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________________ SM Mahavam A kende www.kobateh.org. Achan Kailas Gyamandi कहीएं, अनिवृत्त करण ते त्रीजुरे॥ वी०॥ ११॥ यथा प्रवृत्तकरणे आयुविण, सात कर्म करी खीणरेकोडा कोडि सायर इग पलयनो, असंख्य भाग तिणे हीणरें।वी०॥ १२॥ इहां कर्कश निविड गुपिः। लजिम ग्रंथी, भेदन दुक्कर कामरे; कर्मपरिणाम जनित घन जीवनो, राग द्वेष परिणामरे॥वी०॥१३॥ ते ग्रंथी नविभेदी जीवें, पहेलि इणे संसारेरे; वार अनंती अभव्य पण आवे, ग्रंथी लगि निरधाररे॥वी०॥ १४॥ भव्य अभव्य रहे तिहां ग्रंथि, संख्य असंख्यो कालरे; अरिहंता दिकनी ऋद्धि देखी, संयमने उजमाल रे॥ वी०॥ १५॥ तिहां लहें श्रुत सामायिक द्रव्ये, शेष लाभ नहीं तासरे, * तिहाथी ग्रैवेयक पण जावे, पण नहिं शिवपूर वासरे ॥ वि० ॥ १६ ॥ कोइक भव्य महातम तेहमां, जेहनें भवनो पाररे; निशित कुठार धारें जिम तत्क्षण, भेदे बल मनोहाररे ॥ वी० ॥ १७ ॥ करण अपूर्व परम विशुद्धे, तिम ते ग्रंथी आयरे; भेदीने अंतर मुहूर्त्तमां, अनिवृत्ति करणें जायरे ॥ वी० ॥१८॥ मिथ्या मोह तणी स्थिति तेहy, अंतरमुहर्त एकोरे; उदय क्षण उपरें ओलंघी, ते समरथ सुविवेकोरे ॥वी० ॥ १९ ॥ अनिवृत्ति करण विशेषे अंतर, मुहूर्त काल अनूपोरे; अंतर करण करे For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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