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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra शांतिनाथना. ॥ ५० ॥ www.kobarth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माहरु जिहांमन लीनरे; क्षण पण तसविण नविरहें, जिमजल भर विण मीनरे; धन्य धन्य शासन ताहरु० ॥ १ ॥ एआंकणी ॥ देशविरति दरिशणथकी, पलिय पुहुत्तमां जाणिरे; अनुक्रमें चरणश्रेणि बिहुँ, संख्यसायरे गुण खाणिरे; धन्यधन्य० ॥ २ ॥ तेहज भवेंहुए तेहनें, जेहनें सत्तग खीणरे; चउतिय भव उत्कर्षथी, पुवबद्धाउने पीणरे; धन्यधन्य० ॥ ३ ॥ बद्ध आउ सुर नरकनुं, तेहनेतिय भव तंतरे; आउ असंख्यनर तिरितणुं, तसपण चउभवें अंतरे; धन्यधन्य० ॥ ४ ॥ समकित स्थितिहोयें ओघथी, अंतरमुहूर्त्त एकरे; साहिय खओवसमासिरी, सायरछासठिछेकरे, धन्यधन्य ॥ ५ ॥ इग अथवा बहु आसरी ॥ दरसणनो उपयोगरे; जघन्य उत्कृष्ट थकी कह्यो, अंतरमुहूर्त्त भोग रे; धन्यधन्य० ॥ ६ ॥ दर्शनलब्धि शुभ सुरलता, क्षायोपशमादिकरूपरे; अंतरमुहूर्त्त माननी, जघन्यथी| कहे जिनभूपरे; धन्यधन्य०॥७॥छा सठिसायर सविमिली, नरभव हिय उत्कृष्टरे; तेहथी उर्द्ध जो न विदिये, समकित रयणने पुष्टिरे; धन्यधन्य ॥ ८ ॥ तो ते निश्चय शिवपदलहें, ए एकजीवनें योगरे, जीवनानाश्रित सर्वदा, दरसणनो उपयोगरे; धन्यधन्य० ॥ ९ ॥ अंतरमुहूर्त्त एकनुं, जघन्य अंतरमन आणरे; For Private And Personal Use Only पंच क० स्तवन. ॥ ५० ॥
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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