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श्रीचतुदश गुणस्थान
॥१३१॥ |
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॥ ११ ॥ सत्तरोत्तरीसो प्रकृति बंध उदे होय, सत्तामां एकसो अडतालीश जोय; एहने उदए च्यार गतिए भम्यो, अनंत पुद्गल परावर्त नीगम्यो ॥ १२ ॥ राज ऋद्धि पाम्यो बहु वार, पांम्यो अर्थ गर्थ भंडार; जिहां लगें न गयुं ए मिथ्यात, तिहां लगिं एके नावी लेखे वात ॥ १३ ॥ ४ स्तवनम् जिहां राजा मोह तिहां ए छे प्रधान, तेणे एहनी वर्ति बहू आण; एह विचार प्रथम गुणठाणा तणो, हवे एहनी करणी तुझे सुणो ॥ १४ ॥
ढाल – २ – बिजी - ॥ राग मारु ॥ कुंअर गभारो नजरे देखतांजी ॥ ए देशी ॥ जूओ जुओ करणी ए मिथ्यात्व नी रे, सर्व कष्ट रद कर एह जिम ताव मांहि खीर भोजन करीरे, बहु दुःख पामे देह; जुओ जूओ करणी ए मिथ्यात्वनीरे ॥ ए आंकणी ॥१५॥ जे जे दर्शनीने जई पूछीए रे, कहे ते नव नवा आचार; एक कहे ईश्वर इच्छा छे जेहवी रे, ते तिम थाय निरधार ॥ जूओ जूओ० ॥ १६ ॥ एक कहे स्नान होम त्रपण करि रे, एक कहे वेदोक्तिथी मोक्ष; एक कहे टाढ ताप भुख तृषा सहोरे, एक कहे जाणि बहु दोष ॥ जूओ जूओ० ॥ १७ ॥ एम अन्य दर्शणे वात छे घणी रे, ते में कहीअ
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शांति
नथ
॥१३१॥