० जिन विजयगणिए उद्यमकरी प्रथम अभ्यास कराव्यो. जेम मातपिता बालकने प्रथम पग मंडावे तथा बोलतां शिखवे तेम गुरु आदिए उपगार कीधो श्रीतपागच्छाधिराज भट्टारक श्री विजय जगपति विजयदयासूरीराजे जगपति जगत् परमेश्वर श्री वीरस्वामी मुनी उत्तमविजये महाव्यो. गायो स्तवन गोचर कीधो. ए स्तवन अमछरी गीतार्थ सरणहोजो जे कोइ भणे अथवा भणतां भणावतां तेहने संयम श्री भूषित थइ सहजानंद मोक्ष सुखने पामे ॥ ११॥ सर्वगाथा-५१॥
____ "इति श्री सयमश्रेणि गर्मित श्रीवीरजिन स्तवन सम्पूर्ण"
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देवलोक
॥१८॥
“अथ श्रीदेवलोक स्तवन"
स्तवनम् दुहा-सरस वचन ये सरस्वति, लागुं सुगुरुके पाय; देवलोक ते बारना, जिनबिंब चैत्य कहेवाय || १॥ सौधर्म देवलोक प्रथम, बीजु इशानिक सार; सनत्कुमार त्रीजुं कह्यु, चोथु माहेंद्र अपार ॥२॥ ब्रह्म देवलोक पांचमे, उट्टे लांतिक जाण; सातमें शुक्र देवलोकछे, सहस्रार आठमें प्रमाण ॥३॥ आनत नवमुं जाणीए, प्राणत दशमें स्वाम; आरण इग्यारमे सहि, अच्युत बारमुं ठाम ॥४॥ इत्यादिक बारे कह्या, देवलोक सुखकार; तेहनी रचना हवे स्तवं, ते सुणजो भवि सार ॥ ५॥ . ढाल-१-पहेली॥ नदीयमुनाके तीर उडे दोय पंखीया-ए देशी॥
॥१८॥ I सौधर्म देवलोक प्रथम कडं, जिनराज ए, वत्रीशलाख विमान प्रभुजीना सार ए; वली बत्रीशलाख प्रासाद सुहंकरु, लाख वत्रीश घंटा ते नादे अतिस्वरु ॥१॥कोड सत्तावन्न बिंब जिनजीना कहुं, साठलाख उपर ते शाश्वता जिन लहुं; ए पहेला देवलोकनी संख्या सवि कही, हवे
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स्तवनम्
देवलाव
बीजानुं वर्णन कहुंछं ते सहि ॥ २॥ लाख अट्ठावीस विमान प्रभु मुखे कह्या, लाख अट्ठावीस प्रासाद सवि सुखे लह्या; कोड पंचास बिंब छे शाश्वता एहवां, लाख चाळीश उपर ते मेरु जेहवां ॥३॥ बारलाख विमान त्रीजा देव लोकना, प्रासाद बारलाख कह्यां जिनराजना; एकवीश कोड ने साठलाख जिनवरा, बारलाख घंटा ते वाजे भलिपरा ॥४॥ आठलाख प्रासाद विमान पण आणीए, आठलाख घंटा ते भविका जाणीए; चौदकोडी जिनबिंब च्यालीस लाख उपरे, ए चोथा माहेंद्रनी संख्या एणीपरे ॥५॥
ढाल-२-बीजी ॥ गोकुल मथुरारे वाला-ए देशी॥ पंचमं ब्रह्म देवलोक, भवि वंदो नरनारीना थोक; च्यार लाख विमान, लखच्यार घंटा तेह सयान-जिनजीने वंदो रे भविका ॥ ए टेक ॥॥१॥ लखच्यार प्रासाद जाणो, जिनबिंब सातकोड तेह प्रमाणो; वीशलाख उपर सार, संख्या कही छे अतिह उदार ॥ जिनजीने ॥ २॥ छठे लांतिक अपार, सहस्सपचाश ते जाणो सार; प्रासाद पण इणीरीते, नेउलाख ने जिन बिंब जितो
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श्री देवलोक
॥१८५॥
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॥ जिनजीने ॥ ३ ॥ शुक्र देवलोक सातमे, सहस्स चालीश विमानछे तेहमें; घंटा चालीश हजार, लाख बहोंतेर बिंब विस्तार ॥ जिनजीने ॥ ४ ॥ सहस्सार आठमुं कहीए, छ हजार विमान ते लहीए; जिन प्रासाद छ हजार, दशलाख संहस्स एंसि सार ॥ जिनजीने ॥ ५॥
॥ ढाल - ३- त्रीजी ॥ एकवार वच्छदेश आवजो जिणंदजी - एकवार ॥ ए देशी ॥
एकवार दरिशण दीजीए जिणंदजी, एकवार दरिशण दीजीए ॥ देवलोकनां सुख दीजीए जिणंदजी ॥ एकवार ॥ ए टेक ॥ नवमुं आनतदेवलोक जाणो, तिहां बस्ये विमानछे जिणंदजी; प्रासाद बस्थे छे अतिमोटा, सहस्स छत्तीस जिणंद छे जिणंदजी ॥ एकवार ॥१॥ दशमें प्राणतछे ए भलेलं, बस्यें विमान ते सारछे जिणंदजी ॥ प्रासाद पण एहवी रीते, बिंब छत्तीस हजारछे जिणंदजी ॥ एकवार ॥२॥ इग्यारमें आरणदेवलोके, दोढसो विमान अभंगछे जिणंदजी ॥ चैत्यादिक एणिविध जाणो, बिंब सहस्स सत्तावीस रंगछे जिणंदजी ॥ एकवार ॥ ३ ॥
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स्तवनम
॥१८५॥
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देवलोक
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ढाल-४-चोथी॥ क्षण क्षण सांभरो शांति सलुणा-ए देशी ॥
स्तवनम् घडी घडी सांभरो देव सलुणा, जस करे सुरनर सेव सलुणा ॥ घडी घडी ॥ ए टेक ॥ वारमुं। अच्युत देवलोक जाणो, ते मांहे सुखकार सलुणा० ॥ दोढसो विमान ते राजे, दोढसो चैत्य जुहार सलुणा ॥ घडी घडी ॥१॥ सहस्स सत्तावीश जिनबिंब पूजो, दोढसो घंटा वाजे सलुणा०॥ चैत्य मध्ये जिनराजजी बेठा, वंदो जिनजीने राजे सलुणा० ॥ घडी घडी ॥ २॥ सर्व देवलोक बार मलीने, संख्या प्रासादनी कहुं सलुणा० ॥ चोरासी लाख ने छन्नुहजार, सातसें प्रासाद ते लहुँ। सलुणा० ॥ घडी घडी ॥ ३ ॥ प्रासाददिठ शतएंसि प्रतिमा, सर्व मली कहुं सार सलुणा० ॥ एकसोकोड ने बावन्नकोड, लाख चोराणुं छ हजार सलुणा०॥ घडी घडी ॥४॥ इत्यादिक जिनवरनी संख्या, कही सूत्र तणे अनुसंत सल्लुणा० ॥ पंडीत फत्तेहसागर तणोरे, पामे चतुर सुख अनंत सलुणा० ॥ घडी घडी ॥ ५॥
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देवलोक
॥१८६॥
___ ढाल-५-पांचमी॥ भमरा भुधरस्ये नाव्यो-ए देशी ॥
स्तवनम् पहेला ग्रैवेयकनी संख्या, विमानसाडत्रीश आख्या;प्रासाद साडत्रीश भाख्या ॥ भवि जिव वंदिए । |जिनवरने०॥ ए आंकणी ॥१॥ तिहां जिनबिंब सहस्स च्यार, उपर चारसेंछे प्यार; चालीस |जिनवर सार भवि०॥२॥ सुदर्शननी संख्या कही, बिजु सुप्रभ नामे सहि; त्रिजुं मनोरम नामे लहि ॥ भवि०॥३॥ ए त्रिकनी संख्या कहुं, एकसो इग्यार विमान लहुं; एकसो इग्यार प्रासाद सहु ॥ भवि०॥४॥ तेरहजार जिन प्रमाणो, त्रणसे उपर वीश जाणी; एत्रीकनी संख्या आणी|
