SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीचतुदश गुणस्थान ॥१३१॥ | www.kobatirth.org. ॥ ११ ॥ सत्तरोत्तरीसो प्रकृति बंध उदे होय, सत्तामां एकसो अडतालीश जोय; एहने उदए च्यार गतिए भम्यो, अनंत पुद्गल परावर्त नीगम्यो ॥ १२ ॥ राज ऋद्धि पाम्यो बहु वार, पांम्यो अर्थ गर्थ भंडार; जिहां लगें न गयुं ए मिथ्यात, तिहां लगिं एके नावी लेखे वात ॥ १३ ॥ ४ स्तवनम् जिहां राजा मोह तिहां ए छे प्रधान, तेणे एहनी वर्ति बहू आण; एह विचार प्रथम गुणठाणा तणो, हवे एहनी करणी तुझे सुणो ॥ १४ ॥ ढाल – २ – बिजी - ॥ राग मारु ॥ कुंअर गभारो नजरे देखतांजी ॥ ए देशी ॥ जूओ जुओ करणी ए मिथ्यात्व नी रे, सर्व कष्ट रद कर एह जिम ताव मांहि खीर भोजन करीरे, बहु दुःख पामे देह; जुओ जूओ करणी ए मिथ्यात्वनीरे ॥ ए आंकणी ॥१५॥ जे जे दर्शनीने जई पूछीए रे, कहे ते नव नवा आचार; एक कहे ईश्वर इच्छा छे जेहवी रे, ते तिम थाय निरधार ॥ जूओ जूओ० ॥ १६ ॥ एक कहे स्नान होम त्रपण करि रे, एक कहे वेदोक्तिथी मोक्ष; एक कहे टाढ ताप भुख तृषा सहोरे, एक कहे जाणि बहु दोष ॥ जूओ जूओ० ॥ १७ ॥ एम अन्य दर्शणे वात छे घणी रे, ते में कहीअ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Pitvale And Personal Use Only शांति नथ ॥१३१॥
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy