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________________ ShriMahavirain AamanaKendra Ach Sn Kai m andi श्रीचतु-| देश गुण- स्थान मिथ्यात्व गुणठाणुं कहुं, बीजुं साखदन नामे लहुं; मिश्र गुंणठाणुं त्रीजुं सुणुं, अविरति समकित शांतिद्रष्टी चोधुं गणुं ॥ ४॥ देश विरति गुणठाणुं पांचमुं, छटुं प्रमत्त अप्रमत्त सातमुं; आठमुंअपूर्वकरण नाथ गुणठाण, नउमुं अनिवृत्तिबादर वखाण ॥ ५॥ दसमुं गुणस्थानक सुक्ष्मसंपराय, उपशांत मोह स्तवनम् इग्यारमुं कहेवाय; क्षीणमोह गुण स्थानक बारमुं, तेरमुं सयोगी अयोगी चौदमुं॥६॥ कह्या गुणठाणां ए नामथी सार, हवे कहूं भेदथी अल्प विचार; प्रथम मिथ्यात्व किम गुणठाणुं होए, ते कहूं गुणस्थानक ग्रंथे जोय॥७॥व्यक्त अव्यक्त मिथ्यात्व बे प्रकार, अव्यक्त ते अव्यवहार राशि मोजार; व्यक्त मिथ्यात्व व्यवहार मांहि लहुँ, तिणे ए प्रथम गुणठाणुं सद्दहुं॥ ८॥ तेहना भेद छे दश प्रकार, जुओ श्री ठाणांग सूत्र मजार; धर्मनें विषं जिहां अधर्मनी बुध्धि, अधर्मने विषे जे धर्मनी शुद्धि ॥ ९ ॥ इत्यादिक दस बोल छे जिहां, वली संशयादिक पांचे कह्यां; एहनी नथी। आदि भव्यनी छे अंत, अभव्यने नथी आदि ने अंत ॥ १०॥ एकसो वीश प्रकृति बंधनी कही, तेहमां एत्रण बांधे नही; तीर्थंकर नाम आहारक शरीर, अंगोपांग एहनां जाणुं धीर For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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