भवि०॥५॥ सर्वतोभद्र चोथं खामि, छत्रीस विमान ते शिवगामी; प्रासाद छत्रीश विसरामि ॥ भवि०॥६॥ जिनवर सहस्स चार प्रतिमा, बसेंएंसि हर्षेधरं दिलमां; ए वर्णवता चतुर mean सूत्रमा ॥ भवि०॥७॥
ढाल-६-छद्री ॥ मारुजीनी ॥बेडली नेणा बीच घूल रही-ए देशी॥ जिनजी विशाल नामे पांचमुं कडं, तिहां पांत्रीश विमान हो जिणंदराया ॥ जिनजी.॥ पांत्रीस
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श्री देवलोक
शां. ३२
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प्रासाद सुहंकरु, चार सहस्स जिनमान हो जिणंदराया० ॥ १ ॥ जिनजी बसें जिन उपर जाणजो, पंचम ग्रैवेयकनी सारहो जिणंदराया ॥ जिनजी छहुं सौम्यनामे ग्रैवेयक भलुं विमान छत्रीश प्यारहो जिणंदराया ॥ २ ॥ जिणजी छत्रीश प्रासाद दीपता, चार सहस्स जिनराज हो जिणंद| राया ॥ जिनजी त्रिक सयवीस जिन सार छे, छट्टा सौम्यनुं साज हो जिणंदराया ॥ ३ ॥ जिनजी सौमनस नामे सातमुं, आठमुं प्रीतिकर जाण हो जिणंदराया ॥ जिनजी आदित्य मैवेयक सुंदरं, ए त्रिकनी संख्या आण हो जिणंदराया ॥ ४ ॥ जिनजी ए त्रिकनी संख्या कहुं, एकसो विमान सुखकार हो जिणंदराया ॥ जिनजी एकसो प्रासाद दीपतां, जिन बिंब बारहजार हो जिणंदराया ॥ ५ ॥ जिनजी नवत्रैवेयकनी संख्या कहुं, त्रणसें अढार विमान हो जिणंदराया ॥ जिनजी त्रणसें अढार प्रासाद छे, एकसो वीश जिनमान हो जिणंदराया ॥ ६ ॥ जिनजी सर्व मली जिन बिंब कहुं, सहस्स अडत्तीस सार हो जिणंदराया ॥ जिनजी एकसो साठ पडिमा कही, फत्ते चतुर वारंवार हो जिणंदराया ॥ ७ ॥
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स्तवनम्
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श्री
स्तवनम्
॥१८७॥
___ ढाल-७-सातमी-न जाउरे जमुना घाट एणी एणी वाटडीए-ए देशी॥ देवलोक
। पहेलं विजयविमान-भवितुमे वंदोरे,जिम पामो सुख अपार-एहने नंदोरे॥एआंकणी॥ विजयंत विमान ते बीजू जाणो,त्रीजं जयंत ते साररे; अपराजित चोथु कयु रे, सर्वारथ ते प्यार भवि०जिम ॥१॥ए पांचे विमान ते जाणी, पंच प्रासाद सुहावेरे; चैत्यदिठ एकसोवीश प्रतिमा, देखी। आनंद पावे भवि० जिम ॥ २॥ हवे पांचे प्रासाद मलीने, बसें जिनबिंव जाणोरे; बार देवलोक ने नव अवेयक, पांच अनुत्तर आण भवि०जिम ॥३॥ लख चौराशी सहस सत्ताणुं, तेवीश प्रासाद साररे; ए सर्व प्रासादनी संख्या, कहि सूत्रतणे अनुसार भवि० जिम ॥४॥ बावन्न सत्तकोड
ने लख चोराणुं, सहस्स चुमाली प्रसिद्धरे; सातसे उपर साठ जाणो, जिनबिंब भवि सिद्ध भवि० ४ जिम ॥ ५॥ इत्यादिक जैनागममांहि, ए विवरों रसालरे; पंडित फत्ते सागर तणोरे, चतुर वचन
णारचतुर चन टंकशाल भवि०जिम ॥६॥ __ कलश-इम सयल सुखकर दुरित दुःखहर विमान चैत्य में गाइया, गुरु फत्ते सागर पसायथी|
१८७॥
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स्तवनम्
श्री वैमा- में जिह्वातणुं फल पाइया; धर्मवंत जडाव बाइ कहेणथी ए स्तव कर्यु, इम चतुर कहे ए स्तवनथी निकजिन में भवतणुं पातिक हर्यु ॥१॥
" "इति श्री देवलोक स्तवनम् संपूर्णम्"
"अथ श्री वैमानिक जिन स्तवनम्" ढाल-१-पहेली ॥ परमातमरेचिदानंदघनसारए ॥ ए-देशी॥ सुखदायीरे सरसह जिणंद दयालरे, प्रेमे प्रणमीरे चउद भुवन भूपालरे; देवलोकेरे देवविमान संख्या भणं, जिनमंदिररे जिनप्रतिमा तिहां संथु); MI त्रटक-संधुण सुधर्म देवलोके विमान बत्रीश लाख ए, बत्रीश लाख प्रासाद सुंदर घंट नाद |तिम दाखी ए; कोडी सत्तावन साठिलाख जिनप्रतिमा तिहां कनकमय, अट्ठावीस लाख विमान बीजे इशानकल्पे मन रमे ॥ १॥ ढाल पूर्वली-अठ्ठावीसरे लाख प्रसाद अति रलीयामणा, तिहां
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श्री वैमानिक जिन
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तेटलारे घंटानाद सुहामणा; पंचाश कोडीरे चालीशलाख बिंब मान ए, सनत्कुमार त्रीजेरे बारलाख विमान ए ॥ त्रूटक — विमानमां बारलाख जिनघर वारलाख घंटानाद ए, एकवीसकोडीः साठीलाख जिनबिंब पूजे परमानंद ए; धनुष्य पंचशत देह उन्नत सप्तकर तनुमान ए, बेठा पद्मासन्न पंचरंग देहवान भगवान ए ॥ २ ॥ ढाल पूर्वली - महेंद्र चोथेरे विमान तिहां आठ लाखरे, प्रासाद तेटलारे घंटानाद जिन भाखीए; चौदकोडीरे चालीसलाख जिनवर तणी, मोहन मूरतिरे सुरत अति सोहामणी ॥ त्रृटक — सोहामणी ब्रह्मदेवलोके चार लाख विमान ए, प्रासाद चारलाख घंटानादा चारलाख सुजाण ए; सातकोडी वली वीसलाख जिनपडिमा जयकार ए, छठ्ठे लांतक | विमान पंचास सहस्र संख्या धार ए ॥ ३ ॥ ढाल पूर्वली — जिनधामरे पंचास सहस्र वखाणीए, घंटानादरे सहस्र पंचास मन आणीए; नेउ लाखरे जिन पडिमा परमाणरे, ऋषभ चंद्राननरे वारिषेण वर्द्धमानरे ॥ त्रूटक — विमान सातमें शुक्रकल्पे, चालीससहस्र सुरधाम ए, चालीस सहस्र प्रासाद संख्या घंटानाद अभिराम ए; बहोंतेरलाख जिनबिंब मान आठमें सहस्रार ए,
