SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ SM Mahavam A kende Achan Kailas Gyamandi शांतिना- सांभलतां सुख उपजें, समकित निर्मल होय; करतां जिननी संकथा, सफल दहाडो होय ॥३॥पंच क. थना. __ढाल-॥१॥ उलालो॥ ए देशी ॥ महाविदेह पश्चिम जाणुं, नयसार नामें वखाणुं; गाम तणो ॥५२॥ ते छे राणो, अटवी गयो सपराणो॥४॥जिमवा वेला ए जाणी, भगती रसवती आणी; दाननी तिहां वासना मन आवी, तपसी जोइ ते भावी ॥ ५॥ मारग भूला ए हेव, मुनि आव्यां ततखेव; आहार | दीदीए पाये लागी, ऋषिनी तृषा भुख भांगी ॥६॥ धर्म सुंणि तिहां मन रंगें, समकित पाम्युं ए चंगें; ऋषिने चालतां जाणी, हैयडे उलट आंणी ॥७॥ मारग देखाड्यो वहेतो, पाछो वली ए इम कहेतो; पहेंलें भवें धर्म पावें, अंते देवगुरु ध्यावें ॥ ८॥ पंच परमेष्ठि नें ध्याने, जावें सौधर्मे विमानें; आउखुं एक पल्योपम, सुख भोगवें अनूप ॥ ९॥ भव बीजें त्रीजे आयो, भरत कुले सुत जायो; ओच्छव मंगलीक कीधो, नाम ते मरीचि दिधुं ॥ १०॥ वाधे ते सुरतरु सरिखो, आदिजिन देखी । ने हरख्यो; आदीश्वर देशना दीधी, भावें दीक्षाएणे लीधी ॥ ११ ॥ ज्ञान भणे सुविशेषे, विहार करे ॥ ५ ॥ देश विदेशे; दीक्षा लेड ए नजरें, अलगो वांमिथी वीचरें ॥ १२॥ महावत भार ए मोटो, पण SAES For Pavle And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy