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________________ Shi Mahavir Jain Aradhana Kendra मौनएका दशीं ॥१२०॥ www.kobarth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ए भरत मबारके, त्रण चीविसी जांणीइं ॥ १ ॥ श्री दयांत हो अभिनंदन पूज्यके रत्न शेखर त्रिभुवन धणी, श्याम कोष्टक हो मरुदेव दयालके अति पार्श्व किर्ति घणी; नंदिखीण हो व्रतधर निर्वाण के सेवंतां संकट टले, जंबुद्वीपे हो चउविसि त्रण्यके सेवतां संपत्ति मले ॥ २ ॥ श्री सौंदर्य हो त्रिविक्रम नामके नारसिंह सेवो सहि, श्री क्षेमंत हो संतोषीत देवके कामनाथ वंदो वहि; मुनिनाथज हो जिनवर चंद्र दाहके दिला दिव्य चित्तमां धरो, खंड धातकि हो पूर्व ऐरवत मांहिंके त्रण | चोविशि मंगल करो ॥ ३ ॥ अष्टाहिक हो श्री वणिक जाणके उदय ज्ञान सेवो सुखने, तमोकंद हो श्री साय काक्षके खेमंत वांदि गमो दुःखनें; श्री निर्वाणिक हो श्री जिन रवि राजके प्रथम नाथ शिव साथछे, पुरकरवर हो चउविसि त्रण्यके त्रण जगतनां नाथछे ॥ ४ ॥ श्री पुरुर वाष हो श्री अवबोध देवके विक्रमेंद्र इंद्रे नमो, श्री स्व शांति हो हरनाथ मुणिंदके; नंदिकेश मुज मन गम्यो; महा मृगेंद्र हो श्री अशो चितके 'महेंद्र नाथ नाथाय नमुं, धातकि खंड हो ऐरवत क्षेत्रके त्रण्य | चोविसि चरणे नमुं ॥ ५ ॥ अश्ववृंद हो श्री कुटलिक वृंद के वर्द्धमान मुज मन रम्यो, श्री नंदि For Pitvale And Personal Use Only स्तवनम् ॥१२०॥
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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