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स्तवनम्
॥१८८॥
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श्री मा. विमान जिनगृह घंट दीपे प्रत्येके षट्हजार ए ४ ॥ ढाल पूर्वली-एक लाखरे एंसी सहस्र जिन-3 स्तवनम् निकजिन बिंब ए, धरो ध्यानरे श्री जिननां अविलंब ए; आनत प्राणतरे सुरगृह घंटला, प्रतिचारसे बहोंतेर ||
सहस्र जिनवर भला ॥ त्रूटक-भला आरण अच्युते तिम विमान त्रणसें चित्तधरो, प्रासाद घंटा नाद त्रणसे प्रत्येकें पातिक हरो; चउपन सहस्र जिनराज प्रतिमा शाश्वति सूत्रे लही, ग्रैवेयकादि विमान संख्या सांभलो कहीशुं सही ॥५॥
ढाल-२-बीजी ॥ नींदरडी वेरण हुइ रही-ए देशी॥ नव अवेयके सांभलो, पंचानुत्तर हो असमान विमान के-सुदंसण सुप्रबुद्ध मनोरम, प्रथम त्रिकें हो तस ए अभिधान के ॥ शाश्वत जिन चित्तमां धरो॥ अंतरजामी हो आतम आधार के शाश्वत अंतर०॥ ए आंकणी॥१॥ विमान प्रासाद घंट रणझणे, प्रत्येके हो एकशत इग्यार के ॥ तेरसहस त्रणसें वीश, जिनपडिमा हो पहेले त्रिक सार के॥शाश्वत० अंतर० ॥२॥ सर्वतोभद्र सुविशाल ए, धन्य सुमनस हो द्वितीयत्रिक एह के ॥ एकशत सात विमानमां, प्रासाद घंटला
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स्तवनम्
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3
श्री वैमा-| हो एकशत सात तेह के ॥ शाश्वत० अंतर०॥३॥ बार हजारने आठसे, उपर चालीश हो जिन निकाजनासाबिंब उदार के ॥ सोमनस प्रीतिकर आदित्य, अवेयके हो त्रितीय त्रिक सार के ॥ शाश्वत. ॥१८॥
अंतर०॥ ४॥ सुरविमान घंटानाद ए, प्रासाद हो एकशत मनोहार के ॥ बार सहस्स जिनरा जनां. बिंब दीपें हो सुंदर श्रृंगार के ॥ शाश्वत. अंतर०॥५॥ विजय विमान अवधारीए, बीजं पभणुं हो विजयंत विमान के ॥ वैजयंत अपराजित, सर्वार्थ सिद्ध हो पंचम अभिधान के॥ शाश्वत० अंतर०॥६॥ पंचविमान पंचानुत्तरें, प्रासाद घंटला हो पंच पंच विख्यात के ॥ षट्शत जिनबिंब भेटीए, प्रह उठी हो निर्मल हुइ गात्रतो ॥ शाश्वत० अंतर०॥७॥ पंचसभा नहि जिनघरे, ग्रैवेयके हो पंचानुत्तर ठामके ॥ एकसो वीश पडिमा तिहां, प्रतिचैत्ये हो पूजो सुखधाम
के ॥ शाश्वत० अंतर०॥ ८॥ A ढाल-३-त्रीजी ॥ थाहरा मोहोला उपर मेह, झरुखेवीजली हो लाल-ए देशी
दोलत दायक नायक श्री जिन सेवीएं हो लाल के श्री जिन सेवीए, उर्द्धलोके जिनमंदिर भावना
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॥१८९॥
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श्रीवैमा निकजिन
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भावी हो लाल के भावना ॥ लाख चोराशी सहससत्ताणुं उपरे हो लाल के० सत्ता०, त्रेवीश जिनगृह शाश्वता भाख्या जिनवरे हो लाल के० भाख्या ॥ १ ॥ एकसो आठ जिनबिंब गभारे मूलगें हो | लालके० गभारे० स्तूपत्रिक तिहां द्वादश तेजे झगमगे हो लालके० तेजे ॥ पंच सभाए साठ तित्थंकर वंदना हो लालके० तित्थंकर, चैत्यअकेके एकसोएंसी जिन वंदना हो लाल के० एंसी ॥२॥ सो कोड बावन्न| कोड चोराणुंलाख भली हो लाल के० चोराणुं, सहस चुंआलीस सातसें साठ बिंब सवि मली हो | लाल के० साठ ॥ उर्द्धलोके जिनपडिमा वंदन आचरो हो लाल के० वंदन, ऋषभादिक च्यारनाम संभारी चित्त ठरो हो लाल के० संभारी ॥३॥ शिर छत्रधर एक दो चामर धरा हो लाल के० दो, नाग जक्षभूत कुंडधर दो दो सुरवरा हो लाल के० दो दो ॥ जल कुंभसाही उभा मूलबिंब आगलें हो लालके० मूल ॥ | एकादश सुरपडिमा प्रणमें परिकरे हो लाल के० प्रणमें ॥ ४ ॥ सकल कुशल सुरवेलि घनवन जलधरु हो लालके० घनवन, सेवकजन मनवंछित पूरण सुरतरु हो लालके ० पूरण ॥ श्री नाभिनरेसर नंदन वन अलज्यो हो लाल के० वनके० नीरागी निकलंक निरंजन तुं जयो हो लाल के० निरंजन ॥५॥
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स्तवनम्
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श्री वैमा- गरीबनीवाजमहाराज अरज दिलमां धरो हो लाल के० अरज, सेवक जाणी आपणो प्रभु करुणा || स्तवनम निकजिन करो हो लाल के० प्रभु ॥ मात सहोदर साहिब माहरा हो लाल के० माहरा, तार तार भवसायरजि| ॥१९॥
सुरजन ताहरा हो लाल के० सुरजन ॥६॥ बारिजामंडण आदिजिणंद सुपसाउले हो लाल के० जिणंद, वैमानिक जिन संथुण्या बहु उमाहले हो लाल के० बहु० ॥ संकट विकट दुःख दोहग दुरित दुरे टले हो लालके० दुरित, ऋद्धि सिद्धि धनवृद्धि सदा आवीमलें हो लाल के० सदा ॥७॥ RT कलश-इय त्रिजगनायक सुखदायक वारेजापुर मंडणो, श्री रिसहेसर प्रथम ज़िनवर दुःख,
दोहग खंडणो ॥ संवत् विधुमुनि जलधि नगयुत पौसशुदि बीज सुरगुरो, कवि संघविजय बुध दिप्ती विनयी नेमी विजय मंगल करो ॥१॥
॥ इति श्री वैमानिक जिनराज स्तवनं संपूर्णम् ॥
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॥१९॥
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श्रीआठ कर्मप्र
कृति
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" अथ श्री आठ कर्मप्रकृति बोलविचारस्तवनम् लिख्यते"
