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________________ SM Mahavam A kende www.kobateh.org. Achat na m ed RECTE5 दाहाणे, गइ विरति नवि जाणे रे; ध०॥अकृत करणथको ते प्राणी, फिरी लहे विरति सुहाणी रे; ध०॥२०॥ Fा आभोगे जे विरतिथी खसीया, तिमज मिथ्यागुणे वसियारे; ध०॥ अंतरमुहूर्त्तमां लहे आछी, जघन्यथकी फिरि पाछीरे; ध० ॥ २१ ॥ उत्कर्षे बहु कालें भाखी, आद्य करणछे साखी रे; ध० ॥ इणीपरे कर्मप्रकृति वृतिमाहिं, तिहां जोज्यो उच्छाहिरे; ध० ॥२२॥ कोइ विराधित समकित फेरी, ते लहेमिथ्या वेरीरे; ध०॥छट्टीनरक लगें ते जाए, समय मतें कहेवायरे; ध०॥ २३ ॥ आउ बंधविना उच्छाहि, फिरि समकित अवगाहेरे; ध०॥ वैमानिकविण आउ न बांधे, कर्म मती मत सांधे रे; ध०॥ २४॥ समकित पतित कहे मतबांधे, उत्कृष्टी स्थिति बांधे रे; ध०॥ भिन्नग्रंथीने आगम ज्ञानें, स्थिति उत्कर्ष न मानेरे; ध०॥ २५॥ इणी परें भेद मतांतर जाणे, पण संदेह न आणेरे; ध०॥ निःशंकित तुज वयण आराधे, न्यायें तस गुण वाधेरे; ध० ॥ २६ ॥ ढाल-॥४॥ विनयवहो सुखकार ॥ ए देशी ॥ दर्शन मोह विनाशथीजी, जे निर्मल गुणठाण: ते समकित ओघे कह्युजी, ते भवियण हित आणरे॥जिनजी तुज आणाश्युरे रंग, मुज नगमे AECSC%%% ॐ For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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