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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra शांतिना थना. ॥ ७४ ॥ www.kobarth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | पर्व तिथे पोसहस्रती; धनश्री तसरे, पत्नी नाम सोहामणो, धनसार सुत रे, तेहनो जन्म नकामणो ॥ १ ॥ त्रूटक — कामणो निज हित करण माटे, शेठजी आठिम दिने; लेइ पोसह शुन्य घरमां, रह्यां काउस्सग्ग स्थिर मनें; इणे अवसर सोहम इंदो, बेठो निज सुर पर्षदा; करे प्रशंसा शेठनी इम, सांभले सहु सुर तदा ॥ २ ॥ ढाल—जो चालवे रे, सुरपति जइने आपही, पण शेठजी रे पोसह मांहि चले नही; इम निसुणी रे, मिथ्यात्वी एक चिंतवे, हुं चला रे, जइने हरकोइ कौतके ॥ ३ ॥ टक–शेठना मित्रनुं रूप करीने कोटी सुवर्णनो ढग करी, कहे ल्यो ए शेठ तोपण, नवि चल्या जिम सुरगिरि; पछी पत्नीनुं रूप करीने, आलिंगादिक बहु करे; अनुकूल उपसर्गे तोहि शेठजी, ध्यान अधिकेरुं धरे ॥ ४ ॥ ढाल — करे बिहाणुं रे, ताप प्रमुख देखावतो, नारिने सुत रे, आवी इणीपरें भाषतो; पारो पोसह रे, अवसर तुमचो बहु थयो, तव शेठजी रे, चिंतवे काल केतो थयो ॥ ५॥ त्रूटक सनायनां अनुसार करीने, जाण्युं छे हजी रात ए, पोसह हमणां पारिए किम, नवि थयो प्रभात ए; तव पिशाचनुं रूप करीने, चामडी उताडतो; घात उच्छालन शिला स्फालन, सायर मांहि ना For Private And Personal Use Only पंच क० स्तवन. ॥ ७४ ॥
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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