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________________ शांतिना- थना. असार, चतु; भावभलें ॥ ५॥ चउनाणी विजयसेन सूरीसरु, आव्या तिण पुर जाम, चतु पंचक राजा शेठ प्रमुख वंदन गया, सांभली देशना ताम, चतु; भावभलें ॥६॥ पूछे तिहां सिंहदास स्तवन. गुरु प्रत्ये, उपन्यो पूत्रीने रोग; चतु;॥ थइ मुंगी वली परणे को नहिं, ए शाकर्मनां भोग, चतु भावभलें ॥७॥ गुरु कहे पूर्वभव तुमे सांभलो, खेटक नयर वसंत, चतु; ॥ साह जिन देव छ । व्यवहारिओ, सुंदरी घरणीनो कंत चतु० भावभलें॥८॥बेटा पांच थयां छे तेहनें, पूत्री अति भली 8 च्यार चतु; ॥ भणवा मुंक्यां पांचे पुत्रनें, पण ते चपल अपार चतु० भावभलें ॥९॥ | ढाल- बीजी ॥२सीरोहीनो सेलो हो के उपर योध पुरी ॥ ए देशी॥ ते सुत पांचे हो के पठन करे नहि, रामति करतां होके दिन जाये वही; शीखवे पंडित हो के छात्रने रीस करी, आवी | मातनें होके कहे सुत रुदन करी ॥ १०॥ माता अध्यारु हो के अमनें मारघणो, काम अमाकै हो के नहिं भणवा तणु; संखणी माता हो के सुतने शिख दीयें, भणवा मत जाओ हो के शुंकंठ सोसवे ॥ ११ ॥ तेडवा तुमनें हो के अध्यारु आवें, तो तस हणज्यो होके पुनरपि जिम नावे; शीख देइ For P e And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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