दुहा— सकल मनोरथ पूरणो, वांछीत फल दातार; वीर जिणेसर नायको, जय जय जगदा धार ॥ १ ॥ श्री सिद्धारथ भूपति, कुल दीपक अवतंस; त्रिशला मात मनोहरु, उअर सरोवर हंस ॥ २ ॥ शासननायक जगधणी, वीनतडी अवधार; बालक बुद्धे जे करूं, तुज आगल सुवीचार ॥ ३ ॥ तुज दरिशण विणु वीरजी, चउद राज मोझार; भमतां मुजने तुं मल्यो, हवे भवपार उतार ॥ ४ ॥ भमवाना कारण भणुं, तुं जाणे जिनराय; मुल प्रकृति आठें अवर, अठ्ठावनसो थाय ॥ ५ ॥ सत्तावन हेतें करी, कर्मबंध सुवीचार; बंधण बांध्यो चोर जिम, भमीओ जीव अपार ॥ ६ ॥ कर्म विपाक तणुं घणुं, अर्थ कह्यो ते जेह; गुरुमुखे श्रवणे सुण्यो, सुणजो भवीयण तेह ॥ ७ ॥ ढाल - १ - प्रथम ॥ सारद बुध दाइनी ॥ निज शक्तिने सारुं- उजमणुं करो वारु ॥ ए देश ॥
पहेलुं नाणावरणह-भेद पंचय मन आणुं, मतिश्रुत अवधि तथा वली मनपज्जव जाणुं; केवल नाणावरण-जेम लोयण पडिवीजें, नवभेद दर्शनावरण बीजुं ए पभणीजें ॥ १ ॥ त्रृटक - चक्खु
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बोलवि
चार
स्तवनम्
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श्रीआठ कर्मप्र
कृति
॥१९१॥
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| अचक्खु अवधि० तेम - केवल ए प्यार, दरशननुं आवरण जेह-पण निद्दा विचार; निद्रासुख जागंतां जाणि- दुक्खें निद्रा निद्रा, प्रचला बेठा तेम कही उभां जेह निद्रा ॥२॥ ढाल पूर्वली- -प्रचलाप्रचला तिम सही चालतां जेंह, थीणद्धी निद्रातणुं - बल माण मुणेह; वासुदेवथी अरधुं -कहुं इम निद्रा - पंच, नवभेद दरशणना-वरणवं एहसंच ॥३॥ त्रूटक-सामने देखीउं जेह, दरिशण पभणीजे, विशेषथी जाणीजे जेह, ते ज्ञान कहीजे; मधु खरडी असिधारा लिहन- समवेदनी कर्म, साता असाता दोयभेद जाणुं सहु मर्म ॥ ४ ॥
ढाल - २ - बीज ॥ पामी सुगुरु पसायरे शेत्रुंजा धणी - ए देशी ॥
हवे मोहनीय विचार, दरिशण चारित्र; बिहुं भेद जिन ते कधुं ए ॥ १ ॥ समकित मिथ्या त्वरे, दरिशण मोहनी; त्रिहुं भेदें इम जाणीएं ए ॥ २ ॥ क्रोध मान तिम जाण रे, माया लोभ ए; अनंतानु बंधी भणुं ए ॥ ३ ॥ तेम अप्रत्याख्यानरे, प्रत्याख्यान ए; संजलना चउ चउ गणुं ए ॥ ॥ जावजीव तिम जाणरे, वच्छर चउमास; पखवाडो स्थिती तेहनी ए ॥ ५ ॥ पहिले समकित घातरे,
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बोलविचार
स्तवनम्
॥१९१॥
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श्रीआठ
बोलवि
कर्मप्रकृति
चार
स्तवनम्
|देशविरती तेम; सर्व विरती त्रीजु हणे ए ॥ ६ ॥ यथाख्यातनुं घातरे, चउथो तिम करे; ए गती
च्यार तस वरणवू ए॥७॥ नरग तिरीय नरदेवरे, पदवी पामीए; जिहांथी जिण वलतुं भणेए Alln८॥सोलभेद ए जाणरे. हास्य अरतीरती: सोग भय दुगंछासही ए॥९॥ थीनर कीचह तिनरे, | वेद सहीत इम; पचवीश चारीत्र मोहनी ए॥१०॥ दरिशण चारीत्र दोयरे, मीलि कर मोहनी; प्रकृति अट्ठावीश थइ ए ॥ ११ ॥ आउतणा चउ भेदरे, नरय तिरिय तिम; मानव देवता सुणो ए ॥ १२ ॥ तिरिय मनुष्यनु आयरे, जघन्य थकी कहुं; अंतरमुहुर्तनुं सही ए ॥ १३ ॥ पल्योपम त्रण जाणरे, अती अधिकुं घj; देवता नारकीनुं कहीए ॥१४॥ वर्ष सहस दश मानरे, जघन्यथकी तिम; तेत्रीश सागर अति घणुंए ॥ १५॥ आउकर्म इम जाणरे, एकसो त्रण भेद; नाम कर्मनां सांभलो ए ॥ १६ ॥
ढाल-३-त्रीजी साहेबजी श्री विमलाचल भेटीएं हो लाल-ए देशी ॥ | नरय तिरीयनर देव तणी गति जाणीएंरे, इग बीति चउ पणजाइ; पंचयर पंचयर देह सरुप
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श्रीआठ कर्मप्र
कृति
॥१९२॥
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वखाणीएं रे ॥ १ ॥ औदारीक तिम वैक्रीय आहारक तैजषसुंरे, कार्मण पंच शरीर; जाणुंरे जाणुंरे तीन शरीरतणा वलीरे ॥ २ ॥ करचरणादिक तीन उपांग मनोहरुरे, पन्नर बंधन जोडी; बोलुंरे बोलुंरे औदारीक औदारीककुंरे ॥३॥ औदारीक तैजस तिम कार्मण दो वलीरे, वैक्रीय वैक्रीय जोइ; वैक्रीरे वैक्रीरे तैजस कार्मण दो भलीरे ॥ ४ ॥ आहारक आहारक नामे बंधन जाणजोरे, आहारक | तैजस भेद; आहारकरे आहारकरे कार्मणसाथे दो सहीरे ॥ ५ ॥ तैजस तैजस कार्मण बंधनुंरे, | कार्मण कार्मण भेद; पनरसरे पनरसरे बंधन श्री जिन ते कोरे ॥ ६ ॥ औदारीक पुद्गल बांध्या बांधतारे, मेले जीव संघात; बंधनरे बंधनरे लीख समोवडि जाणज्योरे ॥ ७ ॥ दंतालीमेले तृण तिम संघातनुंरे, पुद्गल मेलें जीवः पंचयर पंचयर औदारीक वैक्रीय तथारे ॥ ८ ॥ आहारक तैजस कार्मण संघातन कह्यांरे, छ संघयण वीचार; पहिलं पहिलंरे वज्र ऋषभ नाराचकुंरे ॥ ९ ॥ बीजो त्रीजो ऋषभनाराचकुंरे, चोथो अर्धनाराच; किलीकारे किलीकारे छेव छहुं करे ॥ १० ॥ हाडतणुं छट्टु संघयण वखाणीएरे, हवे संस्थान वीचार; जाणुंरे जाणुंरे समचउरंस भलुं सदारे ॥ ११ ॥
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बोलवि
चार स्तवनम्
॥१९२॥
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ShriMahavirain AartmenaKendra
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कर्मप्रकृति
श्रीआठ न्यग्रोध सादि कुब्ज वामण हुंडककुंरे, वरणपंच मनआण; कालंरे कालंरे नीलो रातो पीयलोरे॥१२॥
बोलविधोलु तिम दोगंध सुगंध दोगंधकुंरे, रसय पंचनुं मेल; तिरे तिरे कटुक कषाय तथा सुणोरे
चार 12॥ १३ ॥ खाटुं मीठं आठ फर्ष विवरु गुणोरे, गुरु लघु मृदु खरजोइ; टाढुंरे टाढुंरे उष्ण लुखो || स्तवनम्
चोपडोरे ॥ १४॥ E ढाल-४-चोथी ॥ सुरती मासनी-धीरपुरे एक शेठने पर्वदिने व्यवहार-ए देशी ॥ 13/ | नरक तिरय नरदेवनी-आनुपुर्वी ए च्यार, बलद राश जिम खेंचीएं-जीव तथा सुवीचारः || वृषभ गजादीक शुभगती-अशुभ उंटादीक होइ, पराघात उसास-आतप उद्योत दोय ॥१॥ अगुरुलड्डु तीर्थंकर-जीरमाणने उपघात, त्रस बादर पर्याप्ता-प्रत्येक थीर शुभवात; सुभग सुसर जश आदेय-थावर सुक्षिम नाम, अपजत्त साधारण अथिर अशुभर्नु ठाम॥२॥ दुभग दुसर अनादेय-अजश थइ सुतीत, नाम कर्म पयडी कही-गोत्रदोय मे कीन: प्रजादीक जिहां पामीएं उंच गोत्र ते|
होय, जिहां हेल्लादिक अतीघj-नीचगोत्र ते होय ॥३॥ अंतराय पंचय सुणो-छते न दीजें शा, ३३
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श्रीआठ
कर्मप्र-
| बोलवि
चार स्तवनम्
कृति
॥१९३॥
EARNARENER
दान, छतां भोग नवि भोगवे-भोगांतराय निदान; अंतराय लाभह तणुं-जिहां नविलाभ संजोग, उपभोग अंतराय करेनहीं-अनंगनादिक भोग ॥४॥बलवीर्य जन फोरवे-ते वीरज अंतराय, अंतराय अंतराय लक्षण-रायभंडारी भाय;प्रत्यनीक नीन्हवपणे-अंतराय उपघात,अत्याशातनथी करे-दो आवरण विख्यात ॥ ५ दृढधर्मी गुरु भक्ति-दानरुचीअकषाय, करुणा व्रतयुत बांधे-साय अवर असाय; शुद्ध मारगने ओलवे-खोटो मार्ग दिखाय, देवद्रव्य हरवें करी-दसण मोह कहाय ॥६॥ कषाय हास्यादिकें करी-दोय चरण मोहबंध, माहारंभादिक कारणे-नरका युष्य बंध; शल्य सहीत मांजीशठ-तिरियाउ बंधेइ, सहजें अल्प कषायें-दानरुची संघेइं॥७॥ मनुष्यतणुं आयुतिम
देवतणुं हवे जोय, अकाम बाल तपसी कहुं-अविरतीयादीक होयें; सरलरस रिद्धि शाता-गारव |हितवखाणी, नाम कर्म शुभबांधे-अवर अशुभ तीम जाणी ॥ ८॥ गुणपेह मद नविकरे-भणे भणावें जेह, उंचगोत्र ते बांधे-नीच अवर गुण तेह; जिनपूजादीक विघ्नकर-हिंसादीक पर होय, अंतराय कर्म बांधे ते-तेहथी भवीयण सोय ॥९॥
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श्रीआठ कर्मप्र
कृति
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ढाल - ५ - पांचमी - भमर भुली - ए देशी ॥
अट्ठावनस्य परीकही सा भमरुली, आठ कर्मनो बंध सा नवरंगी; आठ कर्मनो बंध, सत्तावन | हेतें करी सा भ० लेइ पुद्गल बंध सा नव० आठ० ॥ ए आंकणी ॥१॥ ते सत्तावन सांभलो सा भ० जाणुं पंच मिथ्यात्व सा नव० अभिगहिया णिभिगहिय सुणुं सा भ० अभिनिवेशनी वात सा नव० आठ ॥ २॥ संशय अन्नाणु भणुं सा भ० अविरत बार विचार सा नव० छ काय मन इंद्रीय पंच सा भ० मोर्कल पणुं तिवार सा नव० आठ० ॥ ३ ॥ कषाय पंचवीश कलां, सा भ० जोग पनर तीम जोइ सा नव० चार चार मन वचनना साभ० सात शरीरनां होय सा नव० आठ० ॥ ४ ॥ इम सत्तावन हेतुएं करी साभ० बांध्यां कर्म अनेक सा नव० ते बंधनथी छोडव्यों साभ० श्री जिननायक छेक सा नव० आठ० ॥ ५ ॥ चउराशीलख जीवाजोनी सा भ० भमीयो वार अनंत सा नव० आठ कर्म बंधन करी साभ० ते छोडो भगवंत सा नव० आठ० ॥ ६ ॥ श्री जिनवीरजिणेसरु सा भ० तुं बांधव तुं नाथ | सा नव० माय बाप तुं ठाकरुं सा भ० मुक्ति तणो तुं साथ सा नव० आठ० ॥ ७ ॥ तुं चिंतामण
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बोलवि
चार
स्तवनम्
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श्री रोहिणी
॥१९४॥
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सुरवेली देव सा नव० मनवंछीत सुख संपदा सा भ० पामीजें तुज सेव सा नव०
सुरतरु सा भ० आठ० ॥ ८ ॥
कलश - इम वीर जिनवर सयल सुखकर नयर वडली मंडणो में थुण्यो भक्तें परम जुक्ते रोगशोग विहंडणो ॥ तपगच्छ निर्मल गयणदिणयर श्रीविजयसेन सुरीसरो, कवी कुशलवर्धन शीष्य पभणें नगागणी मंगल करो ॥ १ ॥
"इति श्री आठकर्म प्रकृति बोल विचार स्तवन सम्पूर्ण”
"अथ श्री उजमणा निमित्त रोहिणी स्तवन लिख्यते"
ढाल - १ - पहेली ॥ सुरतीमासनी ॥ नरक तिरय नरदेवनी आनुपूर्वी ए च्यार ॥ शासनदेवतासामिनी ए मुज सान्निध्यकीजें ॥ भूल्यो अक्षर भगवती ए समाजाइ दीजें ॥ मोटो तप रोहिणीतणो ए तेहना गुणगाउं ॥ जिम सुखसोहग संपदा ए वांछित फल पाउं ॥ १॥ दक्षिण
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स्तवनम्
॥१९४॥
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स्तवनम्
श्री भरते अंगदेश ए जिहां चंपानयरी॥ मघवा राजा राज्य करे ए जिणे जीत्यां वयरी ॥ पटराणी रोहिणी रूपें रूअडी ए लक्ष्मी इण नामें ॥ आठ पुत्र जायातिणे ए मनमें सुखपामे ॥ २॥ रोहिण नामें
पुत्रिका ए सबकुं सुखकारी ॥ आठांपुत्रा उपरे ए तिणे लागे प्यारी ॥ वाघे चंद्रतणी कला ए | जिमपक्ष अजुवाले ॥ तिण ते पांचे धायमाय सहु ते प्रतिपालें ॥३॥ कुमरी रूपे रूअडी ए घर
आंगण बेठी ॥ दीठी राजा खेलती ए चित्त चिंता पेठी ॥ तीन भुवन नहीं एहवी ए नवि दुजी नारी ॥रंभा पउमा गवरी ए इण आगले हारी ॥४॥ पुरुष न दीसे एहवो ए तिणने परणाउं ॥3 आंख्यां आगल साल वधे ए मन चैन न पाउं ॥ देश देशना राजवी ए तक्षिण तेडाव्यां ॥ सबल सझाइ साथ करी ए नर पंडित आया ॥५॥ वीतशोक राजातणो ए ऐसो कुमर सोभागी॥ कन्या केरी आंखडी ए तिणसेती लागी ॥ उभां देखे सकल लोक ए चढीया के पाला ॥ चित्र
