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________________ Acharya Shn.kailassocigurievanmandir Sahankan श्रीज्ञान- कौ एह भव थइ रे, मुंगी रोगी अनाण; त्रुटक-मुंगी कोई न परणे तेहनें, सोले वर्षे गुरु मलीया है स्तवनम् पंचमी एहने; विधे आराधि पंचमि अजुआली, भोग भोगवी अंते चारित्र पाली॥जिननेमी ॥ १५॥ ढाल ॥१६२॥ पूर्वली-विजय विमाने भोगविरे, सूरपणे सूख अपार; तिहाथी च्यवि जंबुद्वीपमा रे, रमणि विजय मोजार; त्रुटक-रमणि विजय सूग्रीव कुमार, राजनो सोपि पुत्रने भार; संयम ग्रही लयं केवल सार, थयो ते शीवरमणी भरतार ॥ जिननेमी ॥१६॥ ढाल पूर्वली-नेमी जिणेश्वर स्वयं मुखे रे, अल्प कह्यो अधिकार; ज्ञान पंचमी आराधता रे, केई पाम्या भव पार; त्रुटक-पाम्यां नेमनें वांदीने गेहें| कृष्ण प्रमुख आराधे नेहें; प्रेमे पंचमितप आराध्यो, कांति लह्यो जिम भक्ति साध्यो।जिननेमी॥१७॥ ___ कलश-श्री नेमिजिनवर सयल सुखकर भविक हितकर जयकरु, संसारतारक दुःखवारक सुखका-| दूरक सुरतरु; तपगच्छनायक सुमतिदायक बिजयप्रभ सूरीश्वरु, शिष्य प्रेमनो कहो कांति सेवक भक्तिविजय जयंकरु ॥ १८॥ ॥१६२॥ "इति श्री ज्ञान पंचमी स्तवन सम्पूर्ण" For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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