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संयमश्रणीनुं
स्तवनम्
॥१६४॥
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उपन्युं अविरति देशविरति प्रमुख० कषाय बारनां अभावे उपनुं जे सर्वविरतिरूप जे छटुं गुणस्थानक तेहना आदिम ठाणमां कहेतां सर्व जघन्य स्थानकमां एटले प्रथम स्थान मध्ये पर्यव के० निर्विभाग एटले जेना केवली प्रज्ञाये पण एक सडनां बेअंश नथाय एवा पर्याय चारित्रना जे अंश प्रमाण संख्या ते कहे छे ॥ ४ ॥
गाथा - सर्वाकाश प्रदेशथीजी, अनंत गुणा अविभाग; बृहत्कल्पनां भाष्यमांजी, भाखेतुं महाभाग० गुणो० दधि० मेरु० ॥ ५ ॥
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भावार्थ:- सर्व आकाश के० लोक तथा अलोकनां आकाश प्रदेश जेटले अनंतछे एटले अनंतानी गणना अनंत प्रकारनीछे ॥ तेमां लोकालोकना आकाश प्रदेशनी गणनानु जे अनंतु छे तेने अनंत गुणो करियें एटला ए वीभाग छठा गुणस्थानकना सर्वथी जघन्यमां जघन्य स्थानक जे पहेलुं स्थानक तेमां छें एरीते हे महा भाग महा पूज्य तुं कहे छे यदुक्तं - बृहत् कल्पनाभाष्य मध्ये " ते कत्तीआ परसा, सवागासस्स मग्गणा होइ; तेजत्तीआ पएसा, अविभागतओ अनंतगुणा ॥ १ ॥ ते अविभाग सर्वो
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अर्थ
सहित
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