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पंच क० स्तवन.
शांतिना-भोगवियां भगवंत रे॥ वी० ॥ २॥ सुक्ष्म निगोद वस्यो छे हुँ स्वामी, अनादि वणस्सइ थना. नामरे; तिहांमें कीध अनंता पुद्गल, परावर्त्त विण स्वामिरे॥ वी० ॥ ३॥ अव्यवहार राशि ॥४६॥
इम वसिओ, काल अनंतो भोगेरे; कर्म परिणाम नृपति आदेशे, तादृश भव्यता योगेरे ॥वी॥४॥ |तिहां एकण सासो सासमें कीधां, भवसत्तरे झाझरारे; ए दुःख तुजविण कुण छोडावे, स्वामी मुज
भव फेरारे ॥ वी० ॥ ५॥ व्यवहार राशि लइ उत्कर्षे, काल अनंत अनंतोरे; स्थूल निगोदने पृथ्वी पाणी, तेज अनिल त्रस जंतोरे ॥वी०॥६॥ तिहांपण हुँ वसियो तुम पाखें, मिथ्या मतने जोरेरे; हरिहर देवकरी में मान्या, तुं न चढ्यो मन मोरेरे ॥वी०॥७॥ तिणे में छेदन भेदन ताडन, भुख तृषा गुरु भाररे; गर्भवासने जन्म जरा दुःख, भोगवीयां निरधाररे॥वी०॥ ८॥ इम चउ गइ भवनां दुःख फरसी, वार अनंती अनाणीरे; पाला दृष्टांते इक पुद्गल, परावर्त्त स्थिति आणीरे ॥वी०॥९॥ भव्य पणादिक ने परिपाके, गिरिसरि दुपल न्यायेंरे; अध्यवसाय विशेष करणजे, अनाभोगथी थायेरे॥ वी०॥१०॥ ते त्रिविधेभाख्यु तिहां पहेलं, यथा प्रवृत्त करण वली बीजुरे करण अपूर्व नामें
॥४६॥
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