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________________ S aha na Kande Acharya Sh Kasagar Gyanmandie शांतिना- ढाल-॥३॥ छोरी जाटडी नी॥ए देशी॥छोरीरे बेटी तुं तो रायनी,॥हे कांई उभी सरोवर पालरे, पंच क० थना. श्युं दुख चिंतवे-सिरदार सहुनें सुख करें ॥ महाराज मुनि इम ज उच्चरे ॥ पूरव भव मच्छर करी, स्तवन. हे कांइ फली तरु शाखा डाल रे-सोम सुंदरि भवें ॥ सि० म० ॥१॥ए आंकणी ॥ तात मरण पूर लुटी उंहे, काइ पडि तुं अटवी मोझार रे; दुःख पामी घणुं खेचर इयुं, इणें भवें लह्यो, हा०॥ सुख संभोग एक वार रे; वलि वनचर पणुं ॥ सि० ॥२॥ म०॥ ज्ञानी गुरु वयणां सुंणी हां०॥ राजकुमरि पुछाय रे ॥ गुरु चरणे नमी ॥ आ दुःखथी किम छुटिएं हे० ॥ कहिएं करि सुपसाय हैरे, दुःख वेला खमी ॥ सि० म०॥३॥ अक्षय निधि तप विधि करो, ॥ हे० ॥ ज्ञान भक्ति विस्तार रे; शक्ति न गोपवी ॥ श्रावण वदी चोथे थकी, हे० ॥ संवत्सरी दिन सार रे; पूरण तप तपी, P॥ सी० म०॥ ४॥ चोथ भक्त एकासणे, हे० ॥ शक्ति तणे अनुसार रे; घट अक्षत भरो ॥ विधि ॥ २५॥ गुरु गमथी आचरो ॥ हां०॥ गुणगुं दोय हजार रे, पडिक्कमणां करो ॥ सि० म०॥५॥ एक वरस जघन्यथी ॥ हां०॥ तीन वरस उकिह रे; इणि विधि तप करो, शासन देवी कारणे ॥ हां०॥ चोथें दव ऊर For Pave And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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