सेनरे कंठे ठवी ए कुमरी वरमाला ॥६॥ देव अने देवांगना ए जपे जय जय कार ॥ रलियानयत देखीथया ए सारो संसार ॥ करजोडी कहे लोक ए वखत कन्यानो जोडो॥ वीतशोक कुमर
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श्री रोहिणी
॥१९५॥
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थयो ए शिर उपर लाडो ॥ ७ ॥ इम वीवाह थयो भलो ए दीयां दान अपार ॥ घरआया परणी करी ए हरख्यो परीवार ॥ वीतशोक निजपुत्र भणी ए आपणो पाट दीधो ॥ आपण संजम आदयों ए जगमें जशलीधो ॥ ८ ॥
ढाल - २ - बीजी ॥ हवे भवीयणरे पांचम उजमणो सुणो-ए देशी ॥
तिण नयरीरे चित्रसेन राजाथयो । सुख मांहिरे केटलो काल वहीगयों ॥ इण अवसररे आठ | पुत्रजाया भला ॥ चढतें पखरे चंदजिसी चढती कला ॥ त्रूटक - चढतीकला हवे रायबेठो पास बेठी रोहिणी ॥ सातमें छातें कंतसेती करे क्रीडा अतिघणी ॥ आठमो बालक गोद उपर रंगश्युं राणीलीयो ॥ पुत्रने प्रीतम आंख आगल देखतां हरखे हीयो ॥ १ ॥ ढाल पूर्वली - एक कामि - नीरे गोखे चढी दृष्टि पडी ॥ तडफडतीरे रोवे रीषें बापडी । बुढापणरे मनगमतो बालक मुओ ॥ डुंतो एकजरे तिण अधिकेरो दुःख हुओ ॥ त्रूटक - दुःखद्दुओ अधिको देखी रोहिणी हवे कहें प्रीतम भणी ॥ ए नारी नाचे अने कुदे किम कहो मोटाधणी ॥ एहवो नाटक आज तांइमें कदी
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स्तवनम्
| ॥ १९५॥
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रोहिणी
कर
देख्यो नहीं ॥ मुजने तमासो आज हासो देखतां आवेसही ॥ २ ॥ ढाल पूर्वली-इण अवसरेरे । स्तवनम रीसाणो राजा कहे ॥ तुं पापणरे परनी पीडा नविलहें ॥ एह दुखणीरे पुत्र मुए तडफड करे ॥ जब वीतेरे वेदन जाणी जेतरे ॥ त्रटक-न जाणे वेदन तुंह परनी गरवगहेली कामिनी ॥ इम कही राजा हाथ घाल्यो तेहना बालक भणी ॥ सातमी भूमिथी तले नाख्यो तिसे हाहाकार थयो । रोहिणी हस्ती कहे प्रीतमने पुत्रनीचो किमगयो ॥३॥ ढाल पूर्वली-हवे राजारे पुत्रतणे शोकें करी॥थयो मुर्छितरे रोवेछे आंख्यां भरी ॥ पडतो सुतरे शासनदेवी झालीयो ॥ कंचनमेंरे सिंघासण बेसारीयो॥त्रटक-करजोडी आगल बैसे सिंघासण करे नाटक देवता ॥ गोद खिलावे | अनें हसावे पादपंकज सेवता ॥ उपन्यो भूपतिने अचंभो देखीये कारण किस्यो ॥ जे कोइ ज्ञानी गुरु पधारे पूछीये संशय इस्यो ॥ ४ ॥ ढाल पूर्वली-चिंतवतारे चारण आयाछे इसे ॥ राजा पणरे पोहतो वंदनने तिसे ॥ सुणी देशनारे पूछे प्रश्न सुहामणो ॥ कहो खामीरे पूरवभव |बालक तणो ॥ त्रूटक-बालकतणो भव भूप पुछे कहे इणपरे केवली॥ रोहिणीराणी तणो भवांतर
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स्तवनम्
श्री रोहिणी ॥१९६॥
अने राजानो वली ॥ सुहगुरु भाखे पाछले भव रोहिणी तप आदयों ॥ तपतणी शक्ते साधु भक्ते तुमे भवसायर तर्यो ॥ ५॥ ढाल पूर्वली-कहे राजारे किम रोहिण तप कीजीये ॥ विधि भाखोरे जिम तुम्ह पासे लीजीयें ॥ तव मुनिवररे विधि रोहिणी तपतणी ॥ इम जपेरे चित्रसे
॥त्रटक-राजाभणी विधि एह जंपे चित्रसेन मन भाव ए॥ उपवास कीजे लाभ लीजे भली भावना भाव ए॥बारमा जिनवर तणी प्रतिमा पूजीएं मन रंगश्युं ॥ सातवर्षा लगे कीजे तजी भली आलस अंगश्युं ॥६॥
ढाल-३-त्रीजी ॥ साहेल्यां हे आंबो मोरीयो-ए देशी ॥ | तप करीएं रोहिण तणो ॥ वली करीये हो उजमणो सारके ॥ तप करतां आति टले ॥ तिण करीएं हो तिणसेती प्यारके ॥ तप करीयें रोहिण तणो॥ ए आंकणी ॥१॥ देव जुहारो देहरे जिन आगल हो पूजो वृक्ष अशोककें ॥ गुणगुं. बारमा जिनतj॥ भला नैवेद्य हो धरीये थोकके ॥ तप करीयें रोहिण तणो ॥२॥ केशरचंदन चरचीये ॥ कीजे आगे हो आठे मंगलीक
ॐॐॐॐॐॐॐडल
॥१९६॥
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रोहिणी
के ॥ विधिश्युं पुस्तक पूजीये ॥ तो लहीये हो शिवपुर तहतीककें ॥ तप करीयें रोहिण तणो ॥३॥ स्तवनम् सेवा कीजे साधुनी ॥ वली दीजे हो मुह मांग्या दानके ॥ संतोषीजे साहमी ॥ मनरंगें हो करीयें। पकवान्नके ॥ तप करीयें रोहिण तणो॥४॥पाटीपोथी पूछणो ॥ मसी लेखण हो झिलमिल सुजगीशके ॥ नवकारवाली वीटणा ॥ गुरु आगल हो धरीये सत्तावीसके ॥ तप करीयें रोहिण तणो ॥ ५॥ चोधुव्रत पण तिणदिने ॥ इम पाले हो मन धरीय विवेकके ॥ इण विधि रोहिण आदरें॥ ते पामें हो आणंद अनेकके ॥ तप करीयें रोहिण तणो ॥६॥
ढाल-४-चोथी॥शील कहे जग हुं वडो-ए देशी॥ इम महिमा रोहिण तणो ॥ श्री ज्ञानीगुरु प्रकाशेरे ॥ चित्रसेन तप आदर्यो ॥ वासुपूज्य तीर्थकर पासेरे ॥ इम महिमा रोहिण तणो ॥ए आंकणी ॥१॥ इण परें रोहिण आदरी ॥ उपर उजमणुं की, रे॥चित्रसेन ने रोहिणी॥मनशुद्धे संजम लीधुरे ॥इम महिमा रोहिण तणो ॥२॥ आठे पुत्रे आदरी ॥ दिक्षा बारमा जिनवर आगेरे ॥ वली नानाविधि तपकरे ॥ जिनधर्म तणी मति जागेरे
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श्री मौन ॥३॥ करी अणसण आराधना ॥ वली केवल शीवपद पायोरे ॥ जिन वाणी आणी हिये ॥ प्रभु स्तवनम् एकादशिचरणे चित्त लायोरे ॥ इम महिमा रोहिण तणो॥ ४॥ मनमोहन महिमा वध्यो ॥ में स्तव्यो ।
शिवपुर गामीरे ॥ मनमान्या साहिब तणी ॥ हवे पुण्ये सेवा पामीरे॥इम महिमा रोहिणतणो॥५॥ ॥१९७॥
| कलश-इम गगन दुय मुनिचंद वर्षे चोथ श्रावण शुदि तणी ॥ में कह्यो रोहिण तणो | ६ महिमा सुगुरु जिम मुखमें सुण्यो ॥ वासुपूज्य अमने थया सुप्रसन्न चित्तनी चिंता टली ॥ श्रीसार जिनगुण गावत्तां हवे सकल मंगल आशा फली ॥१॥
