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________________ SM Mahavam A kende Achan Kailas Gyamandi संयमश्रेणीनुं स्तवनम् ॥१६८॥ RECERENCE वृद्धिनां संयम स्थानक इम नीपजावतां कंडक मात्र थाय ॥ एसर्व संयमस्थानरूप आत्मगुण हे अर्थ वीर ? हे परमेश्वर ? तमे पंडित वीर्ये करीने वर्या ॥ पाम्या ॥ एटला माटे तमे वंद्यछो॥ पूज्यछो॥ सहित स्तुत्यछो॥ तमने स्तवतां एवा गुणो पामीए ॥१६॥ गाथा-उपर वली चउ वृद्धिनांजी, फरसे स्थानक सार; तदनंतरनंतगुण-जी, स्थानक एक उदार० गुणो दधि० मेरु० ॥ १७ ॥ भावार्थः-असंख्यात गुण वृद्धि कंडकनां चरम स्थानकने उपर वली चार वृद्धिनां एटले अनंत है। |भाग वृद्धि १ असंख्यात वृद्धि २ संख्यात भाग वृद्धि ३ संख्यात गुण वृद्धि ४ ए चार वृद्धिनां सर्व स्थानक हे सार हे उत्कृष्ट ? फरसे ॥ तेवार पछी आंतरारहित अनंत गुणवृद्धिर्नु एक प्रथम स्थानक महोटुंआवे॥ ६ एटले पाश्चात्य अनंतर संयम स्थानकमा जेटलां अविभागछे ॥ ते सर्व जीवरुप अनंत साथे अनंत गुणा करतां जेटलां अविभाग थाय तेटलां अनंत गुण वृद्धिनां प्रथम स्थानकमा अविभाग वघे ॥१७॥ ॥१६८॥ For Pavle And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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