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________________ Shi Mahavir Jain Aradhana Kendr www.kobarth.org. समकीत - ते शुद्ध करंत; करतां शुद्ध अशुद्ध मिश्र रहे, तिम त्रण पुंज धरंत ॥ भावे० ॥ ४१ ॥ इम स्वभाव पच्चीशीनं तथा उपदेशथी, समकितनां दोय भेद; महा भाष्यमां भाख्या ए सवे, जोयो मुकी खेद ॥ भावे ० ॥ ४२ ॥ कारगे रोग दीवैग भेदथी, समकित त्रण प्रकार ; क्षय उपशम उपर्शम क्षायिक थकी, त्रण प्रकार विचार ॥ भावे० ॥ ४३ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ढाल - ७- मी ॥ सतिय सुभद्रा ॥ ए देशी ॥ जिम भाख्युं जिनवर मते, सखि कर पण तिम तास; कारक समकित जिन कहे, सखि जिन कहे केवल ज्ञान विलास ॥ सुख कारक समकित आदरो ॥ ए आंकणी ॥४४॥ रोचक कहीए तेहने, सखि रुचि मात्र होए जास;धर्म कथादिके दीपतां, सखि दीपतां पण नहिं अंतर वास ॥ सुख० ॥ ४५ ॥ तुज समयविद इम कहे, सखि दीपक समकित तेह; त्रण प्रकार बीजा हवे, सखि बीजां हवे क्षय उपशम आदि जेह ॥ सुख० ॥ ४६ ॥ त्रण पुंज करे तेहमां, सखि उदये तेह खपाय; अण उदय उपशम करे, सखि शम करे क्षयोपशम कहेवाय ॥ सुख० ॥ ४७ ॥ अंतर करणे जे होए, सखि अथवा जे गत श्रेणि; त्रणे पुंज जेणे नविकर्यां, सखि नवि कर्यां उखर अग्नि ना एण For Pitvale And Personal Use Only स्तवनम्
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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