__"इति श्री रोहिणी स्तवनं सम्पूर्णम्" "श्री मौन एकादशि महात्मे सुव्रत सेठ वर्णन नाम स्तवनम्"
ढाल-१-पहेली ॥ चंद्राउलानी जंबु द्वीपना भरतमारे-ए देशी॥ द्वारीका नगरिं समोसस्यारे, बावीसमा जिन चंद; बे कर जोडि भावसुंरे, पूछे कृष्ण नरिंद ॥
GARAIGUSLIK*********
॥१९७॥
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कहे
श्री मौन | त्रूटक- पूछे कृष्ण नरिंद विवेके, स्वामि इग्यारस मानि अनेके; तेहतणो कारण मुज भाषो, महीमा एकादशि तिथिनो थीरकरी दाखो || जी जीणंद जीजीरे ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ ढाल पूर्वली - नेम केशव सुणोरे, पर्व वडुं छे तेण; कल्याणक जिननां कह्यां रे, दोढसो ईणदिण जेण ॥ त्रूटकदोढसो इण दिन सूत्र प्रसीधा, कल्याणक दश क्षेत्रना लीधा; अतित अनागतने वर्त्तमान, सर्व | मली दोढसो तसमान ॥ जी जीणंद जीजीरे ॥ २ ॥ ढाल पूर्वली-कल्पवृक्ष तरुमा वडोरे, देवमाहिं अरिहंत; चक्रवृत्ति नृपमां वडोरे, तिथिमा तेम ए हुंत ॥ त्रृटक - तिथिमां तेम ए हुंत वडेरो, | भेदे कर्म सुभटनो घेरो; मौन आराध्युं शिवपद आपे, संकट वेल तणा मूल कापे ॥ जीणंद | जीजीरे ॥ ३ ॥ ढाल पूर्वली - अहोरतो पोसह करीरे, मौन तप उपवास; इग्यार वर्ष आराधियेरे, | वली इग्यारे मास ॥ त्रूटक - वली इग्यारे मास जे साधे, मन वच काया सुद्ध आराधे; भव भव सुखीया ते नर थासे, सुब्रत सेठ परें गवरासे ॥ जी जीणंद जीजीरे ॥ ४ ॥ ढाल पूर्वली -
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स्तवनम्
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श्री मौन एकादशि
॥१९८॥
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कृष्ण कहे सुव्रत कीस्योरे, किम पाम्यो सुख सात; नेम कहे केशव सुणोरे, सुव्रतना अवदात ॥ त्रूटक - सुव्रतनां अवदात वखाणुं, घातकिखंड विजयपुर जाणुं; पृथवीपाल तिहां राजा बीराजे, | चंद्रावति राणी तस छाजे ॥ जी जीणंद जीजीरे ॥ ५ ॥ ढाल पूर्वली - वास वसें व्यवहारियोरे, सुर नामे तिहां एक; सुगुरु मुखे एक दिन ग्रहेरे, इग्यारस सुविवेक ॥ त्रूटक - इग्यारस सुविवेके लिधि, रुडी उजमणा विधि कीधि; पेट शुलथी मरण लहीनें, पहोतो इग्यारमें स्वर्ग वहीनें ॥ जी जीणंद जीजीरे ॥ ६ ॥ ढाल पूर्वली - एकवीस सागर तणोरे, पाली नीरुपम आय; उपन्यो जीहां ते कहुरे, सुणजो यादवराय ॥ त्रूटक-सुणजो यादव राय एक चीते, सौरिपुर वसे सेठ समृध दत्ते प्रीतीमती तस धरणी पेटे, पुत्रपणे उपन्यो पुन्य भेटे ॥ जी जीणंद जीजीरे ॥ ७ ॥ ढाल पूर्वली - जन्म समयें प्रगट हुआरे, भूमीथी सबल निधान; उच्चीत जाणी तस स्थापीयोरे, | सुव्रत नाम प्रधान ॥ त्रूटक-सुत्रत नाम ठव्युं मायताये, वाध्यो कुमर कलानिधि थाय; कन्या
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स्तवनम्
॥१९८॥
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Gramandi
स्तवनम्
श्री मौन : इग्यार वस्यो समजोडी, इग्यार होय घर सोवन कोडी ॥ जी जीणंद जीजीरे ॥ ८ ॥ ढाल पूर्वलीएकादशि वीलसे सुख संसारनारे, दोगुंदुक सुर जेम; अन्य दिवस सुगुरु मुखेरे, देशना निसुणी एम ॥
Jटक–देशना निसुणी एम महातम, बीज प्रमुख तिथिनो अति उत्तम; सांभलीने इहापो करते, जातिसमरण लयु गुणवंते ॥ जी जीणंद जीजीरे ॥ ९॥ ढाल पूर्वली-कर जोडी सुव्रत भणेरे, वर्ष दिवसमा सार; दिवस एक मुज भाषीरे, जेहथी होय भवपार ॥ त्रूटक-जेहथी होय भवपार ते दाखो, गुरु कहे मौन एकादशी राखो; तहत्त करि विधसुं आराधे, मृगशिर शुदि एका-18 दशि साधे ॥ जी जीणंद जीजीरे ॥ १० ॥ ढाल पूर्वली-सेठने सुखीयो देखीनेरे, जन कहे एक धर्मसार; प्रेम सहित आराधियेंरे, कांति विजय जयकार ॥ त्रूटक-कांति विजय जयकार सदाये, नित नित संपत होय सवाइ; एह तिथि सकल तणे मन भावी, पहेली ढाल थइ सुखदाइ। जी जीणंद जीजीरे ॥ ११ ॥
ॐॐॐॐ57-7)
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श्री मौन एकादशि
॥१९९॥
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ढाल - २ - बीजी ॥ एकवीसानी ॥ पांच पोथीरे ॥ ए देशी ॥
एक दिवसरे सेठ सुव्रत पोसह करि, सहु कुटंबेरे रयणी समे काउस्सग्ग करि; तव आव्योरे चोर लेवा धन आंगणे, कसी बांधीरे धननि गांठडि तत्क्षीणे ॥ त्रूटक-तत्क्षीणे बाचें द्रव्य बहुलो, शिर उपाडि संचरे; तव देवी सासन तेणे थंभ्या, चीत्त चिंता अतिकरे; दीठा प्रभाते कोटवाले, बांधि | सुंप्या रायने; वध हुकम दीधो राय तव तिहां, सेठ आव्या धाइनें ॥ १ ॥ ढाल पूर्वली - नृप आग लेरे सेठ मुकिने भेटणो, छोडाव्यारे चोर सहुनां बंधणो; जगमां वाध्योरे महिमा श्रीजिन धर्मनो, | केइ छांडेरे मिथ्यात्व मार्ग भर्मनो ॥ त्रूटक - मीथ्यात्व मार्ग तजिय पुरिजन, जैन धर्म अंगीकरे; एक दिवस धि धिग् करत उद्भट, अग्नि लागि तिणपुरें; बाले ते मंदिर हाट सुंदर, लोक नाहठा धसमसी; सहुकुटुंब पौसध सहित तिणदिन, सेठ बेठा समरसी ॥ २ ॥ ढाल पूर्वलीजन बोलेरे सेठ सलूणा सांभलो, हठ न करोरे नासो अग्निमां कांबलो; सेठ चिंतेरे ए परिसह
