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________________ जिन आंतरानुं स्तवनम् चोवीश होलाल के जाणो शांती०; शांतीधर्म पल्योपम उणे सागर त्रण्ये होलाल,के उणे सागर॥२॥सागर चार अणंतने धर्म जीणंदने हो लाल, के धर्म; नव सागर वली अनंत विमल जिण चंद्रने हो लाल, के विमल जिण; सागर त्रीश विमल वासुपूज्य जिणेशने हो लाल, के वासुपूज्य जि०; सागर चोपन श्री वासुपूज्य श्रेयांसने हो लाल, के वासुपूज्य ॥३॥ लाख पांसेठ सहस छबीस वर्ष सो सागलं हो लाल, के वर्ष०; उनी सागर क्रोड श्रेयांस शीतल करे हो लाल, के श्रेयांस०; सुविधी शीतल ने नव कोड सागर भावजो हो लाल, के सागर० सुविधी चंद्रप्रभु सागर क्रोड नेQ गावजो, द्र हो लाल, के नेवु०॥ ४॥ सागर नवसे क्रोड सुपार्श्व चंद्रप्रभु हो लाल; के सुपार्श्व०; सागर नव सहस्र कोड सुपास पद्म प्रभु, हो लाल, सुपास०; सुमती पद्म प्रभु ने सहस्र क्रोड सागरुं हो लाल, के क्रोड सागरुं०; सुमति अभिनंदन नव लाख, क्रोड सागर वरु, हो लाल, के क्रोड०॥५॥ दश लाख क्रोड सागर संभव अभिनंदने, हो लाल, के संभव०; त्रीश लाख क्रोड सागर संभव जिन अजितने हो लाल, के संभव०; पचाश लाख कोड सागर अजित जिन ऋषभने SARॐॐॐ For And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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