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SM Mahavam
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kende
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Achan Kailas
Gyamandi
AGAR-
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वरस विषेस रे, वलि ए आदरो॥ सि० म०॥६॥ तेह भव मन वांछीत फलें, हां०॥ परभव ऋद्धि न माय रे; हरि चकि परें ॥ इमनि सुंणी कुमरी तिहां ॥हा॥ वंदी गुरूनां पाय रे; गइ गामांत रे सि० म०॥७॥ पर घर करतां चाकरी, हां०॥ आजिविका निर्वाह रे ॥ सुख दुःखमां करे, अल्प विधिएं तप तिणे कर्यो ॥ हां०॥ प्रथम वरस फरी चाह रे, बीजें भली परें ॥ सि० म०॥८॥ चोथें वरस तप मांडतां॥हां कांइ कहं ए धनवंतरे, एक दिन आवियो, विद्याधर क्रीडा वश्य हांगा पूरव नेह उल संत रे, देखी निज प्रीया ॥ सि० म०॥९॥थापी लेइ अंते उरें, ॥हां०॥सा कहे शील व्रत मुजरे; इणि काया धरी ॥ शेष आयु अणसणे मरी॥हा॥ संवर पुत्री तुज रे, कहुं सुंण सुंदरि॥ सि० म०॥ १०॥ - ढाल-॥ ४॥ कोश्या वेश्या कहें रागी जी, मनोहर मन गमता ॥ ए देशी ॥ निज पूरव भव | सुंणी तेह जी, सुंदरी सुकुमाली ॥ जाति स्मरण वरें तेह जी ॥ सुं०॥ तप फलें लहो ऋद्धि रसाल जी ॥सुं०॥ कहें धर्म घोष अणगार जी ॥सुं०॥कहें सुंदरी सर्वेसाचुंजी।सुं०॥तुम ज्ञान मांहे नहि
कक
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