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________________ ShriMahavirain AartmenaKendra www.kobathrtm.org Acharya Shn KailassagarsuriGyanmandir स्तवनम् समकित- पञ्चीशीन RECACANCREENA समग्र माने तिम आणंदनेजी, समकित लहे सुख वगरे ॥ प्राणी. उप०॥ २६ ॥ धर्म वृक्षमूलछेजी, धर्म आवासद् द्वार; प्रतिष्ठा न पणे तेहनुंजी, लेखे ज्ञान आचाररे ॥प्राणी० उप०॥२७॥ __ ढाल-४-थी। रहोरे रहो रथ फेरवो रे ॥ ए देशी ॥ एक प्रकार समकित कडं रे, तिम बेत्रण च्यार पांच भेदरे; एक प्रकार जे तुज कह्यां रे, द्रव्यादिक रुचिओ मेद रे ॥ सुणीए भेद समकीत तणां रे ॥ ए आंकणी ॥ २८॥ द्रव्य भाव भेदे करी रे, तिम निश्चयने व्यवहार रे; अथवा सहेज उपदेशथी रे, कडं तुज वचन जाणण हार रे ॥ सुणीए ॥ २९ ॥ तुज वचनें जे तत्वनी रे, रुचि ते द्रव्य समकित होय रे; जोइं परमार्थ नवि लहे रे, जीव ते तत्त्व जाणज जोय रे ॥ सुणीए ॥ ३०॥ ज्ञानादिक आत्मक हुवे रे, निश्चयते शुभ परिणाम रे; उपशम आदि कारण थकी रे, व्यवहार दर्शन गुण धाम रे ॥ सुणीए ॥ ३१ ॥ जले वस्त्रे मार्ग कोद्रेव उवर रे, द्रष्टांते निसर्ग उपदेश रे; समकित एह प्ररूपीउं रे, हुं नमुं नमुं नमुं तेह जिनेश रे ॥ सुणीए ॥ ३२॥ ढाल-५-मी ॥ समकित दूषण परिहरो॥ ए देशी ॥पंथी मारग चूकीओ, अटवी भ्रमण करंतरे; For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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