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स्तवनम्
॥ १९९॥
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स्तवनम्
श्रीमौन
सहसुं सही, ब्रत खंडणरे इण अवसर करसुं नही ॥ त्रुटक-नही जुगतुं मुजनें व्रत विलोपन, एकादशि रह्यो इम द्रढता ग्रही; पुर बल्यु सघलं सेठना, घर हाट ते उगस्यां सही; पुरलोक अचरीज देखी ||
सबलो, अति प्रसंसे दृढपणुं; हवें सेठने घरे करे सबलो, उजमणुं करवा तणुं॥३॥ढाल पूर्वली-13|| मुक्ताफलरे मणि माणीकने हीरला, पीरोजारे विद्रुम गोलक अतिभला; वर्णादिकरे सप्त धातुमेली रूली, खीरोदकरे प्रमुख विविध अंबर वली; टक-वली धानने पक्वान्न बहु विध, फूल फल मन उज्जले; इग्यार संख्या एक एकनी, ठवे श्रीजिन आगले; जिन भक्तिमंडे दुरित खंडे, लाभ लहे || नरभव तणो; महीमा वधारे सुविधा धारे, तप सुधारे आपणो ॥ ४॥ ढाल पूर्वली-सात क्षेत्ररे खरचे धन मन उल्लसी, संघ पूजारे साहमी भक्ति करे हसी; दीये मुनिनेरे ज्ञानोपगरण सुभमने, इग्यारसरे एम उजवी तेणे सुव्रते ॥ त्रूटक-तेणे सुव्रते एक दिवसे, वांद्या श्री जयसेखर गुरु; सुणी धर्म अनुमत मांगी सुतनी, लीये संजम सुखकरु; इग्यार तरुणी ग्रहे संयम, तपतपी अति नीरमलं ते लही केवल मुगते पहोता; लहो सुख धन उजलुं ॥ ५॥ ढाल पूर्वली-दोयसें छहरे है
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श्री मौन एकादशि
॥२०॥
एकसो अट्ठम साररे, षट्मासीरे एक चौमासी च्याररे; इत्यादिकरे सुव्रत मुनिवर तपकरे, इग्या
स्तवनम् रसरे तिथिसेवे मुनि मनखरे ॥ त्रूटक-मनखरे पाले सूद्ध संयम, एक दिवस ए रुषितणे; थइ । उदर पीडा तेणे दिवसे, अछे सुव्रत व्रतपणे; एक देव वयरि पूर्व भवनो, चलावा आव्यो तिहाः || | मुनिराज सुव्रत तणे अंगे, वेदना किधि जीहां ॥ ६॥ ढाल पूर्वली-समता धरीरे नीश्चल मेरुपरें । रह्यो, सुर परिसहरे धीर थइने सांसह्यो नवि लोपेरे मौन सवत मुनि राजीओ, औषध पिणरे सुर दाख्यो पिण नवीकियो । त्रुटक-नवी कियो औषध रोगहेते, असुर अतिकोपें चख्यो; पाटु प्रहारें हणे तिवारे, मीथ्यामत पापे मढ्यो; रुषि क्षपकश्रेणि चढिय केवल, ग्यानलही मुगते गयोः । इम ढाल बीजी कांति भणतां, सकल सुख मंगल थयो ॥७॥ ढाल-३-त्रीजी॥ शीता होसथी शीताकहो सणिराम॥अथवा ॥
॥२०॥ दीठीहो प्रभु दीठी जगगुरु तुज-ए देशी ॥ भाषीहो जिन भाषी नेम जीणंद, इणीपरेंहो जिन इणिपरें सुव्रतनी कथाजी; सद्दहेहो जिन
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श्री मौन एकादशि
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सहे कृष्ण नरिंद, छेदनहो प्रभु छेदन भव भयनी व्यथाजी ॥ १ ॥ पर्षदाहों जिन पर्षदा लोक तीवार, भावेंहो तिहां भावें इग्यारस उचरेजी; एहथीहो जीन एहथी भवीक अपार, सहेजेहो भंव सहेजें भव सायर तरेजी ॥२॥ तारकहो जिन तारक भवथी तार, मुजनेहो जिन मुज नीरगुणने हित करिजी; साचीहो जिन साची चीत अवधार, किधीहो जिन किधि ताहरी चाकरीजी ॥ ३ ॥ करसुंहो जिन करसुं जो तप साध, तुमचीहो जिन तुमची तिहां मोटीम कीसीजी; देइसहो जिन देइस तुंही समाध, एवडिहो जिन एवडि गाढिम कांइसीजी ॥ ४ ॥ छेहडोहो जिन छेहडों साह्यो आज, महोटी हो जिन महोटी में आस्याकरिजी; दिधाहो जिन दिधा विण माहराज, छूटीसहो जिन छूटीस किमविण दुख हरिजी ॥ ५ ॥ भव भव हो जिन भव भव सरणो तुज, तुजने हो जीन तुजनें कहुं केतु वलीजी; देज्यो हो जिन देज्यो सेवा मुज, रंगेहो जिन रंगे प्रणमुं लली ललीजी | ॥ ६ ॥ त्रिजीहो जिन त्रीजी पूरी ढाल, प्रेमेंहो जिन प्रेमे कांतिविजय कहेजी; नमताहो जिन नमता नेमी दयालु, मंगलहो जिन मंगल माला महमहे जी ॥ ७ ॥
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स्तवनम्
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________________ श्री मौन एकादशि स्तवनम् // 201 // PASTASIAKASASAK कलश-इम सयल सुखकर दुरीत दुखहर-भवीक तरु नव जलधरु, भवताप वारक जगत तारक-जयो जिनपति जगगुरु; सत्तरसे ओगणोत्तरा वर्षे-रही डभोई चोमासए, शुद मास मृगशिर तिथि इग्यारम-रच्या गुण सुवीलासए ॥१॥इम थोइ मंगलं कोड भवना-पाप रज दुरेहरे, जयवाद आपे कीर्ति स्थापे-सुजस देसोदेस वीस्तरे; तप गच्छ नायक विजयप्रभ गुरु-शिष्य प्रेम-13 |विजय तणो, कहे कांति थुणता भवीक भणता-पामीए मंगल अतिघणो // 2 // "इति श्री मौन एकादशी माहात्म्ये सुव्रतसेठवर्णननाम स्तवनम् संपूर्णम्" "श्री महावीर तप, नमस्कार" नव चौमासि तपकस्यां, त्रणमाशि कस्यां दोय; दोय दोय अढीमासि तिम, डोढमासि होय // 1 // बहोतेर पास क्षमणकया, मास क्षमण कखां बार; षट्मासितिम आदखां, बार अठ्ठम तपसार // 2 // षट्मासि एक तिम कखो, पणदिन उण षट्मास; बसो ओगणत्रिस छठभला, दिक्षा दीन एक खास // 3 // भद्र प्रतिमा दोय तिम, पारण दिन जास; द्रव्याहार पानक कह्यो, त्रणसे ओगण पंचास // 4 // छद्मस्थे इणिपरे रह्यां, सह्या परिसह घोर; श्रुक्ल ध्यान अनले करि, बाल्यां कर्मक कठोर // 5 // 2034 श्रुक्ल ध्यान अंतर रह्याए, पाम्या केवल नाण; पद्मविजय कहे प्रणमता, लहिए नित्य कल्याण " // इति महावीरनमस्कार-स्मपूर्णम्-समासः॥" 2 01 // AS. For And Personale Only