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स्तवनम
श्रीज्ञान
सुख संपत्ति फल पावोरे ॥ अर्बुद ॥ १२॥ ए स्तवन जे भावें भणस्ये, चित्त दईने सुणस्येरे; ते पंचमी ||घर लक्ष्मी लीलाकरस्ये, भव समुद्र ते तरस्येरे ॥ अर्बुद ॥ १३ ॥ ॥१६॥ ISI कलश-इम सकल गिरिवर मुख्य हितकर-हिमाचल सुत जाणीये, मोक्ष स्थानिक दुःखवामक
नित्य प्रते चित्त आणीय वा विनय शीलें जय सुमति लीले-ज्ञान कांति आदर वशकरी, कल्याण कारी पाप वारी-नित्य प्रणमो हित धरी ॥१॥ "इति श्री अर्बुदाचल उत्पत्ति चैत्य परिपाटी स्तवनम् सम्पूर्णम्"
___ “अथ श्री ज्ञान पंचमी स्तवन" "देशी ॥ चंद्राउलानी ॥ जंबुद्वीपनां भरतमां रे ॥ ए देशी ॥ समरी श्रुतदेवी सदारे, हंस वाहन कर वेण; मुर्खने पंडीत करे रे, सद्गुरु ये श्रुत नेण ॥ त्रुटक-सदगुरु घे श्रुत नेण घणेरी, टाले मिथ्यात्व कूमति भव फेरी; शुक्र कस्यां शनि हुता जेह, ते गुरुनें नमीए नित नेहें ॥१॥
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॥१६०॥
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