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________________ Shi Mahavir Jain Aradhana Kendis www.kobahrth.org. सहस दश, हुए पहेले पायारतो; बीजे त्रीजे सहस तेम, पंच पंच विचारतो ॥ १३ ॥ पावडीआरा हाथ भुई, उंचां तिम विस्तार तो; पंचवन्न तिहां रयण तणा, झलके चिहुं दिशि बारतो ॥ १४ ॥ वीस सहस होए पावडीआ, मेलिय त्रिहुं प्राकारतो; भूमि थकी उंचो अढीगाउ, उंचो ते पायार तो ॥ १५ ॥ त्रिण त्रिण तोरण चिहुं दिसी ए, नील रयणमयनुं मुगततो; मणिमय थंभे पूतलीए, दीशे करति रंग तो ॥ १६ ॥ वस्तु — भवणवासी भवणवासी पमुह देविंद, भत्तिभर भरि अहिअ सयल लोय अच्छरीय कारण; उज्जोयंता गयण तल, भवीअ जीव भव दुःख वारण; रुप्प सुवन्नह रयणमय तिनि रचे पायरे; नाना वीह कोसीस तिहां सोहे सुवृत्ताकार ॥ १७ ॥ ठवणी - त्रीजे गढे वण रचे पीठ, पिहुं धणुसय दुन्नितो; उंच जिण तणु माणि तथ्य, आसण इग तिन्नि चिहुंतो; आसण विचे देव छंद, तिहां रुख अशोकतो; कुंपल फल दल तणी, किसी बोलो रोकतो ॥ १८ ॥ चिहुं दिसि झलके छत्त तिन्नि, चामर सुर ढालेतो; कोतिगमो हिया लोक लक्ष, जिण रिद्धि निहालेतो; देव वणयर त्रिहुं दिशि ठवे, For Pitvale And Personal Use Only Acharya Shn Kailassagarsuri Gyanmandir
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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