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________________ SM Mahavam A kende www.kobateh.org. Achat na m ed RECCANARASACHERE “अथ श्री षट पर्वी अधिकार गर्जित श्री वीरजिन स्तवनम्" दाला पुण्य प्रशंसीये॥ए देशी ॥श्रीगुरु पद पंकज नमी रे, भाखं पर्व विचार: आगम चरित्रने प्रकरणे रे, भाख्यो जेम प्रकारो रे भवियण सांभलो॥१॥ निद्रा विकथा टालिरे, मकी आमलो॥ ए आंकणी ॥ चरम जिणंद चोवीशमो रे, राजग्रही उद्यान; गौतम उद्देशी कहे रे, जिनपति श्री वर्द्धमान रे भवि०॥२॥ पखमां षट्र तिथी पालिये रे, आरंभादिक त्याग; मासमा षट। पर्वि तिथि रे, पोसह केरो लाग रे; भवि०॥३॥ दुविध धर्म आराधवा रे, बीज ते अति मनोहार पंचमी नाण आराधवां रे, अष्टमि कर्म क्षय कार रे; भवि०॥४॥ अग्यारस चौदशे तिथी रे, अंग पूर्वने रे काज; आराधी शुभ धर्माने रे, पाम्यो अविचल राज्य रे; भवि० ॥५॥ धनेश्वर प्रमुख यथा रे, पर्व आराध्यां रे एहा पाम्या अव्याबाध ने रे, निज गुण ऋद्धि वरेह रे; भवि०॥६॥ गौतम पूछे वीरने रे, कहो तेहनो अधिकार; सांभली पर्व आराधवा रे, आदर होय अपार रे; भवि०॥७॥ ढाल-बीजी ॥ एक वीसानी देशीमां ॥ धन्यपुरमा रे, शेठ धनेश्वर शुभमति, शुद्ध श्रावक रे, For Pavle And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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