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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobarth.org. कन्या दान रे; सुं० ॥ मूर्ख गुण ग्रहेनहीं, नलहे आदर मान रे; सुं० सहगुरु ॥२९॥ बिहुंजण मांहि बोलतां, कोधवशे वीकराल रे, सुं० ॥ जिनदेवें मायुं मुशलुं, मरण पामि तत्काल रे, सुं० सहगुरु ॥३०॥ तेह मरी गुणमंजरी, अवतरी ताहरे गेहरे; सुं० ॥ जातिस्मरण उपन्युं, प्रगटी पुन्यनी गेह रे; सुं० सहगुरु ॥३१॥ साचुं साधुं सहु कहें, ज्ञान भणो गुण खाण रे, सुं०॥ तपनो जो उद्यम करो, तो लहो केवल नाण रे; सुं० सहगुरु॥३२॥ दुहा— पांसठ महीना कीजीए, मासमास उपवास; पोथी स्थापो आगलें, स्वस्तिक पुरो खास ॥ ३३ ॥ पांच पांच फल मुकीएं, पांच जातीनां धान्य; पांच वाटी दिवो करो, पांच ढोको पक्वान्न ॥ ३४ ॥ कुसुम भलां आणी करी, धूप पूजा करी सार; नमो नाणस्स गुणणुं गणो, उत्तर दिशी | एक हजार ॥ ३५ ॥ भक्ती करे साहमी तणी, शक्ति तणे अनुसार; जिनवर जुगति पूजतां, पामे | मोक्ष द्वार ॥ ३६ ॥ बार उपवास न करी शकें, वरस मांहिं दिन एक; जाव जिव आराहिएं, आणि परम विवेक ॥ ३७ ॥ ढाल — ॥ ३ ॥ चुडले यौवन झल रह्यो । ए देशी ॥ राजन मुनीवर दीएं धर्म देशना, सुणीएं देइ कान For Private And Personal Use Only a Shn Kailassagarsuri Gyanmandir
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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