SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra शांतिनाथना. ॥ ६४ ॥ UPPS %%%% 3645640 www.kobarth.org. ढाल - पांचमी ॥ तुमेपीतांबरपर्हेस्यांजी ॥ देश ॥ ते सुणी वरदत्ते गुरुवाणी जी, जाति स्मरण लधुं; पूर्व निज भव दिठो जी, जेम गुरु ए कयुं वरदत्त कहे तव गुरुनें जी, रोग ए किस जावे; सुंदर काया होवे जी, विद्या किम आवे ॥ ३५ ॥ भाखे गुरु भले भावे जी, पंचमी तप करो; ज्ञान आराधों रंगे जी, उजमणुं करो; वरदते ते विधि किधी जी, रोग दूरे गयो; भूक्त भोगी राज्य पाली जी, अंते साधु थयो ॥ ३६ ॥ गुणमंजरी परणावी जी, साह जिन चंद्रनें; सुख भोगवी पछी लीधुंजी, चारित्र शुभ मर्ने; गुणमंजरी वरदत्त जी, चारित्र पालीनें; विजय विमानें पहोता जी, पाप प्रणाली नें ॥३७॥ भोगवी सुर सुख तिहांजी, चवीया दोय सूरा; पाम्या जंबु विदेहेजी, मानव अवतारा; भोगवी राज्य उदाराजी, चारीत्र ल्यें सारा; हुआ केवल ज्ञानीजी, पाम्या भव पारा ॥ ३८ ॥ ढाल ॥ ६ ॥ छठी ॥ गिरथी नदीयां उत्तरीरेलो ॥ देश ॥ जगदीश्वर नेमीश्वरे रे लोल, ए भाख्यो संबंध रे सोभागीलाल; बारे पर्षदा आगलें रे लोल०, एसघलो प्रबंध रे सोभागीलाल; नेमीश्वर जिन जयकरूं रे लोल ॥ ए आंकणी ॥ ३९ ॥ पंचमी तप करवां भणी रे लोल, उत्सुक थयां बहु लोक For Pitvale And Personal Use Only a Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पंच क० स्तवन. ॥ ६४ ॥
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy