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________________ SCE चैत्यपरिपाटी स्तवनम् अर्बुदाच ॥ १॥ श्री गुरु चरण कमल नमुं, दोष रहित सुख धाम; संपत्ति दायक दुख हरण, पूरे वंछित ल उत्पत्ति काम ॥२॥ आबु गिरिवर अति प्रबल, महिमा अकल अनंत; परमत जिनमत तीर्थ ए, भाखे श्री भगवंत ॥३॥ उत्पत्ति चैत्य परवाडि सह, दीठो सांभल्यों जेह; ते अतिशय आदर करी, भाष आणी नेह ॥४॥ मत अनेक आबु कल्प, शिव शासन कहे वात; जिनमत कल्प आबु तणो, ते कहेस्युं अवदात ॥५॥ III ढाल-१-पहेली ॥ उठि कलाली भरि घडोहे ॥ ए देशी ॥ आगे वात सुणी ऐसीहे, आबु गिरि उत्पत्ति; तापस परमतना घणांहे, करता तप संपत्ति ॥ भविक जन सांभलो आबु वात ॥ भेद विचार विख्यात ॥ भविक भेद०॥ए आंकणी॥१॥भूमि पवित्र जल अति घणांहे, दर्भ समिध पलास; * गायवृंद वच्छ सह चरेहे, पूरे तापस आस॥भविक० भेद॥२॥ एक खाड तिहां आकरीहे, जोतां मन अकुलाय; कामधेनु मुनिवर तणी हे, चरती चरती जाय ॥भविक० भेद०॥३॥खाड उंडी बीहामणीहे, * तिहां पडी सुरवर गाय; तापस आकुला सहुए, अति दुःख मनमां थाय॥भविक भेद०॥४॥ मंत्र FESTER For Fate And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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