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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न पावेरे; प्रा० ॥ ८ ॥ ज्वर पण सहेजे औषध योगें, जाये एक न जाय; मारग ज्वर दृष्टांतें समकित, इणिपरें द्विविधें थाय रे; प्रा० ॥ ९ ॥ जाती स्मरण प्रमुख थकीजे, तास निसर्ग विचारो; गुरुउपदेशादिकथी आव्युं, ते अधिगम चित्त धारोरे; प्रा० ॥ १० ॥ कारक रोचक दीपक भेदें, त्रिविधे पण ए भाख्युं; अथवा उपशम क्षायोपशमिक, क्षायिक भेदे दाख्युं रे; प्रा० ॥ ११ ॥ तें जिम भाख्युं ते तिम कीधुं, ते कारक तस खास; तुज धर्मोपरि रुचिथी रोचक, नहीं किरिया अभ्यासरे; प्रा० ॥ १२ ॥ मिथ्या दृष्टी थको पण पोतें, धर्म कथादिक सारे; दीपक परे परने दीपावें, ते दीपक उपचारें रे; प्रा० ॥ १३ ॥ ते समकित जिम फरस्युं जीवे, तिम तुज आगल दाखुं; तुज आगम नय न्याय शुद्धो दधि, परमार्थ रस जिम चाखुरे; प्राणी समकित सुद्ध आराधो ॥ १४ ॥ ढाल ॥ २ ॥ देव तुज सिद्धांत मीठो ॥ ए देशी ॥ वीर जिणेसर साहिब सुणजो, निजसेवक अरदासरे; दीन दयाकर ठाकुर आपो, तुझ चरणे मुज वासोरे ॥ वी० ॥ १ ॥ ए आंकणी ॥ लोकाकाशि रह्यो अविनाशी, अनादि अनंतरे; ए भव चक्र तणां दुःख बहुलां भाव For Pitvate And Personal Use Only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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