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________________ ShriMahavirain AartmenaKendra www.kobateh.org. Acharya Sh Kailasageri Gyanmandi स्तवनम् सीमंधर- मानो, ओघ वचन जुओ भाली। मानोबोल ॥६॥ जिम जिम भाव क्रियामां, भलश्ये, साकर जिन जिम पय माहि; तिम तिम स्वाद होशे अधिकेरो, सुजस विलास उछांहि ॥ मानोबोल ॥ ७॥ __ ढाल-४ वटउनी ॥ ए देशी ॥ निश्चय नय वादी कहेरे, पट् दरिशण माहिं सार; समता : साधन मोक्ष- रे, एहवो कीधो निरधार रे;मनमांहि धरिजे प्यार रे;अमे कहुंछं तुम उपगाररे; बली हारी गुण गौणनी मेरे लाल ॥ ए आंकणि ॥१॥ पन्नर भेदछे सिद्धनांरे, भाव लिंग तिहां एक; द्रव्य लिंग भजना कही, शिव साधन समता छेकरे; तेहमांछे सबल विवेक रे, तिहांलागी मुज मन टेकरे; भम्याछे अवर अनेकरे ॥ बलीहारी ॥ २॥ तिहां मारग भांजे; सवेरे, धारणा ने असराल; जोगनालि समता तिहां, डांडो दाखे तत्कालरे; होइ योग अयोग विशराल रे, लघु पण अक्षर संभाल रे; पहुंचे शिवपद, देइ फालरे ॥ बलीहारी॥३॥ स्थिविर कल्प जिन कल्पनी रे, क्रिया छे बाहु रूप; समाचारी जुजुइ, कोइ न मिले एक स्वरूप रे; तिहां छे उंडो कूप रे, तिहां पास धरे मोह भूपरे; ते तो विरुओ विषम विरूपरे॥ बलीहारी॥४॥नय व्यवहार कहे हवेरे, तिहांश्युं बोल्यांए मित्त; समता तुमने CREACHER For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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