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________________ ShiMahaveJaintamanaKendra hen Kailasagar Gyanmandie SAE स्तवनम् -% समकित- सम जेहरे ॥ प्राणी० तेणे०॥ १९ ॥ लेइ अपूर्व मोगर करेरे, त्रीजे हणीआ चोर; समकितादिक पच्चीशीनुंपुर भणीरे, पोहतां ते निज ठोररे ॥ प्राणी० तेणे० ॥ २० ॥ ॥११५॥ ढाल-३-जी ॥ प्रथम गोवाला तणे भवेजी ॥ ए देशी ॥ पंच प्रकार कीडी तणांजी, तेहमां पहेली जोय; भुंइ भ्रमणकरे घणुंजी, यथा प्रवृत्त इंहा होयरे ॥प्राणी समजो इदय मोझार॥ उपनय | पह उदार रे ॥ प्राणी ॥ उप०॥ ए आंकणी ॥ २१ ॥ स्थंभ उपर बीजी चढीरे, कीडी अपूर्व छ तेह; त्रीजी पांखथी उडतीजी, अनिवृत्ति जाय छे जेहरे ॥ प्राणी. उप० ॥ २२॥ चोथी स्थंभ मस्तक रहीजी, गंठी देशने संधि पांचमीते पाछी वलीजी, बांधे गुरु स्थिति बंधरे ॥ प्राणी० उप०॥ ॥ २३ ॥ एम मिथ्यात्वथी प्राणीआजी, पामे समकित सार; अर्द्ध पुद्गल परावर्त्तमांजी, होये तास संसाररे ॥ प्राणी० उप०॥ २४॥ जाए भिन्न मुहर्तमांजी, वर्त्ततो शुभ परिणाम; अनिवृत्ति करणे करीजी, ते समकित शुद्ध ठामरे ॥ प्राणी. उप०॥ २५॥ जिम सुभट संग्राममांजी, जीत्यो वैरी IENC01-24 C E | ॥११५॥ SC For P e And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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