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________________ ShriMahavirain AartmenaKentre www.kobatirth.org charyashm KailassagarsuriGyanmandir स्तवनम् पंचमी सौभाग्य 8ए तप माहि पेसीयें ॥ जीरेजी ॥ जीरे ॥ पडीकमणां बिहं टंक ॥ ब्रह्मचरिज धरी बेसीयें ॥ जीरेजी ॥१४॥ जीरे० वांदीयें देव त्रीकाल ॥ आरंभ शकल नीवारीयें ॥ जीरेजी॥ जीरे० स्तवन ॥१४९॥ थइ धरी खांति ॥ पंचमिनी नीरधारीयें ॥ जीरेजी ॥ १५॥ जीरे० नमो नाणस्स पद एक ॥ उत्तर पूर्व मुख जपें ॥ जीरेजी ॥ जीरे० ए विध तप करे जेह ॥ ते तो त्रीभुवनमा तपें ॥ जीरेजी॥ १६॥ जीरे० ॥ जो होय पोसह युक्त ॥ तो विधि बीजे दिन करे ॥ जीरेजी ॥ जीरे० उजमगुं करी कांति ॥ ए तपथी भवजल तरे ॥ जीरेजी ॥ १७ ॥ | ढाल-५-पांचमी ॥ एकवीशानी॥ जग नायकजी, त्रीभुवन जन हितकार ए ॥ परमातमजी, |चिदानंद घनसार ए॥ ए देशी॥ नीज सक्ति रे उजमणुं तपनुं करो, धन खरचीरे नर भव सफल करो खरो; जीनवरनीरे प्रतिमा भरावो मनरुली, पंच तिर्थी रे पाट पाटली सुंदर वली ॥१॥ त्रुटक-वली नाण दंशण चरित्त टीकी देइ पुस्तक पुजीए, स्थापना पुजी पांच लोगस्स काउ लस्सग्ग तिहां कीजीए; रुमाल पाठा परत लेखण नवकारवाली वरतणां, पाटीपोथी ठवणी कवली पुंजणी 5491 ॥१४९॥ % For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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