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________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra शांतिनाथना. ॥ ४७ ॥ www.kobarth.org. तिहां वेद्यजे, दलिक अभाव सरूपोरे ॥ वी० ॥ २० ॥ जिमवनदवदग्धे घन उखर, पामी ठाम, ओल्हायरे; तिम मिथ्या वेदन वनदव सम, अंतर करणे थायरे ॥ वी० ॥ २१ ॥ अंतरकरण करे मिथ्यात्वनी, स्थितियुग कहे जिन न्यानेरे; अंतरकरण थकी स्थिति हेठी, पहेली मुहूर्त मानेरे ॥ वी० ॥ २२ ॥ तेहथी उपली स्थिति बीजी, तिहां प्रथम स्थिति जाणोरे; मिथ्यादलिकनुं वेदन तेहथी | मिथ्यादृष्टी वखाणोरे ॥ वी० ॥ २३ ॥ अंतरमुहूर्त्त ते स्थिति नाशे, नही मिथ्यादल वेदोरे; अंतरकरण नो प्रथम समये तिहां, लहे उपशम निरवेदोरे ॥ वी० ॥ २४ ॥ परमानंद मगन होइ भट जिम, जीती कटक अशेषरे; न्यायवंत हरखे जिम गाढे, न्याय धनागम पेखरे; वीर जिणेसर साहिब सुणजो ॥२५॥ ढाल ॥ ३ ॥ सहीरे समाणी ॥ ए देशी ॥ इणीपरें तुजथी समकित फरस्युं, जेहथी भवजल तरस्युंरे; धन्य धन्य तुम सेवा; ॥ एहथी मन वंछित फल लेवां, तेकरवां मुजं हेवारे; ध० ॥ १ ॥ ए आंकणी ॥ तिहां कोइ देश विरति तस सरसी, सर्व विरति लहे हरिसीरे; ध० ॥ मिच्छा मयण कोद्रवा सरिखुं, उपशम औषध परखुरे; ध० ॥ २ ॥ जल वस्त्रादिकनें दृष्टांते, तुज आगम कहे Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only पंच क० स्तवन. ॥ ४७ ॥
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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