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________________ Shi Mahavir Jain Aradhana Kendra शांतिना थना. ॥ ५८ ॥ www.kobahrth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ १९ ॥ सिंहदास सुत आपणो रे, आविनम्यो कर जोडि रे; सुं० ॥ विधिश्युं वांदि देशनारे, सांभलवा कोडि रे; सुं० सहगुरु ॥ २० ॥ ज्ञान आशातन जे करे, ते लहे दुःख अनेक रे; सुं०; वाचा पण नवि उपजें, बाल परे विवेक रे; सुं० सहगुरु ॥ २१ ॥ इह भव पग पग दुःख लहें, दुष्ट कुष्टादिक रोग रे; सुं०; परभवे पुत्र न संपजे, कलत्रादिक वियोग रे; सुं० सहगुरु ॥२२॥ सिंहदास पुछे हवें, निज बेटीनी वात रे, सुं०; श्येकमें रोग उपन्यो, ते कहो सकल अवदात रे; सुं० सहगुरु ॥२३॥ गुरु कहे शेठजी सांभलो, पूर्व भव विरतं रे; सुं०; धातकीखंड मध्य भरतमां, खेटक नगर निरखत रे; सुं० सहगुरु ॥२४॥ जिनदेव वणिक वसे तिहां, सुंदरी नामें नार रे; सुं०; पांच बेटा गुण आगला, चार सुता मनो हार रे सुं० सहगुरु | ॥ २५ ॥ एक दिन भणवा मुकीयां, हुंस धरी मन मांहि रे सुं०; ॥ चपलाइ करे चउगुणी, नभणे हर्ष उच्छांहि रे; सुं० सहगुरु ॥ २६ ॥ शिखामण पंड्यो दीएं, आवी ऋए माता पास रे; सुं०; ॥ कोप करी वलतु कहें, बेठां रहो घर वास रे; सुं० सहगुरु ॥२७॥ चुला मांहि नांखीयां, पुस्तक पाटी सोय रे; सुं०; ॥ २ ॥ ५८ ॥ रीसें धम धमती कहें, आखर मरसें सहु कोय रे; सुं० ॥ २८ ॥ कंथ कहे नारि प्रत्ये, को न दीए For Pitvale And Personal Use Only पंच क० स्तवन.
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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