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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बेटो तेहनो रे, मूरखमां शिरदार० भ० ॥ १० ॥ मातपिता मन रंगश्युं रे, मुकें अध्यापक पास; ॥ पण तेहनें नवि आवडे रें, विद्या विनय विल्लास ० भ० ॥ ११ ॥ जिम जिम यौवन जागतो रे, तिम तिम तनु बहु रोग; ॥ कोढ थयो वलि तेहनें रे, विषमा कर्मनां भोग, ० भ० ॥ १२ ॥ आदरीएं आदर करी रें, सौभाग्य पंचमी सार; सुख सघलां सहेजे मिलें रे, पामे ज्ञान अपार, ० भ० ॥ १३ ॥ दुहा - तिलकपूरे शेठ वसे तिहां, सिंहदास गुणवंत; जैनधर्म करतो लहें, कंचन कोडि अनंत ॥ १४ ॥ कपूर तिलका सुंदरी, चाले कुल आचार; तेहनी कुर्खे अवतरी, गुणमंजरी वर नारि ॥१५॥ मूगी थइ ते बालिका, वचन वदे नहिं एक; जिम जिम अति औषध करें, तिम तिम तनुबहु रोग ॥ १६ ॥ सोल वरस तेहने थयां, परणे नहिं कुमारि; एहने कोइ वंछे नहीं, स्वजनादिक परिवार ॥ १७॥ ढाल - ॥२॥ बन्यो रे कुयर जिरो सेहरो ॥ ए देशी ॥ एहवे आवी समोसर्यां, श्रीवीजयसेन सूरींद रे; सुंदरि; ज्ञानी गुरुने वांदवा, पुत्र सहित भुप वृंद रे, सुंदरि ॥ १८ ॥ सहगुरु दीपदेशना रे, सांभलो चतुर सुजाण रे-सुंदरि; ज्ञान भणो भवि भावशुं, जिम लहो कोडि कल्याण रे - सुं०; सहगुरु ॥ ए आंकणी ॥ For Pivate And Personal Use Only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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